मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

व्यंग्य एक नेता का मनोबली आत्मालाप्

व्यंग्य
एक नेता का मनोबली आत्मालाप
वीरेन्द्र जैन

ये कोई मिग या मिराज विमान नहीं है कि हमसे बिना पूछे चाहे जब चाहे जितने गिरते जायें। ये राजनेताओं का नैतिक पतन भी नहीं है कि एक बार गिरा तो पहाड़ से गिरे पत्थर की तरह तलहटी तक लुढकता ही गया। ये पुलिस का मनोबल है जिसे हम किसी भी तरह गिरने नहीं दे सकते अगर उसका मनोबल गिर गया तो हमारा क्या होगा- क़ालिया ।
उसके मनोबल के बने रहने पर ही तो हम टिके हुऐ हैं वरना हमारे कामकाज तो ऐसे हैं कि लोग गली गली सौ जूते मार कर एक गिनें और फिर गिनती ही भूल जायें। पुलिस का मनोबल कोई झुमका भी नहीं है कि बरेली के बाजार में गिर भी जाय और जिसका गिरा है वो ठुमुक ठुमुक कर गाने भी गाता रहे । यह हमारे लिए चिन्ता का विषय है। इसलिए, हे! पुलसिया लोगो, हम तुम्हारा मनोबल गिरने नहीं देंगे और लगातार नीचे से हथेली लगाये रहेंगे। तुम घबराना मत, हम साधे हुये है।
हम तो उन सारे थानेदारों से जिनके ट्रांसफरों के लिए हमने ही दलाली की थी, रोज फोन करके पूछते रहते हैं- ' कहो शुक्ला जी कैसे हो ? ''
'' ठीक है, कौन बोल रहे हैं?'' थानेदार कहता है।
'' अरे हमें नहीं पहचाने, हम राम संजीवन त्रिपाठी बोल रहे हैं, गृहमंत्री जी के साले''
'' अरे त्रिपाठी जी दण्डवत प्रणाम, आपकी आवाज आज कैसी आ रही है ''
'' अब उम्र है भईया, फिर दो ढ़ाई पैग भी भीतर पड़े हुऐ है। अच्छा तुम ये बताओं कि कहीं तुम्हारा मनोबल तो नही गिर रहा ''
'' अरे नहीं त्रिपाठी जी पर यहॉ रिश्वत का रेट बहुत गिरा हुआ है, लगता है कि सालभर में ट्रासर्फर में खर्च किये हुऐ पैसे भी नही निकलेंगे'' ।
'' अरे निकलेंगे भई, सब निकलेंगें वो भदौरिया कोई उल्लू तो नहीं था जो इस थाने के पॉच लाख बोल के गया था। वो तो तुम अपने जातभाई हो इसलिए तुम्हें साढे चार में दिलवा दिये। कभी कभी दो चार डकैतियॉ डलवा दिया करो। ये जो दो नम्बर की कमाई वाले लोग हैं इनका वजन हल्का करते रहना है। ये तो पूरी लुटाई की रिपोर्ट भी नहीं लिखवा पाते वरना इनकम टैक्स वाले पूछने लगेगे कि कहॉ से आया ''
'' मुझे तो डर लगता है ''
'' इसका मतलब तुम्हारा मनोबल गिर रहा है। हम ऐसा करते हैं कि एकाध उठे हुये मनोबल वाला असिस्टेंट भिजवाये देते हैं जो थाने में पकड़ कर एकाध की वो मरम्मत करेगा कि साला वहीं टें बोल जाय। इससे तुम्हारा भी मनोबल उठ जायेगा। फिर उसकी महरारू रोती हुई आयेगी सो तुम वही थाने में उसके साथ थोड़ा बहुत बलात्कार कर डालना जिससे तुम्हारा मनोबल तो बल्लियों उछलेगा''।
'' पर त्रिपाठी जी नेतागिरी ?
'' अरे शुक्ला तुम येई पेंच तो नई समझे। वहॉ पै ससुर नेतागिरी करने वाला कोई नहीं है। वो भदौरिया इसी खातिर तो पॉच दे रहा था, वो तो हम तुम्हारी खातिर अपना नुकसान कर लिये। वहॉ ससुरी नेतागिरी वाली दो ही तो पार्टियॉ है सो एक तो तुम हमारे आदमी हो और दूसरी पार्टी वाले हमारे फूफा के समधी होते हैं। बस कभी कभी उनका आदर सत्कार कर दिया करो, मन्दिर बनवाने के लिए चन्दा दे दिया करो और उनके काम के लिए एकाध गुण्डे को छुट्टा छोडे रखों, बस हो गया फिर जो चाहे सो करो। तुम्हारा राज । ''
'' पर अखबार वाले ''
'' भई शुक्ला, चींटियों का मुंह कितना सा, दो चार दाने डाल दो तो अघाये अघाये फिरते हैं। ''
इस तरह हम रोज उनका मनोबल बना कर रखते है जिसका मनोबल गिरा वो पुलिस के काम का नहीं रहा। एक छुकरिया बहुत मानव अधिकार- मानव अधिकार करती थी सी एक दिन हमने एक कानिस्टबल से कह रह उसी का मनोबल गिरवा दिया। अब भूल गई मानव अधिकार। पुलिस के अधिकार के आगे काहे का मानव अधिकार ।
हमारा तो कहना है कि शासन ऐसा हो कि चोर उचक्के, अपराधी, गुण्डे सब डर कर रहें, पर पुलिस से डरकर रहें। अगर वे जनता से डरने लगे तो फिर पुलिस को कौन पूछेगा। पुलिस का काम ही लोगों को डरा कर रखना है इसीलिए तो उनका मनोबल उठा कर रखा जाता है। जिसका मनोबल उठा हुआ हो उससे सब डरते हैं। दूसरी तरफ गिरे हुये मनोबल वाले को सब लतिया कर चलते जाते है। हम विरोधियों को इसीलिए तो धिक्कारते हैं क्योंकि वे जरा जरा सी बात पर पुलिस का मनोबल गिराने लगते हैं। अरे भई पुलिस को डन्डे फटकारते रहना चाहिए अब इसमें रस्ता चलते लोगों को दो चार डन्डे लग जायें तो इसमें रोने धोने की क्या बात है। कहते हैं उन्हें संस्पेंड कर दो। हम ऐसा नही होने देते, इसी से तो उनका मनोबल बना रहता है कि उनके पीछे कोई तो है।
मनोबल वो कलफ है जिससे पुलिस की वर्दी कड़क रहती है। मनोबल वह पालिश है जिससे उनके जूते चमकते रहते हैं। मनोबल वह ब्रासों है जिससे उसकी बैल्ट के बक्कल सोने जैसे दिखते हैं। इसी पुलिस की दम पर तो हम करोड़ों के कमीशन खा रहे हैं सरकारी जमीनें बेच रहे हैं, नकली स्टाम्प बिकवा लेते हैं सरकारी कारखानों को खाने में लगे रहते हैं फिर उसे कोड़ियों के मोल कबाड़ियों को तौल देते है। ऐसी पुलिस का मनोबल हम कैसे गिरने दे सकते हैं। हरगिज नहीं। हम नही गिरने देगे।
पुलिसियो, अपना मनोबल उठाये रखो , हम तुम्हारे साथ है।

वीरेन्द्र जैन
2-1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

सोमवार, दिसंबर 28, 2009

व्यंग्य जिसने की बेशरमाई उसने खाई दूध मलाई

व्यंग्य
जिसने की बेशरमाई उसने खाई दूध मलाई
वीरेन्द्र जैन
जैसा मेरा अनुमान था कि राज नाथ अनाथराज हो गये हैं और उन्हें लगभग वैसे ही अन्दाज़ में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है जैसा कि रावण ने विभीषण को दिखाया था, वह गलत साबित हुआ। कल जब वे दो उंगलियाँ उठा कर अंग्रेजी की वी बना विक्टरी का संकेत देते हुये दिखाई दिये तब लगा कि उनके लिये अभी भी कुछ काम बाकी बचा हुआ था-
दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
दोस्तों की मेहरबानी चाहिये
राजनाथ की ये दो उंगलियाँ जो पिछले कुछ दिनों से अपने दुश्मनों की जीत का शोर सुनने से बचने के लिये दोनों कानों में डालने के काम आ रही थीं हवा में हैं। यह अवसर उनको झारखण्ड चुनाव परिणाम आने के बाद गुरूजी अर्थात शिबू शोरेन की कृपा से मिल सका है जिन्होंने कह दिया था कि हमें मुख्यमंत्री बनाने के सारे रास्ते खुले हैं जिसे भी बनाना हो चला आये। सो नेह निमंत्रण पा कर भाजपा दौड़ी दौड़ी चली आयी और झारखण्ड के जंगलों में गूंजने लगा- मैं तुझसे मिलने आयी, मन्दिर जाने के बहाने।
इन्हीं राजनाथ ने झारखण्ड के चुनाव हो जाने के बाद कहा था कि हम अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म दिन पर उपहार के रूप में कि झारखण्ड में सरकार देंगे। फर्क केवल इतना रह गया कि बीमार वाजपेयी को भाजपा नहीं अपितु भाजपा के समर्थन वाली सरकार दी है और उन शिबू सोरेन की सरकार दी है जिनको केन्द्र में मंत्री बनाने पर उसने हंगामा खड़ा कर दिया था और दागियों को मंत्री बनाये जाने के खिलाफ सदन नहीं चलने दिया था। पहले अगर उनके दल को कोई आरोपी समर्थन देता था तो वे कहते थे कि गंगा में मिलकर गन्दे नाले भी पवित्र हो जाते हैं, पर हे अनाथ अब ये तथा कथित गंगा कहाँ मिल रही है?
संघ द्वारा स्थापित कठपुतली अध्यक्ष के प्रेस कांफ्रेंस की स्याही भी नहीं सूख पायी थी जिसमें उन्होंने शेखी बघारी थी कि सता की राजनीति तो होती रहेगी पर हम राजनीति को समाज से जोड़ने की बात करते हैं, उन्हींने अपने पहले काम के रूप में भाजपा को शिबू सोरेन से जोड़ दिया और उनके विधायक दल के नेता कहने लगे कि भले ही उन्होंने शिबू सोरेन को दागी बताते हुये चुनाव लड़ा था पर [चुनाव परिणाम आने के बाद]अब हमारी सोच यह है कि सोरेन कोर्ट से बरी हो चुके हैं इसलिए दागी नहीं हैं। ये बात अलग है उनकी यह बात आम जनता को तो छोड़िये उनके ही एक सांसद को हज़म नहीं हुयी और झारखण्ड के गोड्डा क्षेत्र के सांसद निशिकांत दुबे ने अपना स्तीफा श्रीमती सुषमा स्वराज और संगठन महामंत्री रामलाल को भेज दिया है तथा मीर कुमार को भी भेजे जाने की अफवाह फैलवा दी है।
अब ये कौन बतायेगा कि ये सत्ता की राजनीति है या समाज की राजनीति है! हो सकता है कि अगले कुछ वर्षों में तो वे नीतीश भक्ति की तरह इतनी गुरुभक्ति दिखा दें कि संघ के असली गुरूजी को ही भूल जायें। यदि भाजपा नेता किसी शर्मप्रूफ क्रीम के विज्ञापन हेतु माडल के रूप में काम करने लगें उनकी सफलता की बहुत सम्भावनायें हैं। स्लोगन कुछ ऐसा हो सकता है- जिसने की शरम, उसके फूटे करम, जिसने की बेशरमाई, उसने खाई दूध मलाई। कहो गडकरी भाई- हाँ राजनाथ भाई।
राम भरोसे हमेशा की तरह मुझसे असहमत है, वह कह रहा था कि भाजपा के नये अध्यक्ष सत्ता की राजनीति में भरोसा नहीं करते। वे अपने महाराष्ट्र में पार्टी को हरा कर आये हैं तो पार्टी के अध्यक्ष बन गये। सुषमा स्वराज के राज्य हरियाना में पार्टी साफ हो गयी तो वे विपक्षी दल की नेता बन गयीं। आडवाणी ने पूरे देश में पार्टी को हरवा दिया सो वे दोनों सदनों के सद्स्यों के नेता बन गये। यही तो उदाहरण है कि पार्टी को सत्ता से दूर करो पद से जुड़ो। हो सकता है कि नये अध्यक्ष का नया फार्मूला हो आखिर उन्होंने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस पहला महत्वपूर्ण वाक्य यही तो बोला कि आइ एम कमिटिड फोर कंस्ट्रक्शन।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

व्यंग्य- बढे बालो से योग प्रशिक्षण के रिश्ते

बढ़े बालों से योग प्रशिक्षण के रिश्ते
वीरेन्द्र जैन
इन दिनों योग बहुत फरफरा रहा हैं। जिसे देखों वही हाथ, पाँव, गर्दन, पेट, पीठ, आदि ऊँचा नीचा आड़ा तिरछा करने में जुटा हुआ है। लोग सासों पर साँसे लिये चले जा रहे है। और ज़ोर ज़ोर से लिए चले जा रहे हैं। अब कोई नहीं कहता कि गिनी चुनी साँसें मिली हैं अगर जल्दी जल्दी ले लोगों तो जल्दी राम (देव) नाम सत्य हो जायेगा। ऐसा लगता है जैसे- जल्दी जल्दी लेकर साँसों का हिसाब रखने वाले को गच्चा देने की कोशिश कर रहे हों। वह पूछता होगा कि आज कितनी लीं, तो योग करने वाला, सात हज़ार लेकर कहता होगा कि, पाँच हज़ार ही ली हैं महाराज !
बच्चे, बूढ़े, औरतें सब एक छोटे से ड्राइंग रूम में टी.वी. के सामने लद्द पद्द हुऐ जा रहे हैं किसी की टाँग उत्तर को जा रही है तो किसी का सिर रसातल की ओर जा रहा है। शरीर का कोई भी भाग किसी भी दिशा में असामान्य तरीके से मोड़ा जाये या मोड़ने का प्रयास किया जाये तो उस क्रिया को किसी आसन का नाम दिया जा सकता है, जिसे वे लोग कर रहें हैं। चैन की नींद सोये हुए बच्चों को उठा कर उससे योग कराया जा रहा है तथा गुस्से में वह जो लात घूँसे फटकार रहा है उसे शायद लन्तंग फन्तंग आसन कहते होंगे । बाबा जी देख सकते तो धीर गंभीर स्वर में बतलाते कि यह आसन बहुत उपयोगी है, इसके करने से शरीर में उत्पन्न आवेश बाहर निकलता है और थोड़ी देर में चित्त शांत हो जाता है। मैने भी एक बार मेहमाननवाज़ी करते हुये मेज़बानों की खुशी के लिए उनके साथ टी.वी के सामने आसन करने का धर्म निभाया था पर ऐसा करते समय मेरी लात सीधे बाबा जी के मुँह में लगी और वे अर्न्तध्यान हो गये। मैं समझा कि बुरा मान गये हैं और मुझे शाप देने के लिए शब्द कोश देखने चले गये होंगे पर समझदार मेज़वान ने अपने अनुभवी परीक्षण के बाद बताया कि ऐसा नहीं है अपितु सच्चाई यह है कि तुम्हारे पाद प्रहार से टी.वी फुक गया है। रही बाबा जी की बात सो वे अभी भी पड़ोसी के यहाँ सिखला रहें है। मैने शर्मिन्दा होना चाहा पर सच्चे मेजबान ने मुझे शर्मिन्दा नही होने दिया अपितु छत पर सूख रहें मेरे एक जोड पेंट शर्ट को बन्दर द्वारा ले जाना घोषित कर दिया।
योग में हस्त एवं पद का यहाँ वहाँ फटकारे जाने को तो किसी न किसी र्तर्क में फिट किया जा सकता है पर उसका बालों से क्या सम्बंध है ये मैं अभी तक नहीं समझ पाया। मैंने टी.वी. पर जितने भी योग गुरू देखे उनके बालों और दाढी को स्वतंत्रता पूर्वक फलते फूलते देखा। यदि किसी की दाढ़ी नही बड़ी होती तो बाल बड़े होते हैं। मुझे नहीं पता कि क्या बालों से हाथ पाँव ठीक चलते हैं या साँसें तेजी से बहती हैं। आखिर कुछ तो होगा जो ये लोग बाल और दाढ़ी बढ़ाये मिलते हैं। हो सकता है ठीक तरह से योग करने पर बाल तेजी से बढ़ते हों। मुढ़ाने की प्रथा ने भी इसी कारण अपना स्थान बनाया होगा। एक बार सफाचट करा लो और योग करो, तो फौरन बढ़ जायेगे।
योग अब धर्म का स्थान ग्रहण करता जा रहा है। पहले अतिक्रमण करने के लिए किनारे की ओर धर्मस्थल बना लिया जाता था जिससे धार्मिक अनुयायी उस अतिक्रमित स्थल की रक्षा करना अपना धर्म समझते थे। अब लोग अतिक्रमण की जगह योगाश्रम खोल लेते हैं और नगर निगम के अतिक्रमण हटाओं दस्ते के आने पर भारतीय संस्कृति और योग विद्या पर किया गया आक्रमण बताने लगते हैं। कुछ तो इसे कोका कोला आदि विदेशी कम्पनियों के इशारे पर की गई कार्यवाही निरूपित करते हुये इतना कोलाहल करते हैं कि अतिक्रमण की बात ही तूती की आवाज़ होकर रह जाती है। आप उद्योग खोलकर कर्मचारियों का वेतन दबा सकते हैं या चाहे जब उन्हें नौकरी से बाहर कर सकते हैं । यदि कोई यूनियन बनाये और अपनी मजदूरी माँगे तो योगाश्रम का बोर्ड आपकी रक्षा करेगा। आप कह सकते हैं कि हमारे योग के विरोध में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ऐजेन्ट भारतीय संस्कृति के खिलाफ षडयंत्र कर रहें है।
योगी होने से आप विदेशी कम्पनियों के निशाने पर होने का ढोंग फैला जेड श्रेणी सुरक्षा माँग सकते हैं और विदेश जाने के मौके पा सकते हैं। इमरजैसी में धीरेन्द्र ब्रम्हचारी ने भी खूब योग सिखाया था पर बाद में देशी बन्दूकों पर विदेशी मुहर लगाने वाला उनका कारखाना चर्चा में आया था। चन्द्रास्वामी तो एक प्रधानमंत्री के धर्मगुरू थे व धर्मज्ञान देने अनेक मुस्लिम देशों के प्रमुखों के मेहमान होते थे। मेरी कामना है कि प्राचीनतम योग की ताज़ा हवा खूब देर तक चले और लोगों के कब्ज ढीले करे। ऐलोपेथी दवाओं की जगह आयुर्वेदिक दवाओं की दुकानें चलें तथा उन दवाओं को बनाने वाली कंम्पनियों का मालिक कोई योग गुरू ही हो।
वैसे बाबा के योग सिखाने वाले कार्यक्रम के दोनों सिरों और बीच में उन कंपनियों के विज्ञापन दिखाये जा सकते हैं जिनमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादनों को बेचने के लिए सुन्दर ललनाएँ अपने रूप का छोंक लगा रही हों। आप मान सकते हैं कि इन ललनाओं ने अपना रूप योग से ही सँवारा होगा।

