मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

वफादारी

व्यंग्य
वफादारी
वीरेन्द्र जैन

मैं एक बंगले के पास से गुजरा तो पाया कि अन्दर से गाने की आवाज आ रही थी। मुझे रूक जाना पड़ा। कोई गा रहा था-
यहाँ बदला वफा का बेबफाई के सिवा क्या है
मुहब्बत कर तो लें लेकिन मुहब्बत में भी धोखा है
मैं जैसे ही आगे बढने को हुआ तो दूसरा गाना चलने लगा-
वफा जिनसे की बेवफा हो गये
ये वादे मुहब्बत के क्या हो गये
मुझे ऐसा लगा कि किसी का दिल टूट गया है इसलिए उसके दिल की पुकार को थोड़ा धैर्य के साथ सुनना चाहिये इसलिए मैंने स्कूटर को स्टैंड पर लगाया और उसी पर दोनों टांगें एक तरफ कर बंगलामुखी होकर सुनने लगा। तभी तीसरा गाना चलने लगा-
सलामत रहे तू जफा करने वाले
वफा कर रहे हैं वफा करने वाले
मेरे अन्दर करूणा का सोता फूट पड़ा और मैं अपने पैरों को अन्दर जाने के लिए उतावले होने से नहीं रोक सका। बंगले के बाहर नेपाली बहादुर खड़ा था। मुझे हाल ही में किसी का कहा याद आ गया-
सुनो गौर से दुनिया वालो
चाहे जितना जोर लगा लो
चाहे तुम बंगले बनवा लो
उसमें चाहे लॉन बना लो
लॉन के बाहर गेट लगा लो
सबसे आगे होंगे हम नेपाली- जी शाबजी
मैंने जैसे ही अन्दर जाना चाहा तो उसने रोक दिया- किससे मिलना है शाबजी?
''जो इस बंगले में रहता है'' मैंने कहा
'' बड़ेशाब से, छोटेशाब से, या भैनजी से शाब?''
'' तुम सारे शाबों के नाम बताओ तब मैं बताऊॅंगा कि किससे मिलना है।''
'' नाम तो शाबजी मुझे नहीं पता हम तो बड़ेशाब छोटेशाब के नाम से ही जानते हेैं''
'' अच्छा ये गाना कौन गाता रहता है?''
'' वो तो बड़ाशाबजी गाता रहता है, जबसे दिल्ली से लौटे हैं तब से ऐसे ही गाते रहते हैं''
मैंने थोड़ा पीछे होकर नेमप्लेट देखने की कोशिश की जिस पर नाम धुंधला गया था पहले शब्द का पहला अक्षर 'अ' तो पढने में आ रहा था तथा दूसरा शब्द सिंह था। मैं रोज अखबार पढता हूँ इसलिए अंदाज लगा लिया जो सही ही होगा। फिर अन्दर जाने की हिम्मत नहीं हुयी तभी अन्दर से आवाज आने लगी-
वक्त करता जो वफा आप हमारे होते
हम भी गैरों की तरह आपको प्यारे होते
मैंने तुरंत ही स्कूटर पर किक मारी तभी अन्दर से नयी धुन छिड़ गयी थी-
वक्त ने किया क्या हँसी सितम
तुम रहे ना तुम हम रहे न हम
अब मुझसे नहीं रहा गया और मेरा हाथ जो एक्सीलेटर पर पड़ा तो फिर घर आकर ही रूका। रास्ते में देर हो जाने के कारण घर पर मेरी वफादारी पर सन्देह से घूरती निगाहें मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं।

वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

सोमवार, अप्रैल 27, 2009

अज़हर के नाम खुला ख़त

अजहरूद्दीन के नाम खुला खत
वीरेन्द्र जैन
मेरे प्यारे अजहरूद्दीन,
अनंत शुभकामनाएं
यह जान कर मुझे परम प्रसन्नता हुयी कि आप को काँग्रेस इलेविन के टिकिट पर रामपुर लोकसभा सीट से चुनाव में उतार दिया गया है। मुझे परम प्रसन्नता क्यों है यह मैं थोड़ी देर बाद बताऊॅंगा पर अभी यह बता दूँ कि आप इस क्षेत्र में कदम रखने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं। एक समय था कि जब भाजपा काँग्रेस का अनुसरण करती थी पर एक समय यह आ गया है कि दोनों ही एक दूसरे का अनुसरण करती नजर आ रही हैं। इस क्षेत्र में किसी भी फार्मूले पर किसी का कोई कॉपी राइट नहीं होता। जिस देवता के आशीर्वाद से किसी को बच्चा पैदा होने का भ्रम हो जाये फिर तो उसके मंदिर पर बांझों का मेला लगने लगता है। भाजपा तो टोटकों वाली ही पार्टी है। चेतन चौहान, सिद्धू ही नहीं उसने तो दारा सिंह शत्रुघ्न सिंहा से लेकर 'कुत्ते कमीने तेरा खून पी जाऊॅंगा' वाले धर्मेंन्द्र और उनकी (शायद) पत्नी हेमा मालिनी से लेकर दर्जनों फिल्म व टीवी कलाकारों द्वारा अपनी नैया पार लगवायी है। काँग्रेस को थोड़ा बाद में अकल आयी।
प्यारे भाई, तुम्हें जब उन कारणों से कैप्टन के पद से हटा दिया गया था जिसका क्रिकेट से कोई सम्बंध नहीं तब तुमने अपने मुसलमान होने का आधार बनाने की कोशिश की थी जबकि ऐसा था नहीं। सटटेबाजी पर किसएक धर्म को मानने वालों का हक कैसे हो सकता है? जो काम सामाजिक कार्यकर्ता नहीं कर सकते वह आर्थिक भ्रष्टाचार समाज को धर्मनिरपेक्ष बनाता है। जब सभी से रिशवत लेना हो तो हिन्दू मुस्लिम ब्राम्हण शूद्र में काहे का भेद! इसलिए तुम काँग्रेस के लिए उपयुक्त उम्मीदवार थे।
यार, अब जब तुम राजनीति में आ ही गये हो तो फिर शर्माना कैसा! राजनीति ही तो ऐसा खेल है जहाँ पर खुल के खेलने में ही भलाई है। तुम चाहो तो अमरसिंह को अपना आर्दश बना सकते हो। कुछ झूठवूठ बोलना भी सीख लो इस मामले में आडवाणीजी की आत्मकथा से बहुत मदद मिलेगी। यदि अभी पढने का टाइम नहीं मिले तो चुनाव के बाद पढ लेना। इतना याद रखना कि कॉग्रेस की गृहस्थी में छक्कों से काम नहीं चलेगा वहाँ चौका भी लगाना पड़ेगा बरना अर्जुनसिंह की तरह वफा बेवफा करते रह जाओगे।
हाँ अब मैं अपनी बात पर आता हूँ। मेरी परम प्रसन्नता का कारण यह हेै कि जब तुम आ ही गये हो तो फिर अब तुम्हें फूहड़ चुटकलों पर हँसना भी सीखना पड़ेगा क्योंकि इसके बाद कई लाफ्टर चैलेन्ज शो तुम्हार इंतजार करते मिलेंगे। वैसे तुम जो रोती हुयी शक्ल बना कर बैठे रहते हो उसमें बदलाव लाना पड़ेगा जिसके लिए मेरे पास तरकीब है। मैं कभी लतीफा लिखा करता था और तब के लिखे मेरे पास अठारह हजार लतीफे संकलित हैं। किसी जमाने में धर्मयुग इन लतीफों का पाँच रूपये लतीफे के हिसाब से पेमेंट करता था जिसके अब पाँच हजार मिलते हैं। मैं इनमें से तुम्हें जितने चाहो उतने दे सकता हूँ अब तुम अपने आदमी हो सो बदले में जो चाहो सो दे देना। बुरा मत मानना क्रिकेट से राजनीति में आया हुआ आदमी इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकता है तथा काँग्रेस को भी तुम्हारी लोकप्रियता के बदले एक अदद वोट जुटाने से ज्यादा उम्मीद भी नहीं है। यदि कोई क्रिकेट वाला कुछ कर सकता होता तो सिद्धू क्यों नहीं करता। हाँ लेकिन सिद्धू की तरह हर लतीफा सुनाने वाले से 'अब बस कर मेरे बाप' नहीं कहना बरना माँ बाप नाराज हो सकते हैं।
जब तुम राजनीति में आ ही गये हो तो खुश रहो और अब हँसो और इतना हँसो कि जनता की रूलाई सुनाई न दे जो चुनावों के बाद बुक्का फाड़ के रोने वाली है।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अप्रैल 18, 2009