सोमवार, दिसंबर 21, 2009

व्यंग्य मुद्रा गाथा

व्यंग्य
मुद्रा गाथा
वीरेन्द्र जैन
वैसे तो मुंह से मुद्रा शब्द का उच्चारण होते ही मन में सोने के नही तो लोहे के सिक्के खनखनाने लगते हैं किन्तु मेरा आशय उन मुद्राओं से न होकर मनुष्य की मुद्राओं से है।
योग और ध्यान में मुद्राओं को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। योग जिसे आत्मा का परमात्मा से जोड़ माना जाता है वह भी मुद्रा के बिना सम्भव नहीं है। मुझे तो लगता है कि शायद इसी गलतफहमी में लोग परमात्मा से जुड़ने के लिए मुद्राएं जोड़ कर रखने लगे होगें। जिस प्रकार महापुरूषों ने अपने अपने पंथ अलग अलग बना रखे हैं। उसी तरह उनकी मुद्राऐं भी अलग अलग हैं। बुद्व की मूर्तियां उनकी मुद्रा से ही अलग पहचान में आ जाती हैं। जिस तरह जीता हुआ आदमी दो उंगलियों से अंग्रेजी का वी बनाकर विजयी होने की सूचना देता है उसकी प्रकार बुद्व की मूर्तिया तर्जनी उंगली और अंगूठे को जोडकर ( और शेष तीन उंगलियों को खड़ी रख कर) जिस शून्य का निर्माण करते हैं उससे वे अपने शून्यवाद का उपदेश देते हुए प्रतीत होते है। महावीर और बुद्व की मूर्तियों में उनके बालों के घुंघराले होने से पता चलता है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए केश विन्यास का क्या महत्व है।
हिन्दी साहित्य के महान साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में अपनी अपनी मुद्राओं की सूचनाएं दी है। जिन साहित्य कारों ने अपनी मुद्राओं की सूचनाए नहीं दी हैं उन पर रिसर्च करने वाले भविष्य में उनकी मुद्राएं भी खोज निकालेंगे। कबीरदास अपने फक्कड़पने के अन्दाज में ही अपनी मुद्रा और मुद्रा स्थल का जिक्र करते हुए कहते हैं कि -
कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ'
कबीर की मुद्रा, खडे 'होने' ही नही, खडे 'रहने' की मुद्रा है। वे यह मुद्रा सूने जंगल में जाकर नही बनाते अपितु बीच बाजार में बनाते हैं तथा सहारे के लिए हाथ में लाठी भी लिये रहते है। भक्तिकाल की मशहूर कवियत्री मीरा बाई राज परिवार से हैं और वे खड़े होकर नही रह सकतीं। बाजार से तो वैसे भी उनका कोई सम्बंध नहीं क्योकि वे चादर बनाती नहीं, ओढ़ती हैं। इसलिए मीरा बाई की मुद्रा बैठने की मुद्रा है वे कहती हैं कि –
संतन ढिंग बैठ बैठ लोक लाज खोई ।
कबीर और मीरा की मुद्राओं का अन्तर उनकी पृष्ठभूमियों का अन्तर है। कबीर मेहनतकश हैं।,इसलिए अपना उत्पाद बेचने हेतु बाजार में खडे हैं- मीरा राजपरिवार से हैं इसलिए संतो के पास बैठी हैं और बेच कुछ नहीं रहीं हैं, खो रही हैं।
दाग साहब की मुद्रा उठने बैठने की मुद्रा है। वे कहते हैं- हजरते दाग जहॉ बैठ गये- बैठ गये। वे बैठना पसन्द करते हैं पर बैठ पाना नसीब में नहीं है। इसलिए जब बैठ पाते हैं तो बैठ ही जाते हैं।
मिर्जा गालिब चलकर रहने में भरोसा करते हैं। उन्हें एकान्त तो पसन्द है, पर जम कर बैठना पसन्द नहीं। वे कहते हैं- रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहॉ कोई ना हो। गालिब का चलकर रहना' शोर से चलकर तनहाई में जा बसना नहीं है बल्कि वे गतिमान ही बने रहना चाहते हैं इसलिए जहॉ कोई भी न हो वहॉ भी वे चलकर ही रहना चाहते हैं। इशक के दरिया में भी वे डूब कर चलते हैं- पर चलते है- इक आग का दरिया है और डूब कर जाना है। अगर उन्हें बैठना भी पडता है तो वे उसमें भी दोष खोजते रहते हैं और पछताते रहते हैं कि - इशक ने गालिब निकम्मा कर दिया। बरना वह भी आदमी था काम का।
गालिब से अलग कुछ ऐसे भी शायर हुए हैं जिनकी मुद्रा ही आराम की मुद्रा रही है वे न केवल खुद आराम पसन्द करते हैं अपितु दूसरों को भी सलाह देते है कि ''आराम बड़ी चीज है मुंह ढक के सोइये'।
घुटने मोड़कर आधे पैरों को आसन बना लेने वाले गांधी जी की चर्खा कातने की अलग ही मुद्रा है तो चन्द्रशोखर आजाद की मुद्रा मूंछ ऐंठने की है। अम्बेडकर उंगली उठाकर समाज के दोषियों को इंगित करते रहते है तो एकदम सीधे खड़े रहने में और सिर को ताने रहने में विवेकानन्द का कोई सानी नहीं है।
आधुनिक काल के साहित्याकारों में बड़े बडे बालो के साथ सुमित्रानन्दन पंत की मुद्रा दूसरों से अलग हटकर है।इस समय नीरज जैसे- लोकप्रिय कवि की अपनी मजबूरी है जब वे कहते है कि “एक पॉव चल रहा अलग अलग और दूसरा किसी के साथ है”। पता नहीं यह कौन सी मुद्रा होगी!
हां मुद्रा राक्षस के बारे में मुझ जैसे देवता आदमी में कुछ कहने का साहस नहीं है।

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, दिसंबर 05, 2009

व्यंग्य एकवचन को बहुवचन बनाने वाले

व्यंग्य
एक वचन को बहुवचन बनाने वाले
वीरेन्द्र जैन
मैं परेशान हूं । मेरी यह परेशानी व्याकरण पर आये संकट के कारण है। आजकल आचरण की तरह व्याकरण भी क्षरण होने की ओर अग्रसर है। आचरण की चिंता करना मैंने छोड़ दिया है क्या व्याकरण की चिंता भी छोड़ देना पड़ेगी?
हमारे देश में भी आजकल कुछ ऐसे ही व्याकरण बदलने वाले लोग सक्रिय हैं जो एक वचन को बहुवचन और बहुवचन को एक बचन बनाते रहते हैं। जब हमारे गड़बड़ियाजी को कोई बात पसंद नहीं आती तो वे कहते हैं कि देश के पिचासी करोड़ हिन्दू व्यथित हैं। जब उन्हें धमकाना होता है तो कहने लगते हैं कि देश के पिचासी करोड़ हिंदू इस अपमान को सहन नहीं करेंगे।
मैं राम भरोसे के घर जाकर उससे पूछता हूँं- राम भरोसे तुम हिंदू हो?
''क्यों तुम्हें क्या रिश्ता करना है?'' वह हमेशा की तरह उल्टा जबाब देता है।
''अरे नहीं भाई बताओ तो, और रिश्ते की बात होती तो पहले में जाति पूछता गोत्र पूछता उपगोत्र पूछता''
''पहले तुम बताओ कि तुम्हें मेरे हिन्दू होने पर संदेह क्यों है?''
'' चलो ठीक है मान लिया कि तुम नि:सन्देह हिंदू हो अब यह बताओ कि क्या तुम व्यथित हो?''
'' अगर तुम पागल हो तो मैं व्यथित हूँ'' वह जैसे को तैसे के अन्दाज में उत्तर देता है
'' तुम तो हमेशा मिर्चें खाये रहते हो। अरे भाई गड़बड़ियाजी ने कहा है कि पिचासी करोड़ हिंदू राम मन्दिर न बनाये जाने के कारण व्यथित और आक्रोशित हैं''
'' गड़बड़िया ने क्या हिंदुओं का ठेका ले रखा है और वह किससे पूछ कर आये हैं, मैं अगर व्यथित भी होऊंगा तो गड़बड़िया को फोन करके नहीं बताऊंगा।''
''अरे भाई वे विश्व भर के हिंदुओं के अर्न्तराष्ट्रीय महा सचिव हैं''
''उन्होंने किस हिंदू से वोट लेकर यह पद पाया है और अगर वोट लेकर भी पाते तो कौन उन्हें वोट देता और जो देता वो और चाहे कुछ होता पर सच्चा हिंदू तो नहीं होता?''
ये बीमारी केवल गड़बड़िया की ही नहीं है यह बीमारी मौलाना सुपारी की भी है। जब उनके पेट में दर्द होता है तो वे कहते हैं कि मुसलमानों के पेट में दर्द हो रहा है। मेरे कई मुसलमान दोस्त तरह तरह से अपना पेट दबा कर देखते हैं और अपने आप से पूछते हैं कि हमारे पेट में तो दर्द नहीं हो रहा ये मौलाना सुपारी हमारे पेट में कैसे घुस रहे हैं! असल में होता यह है कि अपनी लड़ाई को वे दूसरों के कंधों पर बन्दूक रख कर लड़ने के आदी हो चुके हैं। दूसरी तरफ अगर कोई मुसलमान परिवार में पैदा हुआ लड़का कोई आतंकवादी हरकत करता है तो गड़बड़िया एन्ड कम्पनी कहती है कि मुसलमान इस देश की समस्याओं की जड़ में हैं। यदि गोधरा में ट्रेन की आगजनी में किन्हीं मुसलमानों पर संदेह होता है तो वे निर्दोष मुसलमानों के हजारों घर जला देते हैं लाखों की सम्पत्ति लूट लेते हैं व तीन हजार मुसलमानों को मार देते हैं। इन्दिरागांधी को धोखे से मारने वाले एक सरदार की सजा दिल्ली के पाँच हजार निर्दोष सिखों को झेलना पड़ती है। उत्तरप्रदेश बिहार से आने वाले सारे लोग मराठी बोलने वाले किसी भी गोडसे से ज्यादा बुरे हो जाते हैं।
सच्ची बात तो यह है कि जिस तरह प्राइवेट बसों में लिखा रहता है कि यात्री अपने सामान की रक्षा स्वयं करें उसी तरह हमारी सरकार की पुलिस और कानून व्यवस्था पर किसी का भरोसा नहीं रहा कि उसके सहारे उन्हें विधि सम्मत न्याय मिल जायेगा। वे अपनी रक्षा स्वयं करने के चक्कर में लोगों को एकत्रित करने के लिए झूठे सच्चे आधार पर गिरोह बनाते रहते हैं। कोई धर्म के आधार पर बनाता है तो कोई भाषा के आधार पर, कोई जाति के आधार पर बनाता है तो कोई क्षेत्र के आधार पर। कहीं गाँव आधार बन जाता है तो कहीं मुहल्ला, कहीं कालेज आधार बनता है तो कहीं हॉस्टल। तिलक हॉस्टल वाले कहते हैं कि टैगोर हास्टल वाले लड़के बहुत बदमाश हैं।
मेरे कस्बे में पुरानी दावतों के कई किस्से बहुत रोचक ढंग से और कुछ कुछ अतिरंजित करके सुने सुनाये जाते रहे हैं। इनमें से एक था कि पंगत में बैठे मुखर किस्म के लोगों को कोई व्यंजन चाहिये होता था तो वो परोसने वाले को जोर से आवाज लगाता हुआ अपने पड़ोस में बैठे व्यक्ति की पत्तल की ओर इशारा करके कहता था कि- भइया की पत्तल में रसगुल्ला तो परोसो इस लाइन में रसगुल्ले आये ही नहीं! उसके परोस देने के बाद वो धीरे से अपनी पत्तल की ओर इशारा करते हुये कहता था कि दो इधर भी डाल दो। उनका वह पड़ोसी केवल मुस्करा कर रह जाता था और अपनी पत्तल के रसगुल्ले भी उनकी पत्तल में सरका देता था।
अगर किसी मुसलमान दुकानदार का अपने पड़ोसी हिन्दू दुकानदार से झगड़ा हो जाता है तो वो कहता है कि मुसलमानों पर बड़ा दबाव है और हिंदू दुकानदार भी ऐसी स्थिति में सीधा बजरंग दली बनने लगता है ताकि हिंदू धर्म की रक्षा के पवित्र काम में उसकी दुकान के हित भी सुरक्षित रहें। अगर जरूरत से ज्यादा मुनाफा लेने वाला दुकानदार सिंधी निकलता है तो फिर गृहणी कहने लगती है कि तुम सिंधी की दुकान पर गये ही क्यों! सिंधी दुकानदार तो होते ही ऐसे हैं। पर जब रिलाएंस के शेयरों के भाव चढने से अग्रवाल साब को फायदा होता है तो वे जैनसाब से कहते हैं कि धन्घा करना तो सिंधी ही जानते हैं।
हमारे बड़े बड़े उपदेशक कहते कहते मर गये कि- हंसा आये अकेला हंसा जाये अकेला- पर धरती पर रह कर हंसा सिंधी हिंदू सिख या मुसलमान होता रहता है और अपने साथ दूसरे सैकड़ों लोगों को भी साथ में ले जाता है। जो लोग प्रभु की इस माया पर बहुत चकित चकित से रहते हैं कि किन्हीं दो आदमियों की शक्लें एक जैसी नहीं होतीं व अंगूठा इसलिए लगवाते हैं क्योंकि किन्हीं दो लोगों की अंगूठा निशानी एक जैसी नहीं होती वे ही सारे सरदारों के एक साथ बारह बजवाते रहते हैं और ऐसे में उन्हें भगतसिंह की याद भी नहीं आती जिसकी टक्कर का दूसरा कोई नहीं हुआ।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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रविवार, नवंबर 29, 2009

व्यंग्य वास्तु के कोण्



व्यंग्य
वास्तु शास्त्र के कोण
वीरेन्द्र जैन
जब से वास्तु विचार का अचार तेजी से डाला जाने लगा है तब से मैं एक एक कदम ऐसे सम्भाल कर उठाने लगा हूॅ जैसे कि कोई दुल्हिन वरमाला लेकर अपने सुनिश्चित हो चुके पति के गले में डालने जाते समय उठाती है। आज यह लेख लिखते समय मैं सोच रहा हूँ कि मेज के किस कोने पर बैठ कर लिखूं ताकि पूरब और पशचिम, उत्तर और दक्षिण की ओर मुंह किये बैठे सम्पादकों की नजरों में चढ जाऊँ या उतर जाऊँ पर गिरूं नहीं।
ऐसा नहीं है कि वास्तु विचार कोई नया विषय है, इसका प्रशिक्षण मुझे बचपन में ही मिल गया था स्कूल में पहली पहली बार जाने पर आगे बैठने का शौक चर्राया था तथा अध्यापक द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर न दे पाने का फल भी चखता रहता था। कुछ दिनों बाद कक्षा का वास्तु शास्त्र समझ में आया कि पीछे बैठने के क्या क्या मजे होते हैं। सवाल जबाबों के मामले में तो अध्यापक लोग आगे बैठने वालों से ही निपटते रहते हैं पीछे बैठने पर बाग से चुराकर लायी गई इमलियॉ, अमरूद, और केरियों खायी जा सकती हैं तथा अध्यापक द्वारा ब्लैक बोर्ड पर लिखते समय पीछे के दरवाजे से बाहर खिसका जा सकता है। यदि यह वास्तु शास्त्र पहले समझ में आ गया होता है तो मेरे कान इतने लम्बे नही होते ।
कक्षाओं के बदलने के साथ साथ वास्तु शास्त्र के कोण भी बदलते गये। खिड़की के पास वाली सीट से बाहर का नजारा और लड़कियों को देखा जा सकता था दरवाजे के पास वाली सीट से अध्यापक के आने की आहट पाकर भोला भाला बन कर बैठा जा सकता था। देर से आने पर चुपचाप घुस आने तथा अनुपस्थित की हाजिरी बोलने का काम भी पीछे बैठ कर किया जा सकता था। ये सारे लाभ वास्तु शस्त्र की सही समझ पर ही आधारित थे।
आज भी देखता हूँ कि कालेज की सहपाठिनों के साथ रेस्त्रां में काफी पीने आने वालों की पहली तलाश वास्तु विधा पर ही आधारित होती है। उन्हें ज्ञात है कि किस सीट पर बैठकर दूसरों की नजरों से बचा सकता है तथा दरवाजे की ओर पीठ करके बैठने के क्या क्या फायदें है। बाईक पर लड़की को किस कोण से बिठाने पर आउटिंग के लिए कितने लीटर पेट्रोल जलाया जाना चाहिए यह वास्तु विचार का ही विषय है।
सरकारी दफ्तर में काम के लिए आने वाला ' ग्राहक' कहॉ से पूछताछ शुरू करता है और उसे किस बिन्दु पर फांसा जा सकता है यह दफ्तर के अच्छे वास्तुविद को पता होता है। वह अपनी सीट ऐसे स्थान पर लगवाता है जहॉ से ग्राहक की पहली नजर उसी पर पड़े और तथा अफसर की सीधी निगाह से बचा रह सके।
बस का वास्तु शास्त्री जानता है कि किस सीट पर बैठकर किस समय किस दिशा में यात्रा करने पर हवा लगेगी या धूप लगेगी। मौसम के अनुसार वास्तु विचार करके ही वह अपनी सीट तय करता है। बस में प्रवेश करते ही सीट पर फटाक से बैठ जाने की जगह जो एक क्षण विचार करता हुआ नजर आता है उसे मैं वास्तुशास्त्री समझता हूँ
बालकनी के किस कोने में किस दिशा में मुंह करके बैठने पर बुढ़िया दिखायी देगी ओर किस ओर मुंह करके बैठने पर बाल सुलझाती युवतियॉ नजर आयेंगी यह वास्तुशास्त्र का विषय है।

सार्वजनिक कार्यक्रम में किस वीआईपी क़े आसपास रहने और बैठने से अखबारों व टीवी में फोटों आयेगी ये बात वास्तु शास्त्री ही जानते हैं और वहीं बैठने की कोशिश करते हैं। समाचारों में फोटो के नीचे जो एक लाईन लिखी रहती है कि कार्यक्रम में भाग लेते हुऐ मंत्री जी और अन्य - इस अन्य में अच्छे वास्तु ज्ञाता हमेशा मुस्करातें नजर आते हैं। भीख और शनि का दान मांगने वाले तक जानते हैं कि अस्पतालों और अदालतों की ओर जाने वाले किस बिन्दु पर बैठे भिखारियों और शनि-वाहकों के लिए जेब से सिक्के निकालकर डालते रहते हैं।
वास्तु शास्त्री हमेशा ही धन धान्य की दृष्टि से ही विचार करते हैं जबकि कचरे से पन्नी बीनने व दारू की खाली बोतलें उठाने वाला हर कचरे के डिब्बे को खंगालता है और वास्तु विचार नहीं करता। झुग्गी डाल लेने वाले एक मजदूर से जब मैने पूछा कि उसने झुग्गी डालने से पहले वास्तु विचार किया था या नही किया था तो वह हंसने लगा। साधु के चोलें में रहने वाले एक नेता का कहना था कि ये मजदूरों के आन्दोलन इसलिए सफल नहीं हो रहें हैं कि ना तो ये महूर्त दिखवाते है और ना ही सभा करते समय वास्तु विचार करते है बस मुंह उठाकर बोलना शुरू करते है तो बोलते ही जाते है। तंदूर में पत्नी को जलाते समय, या शिवानी भटनागर और मधुमिताशुक्ला की हत्या के समय यदि वास्तु विचार किया होता तो गिरफ्तारी की नौबत ही नही आती है।
यह लेख पढ़ते समय अगर आप सही दिशा में बैठे होंगे तो आपको यह लेख अच्छा लगा होगा। न लगा हो तो दिशा बदल कर पुन: पढ़ें।

वीरेन्द्र जैन
2@1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, नवंबर 28, 2009

हास्य व्यंग्य चोरी

व्यंग्य
चोरी
वीरेन्द्र जैन
चौर्य कला हमारे संस्कृति में वर्णित 64 कलाओं में से एक है। भले ही महावीर स्वामी ने आज से 2500 साल पहले अस्तेय अर्थात चोरी न करो कह कर हमारे सामने इस बात का एतिहासिक प्रमाण दे दिया कि उस ज़माने में भी चोरियां होती थीं। हमारी भारतीय संस्कृति की दुहाई देने का ठेका लिये हुये लोग भले ही मुग्ध होने की मुद्रा बना कर यह कहें कि पहले के ज़माने में घरों में ताले नहीं लगाये जाते थे पर सचाई यह है तब तालों का अविष्कार ही नहीं हुआ था।
हमारे धर्म प्रवर्तक भले ही कुछ भी कहते रहें, हम उनके कहे का बुरा नहीं मानते, पर सच तो यह है कि चोरी हमारे स्वभाव में है। मैथली शरण गुप्त ने कहा था-
जो पर पदार्थ के इच्छुक हैं
वे चोर नहीं तो भिच्छुक हैं
इसलिये हमारे यहां बौद्ध धर्म ने चोरी से बचने के लिये भिक्षा का मार्ग अपनाया था। मुझे वर्णाश्रम का सार भी यही लगता है कि जब आदमी चोरी कर पाने में असमर्थ हो जाये तो वो भिच्छुक हो जाये।
हमारे कृष्ण कन्हैया ने कभी भी चोरी से परहेज नहीं किया और ना ही ऐसा कोई उपदेश झाड़ा कि ये मत करो वो मत करो। वे बचपन में माखन चुराया करते थे तो युवा अवस्था में गोपियों का दिल ही नहीं चुराते थे, अपितु लेन देन में भी डण्डी मारी करते थे-
तुम कौन सी पाटी पढे हौ लला,
मन लेऊ पै देऊ छटाक नहीं
त्रेता युग में तो राक्षस और वानर दूसरे की पत्नियाँ चुरा लेते थे।
व्यापार में कर चोरी होती है तो आम जनता का बड़ा वर्ग बिजली चोरी करता है जिसमें बिजली विभाग के अधिकारी सहयोगी होते हैं। दफ्तर के बाबू दफ्तर से कागज़, पेंसिलें, आदि स्टेशनरी चोरी कर के ले जाते हैं ताकि उनके बच्चों को स्कूल में चोरी न करना पढे।
दरअसल आज बार बार चोरी की याद इसलिये आ रही है कि अखबार में खबर छपी है कि शिल्पा शेट्टी के बहिन शमिता ने अपनी बहिन की शादी में अपने जीजू राज कुन्द्रा के जूते चुराये और जूते चुराने के बदले में 51 लाख रुपये वसूले।
अब यह खबर पढ कर कौन सी लड़की होगी जो जूते चुराने को उतावली न हो रही होगी, आखिर लोग बाज़ार देख कर ही तो शेयर खरीदने लगते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 25, 2009

व्यंग्य उनके पास माँ है

व्यंग्य
उनके पास माँ है
वीरेन्द्र जैन
किसी हिन्दी फिल्म का एक डायलाग बहुत प्रसिद्ध हुआ था जिसमें नायक का भाई कहता है कि आज मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, दौलत है, तुम्हारे पास क्या है?
इस पर नायक कहता है कि- मेरे पास माँ है।
डन डनन डन डनन डन डिन।
हिन्दी फिल्में हमारे देश के लोगों पर बहुत प्रभाव डालती हैं, इन लोगों में साधारण जन से लेकर कांग्रेस जन भी होते हैं। कांग्रेस जन दर असल अन्य केटेगरी में आते हैं। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरि शंकर परसाई कहते थे कि आदमी तीन तरह के होते हैं, एक सज्जन दूसरे दुर्जन और तीसरे कांग्रेस जन।
कभी वर्ल्ड बैंक के प्रतिनिधि रहे हमारे प्रधान मंत्री, जिन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि वे कभी प्रधान मंत्री बनेंगे, जब अमेरिका गये तो उन्होंने वहां पर कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि चीन का अर्थिक विकास हमारे आर्थिक विकास से बेहतर है फिर भी हमारे यहां मानव अधिकारों का आदर व कानून के सम्मान के अलावा बहु सांस्कृतिक, बहुप्रजातीय, बहुधार्मिक अधिकारों को महत्व देने जैसे कुछ अन्य मूल्य हैं, जो जीडीपी की वृद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
यह वैसा ही था जैसे वे कह रहे हों कि हमारे पास माँ है।
शायद उन्हें विनायक सेन और इरोम शर्मीला के मानव अधिकार याद नहीं आ रहे होंगे या गुजरात के 2002 के और दिल्ली के 1984 के नरसंहारों की याद नहीं रही होगी।उन्हें याद नहीं रहा होगा कि सलमान खान ही नहीं शबाना आज़मी को भी मुम्बई में मकान नहीं मिलता।उन्हें याद नहीं रहा होगा कि हरियाना में अपनी मर्जी से शादी करने वालों को अदालत द्वारा दिये गये सुरक्षा आदेश के बाद भी मार डाला जाता है और हत्यारों का कुछ नहीं बिगड़ता क्यों कि आगामी विधान सभा चुनावों में वे जाट मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते थे। अपने मन से अपने धर्म का चुनाव करने वालों को ज़िन्दा जला दिया जाता है।
हमारे प्रधान मंत्री अमेरिका से लौट कर आयेंगे और उनके पास कोई प्रतिनिधि मण्डल जाकर कहेगा कि हम उन 72 करोड़ लोगों में से एक हैं जो अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार बीस रुपये रोज़ में गुज़ारा चलाने वालों में से आते हैं तो वे कहेंगे बोलो रोटी चाहिये या मानव अधिकार?
दोनों ही चाहिये हुज़ूर- वे कहेंगे
दोनों नहीं मिल सकते, चाहे रोटी ले लो या मानव अधिकार ले लो! जल्दी बोलो अभी मुझे वर्ल्ड बैंक के प्रतिनिधि से बात करने जाना है।
रोटी पहले चाहिये हुज़ूर क्योंकि अगर रोटी नहीं मिली तो फिर मानव अधिकार क्या लाश-अधिकार में नहीं बदल जायेगा और लाश का कोई अधिकार नहीं होता सिवाय बदबू फैलाने के अगर उसे जल जाने या दफन हो जाने की सुविधा नहीं मिले।
अरे भाई थोड़ा इंतज़ार कर लो अगले साल हमारे यहाँ एशियन गेम्स होने वाले हैं उन्हें देखना, मेट्रो में सफर करना, 2015 तक हम हर गाँव में बिजली पहुँचा देंगे 2020 तक हम खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे।
हो सकता है हम इंतज़ार कर भी लें पर 2014 में तो आप चुनाव हार जायेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, नवंबर 23, 2009

लघुकथा (व्यंग्य) नेता सुअर बुखार और हाथों की सफाई


लघुकथा
नेता, सुअर बुखार और हाथों की सफाई
वीरेन्द्र जैन
बच्चा बड़ी गौर से दूरदर्शन में बच्चों के लिये बनाया गया एक विज्ञापन देख रहा था । विज्ञापन में बताया गया था कि आप खांसने छींकने और बाहर से आने के बाद अगर अपने हाथ धोते हैं तो इंफेक्शन से बच कर सुअर बुखार से बच सकते हैं और लाखों जानें बचा सकते हैं। थोड़ी ही देर बाद उस चैनल पर समाचार आने लगे जिसमें बताया गया कि दुनिया में जिस इकलौते राजनेता को सुअर बुखार ने अपनी गिरफ्त में लिया वे हमारे देश के एक विकसित प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। विज्ञापन के प्रभाव में आये बच्चे ने अपने पिता से पूछा कि क्या उक्त नेता हाथ नहीं धोता!
हाँ बेटा इस नेता ने 2002 से अपने हाथ नहीं धोये हैं और यह तभी से अपने गंदे हाथ लिये राज्य सरकार चला रहा है इसीलिये तो दूरदर्शन कहता है कि अपने हाथ धोना चाहिये- पिता ने बेटे को समझाया।
जो नेता हाथ धोते हैं वे कौन से साबुन से हाथ धोते हैं? बेटे ने फिर पूछा
वे क्षमा याचना ब्रांड साबुन से हाथ धोते हैं और खाने पीने व अपने बच्चों को दुलारने के बाद फिर से हाथ गंदे करने निकल जाते हैं- पिता ने बताया।
क्या हम हाथ गंदे करने से बच नहीं सकते!- बेटे की अगली जिज्ञासा थी।
बच सकते हैं, पर उसके लिये पूरे देश में सफाई करना पड़ेगी- पिता ने ठंडी सांस भरकर कहा। बेटे को समझ में नहीं आया कि पूरे देश में सफाई के नाम पर पिता ने ठंडी सांस क्यों भरी।

वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

व्यंग्य -----शेयरों के शेरों का पुनर्जीवन्

व्यंग्य
शेयरों के शेरों का पुर्नजीवन वीरेन्द्र जैन
जब शेयरों के दाम मिग विमानों की तरह गिरने लगते हैं तब घर की मशीनों के दिन फिरने लगते हैं उनकी धूल पौंछ दी जाती है और शेयर बाजार जाने के बहाने घर से बाहर निकलने वाले सेवानिवृत्तों को काम मिल जाता है। घर के प्लास, पैंचकश, पाना, हथौड़ा, कीलों का डिब्बा, ग्रीस का डिब्बा, तेल की कुप्पी, फटे पुराने कपड़े जो अब केवल पौंछने के काम आ सकते हैं, ब्रुश और चश्मा एक जगह एकत्रित कर लिया जाता है। पुराने पंखे, कूलर, स्कूटर, कार, मिक्सी, हीटर, कन्वेटर आदि पर अनुभवी दिमाग अपने शिथिल होते जा रहे हाथों के कमाल दिखाने को उतावले हो जाते हैं। घर के बच्चे अपने दादा जी के करतब देखने के लिए इस तरह घेरकर बैठ जाते हैं जैसे कि चौराहे के मदारी को घेरते हैं। पेंचों और ढिबरियों को खुलते हुऐ देखना तथा उस खुलने के साथ ही उपकरण के अंग अंग का बिखरना बच्चों को नवअनुभव स्फुरण से भर देता है। वे एक एक गरारी को छू कर देखना चाहते हैं पर खुर्राट, दादा जी उन्हें दूर रहने की घुड़.की देते रहते हैं। अपने हाथ चिकने और काले होने की चिन्ता किये बिना वे एक एक पुर्जे को पोंछ कर आवश्यकतानुसार ग्रीस लेपन करके एक ओर रखते जाते है।

इस ओवर हालिंग के बाद दादा जी उपकरण को दुबारा वैसा ही फिट करके चलाकर देखना चाहते हैं पर अक्सर ही वे फिट करना भूल जाते हैं। दो तीन बार दो तीन तरह से जोड़ कर पैंच कसते हैं पर कोई न कोई हिस्सा कहीं छूट ही जाता है। कई बार समझ में नहीं आता है कि ये छूट गया पेंच या ढिबरी कहॉ फिट थी। डरते हैं कि कहीं इसके बिना मशीन चलाकर देखी तो कुछ टूट और फंसकर न रह जाये। वे झुंझलाते हैं और बच्चों को घुड़कते हैं, और फिर पूरी मशीन खोलते हैं। जब समझ में नहीं आता तो एक कोने में समेट कर मैकेनिक के निमित्त उसे ऐसे छोड़ देते हैं जैसे मरीज के रिश्तेदार मंहगे डाक्टरों से इलाज कराने के बाद भी ठीक न होने वाले मरीज को भगवान भरोसे छोड़ देते है।

दादा जी रगड़ रगड़ कर हाथ धोते हैं पर न कालिख पूरी तरह छूटती है और न गंध। हाथों में मिट्टी का तेल और डिटर्जेन्ट मलते हैं और फिर मिट्टी के तेल की गंध छुड़ाने के लिए फिर धोते हैं पोंंछते हैं। खुशबूदार तेल लगाते हैं और सूंघते हैं धीमी धीमी गंध फिर भी आती रहती है। वे आने देते हैं कि और क्या करें ! जैसे शेयर के दाम गिर जाने पर शेयरों को डले रहने देते हैं और क्या करें। दिन ही खराब चल रहें हैं। एक ओर शेयर के भाव गिर रहे हैं दूसरी ओर हाथों की गंध नहीं जा रही। नहीं जा रही तो न जाये - क्या कर सकते हैं। मंदिर जाते है तो मन नहीं लगता। ऐसा लगता है कि सब समझ रहे हैं कि ये क्या करके आ रहे हैं।

प्रापर्टी में बड़ा रट्टा है। एक एक जमीन को लोग तीन तीन लोगों को बेच देते हैं । अब जिसे केवल इन्वेस्टमेंट करना है वो पजेशन लेने थोड़े ही जायेगा। वो तो रेट बढाने के लिए खरीदता है। दाम के दाम गये और रजिस्ट्री खर्च भी गया । दूसरे को बेचेगें तो वह तो तुम्हारे ऊपर ही सवारी गांठेगा। बड़ा झंझट है। दादा जी की समझ में नही आता कि पैसे का क्या करें। पूरी उम्र जैसे कमाया है उसे मेहनत करके कमाया मानते हैं। साठ रूपयें से नौकरी शुरू की थी चालिस साल बाद रिटायर होते समय अट्ठारह हजार मिलते थे। पर मानसिकता एक बार बन गई, सो बन गयी। वह जिन्दगी भर साठ रूपये वाली ही रही। सोच समझ के खर्च करना। वे तब से उपभोक्ता फोरम के सोशल एक्टिविस्ट जैसे हैं जब कोई उपभोक्ता फोरम का नाम भी नहीं जानता था । दो रूपयें की चीज डेढ़ रूपयें में खरीदने पर उतारू। उनसे सवा दो तो कोई किसी हालत में नही ले सकता था। खराब निकल आये तो दुकानदार के सिर पर मार आयें और पैसे वापिस ले आयें। रिटायरमेंट पर जो पैसा मिला था उसमें से सात साल बीत जाने तक भी घटा कुछ नहीं। बढ़ता ही रहा। चाहे ब्याज से या छोटे मोटे लेन देन से। पिछले दो सालों से दूसरे बूढों के साथ में शेयर बाजार जाने लगे थे। समय कटता था और दो चार सौ का लाभ कमा लेते थे। पर सरकार बदली सो देशभक्त बंदेमातरम कहते हुये बाजार धरती माता को चूमने लगे। तीस हजार का नुकसान हो रहा था। जिन्दगी में पहली बार घाटा खाने का अनुभव सामने आया सो बेचैैनी बढ़ने लगी। शेयर बाजार जाना बन्द हुआ सो समय काटे नहीं कटता था। घर की मशीनें सुधारने बैठे सो वे पुर्जो में बदल गयीं। मिस्त्री के पास ले जायेगें तो मनमाना मांगेगा।

बैकों की फिक्सड डिपोजिट पूरी हो गयी थीं। बदलवायीं तो ब्याज दरें आधी रह गयी थीं।पछता रहे थे कि उसी समय ही पांच साल के लिए ही क्यों न करा लीं थीं। हर तरफ घाटा ही घाटा और मंहगाई ऊपर चढने लगी। बिजली मंहगी हुयी, गैस मंहगी हुयी, पेट्रोल मंहगा हुआ। ऐसे लोग मरने के लिए भी किसी हादसे का इंतेजार करते है। ताकि अंतिम संस्कारों के लिए दस पचास हजार सरकार से मिल जायें और बाकी बीमा से दुगनी राशि मिले।
पर, हादसा होने से पहले ही शेयरों के दाम चढ़ना शुरू हो गये। उनके सहारे दादाजी भी चढ़कर निराशा के कुएं से बाहर निकल आये और खोल डाली गयी मशीनों को मैकेनिक के यहॉ भिजवाने की सोच रहे हैं।

बच्चे नागार्जुन की कविता पढ रहे थे- बछिया ने फिर ली अंगड़ाई बहुत दिनों के बाद, कौवे ने खुजलायीं पाखें बहुत दिनों के बाद।
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वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, नवंबर 14, 2009

व्यंग्य - उंगली के कारनामे

व्यंग्य
उँगली
वीरेन्द्र जैन

वैसे तो रीढ़ की हड्डी का अंतिम मनका छोड़कर किसी भी अंग को अनुपयोगी नही कहा जा सकता है और हो सकता है कि चमचागिरी के चरम क्षणों में परम चमचों के लिए वह भी दाएँ-बाएँ हिलाने के काम आता हो पर उँगलियॉ शरीर का अति महत्वपूर्ण अंग होती हैं। एक फेफड़े या किडनी के न होने पर आप विकलांगता का प्रमाण-पत्र और सुविधाएँ नही पा सकते जबकि उँगलियों के न होने पर आप इस तरह की सुविधा पाने के अधिकारी हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि उँगलियॉ शरीर का अंग हैं फेफडे और किडनी नही हैं।

आदमी को लाश हो जाने से बचने के लिए जिंदा होना परम आवशयक है व जिंदा रहने के लिए उसे भोजन करना पड़ता है। भोजन चाहे छुरी- कांटे से किया जाए या उनके बिना, पर भोजन करने के लिए उंगलियॉ नितांत आवश्यक हैं। जो पॉच होती हैं तथा समान नही होतीं, किन्तु खाते समय विषयवस्तु पर समान रूप से केन्द्रित होती हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे कि सत्तारूढ पार्टियों के पॉचों गुट चुनाव के समय एक हो जाते हैं जिससे कि दूसरी कोई पार्टी देश को न खा सके।