चुनाव खर्च

व्यंग्य
रामभरोसे चुनाव सुधारकार्यक्रम
वीरेन्द्र जैन

राम भरोसे भाजपाई नेताओं के बयानों से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता है। कल ही कह रहा था कि ये बार बार चुनाव होना ठीक नहीं कि कभी विधानसभा के हो रहे किं कभी लोक सभा के हो रहे हैं फिर नगर निगम के हो रहे हेैं। इसमें बहुत खर्चा हो रहा है । एक बार में ही सारे चुनाव निबटा लिए जाये ंतो उत्तम रहेगा।
'' क्या तुमने देश के बारे में सोचना प्रारंभ कर दिया है?'' मैंने पूछा
'' क्यों देश के बारे में सोचने का ठेका क्या तुम्हारे अकेले के पास है?'' राम भरोसे ने कुढ कर पूछा।
'' अरे नहीं भाई मेरा यह मतलब नहीं है। वास्तव में देश के बारे में सोचना बड़े साहस का काम है वैसे बाइ दि वे क्या तुम इनकमटैक्स देते हो?''
'' मैं उस रेंज में ही नहीं आता'' वह बोला
''आते तो हो पर बचा जाते हो'' मैंने कहा
'' पर तुम अचानक मेरे ऊपर कैसे आ गये जब कि मैं चुनाव खर्च की बात कर रहा था'' वह कुढ कर बोला
मैं भी वहीं पर हूँ क्योंकि चुनाव खर्च भी वहीं से निकलता है। तुम सामान खरीदते समय बिल नहीं लेते क्योंकि दुकानदार कहता है पक्का बिल लोगे तो वैट लग जायेगा। बिजली चुराने के लिए मीटर खराब किये रहते हो। तुम्हारे मकान की कीमत रजिस्ट्री में कुछ और है, बैंक लोन लेते समय कुछ और है व प्रापर्टी टैक्स देने के लिए और है जिससे रजिस्ट्री में भी खर्चा बचाया है व प्रापर्टी टैक्स में भी बचा लेते हो पर बैंक में लोन लेने के लिए उसका दाम चौगुना हो जाता है।
'' वो तो घर चलाने के लिए सभी ऐसा कर रहे हैं''
'' मैं भी वही कह रहा हूँ कि सीधे सीधे घर चलाओ ना पर तुम देश चलाने निकल पड़ते हो''
'' हम तो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करेंगे चाहे तुम कुछ भी कहो''
''हमें कुछ नहीं कहना है पर मेरे पास चुनाव खर्च निकालने की एक अच्छी तरकीब है''
'' तुम्हारी तरकीब अच्छी हो ही नहीं सकती फिर भी बको'' वह कहता है
'' अरे ज्यादा कुछ नहीं करना जैसे आईपीएल दिखाने के लिए टेलीविजन चैनल अधिकार खरीदते हैं वैसे ही चुनाव आयोग नेताओं के चुनावी बयानों का कापी राइट ले सकता है। जब ''कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊॅंगा'' पापुलर हो सकता है तो हाथ काट डालूंगा ये हाथ नहीं कमल का पंजा है पागल सरदार देश चला रहा है जिसके हर समय बारह बजे रहते हैं, छाती पर रोडरौलर चलवा देताये इसका साला है वो उसका साला है अादि ऐसे ऐसे फाइट सीन और डायलौग चल रहे हैं जो टीवी वाले मुफ्त में ही दिखा रहे हेैं और करोड़ों रूपये पीट रहे हैं जबकि इनका कापी राइट केवल चुनाव आयोग के पास होना चाहिये। यदि चुनाव आयोग अपने कलाकारों की कला का पैसा वसूलना शाुरू कर दे न केवल अपना ही खर्च निकाल सकता है अपितु उम्मीदवारों को भी चुनाव खर्च देकर कह सकता है कि करो बेटा डायलौगबाजी। अगर चुनाव के दौरान किसी इंजीनियर की चन्दा न देने पर हत्या हो जाती है, या उम्मीदवार को फाँसी देकर पेड़ पर लटका दिया जाता है या किसी विधायक की गोली मार कर हत्या कर दी जाती है तो उसके समाचार के सारे अधिकार भी चुनाव आयोग के पास होने चाहिये। ऐसा इसलिए होना चाहिये क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल के दौरान ऐसे संवेदनशीील समाचार अस्तित्व में आते हेैं जिनके बीच में ब्रेक ले ले कर वस्तुओं के विज्ञापनों द्वारा करोड़ाें पीटे जाते हेैं तब उन समाचारों को पैदा होने का वातावरण बनाने वाले विभाग का हक क्यों मारा जाये। अगर मेरे प्रस्ताव को सरकार स्वीकार कर ले तो प्रतिवर्ष चुनाव आयेंगे और किसी को कोई दुख नहीं होगा। चुनाव की घोषणा के साथ ही घोषित कर दिया जायेगा कि चुनाव के दौरान जन्मने वाले समाचारों के सर्वाधिकार सुरक्षित हैें व बिना पूर्व अनुमति के किसी समाचार को प्रकाशाितप्रसारित करने वाले के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जायेगी। चुनावी सभा करने पर प्रति श्रोता रायल्टी वसूली जाना चाहिये जिसमें से कुछ हिस्सा श्रोताओं को भी दिया जा सकता है। इसके दो फायदे होंगे, पहला तो यह कि जनता के लिए काम करने वाले व्यक्तियों पार्टियों को चुनाव के समय ही जनता के पास जाने की जरूरत नहीं रहेगी दूसरे सभाओं में भीड़ जुटाने वाली प्र्राइवेट ऐजेंसियों की जगह सरकारी आ्रकड़े उपलब्ध होंगे और पाँच हजार की भीड़ को पाँच लाख बताने वालों पर लगाम लगेगी नही ंतो उन्हें पाँच लाख की रायल्टी चुकाना पड़ेगी। तब पाँच हजार पूड़ी के पैकिटों का आर्डर देकर प्रैस पाँच लाख की भीड़ बताने के लिए नहीं कहा जा सकता। वोटर पर्चियों और चुनाव प्रचार के पर्चों पर प्राइवेट कम्पनियों के विज्ञापन छपवाये जा सकते हैं।
अब तुम्हें कहाँ तक बतायें राम भरोसे कि इस उर्वर दिमाग योजनाओं के कारखाने चल रहे हैं पर क्या करें दिल्ली ऊॅंचा सूनती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, अप्रैल 15, 2009