उँगलियॉ खाने व लिखने के काम ही नही आतीं, ये इशारे करने के काम भी आती हैं। रेल्वे स्टेशनों के संडासों पर, महिला व पुरूष शौचालयों पर उंगली के इशारे से इंगित करने वाले प्रतीक इतने अधिक प्रचलित हैं कि कई बार तो साधारण इशारा करने वाला भी ऐसा लगता हैं कि जैसे किसी शौचालय की ओर इशारा कर रहा हो। शायद यही कारण हैं कि कक्षाओं में बच्चों को लघुशंका का विश्वास होने पर अपनी छोटी उँगली उठाकर अनुमति मांगना सिखाया जाता हैं। वैसे इस बारे मैं मैं कुछ नही कह सकता कि इसके लिए छोटी उँॅगली से ही इशारे का नियम क्यों और कैसे बना। पर यदि ऐसा नियम नही होता तो मुझे क्रिकेट का एम्पायर भी किसी खिलाड़ी को आउट देते समय ऐसा लगता जैसे कि खिलाड़ियों से लघुशंका के लिए अनुमति मांग रहा हो। यूँ इशारे तो ऑखो- ऑखों और गर्दन का यथा संभव मोड़ देकर भी किए जाते हैं पर उंगलियों के इशारों से जितना व्यापक संप्रेषण संभव हैं उतना ऑखों और गर्दन के हिलाने - डुलाने से नही। यही कारण हैं कि हमारे दूरर्दशन पर बधिरों के लिए केवल उँगलियों के इशारे से सारी दुनिया की जानकारी दे दी जाती हैं।

उँगलियों केवल तिलक या चंदन लगाने के काम ही नही आतीं, इनसे आप किसी की मांग में सिंदूर भी भर सकते हैं औैर घूँघट भी उठा सकते हैं। जिनका घूँघट उठा नही होता हैं वे बंद घूघट में से दो उँगलियों के सहारे से घूँघट के बाहर का नजारा भी देख सकती हैं।
टूथ-पेस्ट को ब्रश पर रखकर 'ब्रश' करने का कार्य हम- आप नितप्रति करते हैं, पर जिन्हैं बासी और जूठा ब्रश करना पसंद नही वे यही श्रेय उंगली को प्रदान करते हैं और किसी गलतफहमी के न पैदा होने की दृष्टि से इस क्रिया को मंजन करना कहा जाता है।

आश्चर्य की स्थिति में उंगली दांतो तले दबाने के काम भी आती है। इन क्षणों में आम तौर पर दांतों तले अपनी ही उंगली दबाई जाती हैं। जिससे दांतों के दबाव पर अपना नियंत्रण रहता है किंतु कुछ परजीवी व्यक्ति ऐसे क्षणों में दूसरों की उंगली दबाते हैं और इतने आश्चर्य चकित दिखने का प्रयास करते हैं कि दांतों पर अपना सारा नियंत्रण खो देते हैं।

उंगलियाँ नही होतीं तो ऑखों में काजल देके अंखियों को बड़ी बड़ी और कजरारी कैसे किया जाता ? और कई ऑखें तो इतनी धरदार होती रही हैं कि पुरातन काल के हिन्दी कवियों ने कहा ही है
काजर दे ना ऐ री सुहागन
आंगुरी तेरी कटेगी कटाछन।

उँगलियॉ नहीं होतीं तो वोट डालने से पहले किस अंग को कलंकित किया जाता। उँगलियाँ नहीं होतीं तो रूपए कैसे गिने जाते और उन रूपयों से भरे सूटकेस कैसे उठाए जाते। उंगलियॉ नही होतीं तो कांग्रेस का चुनाव चिन्ह् जाने कैसा नजर आता। यूँ छिद्रान्वेषी व्यक्ति उंगलियों में कुछ कमियॉ भी बताते हैं, कहते हैं कि सीधी उंगली से घी नहीं निकलता, पर घी निकालने के लिए उंगली को टेढ़ी करने की सुविधा भी उपलब्ध होती है। इसके लिए केवल मजबूत इरादे की जरूरत भर होती है। मजबूत इरादे वाले लोग ठसाठस भरी बसों या बाजारों में सीधी उंगली से न जाने कितनी जेबों से नोट व बटुए निकाल लेते हैं और उससे घी घरीदते हैं, जिसे उंगली को टेढी करके निकालते रहते हैं।

यदि पौराणिक कथाओं पर भरोसा करें तो कृष्ण कन्हैंया ने एक उंगली पर गोवर्धन उठा लिया था तथा विष्णु का सुर्दशन चक्र भी एक उंगली पर ही घूमता था। यह कैकेयी की उंगली का ही कमाल था जो उन्होने युद्वरत दशरथ के रथ में ठीक समय पर डालकर रामकथा का सूत्रपात किया था।

हमारे इतिहास में एक भी उंगली विहीन महापुरूष नही हुआ। यदि उंगलीमाल अपने उद्देशय में सफल हो जाता तो गौतमबुद्व का कभी भगवान होना संभव नही हो पाता। गॉधीजी ने भी अपना पहला सफल आंदोलन उंगलियों के निशानों को लेकर ही अफ्रीका में चलाया था और फिर उसे वापिस लेकर उन्ही उंगलियों से उसका परिणाम भी झेला था। देशभर में लगी बाबा साहब अम्बेडकर की आदमकद प्रतिमाएँ एक उंगली उठाकर संवैधानिक सत्ता की महत्ता को दर्शाती रहती हैं और चुनाव या मैच जीतने वाले सारे विजेता दो उंगलियों से 'वी' बनाकर विजय का उल्लास व्यक्त करते हैं।

चतुर पत्नियॉ अपने पति को उंगलियों पर ही नचाती हैं। उंगलियों ही चोटियों गूंथती हैं, जुएँ बीनती हैं, या प्यार से अपने पति के कोट के बटन लगाती हैं। किसी डिटर्जेट के विज्ञापन में यदि दाग धब्बों को ढूंढते रह जाने की बात भी कहनी हो तो उसमें भी उंगली घुमाने की कला आना आवश्यक होती है।
लखनऊ में ककड़ियाँ बेचने वाले उन्हैं लैला की उंगलियॉ कहकर बेचते हैं और खरीदने वाले इसी धोखे में पहले उन्हैं खरीदते हैं, फिर खा जाते हैं। अंग्रेजी वालों ने यही श्रेय भिंडी को दिया हैं और उसे लेडिज फिंगर का नाम दिया हैं।

संगीत की सारी दुनिया ही उंगलियों से गूंजती है, सितार हो या वीणा, तबला हो या हारमोनियम सभी उंगलीयों की कला से ही गुंजायमान होते हैं। और तो और चुटकी तक बिना उंगलियों के नही बजाई जा सकती।

फीस लेने और उसे उंगलियों के सहारे से गिनने के बाद डाक्टरों की उंगलियॉ नब्ज पर पड़ते ही भीतर की सारी गतिविधि का अंदाज कर लेती हैं। इन्ही उंगलियों की सहायता से वह शरीर के अनावश्यक बीमार हिस्सों को अलग कर देता है और उसी से इंजेक्शन भी लगता है। उंगलियों के सहारे आज लाखों टाईपिस्ट और कम्प्यूटर आपरेटर देशभर के दफ्तर चला रहे हैं जिनमें रिश्वत की फसलें लहलहा रही हैं। बच्चा सबसे पहले उंगली पकड़कर ही चलना सीखता है और गिनती भी। विवाह बंधन में बंधने से पूर्व उंगली में अंगूठी पहनाने की सबसे पहली रस्म होती है।

बंदूक के ट्रिगर पर रखी हुई उंगली अपराधियों को पास नही फटकने देती। स्कूटर के क्लिच पर रखी उंगलियां आपको कहॉ से कहॉ ले जाती हैं व जरूरत पड़ने पर हार्न भी बजाती हैं। उंगलियों नही होतीं तो कारों और बसों के स्टीयरिंग कैसे संभाले जाते ? उंगलियों नही होतीं तो आप दरवाजे का हैंडिल कैसे घुमाते या दफ्तर से घर आकर घर की घन्टी कैसे बजाते ? शर्ट के बटन लगाने हों या पाजामें के नारे की गांठ लगानी हो, उंगलियों के बिना संभव नही हो सकता हैं। उंगलियों के बिना ना तो बोतल का ढक्कन खोला जा सकता हैं और ना ही गिलास उठाया जा सकता है। यहॉ तक कि दांतों में फॅसा हुआ तिनका भी उंगलियों के बिना नही निकाला जा सकता है। सिगरेट के निकालने से लेकर सुलगाने और पीने तक उंगलियों का अपना महत्व है।

उंगलियों का महत्व कहाँ तक गिनाउं ! इसलिए अंत में मेरी यही शुभकामना हैं कि आपकी पॉचों उंॅगलियों सही सलामत ही नही घी में भी रहैं और ऐसा घी गर्म कड़ाही में न हो।

बुधवार, नवंबर 04, 2009

व्यंग्य -भारतीय पीलिया पार्टी में वारयल फीवर

व्यंग्य
भारती पीलिया पार्टी में वायरल फीवर
वीरेन्द्र जैन
अंग्रेजी में एक कहावत है कि अगर डाक्टर कहता है कि आपको वायरल फीवर है तो इसका मतलब होता है कि उसे भी आपकी तरह कुछ समझ में नहीं आ रहा कि बीमारी क्या है।
वायरल फीवर को हमारे यहाँ मेहमान का दर्जा प्राप्त है जिसके बारे में भरोसा रहता है कि वह अधिक से अधिक दो चार दिन रूक कर और हमारी देह का सर्वश्रेष्ठ चर कर चला जायेगा व लुटे पिटे से हम अगले मेहमान के आने तक पुन: अपने नुकसान की भरपाई में जुट जायेंगे। रहीम ने शाायद वायरल फीवर के लिए ही कहा होगा-
रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय
हित अनहित या जगत में जान परत सब कोय
पर यह वायरल फीवर अगर दूसरी बीमारियों के साथ हो तो खतरनाक भी हो सकता है जैसे कि पीलिया के साथ। इसका उदाहरण अभी हमें राजस्थान में देखने को मिला। एक भूतपूर्व महारानी जो दूसरे सैकड़ों भूतपूर्व राजे रानियों की तरह वर्तमान में भी स्वयं को रानी समझती हैं, को फिल्टर का पानी और मौसम से बचाव आदि सारी सावधानियों के बाद भी वायरल हो गया। चूंकि महारानी को हुआ था इसलिए महा वायरल हुआ होगा। छोटे मोटे लोगों को डाक्टर दो तीन दिन में ही ठीक मान लेते हैं किंतु महारानी का महावायरल दो हफ्ते वाला था। उनके डाक्टर ने उन्हें दो हफ्ते तक सख्त आराम की सलाह दी दी। मजदूर तो वायरल में भी काम करते रहते हैं पर महारानी इतनी महाअशक्त हो गयीं कि बेचारी अपने डाक्टर की सलाह से दो सप्ताह में एक कागज पर दस्तखत करने तक की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। वह कागज उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से त्याग पत्र पर छोटे से दस्तखत करने के सम्बंध में था जिसके लिए वे पहले ही मौखिक सहमति दे चुकी थीं। उनके त्यागपत्र पर दस्तखत न करने से स्तीफा मांगने वाले हाई कमान की इज्जत, लोकसभा चुनाव के बाद जितनी भी बची रह गयी हो, मिट्टी में मिल चुकी थी और मिट्टी अपनी इज्जत के लिए परेशाान हो रही थी। वे दो सप्ताह में पहले ठीक हुयीं फिर स्वस्थ हुयीं और तब इस लायक हुयीं कि पूर्व उपप्रधानमंत्री तथा निरंतर पंधानमंत्री पद प्रत्याशाी से मिलने के बाद स्तीफे पर अपने दस्तखत बना सकीं। उधर अपनी इज्जत को मिट्टी में मिलाये अध्यक्ष महोदय कहते रह गये
की उसने मेरे कत्ल के बाद कत्ल से तौबा
हाय उस वादा पशेमां का पशेमां होना
एक बार तो इसी पार्टी के एक अध्यक्ष अपनी पार्टी की एक साध्वी से इतना परेशाान हो गये थे कि उनकी पत्नी बीमार पड़ गयीं। प्रेम में ऐसा ही होता है कि बाबर ठीक हो जाता है और हुमांयुं बीमार हो जाता है। अपनी पत्नी की सेवा सुश्रूषाा के लिए पाटी अध्यक्ष ने त्यागपत्र मुँह पर मारने में दो सप्ताह का समय नहीं लिया और फटाक से दे मारा। पर साध्वी नीम चढे करेले का रस पीकर ही बोलने के लिए मशहूर थीं और बीमार की बीमारी का पूरा इतिहास रखती थीं सो उन्होंने देशा की जनता को बताना जरूरी समझा कि पार्टी अध्यक्ष ने अपनी पत्नी की रजोनिवृत्ति को राष्ट्रीय बीमारी बना दिया है। ये भारतीय संस्कृति की जनशक्ति वाली साध्वी थीं और अपनी बात पूरी शाक्ति से कहने की आदी थीं भले ही वह सही हो या गलत! उधर अध्यक्ष महोदय भी इतने सेवाभावी थे कि उसके बाद उन्होंने पार्टी में उपाध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया जिससे बीमार पत्नी और बीमार पार्टी दोनों की ही सेवा कर सकें।
बीमारी में अगर राजनीति मिल जाती है तो वह बीमारी बहुचर्चित हो जाती है। गुजरात के एक पूर्व मुख्यमंत्री की पत्नी की बीमारी पर जब ढेर सारे मंत्रियों और विधायकों ने एक साथ मिजाजपुर्सी की तो मुख्यमंत्री के कान खड़े हो गये जो विधायकों की दीवारों में लगे रहते थे। उन्हें अपनी कुर्सी डगमग नजर आने लगी तो वे अपनी पार्टी में अपने सबसे बड़े विरोधी के यहॉ बाकी के मंत्रियों को लेकर मिजाजपुर्सी के लिए पहुँच गये। अगर सब एक साथ गये होते तो वहाँ मंत्रिमंडल की बैठक हो सकती थी।
पर जनता की मिजाज पुर्सी की किसी को चिंता नहीं है जो कराह करह कर कह रही है कि-
अच्छे ईसा हो मरीजों का ख्याल अच्छा है
हम मरे जाते हें, तुम कहते हो हाल अच्छा है
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (मप्र)

व्यंग्य -में गाँव नहीं जा पाया

व्यंग्य
मैं गाँव नहीं जा पाया
वीरेन्द्र जैन
बचपन में राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त की कविता पढ़ी थी।
अहा ग्राम्यजीवन भी क्या है!
पर उन दिनों कविता केवल हिन्दी की किताब में पड़ने की चीज होती थी और उस पर प्रयोग करने की संभावना नहीं थी। फिर मुझे राहत इंदौरी का एक शेर बहुत पसंद आया था। शेर यूँ था-
शहरों में तो बारूदों का मौसम है
चलो गाँव को अमरूदों का मौसम है
पर अब मुझे यह शेर भी 'शेर' की तरह डराता है। हुआ ये कि यह शेर सुन कर मैं गाँव के लिए बिस्तरा बांधने लगा था तभी पता चला कि मालेगाँव में बम विस्फोट हो गया और पता नहीं दुर्भाग्य से या सौभाग्य से यह विष्फोट समय से पहले हो गया और कुछ इस तरह से हुआ कि -
जो तोहे कांटा बुहे, ताहि बूह तू फूल
तुझको फूल के फूल हैं, बाको हैं त्रिशूल
सो भइया हुआ यूँ था कि दूसरों के लिए बम बनाने वालों ने बम तो बना लिये थे पर बेचारे बम बनाने वाले हिन्दू भाई कुछ ज्यादा ही उतावले थे सो बनाने वालों के साथ ही फट गये और त्रिशूल दीक्षा लेने वालों के लिए त्रिशूल बन गये । इन बम बनाने वालों ने तैयारी तो पूरी कर रखी थी। उनके अड्डे से मुसलमानों जैसी नकली दाढी और पाजामे शोरवानी तक बरामद हुयीं थीं जिन्हें पहिन कर वे जाते और प्रत्यक्षदर्शी पुलिस को बताते कि ऐसी रूपरेखा वाले यहाँ घूम रहे थे और यह उन्हीं की करतूत है। मीडिया को मशाला मिल जाता और फिर क्या था उर्वर दिमाग लगातर कहानियाँ उगलते रहते। पर मैं डर गया और कहीं नहीं गया।
कई महीने गुजर जाने के बाद फिर गाँव जाने का भूत सवार हुआ तो मैंने फिर बिस्तर बांधना शुरू किया और फिर वही हुआ। दीवाली से ऐन पहले मडगाँव में पटाखा फट गया जो कुछ बड़ा था और जिसे ले जाकर बाजार में रखने जा रहे दोनों वीर, वीर गति को प्राप्त हुये। ये बेचारे भी उसी गैंग के सदस्य थे जो खुद बम विष्फोट करके दूसरे धर्म वालों पर जिम्मेवारी थोपने का काम अपनी भगवा पार्टी के मुँहजोरों को सौंप देते हैं ताकि महौल में साम्प्रदायिकता छा जाये जो बहुमत के वोटों की बारिश करे। समाज में बंटवारा होगा तो लाभ बहुसंख्यकों की पार्टी को ही होगा।
वैसे मैं तीसरी बार भी चिरगाँव जाने की कोशिश करता पर मेरा दुर्भाग्य कि इस बार हिन्दी के एक कवि की कविता मेरी राह में आ गयी। मैं गाँव जाने को था और स्व क़ैलाश गौतम की कविता कह रही थी-

गाँव गया था गाँव से भागा
पंचायत की चाल देख कर
आंगन की दीवाल देख कर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आंख में बाल देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

नये नये हथियार देखकर
लहू लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देख कर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का श्रंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

कविता तो बहुत लंबी है पर मेरे लिए इतनी ही काफी थी और मैंने सोच लिया कि मालेगाँव, मडगाँव, चिरगाँव, क्या किसी गाँव नहीं जाऊँगा।
............नहीं तो जाऊंगा पर शहर में भी सुकून कहाँ है! और यह अमेरिका तो ग्लोबल विलेज बनाने को तैयार है व हमारे प्रधानमंत्री जिसके लिए उतावले हैं।
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र