व्यंग्य
चुनाव की तैयारी
वीरेन्द्र जैन
यह खेल कूद का मैदान नहीं था, नेताजी की कोठी थी जहाँ लोग बल्लियों उछल रहे थे।
वैसे तो यह कभी खेलकूद का मैदान ही रहा था, फिर उस पर नेताजी ने कब्जा कर लिया था और अपनी कोठी तान ली थी।
यहाँ पर ये लोग ऊॅंचीकूद का अभ्यास नहीं कर रहे थे पर उनके बल्लियों उछलने के का कारण था कि नेताजी की विजय हुयी थी।
विजय चुनाव में नहीं हुयी थी क्योंकि चुनाव तो अभी दूर थे पर उनकी विजय टिकिट के मैदान में हुयी थी। बड़े बड़े काले पीले पैसे वाले बड़े बड़े अपराधी पालने वाले, बड़े-बड़े बड़े नेताओं को खुश रखने वाले टक्कर में थे पर नेताजी में इन सारे गुणों का संतुलन था इसलिए टिकिट पा गये थे। उल्लास का वातावरण पर्यावरण खराब कर रहा था। बसंत नहीं था पर हवाओं में महुआ महक रहा था।
अपनी ही पार्टी के प्रतियोगियों को धूल में मिला वे उसी तरह उत्साहित थे जैसे महाभारत में कौरवों को परास्त कर पांडव रहे होंगे। थोड़ा पैसा जरूर खर्च हो गया था पर वो तो हाथ का मैल है, छूट गया तो क्या हुआ, फिर लग जायेगा। लगाने का मौका भर आ जाये। यह उल्लास प्रकटीकरण उसी का अनुष्ठान था।
इस अवसर पर नेताजी ने संदेश दिया 'राजनीति करने का समय आ गया है'। उनके लोगों के लिए राजनीति का समय चुनाव के समय का पर्यायवाची था। यदि कोई बिना चुनावी गुणाभाग जोड़ बाकी के राजनीति में सेवा की बात करता तो वे उसकी ओर इस तरह देखते जैसे उत्पलदत्त कह रहे हों -उल्लू का पट्ठा।
भक्तों ने नेताजी के संदेश को उसी तरह ग्रहण किया जिस परिप्रेक्ष्य में वह दिया गया था। अर्थात राजनीति माने चुनाव की तैयारी। वैसे तो राजनीति की अर्न्तधारा पाँचों साल बहती है जैसे अपने लोगों को अच्छी जगह पर स्थानान्तरित कराने में ज्यादा पैसे न लगने देना। अपराध में न फंसने देना, फंस जाये पुलिस से सौदा करा देना, न माने तो जमानत करवाना आदि आदि। पर प्रत्यक्ष राजनीति की बात और है। प्रत्यक्ष राजनीति का अर्थ है कि पोलिंगबूथ अनुसार ठेकेदारों को ठोक बजा कर देख लेना कि कहीं उन्हें किसी और ने तो नहीं खरीद लिया है, उनकी मांग के अनुसार दारू और रूपयों की व्यवस्था हेतु उनसे मोल भाव करना, एडवांस देते समय पहले उन से गंगा मैया,या नर्मदा मैया, या जो भी मैया बहती हों उसके नाम की सौगंध दिलवाना कि वे नेताजी के बफादार रहेंगे, उन्हीं का दिया कुर्ता पहिनेंगे, पाजामा पहिनेंगे व उन्हीं का दिया नाड़ा बांधेंगे। उन्हीं की टोपी लगायेंगे, उन्हीं का बैनर, उन्हीं के झण्डे, तथा जीतेगा भई जीतेगा के नारे पर नेताजी के चुनावचिन्ह वाला जीतेगा- के नारे ही लगायेंगे। दीवारों पर नारे लिखना, नेताजी के हाथ जोड़े हुये वाले पोस्टर छपवाना तथा उन्हें दीवारों पर, दुकान के साइनबोर्डोंपर, ट्रैफिक वाले इन्डीकेशान बोर्डों, पर बस स्टापों, और मूत्रालयों में चिपकवाना, जीपें तय करना, उनके लिए डीजल का स्टाक करके रख लेना, बच्चों को बिल्ले बंटवाना, और सिखाना कि अपनी माँ से अपनी सौगंघ दिला कर नेताजी को वोट देने के लिए ही कहें। नकली वोटिंग मशीीन पर उंगली रखवा कर सिखाना कि फलाँ चुनाव चिन्ह के आगे वाले बटन को दबा कर लोकतंत्र के पावन यज्ञ में अपनी आहुति दें। यही अभ्यास महिलाओं, खासतौर पर युवा महिलाओं को करवाते समय उंगली को जोर से दबा देना और धीरे से मुस्करा देना भी उनके राजनीतिक कार्यों का हिस्सा हैं। लाठी वाले जमानत पर छूटे या बाइज्जत बरी लोगों को जीपों में भरकर भ्रमण हेतु बाध्करना भी राजनीतिक कार्य होता है।
उपरोक्त कार्यों के अलावा चुनाव क्षेत्र में फैले धार्मिक स्थलों के नाम से प्रचारित स्थानों पर मालपुआ उड़ा रहे बाबानुमा लोगों से आशीवाद प्राप्त करना और उनके नित्यकर्म का हिस्सा होते हुये भी यह प्रचारित करवाना कि उन्होंने यह आशीर्वाद चुनाव में जीतने के लिए दिया है। पण्डितों को चुनाव वाले दिन तक पाठ करने के नाम पर बुक कर लेना तथा जीतने पर दक्षिणा के अलावा इनाम भी दिलवाने का वादा करना, ज्योतिषियों को इस बात के लिए अनुबंधित करना कि वे नेताजी की विजय की भविष्यवाणी करें और उस अनुसार ही जन्मकुंडली बना कर अखवारों में छपवायें।
उपरोक्त सकारात्मक राजनीति के अलावा कुछ नकारात्मक राजनीति भी करना पड़ती है, जैसे विरोधी नेताओं की चरित्रहत्या के लिए उदारवादी महिलाओं को तैयार करना, अच्छे कहानीकारों से चरित्र हत्या की ऐसी रोचक कहानी तैयार कराना कि सुनने सुनाने में मजा आये और एक बार सुनने के बाद लोग दूसरों को सुनाने के लिए बेचैन दिखें। ठीक समय पर गाँव में उड़ा देना कि विरोधी दल के नेता तो बैठ गये हैं।हाई कमान को शिकायत भिजवा देना कि दूसरे गुट के नेता भितरघात कर रहे हैं इसलिए उन्हें पर्यवेक्षक बना कर चुनाव क्षेत्र से बाहर भेज दिया जाये। आदि आदि राजनीतिक कार्य करने का यह सही समय होता है।
वैसे कुछ ऐसे बाबा भी होते हैं जो तयशुदा योजना के अनुसार 'अचानक' मंच पर प्रकट होकर देशासेवा का आशीर्वाद देकर जनता में छवि ठीक करें। यदि ऐसे बाबा खाली न हों तोे नेताजी धमनिरपेक्ष भी हो लेते हेैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (मप्र)
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सोमवार, अप्रैल 13, 2009

हवा बांधने का दौर

व्यंग्य
हवा बाँधने का दौर
वीरेन्द्र जैन
तुलसी बाबा कह गये हैं कि-
क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंचतत्व मिल बना शरीरा!
इन पंच तत्वों से ही मिल कर शरीर बनता है। इनमें से एक तत्व अथार्त पावक की बहुतायत से ये सारे तत्व विखंडित होकर अपने अपने घरों को लौट जाते हैं।
तुकांत कविता में छंद की मात्राओं के अनुसार समीर को समीरा तथा शरीर को शरीरा में बदलने की स्वतंत्रता रहती है तथा इसी स्वतंत्रता का लाभ उठाकर कवि वहाँ तक पहुँच जाता है जहाँ तक रवि भी नहीं पहुँच पाता।
जहाँ रवि नहीं पहुँच पाता, वहाँ पर समीर अर्थात हवा पहुँच जाती है। यही कारण है कि हवा का महत्व उजाले के महत्व से अधिक होता है! जो काम उजाला नहीं कर सकते वह काम हवा कर देती है। हवा जब साँस बन कर फेफड़ों में जाती है तभी जिन्दगी चलती है। यही हवा जब समाज के फेफडों में जाती है तो व्यवस्था चलती है।
हवा, करने, भरने और बाँधने के काम आती है। पहले हवा करने के लिए हाथों के पंखे हुआ करते थे, जिन्हें बीजना कहा जाता था तथा अभिजात्य वर्ग के लिए जब उनके दास यह पंखा तब तक डुलाते थे जब तक वे लोग साधारण हालात तक नहीं पहुँच जाते थे-
विजन डुलाती थीं वे विजन डुलाती हैं,
तीन बेर खाती थीं वे तीन बेर खाती हैं।
हवा करने का यही काम अब बिजली करती है, जो अगर आ जाये तो, पंखा चला कर हवा करने लगती है।
हवा, करने के साथ साथ, भरने के काम भी आती है। पहले केवल गुब्बारों में हवा भरी जाती थी फिर टायर टयूबों का जमाना आया। साइकिल से लेकर मोटर कार तक अपने अपने टयूबों में हवा भरवाकर जमीन से ऊपर उठते गये और हवा से बातें करने लगे। बूढी और लटकी खाल वालों की दाढी बनाते समय नाई कहते थे कि ''बाबा गाल में हवा भरो'' जिससे दाढी बनाने में आसानी हो। सेना और पुलिस में भर्ती के समय सीने में हवा भरवा कर सीना नापा जाता है और उम्मीद की जाती है कि सैनिक दुशमन की हवा निकाल देंगे। कहते हैं कि आपात स्थिति में अच्छों अच्छों की फॅूंक सरक जाती है, जो सामान्य स्थितियों में भरी हुयी मानी जाती है।
हवा के पाँव नहीं होते पर वह चलती है। वह दिखती नहीं है, पर महसूस होती है। कभी वह शीत लहर बन कर चलती है तो कभी लू बन कर। पर जब यह चीजों को उड़ाना शुरू कर देती है तो स्त्रीलिंग से बदल कर पुल्लिंग हो जाती है तथा तूफान कहलाती है।
करने और चलने के अलावा हवा बाँधी जाती है। भक्तिकाल से प्रारंभ हुयी यह क्रिया लोकतंत्र के विकास के साथ साथ अपने शिखर पर पहुँच गयी है। राजा महाराजा और अपने पंथ तथा पैगम्बर के पक्ष में हवा बांधने का काम कवि लोग किया करते थे। लोकतंत्र में यह जिम्मा मीडिया ने ले लिया है जिसके पास कई कवि या कविनुमा लोग पानी भरते हैं। उनका काम चुनावों की संभावनाओं को देख कर और बढ जाता है। नेता लोग मीडिया की पूछ परख बढा देते हैं क्योंकि उन्हें हवा बाँधनी होती है।
हवा बांधना एक कठिन कार्य है। हवा भरने के लिए तो एक वस्तु होती है, जिसे पम्प कहते हैं और जिसकी लोच का लाभ लेते हुए लक्ष्य की सीमाओं में हवा ठूंस ठूंस कर मुँह बन्द कर दिया जाता है, पर हवा बांधने के लिए कोई ठोस सीमा नहीं होती और इसके असंख्य मुँह होते हैं, जिन्हें बन्द कर पाना संभव ही नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो हवा बांधने के लिए सिर्फ मुँह ही होता है और उसी में हवा बाँध कर रखनी होती है। जहाँ एक ओर हवा बाँधी जा रही होती है तो दूसरी ओर हवा निकालने वाले भी सक्रिय रहते हैं, जिनका काम होता है अपनी हवा बाँधना और दूसरे की निकालना। सच तो यह है कि हवा को हवा में ही बाँधना पड़ता है।
यह कठिन काम भी किया ही जाता है। हमारे देश के योगी तो हवा में चलने की साधना करते पूरा जीवन लगा देते हैं। कठिनाइयों से घबराते नहीं। मीडिया के लोग भी यह कठिन काम करने से पीछे नहीं हटते। जनता भी उत्सुक रहती है कि जाने किसकी हवा चल रही है। वह आपस में ही पूछती रहती है। मेहमान आता है तो उसको पानी बाद में पिलाया जाता है पर यह सवाल पहले पूछा जाता है कि उधर दतिया में किसकी हवा चल रही है? उसे दतिया से कोई मतलब नहीं, पर वह हवा का रूख भांपना चाहता है ताकि भोपाल का अंदाजा लगाया जा सके और भावी सम्मान पत्र की भाषा तय कर सके। गिरधर कविराय तो कह ही गये हैं कि पतरे तरू की छाँह में मत बैठना, क्योंकि जिस दिन बयार चलेगी तब यह टूट कर तुम्हारे ही खोपड़े पर गिरेगा। इसीलिए लोग हवा जाँचते रहते हैं। इन्हीं जाँचने वाले लोगों के लिए हवा बाँधने का काम कराया जाता है ताकि ये पतरे तरूओं से भाग कर मोटे मोटे बरगदों के नीचे सुस्ताने लगें और 'चल चल रे नौजवान' का गीत सुन कर मार्च करते रहें और हवा को चलने दें।
शायर ने ठीक ही कहा है-
खुशबू को फैलने का बहुत शौक है मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिशता किये बगैर

वीरेन्द्र जैन
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रविवार, अप्रैल 12, 2009