सोमवार, नवंबर 02, 2009

व्यंग्य - प्रयोगशाला में रक्त

व्यंग्य
प्रयोगशाला में रक्त
वीरेन्द्र जैन
समाचार न्यूयार्क का है और इसे एडवांस्ड सेल टैक्नोलौजी, रोचेस्टर स्थित मायो क्लीनिक और शिकागो की इलीनोसिस यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने खुशी खुशी दिया है। समाचार यह है कि उन्होंने प्रयोगशाला में रक्त बनाने में सफलता पा ली है।
इस खबर से जहाँ अमरीका के वैज्ञानिकों को खुशी हो रही है वहीं इसने मेरा खून खौला दिया है, जो असली है।
यह हमारे पौराणिक इतिहास पर हमला है । हमारा तो सारा पौराणिक साहित्य ही रक्तरंजित है और इसी रक्तरंजन से हमारा मनोरंजन होता रहा है। भक्ति साहित्य में हमारे सारे नायक अपने अपने समय के खलनायकों को रक्त स्नान कराते रहे हैं व इसी रक्त प्रवाह को देख कर हम अपने नायकों की महानता और ताकत को पहचानते रहे हैं। कोई वाण चला रहा है तो कोई चक्र चला रहा है कोई त्रिशूल से एक साथ तीन छेद कर रहा है तो कोई मुग्दर से खोपड़ा फोड़ रहा है। हथियारों द्वारा न मरने का वरदान भी ले लिया हो तो हमारे देवताओं ने घुटनों पर रख कर नाखूनों से ही चीरफाड़ डाला। जाओ बेटे कहाँ जाते हो। ये बिल्कुल वैसा ही था जैसे कभी कभी कोई थानेदार मंत्री के खास सिफारिशी आदमी को हरिजन महिला से बलात्कार के मामले में फंसवा कर कहता है कि और करा ले मंत्री की सिफारिश अब देखते हैं कि मंत्री का आशीष भी तुझे कैसे बचाता है? खूनाखच्चर से कोई बचना भी चाहे तो उसे गीता सुना दी जाती है जिससे वह 'जो आज्ञा' कह कर मैदान में कूद जाता है। अब अगर नकली खून बन गया तो सारा मजा ही जाता रहेगा। ज्यादा से ज्यादा कंजूस आदमी अफसोस करेगा कि दस हजार का खून बह गया, बहुत नुकसान हो गया।

अब पता नहीं खून के संबंधों का क्या होगा! लोग पूछेंगे कौन से खून के सम्बंध? असली के या नकली के? 'खून का बदला खून' का अर्थ होगा कि तुमने हमारे दो लीटर खून का नुकसान कराया था अब हम तुम्हारे चार लीटर खून का नुकसान करायेंगे।
विश्वहिंदू परिषद के लोग जब नारा लगायेंगे- जिस हिंदू का खून न खौले खून नहीं वो पानी है- तब लोग अपनी तरफ से एक दो लीटर खून उन्हें यह कहते हुये भिजवा देंगे कि अभी जरा मैं व्यस्त हूँ तुम और किसी हिंदू के यहॉ खौलवा लो।
'खून भरी मांग' से कोई नये तरह के कॉस्मेटिक आइटम की कल्पना कर सकता हैं जैसे लिपिस्टक में जानवरों का खून लगता था वैसे अब मनुष्यों के नकली खून का प्रयोग होने लगेगा और उसे वैसा ही शाकाहारी मान लिया जायेगा जैसे बायलर अंडे को अहिंसा धर्म वाले अनेक लोग शाकाहारी मान चुके हैं। लिपिस्टक पर कन्टेंट्स में लिखा रहेगा 'आर्टीफीशियल ह्यूमन ब्लड यूज्ड'।
खून के आंसू ग्लिसरीन के आंसुओं की ही दूसरी किस्म मान ली जायेगी। गालिब का वह शेर बेकार हो जायेगा जिसमें वे कहते हैं कि जो आंख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है! जब कवि भावुकता पैदा करने के लिए कहेंगे कि मानव का रक्त बहुत सस्ता हो गया है तो लोग समझेंगे कि बाजार में नकली खून के रेट गिर गये हैं। अग्रवाल साब जैन साब से पूछने लगेंगे कि नकली खून बनाने वाली कम्पनी के तुम्हारे पास कितने शोयर हैं उसके रेट गिर रहे हैं।
बाजार में भी लोग नकली खून के भी असली होने की मांग करेंगे क्योंकि तब तक नकली खून के भी कई डुप्लीकेट ब्रान्ड बाजार में आ जायेंगे। मरीज के रिश्तेदार दुकानदार से कहेंगे कि यार अपने घर का मामला है जरा असली वाला देना चाइना वाला मत टिपा देना।
असली मुसीबत तो रक्त दान शिविरों पर आयेगी जिसमें किसी के भाग लेने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी। तब जहाँ राजीव गांधी, इंदिरा गांधी, संजय गांधी आदि के जन्म दिन पर जो शिविर लगाये जाते रहे हैं ऐसे शिविरों में पार्टी के सेठों द्वारा एक क्विंटल दो क्विंटल रक्त दान की घोषणा होने लगेगी। रक्तदान के लिए युवाओं की जरूरत पड़ती थी सो अब वह भी खतम हो जायेगी। बस पैसे वाले मिल जायें तो चाहे जितना खून दान करवा लें।
नकली खून से कई पार्टियाँ अपने झंडे को रंग कर लाल कर लेंगी तब कम्युनिष्टों को स्पष्ट करना पड़ेगा कि उनका झंडा असली रक्त से रंगा होने के कारण ही लाल है।
डाक्टर लोग अपनी प्रिय कम्पनी का रक्त लेकर ही आने को कहेंगे तथा यह चेतावनी भी दे देंगे कि दूसरी कम्पनी का ब्लड लाये तो डाक्टर की कोई जिम्मेवारी नहीं होगी। शाम को मेडिकल रिप्रिजेंटेटिव उनका पूरा हिसाब कर जायेगा।
ये वैज्ञानिक लोग दिल जिगर आदि को खोल खोल कर पहले ही शायरी का सत्यानाश कर चूके हैं, और अब नकली खून बना कर बचे खुचे का भी सत्यानाश कर देना चाहते हैं। हमारे पवित्र जगत्गुरू देश को ऐसी सारी वैज्ञानिक उपलब्धियों का कस विरोध करना चाहिये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

मंगलवार, सितंबर 29, 2009

भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने का दर्शन

व्यंग्य
भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने का र्दशन
वीरेन्द्र जैन
हमारे कानून मंत्री ने कहा है कि भ्रष्टाचार का जड़ से खात्मा जरूरी है। वे भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में बोल रहे थे। मैंने बहुत खोज की पर कोई भी ऐसा नहीं मिला जो उनसे असहमत हो। उनके धुर विरोधियों ने भी उनके बयान के बाद यह नहीं कहा कि भ्रष्टाचार को पत्तियों से, या फलों से या तने से खत्म करके अपना काम चलाना चाहिये। भ्रष्ट से भ्रष्ट व्यक्ति ने भी यही कहा कि अगर जड़ से खत्म हो तो हम सबसे आगे हैं। करो न भाई जड़ से खत्म करो और अगर जनता को बता दो कि भ्रष्टाचार की जड़ कहाँ पर है तो वो भी थोड़ा बहुत मट्ठा उसमें डालने की कोशिश करेगी। राष्ट्रीय सुरक्षा कोष की तरह पूरे देश में से मट्ठा एकत्रित कर भ्रष्टाचार की जड़ों में डलवाया जा सकता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री टीवी पर राष्ट्र के नाम संदेश दे सकते हैं ।
प्यारे देश वासियो, मैलाओ(महिलाओ), और बच्चो,
आज बहुत खुशी की गल्ल(बात) है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने का विचार बना है। इस महायज्ञ में हम सबको आहुति देनी है इसलिए आप सब अपने अपने घर से यथा सम्भव मट्ठा लेकर प्रधानमंत्री कोष में जमा करवायें ताकि हम भ्रष्टाचार की जड़ों में डाल कर उसको जड़ से खत्म कर सकें। ध्यान रखें कि मट्ठा शुद्ध दूध से जमाये दही से निकाला गया हो।
प्रधानमंत्री आमने सामने होते तो जनता पूछती कि मट्ठा तो हम दे दें पर आप हमें भ्रष्टाचार की जड़ तो बता दो हम खुद ही डाल देंगे। दरअसल जनता को सरकार पर भरोसा नहीं है कि वह उसका दिया मट्ठा भ्रष्टाचार की जड़ों में डालेगी या धर ले जाकर कड़ी बनायेगी।
बस यही वह बिन्दु है जहाँ से दार्शनिक चिंतन प्रारंभ होता है, जिसका मतलब होता है कि बस चिंतन चिंतन करते रहो और किसी निष्कर्ष पर न खुद पँहुचो और ना ही किसी को पहँचने दो। दार्ाशनिक कहते हैं कि इस दुनिया में दो तरह के पदार्थ होते हैं एक जड़ तो दूसरा चेतन किंतु भ्रष्टाचार के मामले में देखा गया है कि जितना भी भ्रष्टाचार होता है वह सब चेतन ही करते हैं जड़ नहीं करते। जड़ तो केवल भ्रष्टाचार का माध्यम बनता है। मुद्राएं चाहे धातु की हों या कागज की हों वे ही भ्रष्टाचार का माध्यम बनती हैं। किंतु हमारी संस्कृति में उन्हें भी लक्ष्मी कहा गया है और चंचला कह कर उनकी दिशाहीन गति की ओर फिसलती रहने वाली माना गया है। फिर जड़ क्या है? यह शाश्वत चिंतन का विषय है।
पर कानून मंत्री को र्दशन से कोई मतलब नहीं है वे तो कानूनी भाषा में जड़ जिसे मूल कहा जाता है, वहाँ से सम्बंध जोड़ रहे थे। बीज जब अंकुरित होता है तो उसकी दो दिशाएं होती हैं एक तरफ उसका विकास नीचे की तरफ होता है तो दूसरी तरफ ऊपर की तरफ जिसे तना कहा जाता है जिसमें बाद में पत्तियां फूल व फल लगते हैं। फूल व फल तोड़ लिए जाते हैं पत्तियां झड़ जाती हैं और तना ठूंठ सा अपनी शाखाएं चारों ओर लगाये खड़ा रहता है पर ऐसे में भी जड़ें अपना काम निरंतर करती रहती हैं। वे नीचे की तरफ चुपचाप गति करती रहती हैं और अपना जाल फैलाते रहने के साथ तने को ताकत पहुँचाती रहती हैं। उनका आशय ऐसी ही जड़ों से रहा होगा। वे वहीं पर मट्ठा डालकर खत्म कर देना चाहते हैं- न होगा बांस न बजेगी बांसुरी।
पर सवाल यह है कि जड़ कहाँ है? किससे पूछूँ? सुखराम से पूछ कर उनके सुख में दखल देना नहीं चाहता तो क्या अमरेन्दर सिंह से पूछूँ या प्रकाश सिंह बादल के उत्तराधिकारी सुखवीर से पूछूँ? लालू प्रसाद से पूछूँ या शिबू सोरेन से पूछूं? जार्ज से पूछूं या जया जेटली से पूछूँ? शरद पवार से पूछना क्या ठीक रहेगा? डालर पसंद करने वाले बंगारू लक्ष्मण से पूछूं या पैसे को खुदा मानने वाले जूदेवों से पूछूं? अमरसिंह बीमार हैं और सचमुच में हैं ऐसे में ऐसे सवाल पूछना ठीक नहीं है? संसद में सवाल पूछने वालों से पूछूँ या सांसद निधि स्वीकृत करने वालों से पूछूं। कबूतरबाजी करने वालों से पूछूं या अविश्वास प्रस्ताव पर बीमार हो जाने वालों से पूछूं? तेलगी से पूछूं या राजू से पूछूं? शंकराचार्यों से पूछूँ या काले पैसे को सफेद करने वाले जादूगर बाबाओं से पूछूं? शेयर घोटाला करने वालों से पूछूं या नकली नोट बनाने वालों से? जब जिन्दा लोगों से नहीं पूछ पा रहे हैं तो मर जाने वालों से वैसे भी कुछ नहीं पूछा जाता बरना प्रमोद महाजन से पूछा जा सकता था। अजहरूद्दीन ने अब क्रिकेट खेलना छोड़ दिया है और अब उस क्षेत्र के बारे में बात भी नहीं करना चाहते बरना उनसे पूछता! फिर फिल्म वाले तो किसी को कुछ नहीं बताते कहते हैं कि हमारे क्षेत्र में तो सब कुछ गॉसिप पर चलता है। अफसरों से पूछूं या ठेकेदारों से पूछूं? सप्लायरों से पूछूँ या डुप्लीकेटरों से पूछूं? मध्यप्रदेश के मंत्रियों, भूतपूर्व मंत्रियों से पूछूँ या जन्मदिन मनाने वाली मायावती से पूछूं? जमाखोरों से पूछूं या मुनाफाखोरों से पूछूं? कहाँ जाऊँ किससे पूछूँ?
हे जड़ो! तुम कहाँ हो? हम लोग मट्ठा लिये खड़े हैं, कोई तो बतलाये कि कहाँ डालें? भारत के गड़े खजानों में डालें या स्विस बैंक में डालें? कोई भी कुछ नहीं बता रहा। और ठीक इसी अवस्था को र्दशन और इसे अपनाने वाले को दार्शनिक कहा जाने लगता है। जिसे कोई उत्तर नहीं मिलता कहीं से वह दार्शनिक होने लगता है। यदि जनता को इसी तरह मट्ठा लिये हुये बहुत देर हो गयी तो हो सकता है कि वह इस उम्मीद में बयान देने वालों के मुँह में ही मट्ठा डालने लगे कि शायद जड़ों तक पहुँच जाये।

रविवार, सितंबर 27, 2009

व्यंग्य रिटायर्ड और रफूगर

व्यंग्य
रिटायर्ड और रफूगर
वीरेन्द्र जैन

रफू करने वाला रिटायर लोगों को पहचानाता है।
वे उसके नियमित ग्राहक होते हैं। कभी पैंट ठीक कराने आते हैं तो कभी स्वेटर।
पुराने पुराने जमानों के पैंट देखने हों तो रिटायर्ड आदमियों को उनके घर पर मिलने चले जाइये। एकदम संकरी मोहरी की रंग उड़ी पैंट पहिने मिल जायेंगे। इसी पेंट में ये 'सूखे बेर' कभी खूब फबते थे। ये पेंट पहिन कर ही इन्होनें सक्सेना मैडम पर अपने प्रेम का इजहार किया था जिसकी शिकायत उसने दफ्तर के बड़े साहब से कर दी थी। सक्सेना मैडम के इस साहस से बड़ा साहब डर गया था क्योंकि वह खुद अगले ही दिन अपने प्रेम का इजहार करने वाला था।
फिनायल की गोलियों को वर्षो झेलने के बाद और सर्दियों में वार्षिक रूप से धूप देखने के बाद अब अपनी अंतिम यात्रा पर निकल ही आयी ऐसी पैंटें रिटायर्ड की सूखी टांगों पर और पुन: चिपक जाती हैं। पूरे प्रयास से अपनी रीढ़ सीधी किये ये अपने कंधों के हैंगर पर लटकाये रहते हैं उस कुर्ते पाजामें के सैट का वह कुर्ता, जिसका पाजमा घुटनों से फट चुकने के बाद अब पोंछा लगाने के काम आ रहा होता है।

रफू वाला जानता है कि इस बूढे क़े पास से कुछ मिलने वाला नहीं है, क्योकि उत्तराधिकार कानून के अन्तर्गत रफू वाला नहीं आता। यहॉ तक कि आशीर्वाद भी कुछ नियमों और धाराओं के अन्तर्गत असली वारिसों के लिए सुरक्षित होते हैं। हॉ जीवन अनुभव जरूर रफू वाले को मुफ्त मिल जाते हैं क्योकि इन अनुभवों को झेलने की फुरसत किसी भी असली वारिस के पास नहीं होती। रफू पर अपनी आंख गढ़ाये, वह कानों से सुनता रहता है। घर के, दफ्तर के, शहर दर शहर हुए ट्रांसफरों के, और न जाने कहॉ कहॉ के - पर सब अतीत के। वर्तमान के बारे में चुप लगा जाना चाहता हैं रिटायर्ड आदमी। क्यों करे अपने बेटों बहुओं की बुराई इस बाहरी रफूगर के सामने।

वर्तमान के बारे में बोलना होगा तो अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों पर बोलेगा। गाजा पट्टी पर दौड़ लगायेगा। क्यूबा पहुँच जायेगा। ज्यादा नजदीक आने का मन हुआ तो चीन अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बारे में बोलने लगेगा। अगर आपने किसी तरह उसे देश पर ही उतार दिया तो केन्द्र सरकार पर बोलेगा। पक्षधरता से बचेगा तथा यहॉ वहां निगाह डालने के बाद कहेगा कि सब चोर हैं। ऐसा कह कर वह असली चोर को चोर कहने से बच जाता है। यह बेहद आर्दश और प्रचलित वाक्य हो गया है। इसको बोलने से कोई खतरा नहीं रहता और गाली दिये जाने का साहस भी प्रगट हो जाता है, भले ही इस कूटनीति के कारण गिने चुने वे लोग भी पिस जाते हों जो कि जिन्दगी भर से ईमानदारी का चिरायता पी रहें हो और इसी कारण गिने चुने हों। राज्यों पर बोलना पड़ा तो वो जम्मू कश्मीर, असम, नागालैण्ड, त्रिपुरा आदि पर बोलेगा विदेशी आतंकवादियों को दोषी बतायेगा। अपने राज्य पर उतरेगा तो स्वर को धीमा कर लेगा- फुसफुसाने जैसा- इस सरकार के बारे में कुछ कहेगा तो लगे हाथ पिछली सरकार के भी दोष बताता जायेगा। परिस्थितियों को भी गिनाता रहेगा- भष्टाचार तो है, पर क्या करें बरसात भी नहीं हुयी, सोयाबीन का तो बीज ही सूख गया या बाढ़ आ गयी, भूकंप आ गया, बगैरह बगैरह।

रफू करने वाले को रोज ही ऐसे लोगों से वास्ता पड़ता है पतली सुई से पतले पतले धागों के सहारे उन छेदों को भरता रहता है, जो हो चुके हैं पर उसकी कलाकारी से वे हो चुके दिखायी न दें। वह एक ओर से सुई डालकर दूसरी ओर निकालता है और दूसरी ओर से डालकर पहली तरफ निकाल देता है उसी तरह वह रिटायर्ड लोगों की बातें एक कान से सुनकर दूसरी तरफ से निकाल देता है। रिटायर्ड लोग शिफ्टों में आते रहते हैं उसके पास। चाय वाय नहीं पीते कहते हैं बिना शक्कर की पीते है पर चाय वाले छोकरे के पास बिना शक्कर की चाय नहीं होती।