अपनी अपनी छातियाँ

व्यंग्य
छाती पर रोड रौलर
वीरेन्द्र जैन
मुझे भी तब बहुत खुशी होती है जब कोई मेरे दुशमनों को गाली देता है या चुनौती देता है। अगर उनके बीच में मारपीट हो जाये तो मुझे और भी सुख मिलता है। मेरी ही क्या सारी दुनिया के कायरों की इसी कमजाोरी का लाभ बहुत से बयान बहादुर उठाते रहते हैं। जिन्हें मुझसे काम निकालना होता है वे पहले मेरे दुशमन तलाशते हेैं और फिर मेरी उपस्थिति में उसे भला बुरा कहते हुये चुनौती देते हैं। बस इतने से ही उनका काम बन जाता है। लालू परसाद जी ने भी चुनाव के पवित्र महीने में इसी एक बयान से अपने दोनों जहाँ साध लिये हेैं। वरूण के बयान से जिनकी छाती पर साँप लोट रहा था और अपनी अल्पसंख्यक होने की मजबूरी में मन मसोस कर रह जाते थे वे पड़ोसी से मालूम करने लगे हैं कि लालूप्रसाद का चुनावचिन्ह लालटेन ही है न।
अंग्रेजी में कहावत है कि अगर इच्छाएं घोड़े होतीं तो मूर्ख भी उन पर सवारी करते। पर मैं इससे आगे कहना चाहता हूँ कि अगर इच्छाएं घोड़े होती तो समझदार उन्हें रेस के मैदान में ले जाते और सरपट दौड़ाते। पर वे घोड़े तो छोड़िये खच्चर भी नहीं होतीं और पिंजरों के पक्षियों की तरह पिंजरों में ही फड़फड़ाती रहती हैं।
लालू जी ने कहा हेै कि अगर वे गृहमंत्री होते तो(!) वरूण गांधी की छाती पर रौडरौलर चलवा देते। उनके इस बयान में गृहमंत्री होने की पहली शर्त पर कई लोग हँसे और घन्टों तक हँसते रहे। जिनकी स्मृति का लोप नहीं हुआ है उन्हें याद होगा कि कभी लालूजी यूपीए सरकार के गठन के समय गृहमंत्री बनने के लिए अड़े थे जिससे समझौते में कम से कम रेल तो ले ही गिरे थे व उनके पुराने दुशमन व नये मित्रराम विलास पासवान टपियाते रह गये थे वे तभी से छाती पर पत्थर रखे हुये हैं। रेल का बिहार से पुराना सम्बंध है। बाबू जगजीवनराम से लेकर नीतीश कुमार रामविलास पासवान और लालू सभी रेल पर सवार हुये हैं।
रेल अपने स्टेशन से दूर तक ले जा सकती है पर किसी की छाती पर चढाई नहीं जा सकती, कोई अपने आप ही सामने आ जाये तो आ जाये। छाती पर चढाने के लिए बस कार ट्रक आदि चाहिये होते हेैं। वैसे भी मैनेजमेंट गुरू सिखाते ही हैं कि सोचो तो बड़ा सोचो सो छाती पर चढाने के लिए डम्पर रोडरौलर आदि भारी भरकम होते हेैं। डम्पर तो एक राज्य के मुख्यमंत्री से जुड़ गया इसलिए नये मैनेजमेंट गुरू को रोडरौलर ही उपयुक्त लगा होगा। 'वचने किं दरिद्रताम्' जैसा कुछ है।
पता नहीं लालू जी ने छाती पर रोडरौलर चलाने के लिए गृहमंत्री होने की शर्त क्यों रखी। इसमें एक संदेश तो यह है कि जो अभी गृहमंत्री है वह नाकारा है और जब तक लालूजी को गृहमंत्रालय नहीं मिलता तब तक साम्प्रदायिक लफंगे ऐसे ही देश की छाती पर मूंग दलते रहेंगे। वैसे लालूजी से पहले बहिन मायावती ने भी कुछ अस्पष्ट शब्दों में नारा लगाया ही था कि ''चढ गुंडों की छाती पर मुहर लगाना हाथी पर''। वैसे भी हाथी इतना ऊॅंचा होता कि उस पर सवार होने के लिए कहीं न कहीं तो चढना ही पड़ेगा।अब ये बात अलग है कि वे स्वयं ही गुन्डों की छाती पर चढने की जगह उनके कंघों पर सवार होकर प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर पहुंचने का प्रयास कर रही हैं। कहने को तो कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी कह दिया था कि सारे भष्टाचारियों और ब्लैकमार्केट करने वालों को बिजली के खंभों पर लटकवा देना चाहिये पर वो जमाना दूसरा था।
परेशानी तो बेचारे प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी लालकृष्ण आडवाणीजी की है भावी संभावनाओं को देखते हुये बेचारे छाती ठोक कर कुछ कह भी नहीं पाते। चुनाव के बाद न जाने किसका हाथ मांगने जाना पड़े। अगर अभी विरोध मोल ले लेंगे तो कल के रोज कौन सा मुखौटा लगा कर जायेंगे! जिन्दगी का आखिरी चुनाव और आाखिरी मौका है और हर तरफ से हालात दिन प्रति दिन खराब होने की रिपोटर्ें आ रही हैं। अगर अभी लालू और बहिन मायावती से बुराई ले ली तो बाद में क्या करेंगे। रामजी को भी इतने दिन से खुले में छोड़ रखा है सो उनसे भी कोई उम्मीद नहीं है। हे राम!
नेताओं पर सरे आम जूतेबाजी होने लगी है। लालूजी को शायद अब समझ में आ गया होगा कि अगर गृहमंत्री होते तो और क्या क्या संभावनाएं थीं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

गुरुवार, अप्रैल 09, 2009

जूता गाथा

व्यंग्य
जूता गाथा
वीरेन्द्र जैन
जूता फिर चल गया
वैसे तो जूते का काम ही चलना है और सच कहें तो सारी दुनिया को जूता ही चला रहा है। जूता एक मात्र ऐसा यात्री है जो इस दुनिया में अस्तित्व में आने के बाद लगातार चल रहा है। एमएफ हुसैन जैसे कुछ ही लोग हैं जो बिना जूते के चलते हेैं इसलिए मन्दिरों से जूते चुराने वालों ने उन पर जूता चलाने में कोई कोर कसर कभी नहीं छोड़ी।
जूते का चलना इतना सामान्य है कि वह वैसे खबर नहीं बनता जैसी कि नेताजी के चलने की बनती है। नेताजी की पद यात्रा अर्थात पैदल चलना ही खबर हो जाता है जबकि उनके चरण कमलों के नीचे सड़क और कंकड़ों से निबटता हुआ जूता चल रहा होता है। जूता तभी खबर बनता है जब वह किसी के पैर में न होने पर भी चलता है खास तौर पर हाथों से होता हुआ हवा में चलता है तो खबर बन जाता है।
पुराने जमाने में जब जूता बना ही नहीं था तब उसके चलने का सवाल ही नहीं उटता इसलिए तब लातें चलती थीं। उस समय भी अगर जूता होता तो अवशय ही चलता। भृगु को जूते के अभाव में लात से ही काम चलाना पड़ा था-
क्षमा बड़िन को चाहिये छोटन के उत्पात
का रहीम हरि को घटयो जो भृगु मारी लात
रावण के पास भी शायद जूता नहीं था इसलिए उसने विभीषण को लात मार कर निकाला था अगर जूते होते तो वो उसे जूता मार कर ही निकालता।
वैसे हाथों के माध्यम से जूता चलने की प्रथा अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना के समय में अस्तित्व में आ गयी थी इसीलिए उन्होंने लिखा है-
जिह्वा ऐसी बावरी कह गई सरग पताल
खुद तो कह भीतर भई जूती खाय कपाल
जूता के चलने की मंजिल तब से अब तक कपाल ही बनी हुयी है। जूता मारने का मतलब यह साबित करना होता है कि तुम्हारा सबसे ऊॅंचा स्थान हमारे सबसे नीचे स्थान के बराबर है। मनु महाराज के सिद्धांत के अनुसार चरण जो शूद्र होते हैं उन्हें सिर अर्थात ब्राम्हण के ऊपर करने का काम ही जूता मारने का काम होता है। मनु महाराज की व्याख्याओं को उलटने का काम हमारे संविधान ने करने का जो प्रयास किया है उसके कई आयाम संभव हैं।
एक इन्टरव्यू में पूछा गया था कि जूता अस्त्र है या शास्त्र?
जो उम्मीददवार बाद में सफल घोषित हुआ उसका उत्तर था- दोनों, यदि फेंक कर मारा जाये तो अस्त्र और हाथ में लिये हुये ही जम कर लगाये जायें तो शस्त्र।
बाद में तो कहावतें बताती है कि जूता मारने और पिटने की कितनी सुन्दर व्यवस्था हमारी परंपरा में है जिनमें कहा गया है - भिगो भिगो कर मारेंगे!
सौ लगायेंगे साठ गिनेंगे।
मार मार कर खोपड़ी गंजी कर देंगे। इत्यादि
क्षमा कर देने की हमारी पुरानी परंपरा की अभी भी रक्षा हो रही है। कहते हैें कि क्षमा वीरस्य भूषणम् पर क्षमा का हाल यह हो गया है जैसे कि किसी शायर ने कहा है-
नाज है उनको बहुत सब्र मुहब्बत में किया
पूछिये सब्र न करते तो और क्या करते!
वैसे पुराने समय के प्रभुओं को जूतों से बड़ा डर रहता होगा इसीलिए हमारे देश के सभी धर्मस्थलों में जूतों को बाहर उतार कर ही प्रवे6ा करने की परंपरा है। भक्तों को भगवान पर भरोसा हो सकता है पर जरूरी नहीं कि भगवान को भी भक्तों पर भरोसा हो। जब तक घर मकान नहीं हुये थे तब तक जूते बाहर उतार कर ही घर में प्रवेश करने की परंपरा थी पर घरों के मकान बनते ही सबसे बड़ी बात जो हुयी है वो यही कि अब सबके यहाँ जूते चलने लगे हेैं।
जूते जब खड़ाऊॅं माडल में आते थे तब बड़े पवित्र समझे जाते थे सिंहासन तक पर प्रतिष्ठित होते थे। तब बड़े से बड़े महाराजा के पास भी केवल एक ही जोड़ हुआ करते थे इसीलिए तो भरत ने राम के बनवास जाते समय वे ही खडाऊॅं उतरवा ली थीं जो वे पहिने हुये थे अगर दूसरी होतीं तो वे कह सकते थे कि सिंहासन पर पुरानी वाली रख कर काम चला लो। इससे लाभ ये हुआ है कि इस पवित्र भारत भूमि पर उनके चरण चिन्ह बन गये जिनको खोजने के काम में मध्यप्रदेश की सरकार करोड़ों रूपये अपने वालों को देकर लगाने वाली है तथा उन स्थानों पर जो मस्जिदें चर्च इत्यादि बन गये होंगे उन्हें तोड़ कर संसद विधानसभाओं में सीटें बढवाने की योजना अपने आप पूरी होगी। ज्यादा से ज्यादा कोई लिब्राहन आयोग बैठाना पड़ेगा जो हजरते दाग बन कर बैठ जायेगा और तब तक बैठा रह जायेगा जब तक कि दे6ा ही न बैठ जाये!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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मंगलवार, अप्रैल 07, 2009