छेद भर कर लम्बी सांस छोड़ता है रफूवाला और ध्यान के केन्द्रीकरण को ऐसे विकेन्द्रित कर देता है जैसे बरसात आने पर बंधा हुआ छाता खोल लिया जाता है। छेद में सिमिट गयी दुनिया फिर फैल जाती है। अर्जुन को पूरी चिड़िया, पेड़ और पर्यावरण भी नजर आने लगता है। इसी के साथ रिटायर्ड आदमी सिमिट जाता है बड़ी मुश्किल से अपनी टांगों पर चिपके पेंट से दो और दो और एक मिला कर पाँच रूपये देता है और किसी अपराध बोध से उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना अपना पैंट लेकर चला जाता है।
एकाध महीने बाद फिर किसी पुराने पैंट या स्वेटर को लेकर आयेगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

व्यंग्य चाँद पर पानी की खोज

व्यंग्य
चाँद पर पानी की खोज
वीरेन्द्र जैन
बधाई हो
बधाई हो
बधाई हो
बधाई हो
''काहे की बधाई दे रहे हो रामभरोसे?'' मैंने सुबह सुबह राम भरोसे को बधाइयां देते लेते देख कर पूछा। उसके हाथ में कई अखबार थे।
''तुम्हें दुनिया की कुछ खबर तो रहती नहीं, क्या आज का अखबार नहीं देखा जिसमें हमारे वैज्ञानिकों ने सबसे पहले चाँद पर पानी खोज लिया है।''
'' क्या तुम्हारे जैसे किसी पंडित को चाँद पर ले गये थे जिसने पूजा पाठ कर के पानी खोज लिया?'' मैंने कहा
''तुम तो हाथ धोकर दिन रात पंडितों के पीछे पड़े रहते हो, बेचारे किसी तरह रो धोकर अपना डूबता धन्धा सम्हाले हुये हैं सो तुम्हें वो भी नहीं सुहाता। अरे भाई पंडितों ने नहीं वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है। हमारे वैज्ञानिकों ने और तुम खुश हो जाओ कि उन सैकड़ों वैज्ञानिकों में भी दो प्रतिशत भी ब्राम्हण नहीं थे। अपुन ने वो जो चन्द्रयान-1 भेजा था उसी के मिनरलौजी मैपर ने संकेत भेजे हैं।'' वह बोला
'' पर उस चन्द्रयान ने तो काम करना बन्द कर दिया था।''
''हाँ कर दिया था पर ये सूचनाएं पहले भेज दी गयी थीं जिनका विश्लेषण अब हुआ है।''
'' पर हमारे वैज्ञानिक धरती पर पानी क्यों नहीं ढूंढ पाते! अब क्या हम चाँद से टैंकर बुलवायेंगे?'' अन्दर से मेरी पत्नी ने कहा
'' तुम भी भाभी इनके साथ रह कर इन जैसा ही सोचने लगी हो, इस उपलब्धि पर मिठाई खिलाने की जगह इनकी ही तरह नकारात्मक बातें कर रही हो। देखती नहीं कि हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी इस उपलब्धि पर किस तरह देश को बधाइयाँ दी थीं और उसे चुनाव के दौरान भी बताया था।'' उसने शिकायत भरे स्वर में मेरी पत्नी से कहा।
'' हाँ और चुनाव के बाद ही वह चन्द्रयान हजारों करोड़ रूपयों समेत डूब गया। क्या पता कोई संथानम कल के दिन ये रहस्य भी बता दे या कोई जसवंत सिंह सारे कच्चे चिट्ठे खोल दे कि वह तो चुनावों के पहले ही फेल हो गया था।'' मैंने उसे छेड़ा।
''तुम हमेशा ही गलत दिशा में सोचते हो'' वह सचमुच भिनक गया।
'' हम तो इतना जानते हैं कि हमारी सरकार स्विस बैंक के खाते दारों को नहीं खोज पाती और जो स्विजरलैंड इसी धरती पर है उसके खातों का पता नहीं लगा पाती, भाजपा कार्यालय में हुयी चोरी में गये करोड़ों रूपयों का पता नहीं लगा पाती, अरूषि कांड के हत्यारों को नहीं खोज पाती, संसद में चालीस लाख लोगों द्वारा सीधे प्रसारण में सांसदों द्वारा लाये गये करोड़ों रूप्यों के स्त्रोत का पता नहीं चला पाती और ना ही उन सांसदों से पूछताछ ही कर पाती है, न अपने एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री की नारको टैस्ट की सलाह ही मान पाती है। देश में छुपा कई लाख करोड़ का काला धन बरामद नहीं कर पाती, जंगलों में छुपे आतंकवादी नहीं खोज पाती वह फेल चन्द्रयान से चाँद पर पानी खोज लेती है।''
''तुम कहना क्या चाहते हो?'' वह बिफरा
'' मैं क्या कहूँगा पर किसी शायर ने कहा है-
हम चाँद के बीराने को आबाद करें क्यों
इस धरती पर भी क्या कहीं वीराने नहीं हैं
जिन हाथों ने मयखानों की दीवार रखी है
ये सच है उन्हीं हाथों में पैमाने नहीं हैं
''तो क्या अमरीका और रूस बेबकूफ थे जिन्होंने पहले कुत्ता कुतिया और फिर आदमी चाँद पर भेजे''
'' पर क्या वहाँ भी हमारे यहाँ जैसे हालात थे? अब मान लो हमारा चाँद पर कब्जा भी हो गया तो नेताओं से सांठगांठ करने वाला माफिया वहाँ भी प्लॉट काटने लगेगा और भारत भवन पर सीमेंट के होर्डिंग लगाने वाले वहाँ भी अपना सीमेंट सप्लाई करवा दें भले ही वहाँ की चिमनियाँ भी पतित होने लगें''
रामभरासे ने अपने अखबार समेटे और बिना चाय पिये चला गया।
वीरेन्द्र जैन
२/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

बुधवार, सितंबर 23, 2009

व्यंग्य - परमेश्वर की रिपोर्ट

व्यंग्य
परमेश्वर की रिपोर्ट
वीरेन्द्र जैन
''थानेदार साब कहां हैं?'' एक महिला ने थाने में प्रवेश करने के बाद कुर्सी पर बैठे हुये हैड कानिस्टबिल से पूछा।
''वे काम से गये हैं, कहिये आपको क्या काम है?'' कानिस्टबिल बोला।
''मुझे रिपोर्ट लिखानी है'' महिला ने कठोर स्वर में कहा।
''क्या हुआ है, किसके खिलाफ रिपोर्ट लिखाना है?'' कानिस्टबिल ने उसे कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुये कहा।
''परमेश्वर के खिलाफ लिखाना है'' महिला बोली।
कानिस्टबिल समझ नहीं पाया कि वह व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग कर रही है या जातिवाचक संज्ञा का। उसने पूछा-''ये कौन हैं? कहां रहते हैं?और आपका इनसे क्या रिश्ता है?''
''ये पुरूष हैं, घर में रहते हैं और मेरे पति लगते हैं'' वह बोली
''पूरा नाम बताइये, परमेश्वर दास, या परमेश्वर सिंह, व उसके आगे क्या लगाते हें , मेरा मतलब जाति से है'' कानिस्टबिल ने पुलिसिया मनोविज्ञान के अनुसार सामने वाले को तोड़ने के लिये उपयुक्त कठोर स्वर का प्रयोग किया।
''देखिये मेरे पति का नाम तो आरबी यानि राम भरोसे शुक्ला है पर वे हमारे पति परमेश्वर हैं इसलिये मैं कह रही थी कि परमेश्वर के खिलाफ रिपोर्ट लिखाना है''
कानिस्टबिल ने महिला को घूर कर देखा और पूछा-''क्या शिकायत है तुम्हें उन से?''
''जी रात में उन्होंने मुझे जोर से डांटा, मूर्ख और गंवार कहा, मेरी शिक्षा को बेकार बतलाया जिससे मुझे बहुत मानसिक आघात पहुंचा। में रात भर रोती रही। सुबह मेरी पड़ोसिन ने बतलाया कि नया कानून लागू हो गया है जिसके अनुसार जोर से बोलने और डांटने पर भी रिपोर्ट लिखायी जा सकती है। मैं तो रात भर सो भी नहीं सकी और पड़ोसिन कह रही थी कि यह भी लिखा देना कि आत्महत्या करने का मन हुआ।''
''आखिर ऐसा तुम्हारे पति ने क्यों किया, क्या दहेज प्रताड़ना का मामला है?''
''नहीं दीवानजी ऐसा कुछ नहीं है। बात असल में ये है कि कल करवा चौथ थी सो मैंने सारे दिन उपवास रखा और शाम को परमेश्वर की प्रतीक्षा करने लगी ताकि उनकी पूजा करके व्रत तोड़ूं। पर वे जाने कहां कहां के कामों में फंसे रहते हैं सो देर से लौटे। और जब मैंने शिकायत के साथ पूजा के लिये कहा तो डांटने लगे और मुझे मूर्ख व दकियानूस बताने लगे। बिना पूजा कराये मेरा व्रत तुड़वा दिया व खाना खाकर सो गये। बस मैंने सोच लिया कि इन्हें सबक सिखा कर रहूंगी।''
''मैं अभी साले को पकड़ कर लाता हूं और घर से ही जूते मारता हुआ लाउंगा'' कानिस्टबिल बोला।
'' नहीं नहीं, ऐसा न करना दीवानजी। आप तो केवल इतना ही समझा दें कि जब मैं जैसा कहूं वे वैसा ही आचरण करते रहें- बस!''
कानिस्टबिल की समझ में सब आ गया। उसने अन्दर ले जाकर उसके बयान लिये और आश्वस्त किया कि पति की रिपोर्ट बताने के लिये कभी भी चली आया करे, वो उसके पति को ठीक कर देगा। हां अपनी पड़ोसिन को भेज दे ताकि थानेदार साब उसकी गवाही ले सकें
महिला की समझ में आ गया था कि कानून की मदद से घर के बाहर निकल कर 'घरेलू' हिंसा से मुक्ति पायी जा सकती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र फ़ोन 9425674629

शनिवार, सितंबर 19, 2009

व्यंग्य - हमारे बारे में नहीं कहा मजाकिया थरूर ने

व्यंग्य
हमारे बारे में नहीं कहा मजाकिया थरूर ने
वीरेन्द्र जैन
हम जब से स्कूल में जाने लायक हुये थे तभी से यह सुनना पड़ता रहा है कि मनुष्य एक सभ्य जानवर है। वो तो अच्छा है कि साँप के कान नहीं होते, या हो सकता है कि उसने भी मनुष्य की असभ्यताएं देख देख कर और फिर भी उसे सभ्य जानवर बतलाये जाने की बात से इतना ऊब गया हो कि उसने अपने कान ही छोड़ दिये हों- ये ले अपनी लकुटि कमरिया बहुतई नाच नचायौ।
यह उन दिनों की बात है जब बाप लोग अपने बच्चों को मास्टरों के हाथों में सोंप और अपने हाथ जोड़ कर कहते थे कि इसे आदमी बना दो, मैं आपका जिन्दगी भर अहसानमंद रहूँगा। उन दिनों मास्टरों के हाथों में चाक डस्टर नहीं अपितु छड़ी होती थी जो बिल्कुल सरकस के रिंग मास्टर की तरह हमें यह विश्वास दिलाती रहती थी कि हम अभी कौन हैं और बाप लोगों ने हमें सोंपते हुये क्यों आदमी बनाने की बात कही थी। पता नहीं वे हमें क्या समझते थे कि आदमी बनाने की हमारी शुरूआत हमें मुर्गा बनाने से होती थी। मास्टरों को अपने ज्ञान देने की क्षमता का पूरा पता होता था इसीलिए हमसे सुबह सुबह किसी ऊपर वाले से प्रार्थना करने को कहा जाता था और उससे ज्ञान मंगवाया जाता था- हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये। वो चूंकि आनंददाता था इसलिए हमारी इस गलत जगह की जा रही मांग ज्ञान देने की मांग पर आनंद लेता होगा। जैसे हम मनोरंजन वाली जगह पर राशन मांग रहे हों।
उस शिक्षा व्यवस्था से हम क्या बने इसकी जानकारी थरूर के बयान से जरूर मिलती है। हम लोग इतने जमीन से जुड़े रहे कि कभी हवाई यात्रा नहीं की पर इतना जरूर पता लग गया कि हवाईजहाजों में भी अपना सैकिंडक्लास और जनरल डिब्बा जैसा कुछ होता है जहाँ पर ब्रम्हचर्य की परीक्षा भले ही न हो पाती हो पर भारतीय रेल के आनन्द से वंचित नहीं होना पड़ता है।
दरअसल यदि पहले ही हमें हमारी ठीक सी पहचान करा दी होती तो इतना बखेड़ा खड़ा नहीं होता। बैल को भले ही हमने पिता तुल्य नहीं माना हो पर गाय हमारी माता होती है और बकौल अशोक सिंहल हरियाना के चार दलितों की हत्या की तुलना में एक गाय को मारने का सन्देह भी बड़ा अपराध है।
कभी भी किसी जानवर ने अपना नाम आदमी के नाम पर रखने की कोशिश नहीं की पर हमारे यहाँ कुल आबादी में से कम से कम बीस प्रतिशत तो अपने आप को सिंह कहते हैं और अपने नाम के साथ जोड़े रहते हैं। इतना ही नहीं उनमें से अधिकांश किसी कुर्सी की तलाश में नहीं अपितु सिंहासन की तलाश में रहते हैं।
प्रत्येक के अपने अपने आराघ्य होते हैं और वे हमारे आर्दश भी होते हैं। हम खुद तो उन जैसे नहीं बन पाते पर अपने बच्चों को उन जैसा बनने के उपदेश पिलाते रहते हैं। अब क्या किया जाये कि हमारे एक देवता का शरीर तो मनुष्य का है पर सिर हाथी का है। एक देवता का तो पूरा शरीर ही बन्दर का है। एक राजनीतिक दल ने तो अपने युवा संगठन का नाम ही उनके नाम पर रख छोड़ा है। वाराह अवतार और मत्स्य अवतार को तो छोड़ दीजिये, एक देवता ने अवतार लिया तो आधा मनुष्य और आधे सिंह का रूप धारण किया।
बफादारी में आगे रहने वालों में आदमी से भी आगे रहने वाला कोई जानवर ही हो सकता है। किसी शायर ने फर्माया भी है-
जमाने में बफा जिन्दा रहेगी
मगर कुत्तों से शर्मिन्दा रहेगी
इसलिए अपने को ज्यादा बफादार समझने के लिए अपने अपने पार्टी अध्यक्षों के आगे सभी सदस्य मनुष्य कहाँ रह पाते हैं। वे बिना कहे ही दुमदार हो जाते हैं।
मजाक न समझ पाने के कारण जो लोग थरूर के जूलॉजीकल ज्ञान से दुखी हैं उन्हें बता दूँ कि उन्होंने हम जमीन से जुड़े लोगों का कोई अपमान नहीं किया। दरअसल में वे अपने और जनता के बीच में उड़ने वालों को जब 'कैटल' समझ रहे हैं तो हमें तो वे कीड़े मकोड़े समझ रहे होंगे।
मैं तो अपने आप को चींटी समझा जाना पसंद करूंगा जिससे सूँड़ में आशियाना तलाश सकूँ। बुरा क्या मानना भाई सबके मजाक करने का सबका अपना ढंग है।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

व्यंग्य- चंदा वसूलने वालों से प्रार्थना

चंदा वसूलने वालों से प्रार्थना
वीरेन्द्र जैन

हे चंदायाचक,
तुम्हैं (दूर से ही) प्रणाम है।
तुम हमारे घर और दुकान पर पधारे तथा साथ में कुछ ऐसे लोगों को भी साथ में लेकर आए जिनके आगे हमारी बोलती बंद हो जाती है।ऐसे अघोषित आपत्तिकाल एंव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन पर बयान देने के लिए कोई भी मानव अधिकार आयोग कही भी सक्रिय नही है। आपके नक्कारखाने में मेरी तूती की आवाज को कोई सुनने वाला नहीं।
आप धर्मध्वजा के वाहक हैं एवं मैं उस महिला तस्लीमा नसरीन जैसा भी सबल नही हूँ कि धर्म के नाम पर होने वाले किसी भी किस्म के पांखडों का मुखर प्रतिवाद कर सकूँ। धर्म के नाम पर या राष्ट्रीयता के नाम पर कही पर भी झंडा फहराने के लिए आप आजाद हैं और वह भी विशेष रूप से विवादास्पद स्थानों पर झंडा फहराने या धर्म-ध्वजा ठोकने से आपकी राष्ट्रीयता और धार्मिकता मजबूत होती है। आप किसी भी दिन इस देश के बुद्विजीवियों, पत्रकारों, लेखकों और कलाकारों की खोपड़ी पर धार्मिक व राष्ट्रीय झंडे को ठोकेंगे और उनकी कराह के विरोध में उन पर एक लात जमाकर कहैंगे कि देशद्रोही धर्म और राष्ट्रीयता का विरोध करता हैं, तुझे तो बंगाल की खाड़ी में फेंक देगे।
हे प्रभो, आप जो कुछ कर रहे हैं उसे धर्म कह रहे हैं। आप विश्व के प्राचीनतम धर्म के वारिस होने का दावा करते हैं, भले ही जो कुछ आप आज कर रहे हैं धर्म के नाम वैसा किए जाने के प्रमाण आज से बीस वर्ष पूर्व भी प्राप्त नही होते हों। ऐसा करने के लिए आप हमारे पास साधिकार चंदा मॉगने आये। आप धर्म करेंगे तो आपका स्थान स्वर्ग में सुरक्षित रहेगा। मेरे पैसे पर आप स्वर्ग में अपना आरक्षण करा रहे हैं ओर मेरे लिए जीते जी नर्क तैयार कर रहे हैं।
मान्यवर, आपने उत्सव का कार्यक्रम बनाया, तब हमें नहीं पूछा।
आपने समिति का निर्माण किया तब हमें नही पूछा।
आप अध्यक्ष बन गए, सचिव बन गए, कोषाध्यक्ष बन गए तब भी हमें नही पूछा।
हमारा धार्मिक कर्तब्य केवल चंदा देने तक सीमित है और आपका अध्यक्ष तथा सचिव पद प्राप्त करने के लिए है। आप अपने कार्यक्रम में सत्तारूढ़ दल के नेताओं, मंत्रियों, आईएएस अधिकारियों एंव कष्ट पहुँचाने की क्षमता रखने वाले निरीक्षकों को आमंत्रित करेंगे, मेरे पैसे पर खरीदी हुई पुष्प मालाओं से आप उनका अभिनंदन करेंगे, फोटो खिचवाएँगे तथा हम ताली बजाएँगे। यह हमारा धार्मिक कर्तब्य है, और वह आपका।
आपके संबंध ऊपर तक बनेंगे और आपको सामाजिक आर्थिक लाभ देंगे पर आपके उत्सवों के कोलाहल से मेरे बच्चे अध्ययन से वंचित रहेंगे तथा उनका कैरियर नष्ट होगा। ऐसा होने से आपके पहुँचवाले बच्चों को और अधिक सुविधा होगी। आपके फोटो अखबारों में छपेंगे जिससे आपका प्रचार होगा, आप चुनाव जीतेंगे, पद प्राप्त करेंगे, जिससे हमें पददलित कर सकें।
हमने जब स्वाइन फ्लू की आशंका में अपने पड़ोस को सामूहिक श्रमदान से सफाई का अनुरोध किया था तो आप मेरे ऊपर मुस्कराए थे तथा आपके चमचों ने मेरे उपर खिलखिलाकर मेरी खिल्ली उड़ाई थी। मैं शर्मिंदगी के महासागर में डूब गया था। तरस खाकर पत्नी ने मेरे नहाने के पानी में दो-तीन बूँदे डिटोल डालने की अनुकंपा की थी। वह एक बूंद डिटोल की कंजूसी करती हैं, तुम 501- रूपये वसूल रहे हो।
महामहिम, तुम्हें मंहगाई की फिक्र नहीं हैं क्योकि तुम उससे लाभान्वित हो, तुम्हैं मिलावट की चिंता नही हैं क्योकि वह तुम तक नही पहुँचती। आर्थिक भ्रष्टाचार व सामाजिक शोषण के प्रति तुम उदासीन हो, सरकारी कार्यालयों में तुम्हारा प्रभाव हैं तथा नौकरशाही के भष्ट्राचार से तुम मुक्त हो। उत्सव आयोजनों में हमारे पैसे से आमंत्रित अतिथियों को तुमने समुचित प्रभावित कर रखा है। वे तुम्हारा कार्य तुरंत कर देते हैं।
धर्म की करूणा, दया, सच्चाई, प्रेम, सहायता, सहयोग, आभार, कृपा आपमें से सब गायब है। आपकी तरेरी हुई ऑखें, ऐंठी हुई मूँछें, भुजाओं पर खेलती हुई मछलियों, मुक्का ठोकती मुट्ठियों तथा पीसे हुऐ दॉत आपकी मुद्राओं का निर्माण करते हैं। इसके साथ साथ मेरी धर्मभीरूता, अदृशय का आतंक तथा उसके साथ आपके धार्मिक सबंधों का डर मुझे अपने बच्चों का पेट काटकर अपनी कमाई को आपको सौंप देने को बाध्य करते हैं।
हे राष्ट्र हितैषी, तुम नगर के प्रमुख मार्गो पर अस्थाई अतिक्रमण करके सैकड़ों मार्ग अवरूद्व करने जा रहे हो। जिससे मार्ग बदलने के कारण जाम लग जाने से लाखों लीटर पेट्रोल, जिसको आयात करने के लिए हमें विदेशी मुद्रा फूंकनी पड़ती हैं, फुँक जाता है। आपके इस अभियान से दफ्तरों, अदालतों और अस्पताल जाने वालों को आपके धर्म से कितनी सहानुभूति मिल रही है? काश, आपने इसका सर्वेक्षण कराया होता !
अशिक्षित महिलाएँ, रिटायर्ड वृद्व, निठल्ले प्रौढ़ तथा बेरोजगार दिशाहीन युवकों के बल पर चल रहा है आपका धर्मोत्सव।