वरुण का गीता पाठ

व्यंग्य
वरूणगांधी और गीता पाठ की सलाह
वीरेन्द्र जैन
प्रियंकागांधी ने वरूण को गीता पढने की सलाह दी है। पता नहीं यह सलाह बड़ी बहिन के नाते दी है या विरोधी दल की नेता की तरह सलाह दी है। आजकल सलाह देने से पहले यह जरूरी नहीं कि सलाह आपकी आजमायी हुयी हो।
एक गा्मीण आदमी पड़ोस के गांव में रहने वाले अपने दोस्त के घर गया और उससे पूछा कि तुम्हारी भैंस जब बीमार हो गयी थी तब तुमने क्या किया था?
'मैंने उसे एक लीटर तारपीन का तेल पिला दिया था' मित्र ने बताया
सलाह लेकर वह ग्रामीण घर गया और उसने भी अपनी बीमार भैंस को तारपीन का तेल पिला दिया। शम तक उसकी भेंस तड़फ तड़फ कर मर गयी। वह भागा भागा फिर अपने मित्र के पास गया और पूरा हाल बताया तथा उसकी सलाह पर सवालिया निशान खड़ा किया।
' उससे क्या, भैंस तो मेरी भी मर गयी थी' मित्र ने शांतिपूर्वक बताया। 'तुमने पूछा था कि क्या किया था तो वह मैंने बता दिया था पर परिणाम के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुयी थी।
कल के दिन वरूण चाहें तो कह सकते हैं कि उन्होंने न केवल गीता ही पढी है अपितु उस पर आचरण करते हुये ही वे अपना काम कर रहे हैं। अर्जुन की तरह उन्हें न पेड़ दिख रहा है न शाखें दिख रही हैं, न पत्तियां दिख रही हैं न चिड़िया दिख रही है केवल चिड़िया की आंख की तरह एक अदद कुर्सी दिख रही है। चुनावी युद्ध क्षेत्र में उन्हें न गांधी दिख रहे हैं और ना ही नेहरू दिख रहे हैं, न उन्हें अपनी दादी इंदिराजी दिख रही हैं जिन्होंने अपने हिस्से में आयी संजयगांधी की पूरी सम्पत्ति वरूण के नाम कर दी थी। वे सर्वधर्म परित्याज अडवाणी शरणम् जा चुके हैं। उनके भाई बंधु गुरू माता पिता सब कुछ आडवाणी हैं। कुर्सी वे ही दिलवा सकते हैं, उनके नाम में भी कृष्ण है। वे रथ हांकने के भी अभ्यस्त हेैं। वे पाकिस्तान जाकर जिन्ना का गुणगान भी कर सकते हैं और मेरे द्वारा कुछ भी कह देने पर भी मुझे दिया गया टिकिट सुरक्षित बनाये रखते हैं। मेरा टिकिट आत्मा की तरह अमर है जो न कट सकता है न फट सकता है न आग में जल सकता है और ना ही कोई चोर उसे चुरा सकता है भले ही भाजपा के केन्द्रीय कार्यालय से ढाई करोड़ रूपये चारी चले जायें।
मैं कल्पना करता हूँ कि बड़ी बहिन की सलाह मान कर वरूण गीता पाठ करने के लिए बैठते हेेंै और बैठने से पहले अपनी पूज्य माताश्री से पूछते हैं कि मैं आदरणीया बड़ी बहिन के कहने पर गीता पाठ करने के लिए बैठ रहा हूँ, कृप्या मुझे आज्ञा दें और बतायें कि आपको कोई आपत्ति तो नहीं है!
'गीता में प्राणी हत्या के बारे में तो कुछ नहीं कहा गया है?' माताश्री पूछती हैं
' उसमें तो नाते रिशतेदार, बंधु बांधव, गुरू आदि किसी भी भावुकता से ऊपर उठ कर शत्रुसेना के साथ सामने आने वाले को मारने का संदेश है माताश्री' वरूण विनम्रता से कहते हैं।
' पर ये तो मनुष्य हैं, इनकी कोई बात नहीं, किसी पशु पक्षी को मारने की तो कोई बात तो नहीं है' मनेकाजी कहती हैं
'वह तो शायद नहीं है आगे पढने पर पता लगेगा, हाँ पर महाभारत में अशवत्थामा नामक हाथी के मरने की सूचना अवशय है' वरूण याद करते हुये कहते हैं।
' फिर केवल गीता पढना, महाभारत मत पढने लगना।
'जी माताश्री' वे हाथ जोड़ कमर से झुक कर कहते हैं।
वरूण गीता पढने चले जाते हैं और उनकी माताश्री चीता के बारे में किताबें पढने लगती हैं। बाहर तांगे पर लाउडस्पीकर बांधे सिनेमा वाला जनता की बेहद मांग पर नगर के सिनेमा हाल में फिल्म सीता और गीता लगे होने की घोषणा करता फिर रहा है।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629 4