आप ले जाइए और यदि भगवान से आपके सीधे सबंध हों तो कृपया मेरे लिए एक प्रार्थना अवश्य कीजिए कि मुझमें तस्लीमा नसरीन जैसा आत्मबल पैदा हो। मुझ केंचुए को एक रीढ़ प्रदान करने की कृपा करें हे प्रभु!
---- वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, सितंबर 16, 2009

पितृ पक्ष में गरबा डांस प्रशिक्षण के खतरे

व्यंग्य
पितृ पक्ष में गरबा डांस का प्रशिक्षण लेने के दुष्परिणाम
जिस पितृ पक्ष में बाज़ार से खरीदारी नहीं की जाती ] पुरुषों द्वारा दाढी बनाने से लेकर अनेक प्रिय काम त्याग दिए जाते हैं तथा बामनों और कौओं को सुस्वाद पकवान खिलाये जाते हैं उस पितृ पक्ष में बड़े बड़े सेठों के अखबारों द्बारा उदारता से पैसा खर्च कर सकने वाली महिलाओं को गरबा नाचने का महंगा प्रशिक्षण दिया जाता है । ऐसे पवित्र पक्ष में गरबा नाचने पर ऊपर से पानी पीने के लिए उतरे पुरखे नाराज हो सकते हैं और वे महिलाओं को शाप दे सकते हैं जिससे उनके पति पुत्र प्रेमी प्रशंसक आदि को पीलिया हो जाने का खतरा है . सावधान रहें और फिर भी अगर गरबा सीखने के लिए जाएँ इन्तेर्नेटी महाराज का पुन्य स्मरण करती रहें पाप कम होगा
आचार्य वीरेंद्र महाराज

व्यंग्य -क्रास वाले सिक्के से बच गया रामभरोसे


व्यंग्य
क्रासवाले सिक्के से बच गया रामभरोसे
वीरेन्द्र जैन
राम भरोसे के हाथ में मिठाई का डिब्बा देख कर मेरे चौंकने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। जो लोग राम भरोसे को जानते हैं वे पूरे भरोसे के साथ यह भी जानते हैं कि राम भरोसे मिठाई तो दूर कभी चाय भी पिलाने के आग्रह पर चाय के दुर्गणों का पूरा पुराण बाँच सकता है और जब से चाय के माँसाहारी होने की खबरें प्रचलित हुयी थीं तब से उसे प्रचारित करने वाले भले ही उसे भूल गये हों पर राम भरोसे नहीं भूला। यह बात वह केवल तब भूल जाता है जब दूसरे उसे चाय पिला रहे हों।
'आज सूरज कहाँ से निकला है!' मैंने मुहावरेदार सवाल किया।
'पहले तो तुम अपना नीम चढा करेला अर्थात मुँह मीठा करो तब बताता हूँ कि कल में कितने बड़े हादसे से बाल बाल बच गया।
'क्यों क्या हुआ?' मेरे स्वर में मेरी जिज्ञासा चिंता का मुखौटा लगा कर बाहर आयी। साथ ही सावधानी के बतौर मैंने मिठाई का एक बड़ा सा पीस हाथ में उठा लिया ताकि बड़ी अफसोसनाक बात होने की दशा में कहीं उससे वंचित न हो जाना पड़े।
'अरे कुछ मत पूछो सब अखबार पढते रहने का दोष है। कल मैंने भाजपा के पूर्व सांसद वेदांती का बयान पढा- हाँ, हाँ वही वेदांती जिन्होंने तामिलनाडु के चुने हुये मुख्यमंत्री करूणानिधि की हत्या हेतु खुले बाजार में सुपारी का टेंडर नोटिस दिया हुआ था- कि सोनिया गाँधी ने दो रूपये के सिक्के पर क्रास का निशान छपवा दिया है जिससे पूरे देश में ईसाइयत का प्रचार हो सके। फिर मेरी पत्नी ने, जिसे मेरा अखबार पढना बिल्कुल नहीं भाता है, मेरे हाथ में सब्जी का थैला पकड़ा दिया और क्या क्या नहीं लाना है इसकी सूची सुना कर क्या क्या लाया जा सकता है उसके बारे में बताया। मैं एक परम आज्ञाकारी पति की भांति थैला लेकर बाजार में आया तो देखा कि एक आठ-दस साल का बच्चा गले में नींबू का थैला डाले दस रूपये के दस नींबू कह कर लगभग गिड़गिड़ा रहा था। मुझे उससे सहानिभूति हुयी, पर इतनी भी नहीं हुयी कि मैं मोलभाव करना भूल जाऊँ। बहरहाल मैंने सहानिभूति के तौर पर उससे ही नींबू खरीदने का दृड़ निश्चय किया और नींबू परखने के साथ साथ कहने लगा कि भाव सही बताओ। आखिरकर वह घटते घटते आठ रूपये के दस नींबू पर आ गया। वह हमारे महान देश का बालश्रमिक नहीं होता तो मैं एकाध रूपया और घटा लेता पर मुझ में भी थोड़ा सा इंसान तो बचा ही हुआ है सो मैंने छांट छांट कर बड़े बड़े दस नींबू ले लिये व दस ही लिये, और लोगों की तरह उसका गिनती ज्ञान परखने की कोशिश नहीं की। नींबू रखने के बाद मैंने पर्स निकाला व सहानिभूति से ओतप्रोत होकर उसे एक दस का करकरा नोट दिया, वैसे मेरे पर्स में दूसरे मुड़े तुड़े नोट भी थे। उसने भी मुझे एक चमचमाता सिक्का लौटा दिया और अगले ग्राहक की तलाश में बढ गया। सिक्कों को परखना जरूरी होता है क्योंकि बिना देखे एक और दो के सिक्के का फर्क पता नहीं चलता। गौर से देखा तो पाया कि सिक्का तो दो का था पर उस पर चौरस्ते की तरह कुछ बना हुआ था। थोड़ी देर पहले पढा हुआ अखबार एकदम से दिमाग में कोंध गया। अरे! यह तो वही सिक्का है जिसके बारे में विद्वान वेदांतीजी ने ज्ञान बांटा है। अब क्या होगा! मेरे पास क्रास वाला दो का सिक्का है, ये जब तक मेरे पास रहेगा मुझे ईसाई बनाने का प्रभाव डालता रहेगा। धातुएं प्रभाव डालती हैं। ऐसा नहीं होता तो लोग इतनी अंगूठियां इत्यादि क्यों पहने रहते! मुझे घबराहट होने लगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं मदर टेरेसा की तरह अनाथों बीमारों आदिवासियों को गले से लगाने लगूं और अपनी अपनी पाई-पाई लुटा दूं! कहीं अस्पताल खोल दूं, तो कहीं स्कूल खोलने लगूं। बगल में रहने वाले उस कमीने को माफ कर दूं जिसने वो सरकारी जमीन दबा ली जिसे मैं दबाने वाला था! हाय राम अब क्या होगा! सोचा फेंक ही दूं इसे। पर पैसा फेंका नहीं जाता। आखिर तो वह लक्ष्मी का रूप है भले ही उस पर मनमोहनसिंह ने सोनिया गांधी के इशारे पर क्रास बनवा दिया हो। मैंने तुरंत ही अकल से काम लिया। बगल में एक जवान सी लड़की धनिया बेच रही थी- मैंने उसका हाथ र्स्पश करने का बिना कोई प्रयास किये सिक्का उसे थमाया और दो रूपये का धनिया देने को कहा। उसने जितना भी दिया सो उतना ले लिया और ये भी नहीं कहा कि- दो रूपये का बस इत्ता!
ये मिठाई मेरे इसी बच जाने की खुशी में है।'

राम भरोसे ने अपनी कहानी खत्म की तो मैंने उससे कहा- राम भरोसे, मिठाई का एक डिब्बा ओर मंगवाओ'
'क्यों ?' उसके स्वर में आशंका की गूंज थी कि कहीं मैं उसका मजाक तो नहीं बना रहा हूँ।
मैंने कहा 'तुम सचमुच बच गये राम भरोसे, सोचो अगर तुम ईसाई हो गये होते तो बहुत सम्भव है कि फादर स्टेंस और उसके दोनों मासूम बच्चों की तरह तुम्हें भी जिंदा जला दिया जाता और तुम्हारे हत्यारे को बचाने वाले को राज्यसभा का सांसद बना दिया जाता तो ? क्योंकि ऐसा व्यक्ति पैसे को खुदा तो मानता है पर उस पैसे पर ईसाइयों के खुदा को खुदा नहीं देखना चाहता।'

राम भरोसे बोला- कल मैं मिठाई का एक डिब्बा और ले आऊंगा पर भगवान के लिए मुझे जिंदा मत जलवाओ! चलता हँ। जयश्री राम।'
मिठाई के डिब्बे की उम्मीद से भरे हुये मैंने भी कहा- जय श्री रामसेतु


वीरेन्द्र जैन
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रविवार, सितंबर 13, 2009

ओबामा और गांधीजी का भोजन

व्यंग्य
ओबामा और गांधीजी
वीरेन्द्र जैन
ओबामाजी ने कहा है कि वे गांधीजी का बहुत सम्मान करते हैं और अगर अवसर मिला होता तो वे उनके साथ खाना खाना चाहते थे। उर्दू का एक शेर है-
हमने किये गुनाह तो दोजख(नर्क) हमें मिली
दोजख की क्या खता थी जो दोजख को हम मिले
ओबामा का तो ठीक है पर किसी ने यह नहीं पूछा कि गांधीजी ने आखिर ऐसा क्या अपराध किया था जो उन्हें ओबामा के साथ खाना खाने को मजबूर होना पड़ता और वे भी उनके साथ खाना खाना चाहते थे या नहीं! कल्पना करें कि गांधीजी ओबामा के साथ खाना खाने को तैयार भी हो जाते तो क्या ओबामा और गांधी अकेले होते? गांधीजी तो ठीक है कि वे किसी शासन के प्रमुख नहीं थे पर ओबामा के साथ तो उनका पूरा सलाहकार मंडल होता जिसमें उनकी भारतीय सलाहकार साधना शाह भी होतीं। ये वही साधना शाह हैं जो देश में साम्प्रदायिक दंगे कराने वाली विश्व हिंदू परिषद को मदद करने के लिए जानी जाती रही हैं और या तो उनकी जनरल नालेज इतनी कम है जैसा कि उन्होंने कहा था कि उन्हें पता ही नहीं कि विश्व हिंदू परिषद क्या काम करती है या फिर वे महान झूठी हैं। 'अल्लाह ईशवर एकहि नाम' गाने वाले गांधीजी उनके साथ कैसे खाना खाते जिन्होंने लार्ड माउण्ट बेटन को उनकी औकात बता दी थी। अगर ओबामा के सारे सलाहकार साधना शाह जैसी कमजोर जनरल नालेज वाले हों तो उन्हें याद दिला दूँ कि कि वे लापियर कालिन्स की किताब फ्रीडम एट मिड नाइट पढ लें। अगर नहीं पढना तो कोई बात नहीं मैं ही बताये देता हूँ कि उन्होंने क्या लिखा था-
गांधीजी जब माउंटबेटन से मिलने गये तो वहाँ कूलर चल रहा था। संभवत: वह उन दिनों हिन्दुस्तान का एकमात्र कूलर रहा होगा। गांधीजी बोले मुझे सर्दी लग रही है इसे बन्द करवा दो। इस तरह धोती लपेटने वाले उस व्यक्ति ने सूट टाई पहिनने वाले व्यक्ति को बराबरी पर बैठा लिया। वे सन्देश देना चाहते थे कि तुम्हारी चकाचौंध से मैं चमत्कृत नहीं हूँ मेरे साथ बात करना हो तो मेरे स्तर पर आकर बात करो। उनका एक चम्मच था जिससे वे दही खाते थे, वह चम्मच टूट गया था तो उन्होंने उसे फेंका नहीं अपितु उसमें एक खपच्ची बांध ली थी और लगातार उसीसे नाशता करते थे। जब लेडी माउंट बेटन ने मेज पर नाशता लगवाया तो उन्होंने थैली में से अपना टूटा चम्मच निकाल लिया और फिर बोले कि मैं अपना नाशता अपने साथ लाया हूँ। उन्होंने वहीं उसी मेज पर बैठ कर उसी चम्मच से अपना दही खाया और जिस साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था उसके प्रतिनिधि के सामने अपनी रीढ सीधी किये रहे।
साधना शाह की सलाहों पर चलने वाले ओबामाजी क्या अब भी गांधीजी के साथ खाना खाने की सोच सकते हैं? सोचिये सोचिये सोचने में क्या जाता है। पर यदि ऐसा ही सोचना है तो तरह तरह के देशी हिन्दुस्तानी कुत्ते पालने की जगह बकरी पालना शुरू कर दीजिये क्योंकि गाँधीजी उसी का दूघ पीते थे।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, सितंबर 09, 2009

व्यंग्य- राष्ट्र ऋषियों को मारनेवाली सरकार

व्यंग्य
राष्ट्र ऋषियों को मारने वाली सरकार

वीरेन्द्र जैन
हमारे प्रदेश में जब से राम राज्य आया है तब से सब कुछ पौराणिक काल में चल रहा है। राम पथ गमन की खोज करने में प्रदेश के इतने करोड़ रूपये फूंके जाने वाले हैं कि मायावती के हाथी तक चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जायें। ऐसा लगता है कि कुछ ही दिनों में मंत्री तक नोटों की जगह स्वर्णमुद्राओं में रिश्वत मांगने लगेंगे। संज्ञाओं का यदि इसी तरह पौराणिकीकरण होता रहा तो मंत्री भी आमात्य के नाम से पुकारे जायेंगे।
मन में विचारों की यह खेप शिक्षक दिवस के दिन मास्टरों पर पड़े डंडों के बाद लगातार आ रही है। महाभारत की कथा में एक भीष्म थे जो पितामह के नाम से इतना प्रसिद्ध थे कि संभवत: उनकी वैध अवैध पत्नियां तक पितामह ही कह कर पुकारती रही होंगीं। वे इतने उत्तरदायी किस्म के जीव थे कि जिज्ञासु किस्म के हर एक बच्चे को उत्तर देना जरूरी मानते थे जिसका फायदा उठा कर अर्जुन ने उनसे उनके मरने का तरीका पूछ लिया था। प्रदेश में जैसे भूतपूर्व राजा महाराजाओं के परिवारों में बुआ भतीजा भले ही अलग अलग पार्टियों में हों पर एक दूसरे के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ते इसी तरह भीष्म भी शिखंडी के आगे तीर नहीं चलाते थे, जिस राज को बता कर वे युद्ध के मैदान में खेत रहे थे। शिखंडी के पीछे से होकर उन्हें पीठ पर इतने तीर मारे गये थे कि उन तीरों की शैया तैयार हो गयी थी तब भी वे जीवित थे और उनका सिर लटक रहा था। जब उस लटकते हुये सिर के नीचे कौरवों ने तकिये लगाने की कोशिश की तो उन्होंने उन्हें मना कर दिया और अर्जुन से कहा कि उन्हें वीरों वाला तकिया लगा दे। तब अर्जुन ने उन्हें तीरों का ही तकिया लगा दिया। जब मास्टर भी गुरूजी और शिक्षक हो जाते हें तो वे भी अपनी जाति के पौराणिक युग में चले जाते हैं तथा अपना सम्मान कराने के लिए वेतनवृद्धि नहीं मांगते अपितु उसी बेंत प्रहार की मांग करते हैं जिसे उनके पूर्वज अपने छात्रों के लिए प्रयोग में लाते थे- हे पार्थ हमारा सम्मान उन्हीं बेंतों से करो।
प्रदेश सरकार की शिक्षा आमात्य को लगा होगा कि शिक्षक और गुरूजी होकर भी अगर वे पौराणिक काल में नहीं पहुँचते तब उन्होंने उन्हें और पीछे ले जाने के लिए राष्ट्रऋषि घोषित कर दिया। अब वे कह सकती हैं कि ऋषि होते हुये भी नश्वर द्रव्यों के लिए आन्दोलन करते हो छि: छि: छि: इतना पतन। द्रोणचार्य की याद करो जिसकी पत्नी पानी में आटा घोल अपने बच्चे को दूध का भ्रम देकर पिलाती थी। सरकार जो गुरू दक्षिणा दे उसे लेकर खुश रहो। दुष्यंत कुमार ने कहा ही है-
मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
नामकरण एक संस्कार होता है जिसका बड़ा महत्व होता है। अतीत के गौरव से भर कर लोगों को वर्तमान कठिन समय में बरगलाया जा सकता है। कुपोषित बच्चियों को लाड़ली लक्ष्मी कह कर उनकी माँओं को भटकाया जा सकता है। स्कूल ड्रैस को गणवेष कह देने पर भ्रमित लोग इस बात पर ध्यान नहीं दे पाते कि उसमें घटिया कपड़ा लगा कर कितना कमीशन किनने खाया है। रोडशो को पथ संचालन कह देने और कांधे पर दण्ड रख मुँह ऊपर की ओर कर कदमताल करने वालों को सड़कों के गङ्ढे नजर नहीं आते। बालठाकरे के जय महाराष्ट्र की तर्ज पर जय मध्यप्रदेश का नारा लाया जा रहा है पर यह नहीं बताया जा रहा कि जय किस बात की! विकास में सबसे पीछे होने की या कुपोषण व स्वास्थ सेवाओं में सबसे आगे होने की।
वीरेन्द्र जैन
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नौ नौ नौ का महूर्त