देशभक्त समर सिंह की अमर कहानी

व्यंग्य
देशभक्त समर सिंह की अमर कहानी
वीरेन्द्र जैन
यह सन 2050 की कहानी है।
अभी तक आपने भूत की कहानियाँ सुनी पड़ी होंगीं- भूत से मेरा मतलब भूतकाल से है और वैसे भी हमारे यहाँ चिट्ठियों में 'थोड़ा लिखा बहुत समझना' लिखने की परंपरा है। यूँ भी कहानी में कल्पनाएं होती हैं संभावनाएं होती हेैं, सपने होते हैं आशकाएं होती हैं और ये ही तो उसे इतिहास या समाचार होने से बचाते हैं। यही कारण है कि मैं भविष्य की कहानी लिखने का दुस्साहस कर रहा हँं।
प्यारे बच्चो यह कहानी सन 2050 की है जब तुम लोग बूढे होने की प्रारंभिक अवस्था में पहँच चुके होगे और मैें दूसरी दुनिया में पहुच चुका होऊॅंगा जिसका नाम अगर होगा तो नर्क होगा। हो सकता है कि उस समय तक अंधविशवास और बढ चुका हो तथा छींक आने पर रूक जाने वाले डाक्टर, अपने मकान पर काली हँडिया लटकाने वाले इंजीनियर, कम्यूटर के आगे नारियल फोड़ने वाले अफसर व शौचालयों का भूमिपूजन करने वाले नेता इस शस्य शयामला भूमि पर बन्दे मातरम गाने और मंत्र चिकित्सा कराने के बाद सूर्य नमस्कार करते हुये जगह जगह पाये जाते हों।
इस समय तक कोई भी चौराहा ऐसा नहीं बचा होगा जहाँ पर कोई ना कोई मूर्ति ना लगी हो। चौराहे कम पड़ गये होंगे पर मूर्तियाँ कम नहीं पड़ी होंगी तथा वे हजारों की संख्या में किसी न किसी गोदाम में काई खाती हुयी किसी नये चौराहे के बनने की प्रतीक्षा कर रही होंगीं।
बच्चो, कुछ चौराहों पर एक गोलमटोल घुटियल आदमी की मूर्ति लगी होगी जिस के चेहरे पर एक सुनहरे फ्रेम का चश6मा होगा और जिसके होंठ बोलने के लिए फड़फड़ाते से दिख रहे होंगे। मूर्ति के नीचे जड़े काले पत्थर पर सुनहरे अक्षरों में लिखा होगा अमर शाहीद देशभक्त समर सिंह। जन्म 27 जनवरी 1956 अलीगढ (उत्तरप्रदेश)। अगर पीछे की ओर से देखोगे तो एक छोटी सी काया कुर्ता धोती पहिने हुये मूर्ति की छाया में दुबक कर चल रही होगी जिसके बारे में पूछने पर पता चलेगा कि वो कभी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे नरमसिंह हैं जिनके विचार, सोच, सिद्धांत, संघर्ष, आदि सारी सम्पत्ति को समरसिंह ने कौड़ियों के मोल खरीद कर अपना दास बना लिया था। उसके बाद जहाँ जहाँ समरसिंह की मूर्ति लगायी जाती है उसके पीछे दुबकी हुयी पहलवान नरम सिंह की मूर्ति भी लगी होती हैं। जैसे महादेव के मन्दिर में नादिया होता है।
बच्चो,तुम ठीक समझे, उस दौर में ये आज के फरफराते नेता समरसिंह की ही मूर्ति होगी। स्कूल की छठवीं कक्षा में सातवां पाठ समरसिंह का ही होगा। जिसमें उनकी जीवन गाथा के बारे में विस्तार से लिखा होगा।
बच्चो, समरसिंह से पहले हम स्वतंत्रता का मतलब समझते थे कि किसी भी दूसरे देश की सत्ता से मुक्त अपनी स्वतंत्र संप्रभुता। देश भक्त समरसिंह ने हमारी यह भ्रान्ति तोड़ी और हमें बतलाया कि स्वतंत्रता का मतलब होता है गुलामी स्वीकारने की आजादी। उन्होंने ही बतलाया कि अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब होता है बात को घुमाने की स्वतंत्रता, और बात के आशय से अलग अर्थ निकालने और जोर जोर से नक्कारखाने का शोर मचा कर सच्चाई की तूतियों की आवाजों को चुप कराना।
महाराजा समरसिंह के मैदान में आने से पहले लोग समझते थे कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ शाासन का किसी भी पंथ विशेष से असंबद्ध रहते हुये सरकारी कामकाज का संचालन होता है किंतु उन्होंने इस भ्रम को तोड़ते हुये हमें बताया कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब होता है कि बहुसंख्यकों के हिंसक संगठनों से आतंकित अल्पसंख्यकों के वोटों को गैर राजनीतिक आधार पर अपनी झोली में समेट लेने की कूटनीति और फिर उन्हें उन्हीं बहुसंख्यकों की पार्टी को बेच देना।
वे सार्वजनिक रूप से साम्प्रदायिकता और राजनीति में और धर्म के मेल के खिलाफ थे। उनका कहना था कि राजनीति में धर्म का क्या काम! राजनीति तो व्यापार है इसलिए वे उद्योगपतियों व्यापारियों के आसपास मंड़राया करते थे। उनका आयकर का रिर्टन भी व्यापारियों की तरह यथार्थवादी होता था और उन्हीं की तरह उनकी आय में उतार चढाव आते रहते थे।
वे इतने स्वतंत्रचेता थे कि अनेक लोगों को उनकी पार्टियों की गुलामी से मुक्त कराके उनका आर्थिक उत्थान कराने में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया। अनेक सांसद विधायक आदि पदों पर रहे लोग आज भी उनके योगदान को याद करते रहते हैं। लोकतांत्रिक ढंग से शासन चलवाने के लिए उन्होंने सदैव ही सरकार बनाने को उतावले लोगों को हाथ के मैल के सहारे बहुमत दिलवाने में योगदान दिया और अपने हाथों में बांटनहारे की तरह मेंहदी का रंग लगवाते रहे। यदि वे लोकतंत्र की ऐसी मदद नहीं करते तो देश की सेवा करने को कृतसंकल्प नेता तानाशााह होने की कोिशश करते तथा हमारे देशा का हाल पाकिस्तान जैसा हो जाता। उनके कारण हर तानाशााही लोकतंत्र की वर्दी पहिने रही।
देशाभक्त समरसिंह ने व्यापार में स्वस्थ प्रतियोगिता पैदा करने पर हमेशाा जोर दिया जिससे कि देश का विकास हो सके जिसके लिए वे चाहते रहे कि भाई भाई भी आपस में प्रतियोगिता करें। उनकी प्रतिभा इतनी अधिक थी कि जब उन्होंने एक बड़े व्यापारिक घराने के दो भाइयों में जूतमपैजार करा दी तो उनकी माँ समेत रामलखन भरत शत्रुघन के प्रेम की कथा वांचने वाले मुरारी बापू भी उन्हें नहीं समझा सके व उनके प्रवचन निरर्थक हो गये। परिणाम यह हुआ कि उनके भक्त आशाराम बापू के चेले होने लगे तथा कुछ बाबा रामदेव के आगे उल्टे सीधे होकर योग करने लगे।
उनकी सबसे अच्छी प्रतिभा तो एक बार राष्ट्रपति के चुनाव के समय में प्रकट हुयी थी जब उन्होंने एक प्रतिभाशाली फिल्मी नचैये व मॉडल सेल्समैन को राष्ट्रपति बनवाने के लिए बयान दिया था। उस रात मैं रातभर सपने देखता रहा कि हमारा राष्ट्रपति डाबर का च्यवनप्राश बेच रहा है, एवरेडी की बैट्री बेच रहा है, रीड एन्ड टेलर की सूटिंग बेच रहा है तो कैडबरी की चाकलेट बेचने के बाद हाजमोला के चटखारे ले रहा हैं। 26जनवरी की परेड की सलामी लेते लेते कोल्डड्रिन्क पीने लगता है जिससे सारी दुनिया में उस कोल्डड्रिन्क की बिक्री बढ सके। उसने राष्ट्र के नाम संदेश के बीच में एक ब्रैक डलवा दिया है और बीच में वह लाइव विज्ञापन करने लगता है।
खुद समरसिंह को एक एड्हेसिव कम्पनी ने विज्ञापन के लिए बहुत अच्छे आफर दिये थे कि वे जनता को यह बतावें कि वे उस अभिनेता के साथ इतना कैसे चिपके रहते हैं कि रात में बैड के नीचे से भी उन्हें बाहर निकाल कर कहना पड़ता था कि समरसिंह रात हो गयी है अब तो घर जाओ और कम से कम बैड रूम में तो मुझे अपने साथ से मुक्त करो। पर समरसिंह ने विज्ञापन का वह ऑफर आफर ठुकरा दिया था।
महिलाओं के साथ समरसिंह के बेहद पवित्र सम्बंध थे। इसमें टेलीकम्युनिकेशन की बड़ी भूमिका थी क्योंकि वे उनसे फोन पर बातें कर के ही संबंधों को पवित्र बनाये रखते थे। जब किसी ने उनके फोन टेप करने जैसा महान अपराध कर डाला था तो वे बंदर की तरह नाचे थे और अदालत में गुहार लगा कर उन्होंने मीडिया को अशलील बातचीत छापने के अपराध से बचाने का महान काम किया था। आज भी सारा जमाना उनके इस उपकार को याद करता है।
उनके जितने भी गुण याद किये जायें वे कम हैं। उनमें एक सबसे बड़ा गुण यह था कि वे निराभिमानी थे। घमंड तो उन्हें छू भी नहीं गया था। कहीं भी दावत हो रही हो तो वो बिना वुलाये पहुँच जाते थे तथा वहाँ से निकाले जाने पर रहीम का वह दोहा पड़ते थे-
रहिमन वे नर मर गये जो कहीं मांगन जायँ
उनसें पहिले वे मुएं जिन मुख निकसत नाँय
पर दूसरों के लिए वे लड़ भी जाते थे। जब एक कलाकार ने उनके चिपकन कलाकार को पिछली सीट पर बैठा दिया तो वे हॉल से बाहर होने से पहले आपे से बाहर हो गये थें।
नेताजी नरम सिंह के साथ वे माउथपीस की तरह लगे रहते थे क्योंकि नेताजी को बोलना नहीं आता था और अजीब सी हाउ हाउ करते थे पर समरसिंह उनकी बात का अर्थ अपने करारे शब्दों में व्यक्त कर देते थे और नमक मिर्च का कोई पैसा चार्ज नहीं करते थें। ऐसा करते करते उन्होंने नरमसिंह को भी पीछे छोड़ दिया था और लोग उन्हें ही पूछने लगे थे। वे पार्टी में किसी विधायकसांसद का टिकिट काटना नहीं चाहते थे इसलिए कभी चुनाव में खड़े नहीं होते थे तथा सीधे राज्यसभा में जाने में भरोसा रखते थे।
वे समझदार भी बहुत थे। जिस परमाणु समझौते कों बहुत होशियार बनने वाले वामपंथी सालों में नहीं समझ पाये उसी को समरसिंह ने एक दिन में पूर्वराष्ट्रपति के पास बैठ कर समझ लिया था और एक दो दिन का टयूशान न्यूर्याक जाकर ले आये थे।
महापुरूषों के हाथों की लकीरों में जेलयात्रा भी लिखी होती है और प्रभू के लिखे को पूरा करने के लिए उन्होंने ऐसे काम भी किये जिससे तत्कालीन कानून जेल में डालता है।
प्यारे बच्चो समर की गाथा,-हरि अनंत हरि कथा अनंता- की तरह बहुत व्यापक है इसलिए फिर दुहराता हॅूं कि थोड़ा लिखा बहुत समझना।