नौ नौ नौ की भविष्यवाणी
जो जातक नौ नौ नौ का नौ बज कर नौ मिनिट नौ सैकिंड पर नैनो खरीदेगा उसकी नौकरी नौ सेना में लग जायेगी बाकी की बेरोजगारों की फौज यथावत चप्पल चटकायेगी
ज्योतिषाचार्य आचार्य वीरेंद्र महाराज

गुरुवार, सितंबर 03, 2009

ओबामा की इफ्तार पार्टी


ओबामा की इफ्तार पार्टी
भारतीय नेताओं की तरह ओबामा ने भी व्हाइट हाउस में इफ्तार पार्टी का आयोजन किया। हमारे देश में भी सभी पूंजीवादी दल ऐसी नौटंकी करते हैं यहाँ तक कि अल्पसंख्यकों को दो नम्बर के नागरिक बनाने को कृतसंकल्प भारतीय जनता पार्टी तक बड़ी बड़ी इफ्तार पार्टियाँ देती है। किंतु जैसे इफ्तार पार्टी में जाकर भी उनके दोहरे पन को समझने वाले उन्हीं पर हँसते हैं और कमेंट करते हैं वैसे ही भारतीय मूल की विश्व हिंदू परिषद को आर्थिक मदद देने वाली साधना शाह को सलाहकार बनाने वाले ओबामा के साथ भी हुआ होगा। लुक्मा तोड़ते हुये लोग कह रहे होंगे देखो चार बादाम और खजूर खिला कर यह समझ रहा है कि हम सब भूल जायेंगे।
हमारा पाखण्ड चारों दिशाओं में फैल रहा है और लगता है कि हम लोग फिर से पूरी दुनिया में छा जाने वाले हैं भले ही पाखण्ड के जगद गुरू के नाम से जाने जायें, व अपनी जेब में हनुमानजी की पीतल मूर्ति रखने वाले ओबामा हमारे श्री चरणों में बैठ कर हनुमानचालीसा का पाठ करते नजर आयें। संभावनाएं उज्जवल हैं। वैसे अभी तक पता नहीं चल सका है कि हमारे दिल्ली के दोस्तों ने ओबामा के चुनाव के दौरान जो विशाल मूर्ति ओबामा को भेजी थी वह उन्होंने व्हाइट हाउस में स्थापित करायी या नहीं! किसी को पता हो तो बताना।

शनिवार, अगस्त 22, 2009

व्यंग्य हिन्दी को उचित स्थान

व्यंग्य 
हिन्दी को उचित स्थान

वीरेन्द्र जैन

    विद्धान का काम भाषण बघारना होता है। दुनिया के सारे सभागार इसी प्रतीक्षा में रहते हैं कि कोई विद्धान आये और भाषण बघारे, तालियाँ पिटवाये और सभागार का सन्नाटा तोड़े। भाषण का भूखा सभागार भाषण के बिना हींड़ता रहता है। जिस दिन कोई भाषण फटकारने नहीं आता उस दिन वह सोचता है कि देखो आज कोई नहीं आ रहा। सब मर गये क्या! किसी को भाइयो बहिनो या देवियो और सज्जनों तथा पत्रकार बंधुओं को सम्बोधित करने की खुजली नहीं मच रही! कोई किसी को उसका उचित स्थान दिलवाने के लिए हाँका नहीं लगा रहा।
     अभी कल ही एक सभागार में एक विद्धान आवाहन कर रहे थे कि हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाने के लिए हमें प्राण प्रण से जुट जाना चाहिये। मुझे लगा कि जैसे हिन्दी के पास रेलवे के स्लीपर क्लास का टिकिट है पर उस पर डेली अप एन्ड डाउन करने वाले एमएसटी धारी पसर कर पपलू खेल रहे हैं और हमें चाहिये कि उसे उसके आरक्षित शयनयान में उसका उचित स्थान दिलायें भले ही हमें दैनिंदिन यात्रियों के मुष्टिका प्रहार झेलना पड़ें। भाषण के बाद मैंने विद्धान के भाषण की झूठी प्रशसा करते हुये जानना चाहा कि वे स्वयं कैसे कैसे प्राण प्रण से जुटे हुये हैं और अब तक हिन्दी को किसी कोने में नितम्ब टिकाने की जगह दिलवाने में क्या प्रगति हुयी है!
वे बोले देखते नहीं हो आज इस सभागार में भाषण दिया था कल स्टेट बैंक में देना है, परसों इंडियन आइल में देना है नरसों इंङियन एयर लाइन्स में देना है, मैं लोगों को प्राण प्रण से जुटने का संदेश देने के लिए प्राण प्रण से जुटा हुआ हूँ।
       कहा गया है कि ओजस्वी वक्ता वही है जो अपने देश की खातिर प्राणों को बलिदान करने के लिए सफलतापूर्वक आपको उकसाता रहे। जो आपके पिचके टयूब में हवा भर के आपको दौड़ाता रहे और खुद कम्प्रैसर के पास कुर्सी डाल कर पैसे वसूलता रहे। भाट और चारण खुद शहीद नहीं होते रहे अपितु दूसरों को होने का सौभाग्य देते रहे। सबके अपने अपने धंधे हैं। जब हिन्दी के विद्धान को उसकी वांछित सम्मान निधि नहीं मिल पाती तो वह आयोजकों को फूल, स्टुपिड और रास्कल कहने लगता है।
      संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है कि 'स्थान भ्रष्ट: न शोभंते दंत:, केश: नख:, नरा:' अर्थात अपने स्थान पर न होने की स्थिति में दांत बाल और नाखून शोभा नहीं देते। इस श्लोक में भाषा को सम्मिलित नहीं किया गया है। हो सकता है तब भाषा अपने उचित स्थान पर बैठी हो या तब किसी को भाषा के नाम पर राजनीति ठोकना नहीं आती हो। अंग्रेजी को हटाने का नारा लगाने के मामले में वे ही लोग आगे आगे उचकते हैं, जो खुद और उनके पूर्वज अंग्रेजों को हटाने के मामले में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर हँसा करते थे। हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का नारा लगाने वालों ने अंग्रेजी लाने वालों और उसे ढोने वालों के खिलाफ कभी कोई झन्डा नहीं उठाया।

       मुझे लगता है कि सारा झगड़ा उचित स्थान का ही है! शिवाजी को औरंगजेब ने उचित स्थान नहीं दिया और छोटे मनसबदारों में खड़ा किया था इसलिए वे उसके खिलाफ हो गये थे, यदि उन्हें बड़े मनसबदारों में स्थान मिल गया होता तो आज इतिहास कुछ और ही होता। तब पूरे देश के प्रमुख चौराहों पर किसी और के घोड़े और मूर्तियां रखी होतीं। लक्ष्मीबाई के दत्तकपुत्र को उसका उचित स्थान मिल गया होता तो न झांसी की रानी को खूब लड़ना पड़ता और ना बेचारी झलकारिन ही वैकल्पिक रानी बन कर शहीद होती।
      हिन्दी को भी उसका उचित स्थान मिलना ही चाहिये नही तो विद्धान हमें प्राण प्रण से जुटा कर ही मानेंगे। ज्यादातर विद्धानों ने तो अपना उचित स्थान प्राप्त कर लिया है पर अब हिन्दी के बहाने दूसरों को उकसा रहे हैं। पर हिन्दी उचित स्थान पर कैसे आ सकती है जबकि उस स्थान पर बैठने वाले अंग्रेजी बोलने वालों का ही काम करने को प्राण प्रण से जुटे हैं। हिन्दी तो तब बैठेगी जब हिन्दीवालों का काम करने के बारे में सोचा जाये। इसीलिए राष्ट्रीयकरण के दौर में हिन्दी आती है और विनिवेशीकरण के समय अंग्रेजी आती है। हो सकता है कि हिन्दी का यही स्थान उचित स्थान हो।
        हिन्दी के बहाने कई लोगों को अच्छे अच्छे स्थान मिल गये, प्लाट मिल गये, दान और अनुदान मिल गये, भवन बन गये जिनमें विवाह होते हैं और अंग्रेजी दारू पीने के बाद बराती अंग्रेजी में ही बोलते हैं। पर भाषणवीर अभी भी हिन्दी को उचित स्थान दिलाने का धंधा कर रहे हैं। उनके अपने धंधे का सवाल है आखिर!
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अगस्त 14, 2009

व्यंग्य दूसरा पहलू

व्यंग्य
दूसरा पहलू
वीरेन्द्र जैन
जब जब आदमी बहस में सामने वाले को परास्त नहीं कर पाता तब वह अंतिम अस्त्र स्तेमाल करता है और कहता है कि भाई- हर बात के दो पहलू होते हैं।
मैंने भी रामभरोसे से यही कहा पर उसने बहस खत्म नहीं करना चाही क्योंकि अभी तक चाय नहीं आयी थी और वह जब तक चाय न पी ले तब तक बहस खत्म करके चाय की संभावनाओं को खत्म नहीं करना चाहता, इसलिए उसने कहा - '' और तुम हमेशा गलत पहलू की ओर होते हो''
मुझे गुस्सा आ गया और मैंने कहा - ऐसा कैसे! सच तो यह है कि गलत पहलू की ओर हमेशा तुम रहते हो।
रामभरोसे खुश हुआ क्योंकि उसका काम बन गया था। बहस फिर से शुरू हो गयी थी। उसने विषयगत से वस्तुगत होते हुये कहा कि आज जन्माष्टमी है जिसे लोग भगवान श्री कृष्ण के जन्मदिन के रूप में मनाते हैं। यह अन्याय और अत्याचार के खिलाफ शारीरिक शक्ति, प्रेम और करूणा से भरे ह्रदय तथा बुद्धिकौशल से भरे जीवन के दुनिया में आने का प्रतीक है। क्या तुम्हारे पास इसका भी कोई दूसरा पहलू है?
''हाँ भाई है क्यों नहीं'' मैंने कहा
''क्या?'' उसके स्वर में आश्चर्य था
'' देखो भाई यह दिन इस बात का भी प्रतीक है कि लड़कों को जीवित रखने के लिए लड़कियों को मार देने में कोई बुराई नहीं है। यह दिन जेल के चौकीदारों के चरित्र को भी बताता है जिनका नाइट डयूटी के समय सो जाना तब भी प्रचलन में था पर उनकी यूनियन इतनी मजबूत रही होगी कि अपनी बहिन के बच्चों को मार देने वाला कंस भी उन्हें सजा नहीं दे सका। यह दिन बच्चे बदलने वालों को शिशु परिवर्तन दिवस के रूप में मनाना चाहिये जिसे वे मेरे जैसे योग्य सलाहकारों के न होने के कारण नहीं मना पाते। अगर मेरी सलाह लें तो उन्हें अभी भी यह दिवस मनाना प्रारंभ कर देना चाहिये जिससे वे प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री आदि से मुफ्त में शुभकामनाएं मंगा सकते हैं और इस अवसर पर 16 पेज की स्मारिका निकाल कर जन सम्पर्क विभाग से विज्ञापन के नाम बीस पच्चीस हजार फटकार सकते हैं।''
रामभरोसे को गुस्सा आ गया और वह बिना चाय पिये चला गया। अच्छी बहस का यह दूसरा पहलू था।

श्री कृष्ण का जन्म और गीता का वचन

अपने घर में श्री कृष्ण जी का जन्म दिन मनाने वालों को याद रखना चाहिए कि उन्होंने स्वयं ही वादा किया था कि जब जब और जहाँ जहाँ पाप बढ़ जायेगा और धर्म की हानी हो रही होगी तब तब और वहां वहां वे जन्म लेंगे. आपके घर में हुआ तो आप अपने परिवेश में झाँक कर देख लें

मंगलवार, अगस्त 11, 2009

व्यंग्य खाने का नया मीनू

व्यंग्य
खाने का नया मीनू
वीरेन्द्र जैन
मॅहगाई के मारे खाने के लाले पड़े हुये हैं। जिनके पास आज खाने को भी है वे भी कल की सोच सोच कर आज नहीं खा पा रहे हैं।
जो कुछ भी खा रही है सब मॅहगाई खा रही है।
मैं जब भी सोचता हूँ, जनहित में सोचता हूँ और मौलिकता बनाये रखने के लिए सबसे अलग सोचने की कोशिश करता हूँ । इसलिए आज जब खाने के लाले पड़े हुये हैं तब मैं खाद्य पदार्थों से इतर खाने की चीजें तलाश कर रहा हूँ।
सबसे सीधी सरल चीज तो यह है कि कसम खाइये। यह अभी तक मॅहगी नहीं हुयी है और सबसे अच्छी बात तो यह है कि हमेशा अपनी कसम खाने की जगह सामने वाले की खाइये जिससे अगर कसम खाने से कब्ज अफरा बदहजमी या कुछ भी होता हो तो सामने वाले को हो। वैसे तो किसी की भी झूठी सच्ची कैसी भी कसम खाने से अभी तक कोई नहीं मरा और अगर बाई द वे कुछ होना भी हो तो पहले उसे अवसर मिले। तेरी कसम, इस मँहगाई में, मैं तो यही करने की सोच रहा हूँ।
आप उर्दू में गम नहीं खा रहे हों तो हिन्दी में गम खा सकते हैं जिसका मतलब होता है अपने गुस्से को वश में रखना। वैसे बहुत भूखे हों तो आप गुस्सा खा सकते हैं, पर क्या फायदा यह आपको ही नुकसान करेगा क्योंकि सामाजिक डाक्टरों के अनुसार कभी भूखे पेट गुस्सा नहीं खाना चाहिये। वैसे ये बात अलग है कि भूखे पेट ही गुस्सा अधिक आता है। गुस्से के बारे मैं एक बात बहुत रोचक है कि इसके उदरस्थ करने की विधि के अनुसार इसकी प्रकृति बदल जाती है। कई बार जब आप देश काल परिस्तिथि के अनुसार गुस्सा खा नहीं पाते तब आप गुस्सा पी जाते हैं जो गुस्सा खाने से विपरीत प्रभाव पैदा करता है। लालू परसाद कहते हैं कि यदि मँहगाई का यही हाल रहा तो जनता हमें जूते मारेगी, पर मुझे नहीं लगता कि हमारे देश के गुस्सा पी जाने वाले लोग अभी गुस्सा खाने के लिए इतने उतावले हैं। वैसे लालू परसाद फिर से आस्तिक हो गये हैं और फिर से माँसाहार छोड़ दिया है सो उनका भविष्यवक्ता हो जाना भी संभव है। यही काम चुनाव से पहले किया होता तो जान जाते कि चुनाव में उनकी क्या दशा होने वाली है, व चौथे मोर्चे की नौबत नहीं आती।
किसी जमाने में पूरा बचपन मार खाने में बीत जाता था। कभी पूज्य पिताजी की मार खा रहे हैं तो कभी भाई बहिनों की मार खा रहे हैं। वहाँ से निकले तो मस्त मलंग सहपाठियों की मार खा रहे हैं और अगर उनसे बच भी गये तो स्कूल मास्टर की मार खा रहे हैं। पर अब वो जमाना नहीं रहा न वैसे बाप अब पाये जाते हैं और ना स्कूल मास्टर। भाई बहिन भी उतने नहीं होते कि ये भी भूल जायें कि दोपहर में किससे मार खायी थी और शाम को किससे खायी थी। अब तो एकाध पासवान को छोड़ कर पत्नियाँ भी कानूनन एक ही होती हैं।
हमें पता है आप नहीं खाते पर दूसरे सारे लोग रिश्वत खाते हैं जिसे कहीं घूस कहा जाता है पर उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक डिश वही होती है।
खाने में एक चीज ऐसी भी खायी जाती है जो पाँवों के सहारे तो चलती ही है साथ ही हाथों के सहारे भी चलती है जिसे हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में जूती कहा जाता है और जो जूते की स्त्रीलिंग होती है। ये हमारे देश में सैकड़ों सालों से विशिष्ट अवसरों के पकवानों की तरह प्रयोग में आ रही है। अब्दुल रहीम खानखाना जो कभी मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में गिने जाते थे और बाद में जिन्होंने 'मॉग मधुकरी खाने' का आनन्द भी लिया था, (जो कि भिक्षा का सोफस्टिकेटेड नाम है जैसे कि सिमई को नूडल्स कहने लगे हैं) खाने के बारे में बहुत ज्ञानी थे तभी उनके नाम के साथ खानखाना जुड़ा होगा। वे लिखते हैं कि -
रहिमन जिह्वा बाबरी कहगै सरग पताल
आप तो कहि भीतर भई जूती सहत कपाल
वैसे यह समय अपने आप और आप पर तरस खाने का समय है क्योंकि हमारी रोटी को कुछ ऐसे नेता खा रहे हैं जो इस प्रदेश और देश का पहले ही सब कुछ खा चुके हैं तथा हमारी भूख को भुना कर हमारे वोट खा लेना चाहते हैं।रोटी को तरसते हुये हम धोखा खाने जा रहे हैं। डा क़ृष्ण बिहारी लाल पाण्डेय लिखते हैं कि-
सिर्फ शपथ खानी थी मित्रवर
तुमने तो संविधान खा लिया

वीरेन्द्र जैन
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