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अप्रैल 04, 2009

व्यंग्य

व्यंग्य
लाउडस्पीकर वाले
वीरेन्द्र जैन
वह आता है और सबसे पहले बिजली का स्विच तलाशता है फिर ग्राहक से पूछता है कि कहाँ फिट करना है। ग्राहक उसे मंच की जगह बताता है तो वह उसके पास ही अपना डेरा जमा कर सबसे पहले स्विच से तार जोड़ लेता है। उसके पास तारों के अनगिनित टुकड़े होते हैं जो हर तरह की लम्बाई के होते हेैं, नहीं भी होते तो भी वह अपने दांतों से छील छील कर उन्हें एक के साथ दूसरे का जोड़ बना लम्बा कर लेता है। उसके तारों के जोड़ गठबंधन सरकारों को भी मात करते हैं। तार में करंट का पता वह टैस्टर से नहीं अपितु हाथ से छू छू कर लगाता है। उसके बाद वह उचित स्थान पर स्पीकर लटकाता है, उनके तार एमप्लीफायर से जोड़ता है। फिर स्टैंड को खड़ा करके उसमें माइक फिट करता है उसका स्विच खोलता है तथा उसमें से हैलो माइक टैस्टिंग वन टू थ्री, हैलो माइक टैस्टिंग वन टू थ्री, करता है और सन्तुष्ट होने पर अपने डेरे के पास पसर कर बैठ जाता है। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने।
भारतीय जनता पार्टी भी नेहरू परिवार के वंशज अपने स्टार नेता वरूण गांधी के आपराधिक बयानों के बारे में लगभग ऐसा ही रवैया अपना रही है। वह कह रही है कि वरूण ने क्या बोला उससे हमें मतलब नहीं है, पर पीलीभीत से हमारे उम्मीदवार वही रहेंगे। मैंने रामभरोसे से पूछा कि ये वरूण गांधी काहे के उम्मीदवार हैं!
'' लोकसभा की सदस्यता के'' उसने मेरे सवाल में कुछ बदमाशी सूंघते हुये भी उत्तर देने का अहसान किया।
'' लोकसभा में क्यों जाते हैं लोग?'' मेंने दुबारा सवाल किया।
रामभरोसे ने मुझे फिर घूरा और कहा कि ''अपने क्षेत्र की जनता की आवाज उठाने, देश के लिए कानून बनाने तथा ज्वलंत समस्याओं पर अपने व अपनी पार्टी के विचार बताने के लिये।''
'' क्या यह काम बिना बोले हुये भी हो सकता है और यदि नहीं हो सकता तो फिर जो पार्टी अपना समर्थन देकर उसे प्रत्याशी के बना संसद में भेजना चाहती है वह उसके शब्दों की जिम्मेवारी से कैसे बच सकती है!''
'' अब कोई कुछ भी कह दे तो पार्टी क्या करे'' राम भरोसे ने खांटी भाजपाइयों की तरह कुतर्क किया।
'' कार्यवाही'' मैंने कहा ''पर वहाँ कार्यवाही तो दूर उसका टिकिट भी काटने का साहस नहीं किया जा रहा है। जो एक वर्ग के हाथ और सिर काटने की बात सार्वजनिक मंच से कर रहा है वे उसका टिकिट भी नहीं काट सकते। उन्हें तो आडवाणीजी को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए वैसे ही केवल एक वोट जुटाना है जैसे लाउडस्पीकर वाले को अपना पैसा लेना है उसमें से चाहे जो चाहे कुछ बोले उसको कोई मतलब नहीं है।''
'' यह तो अभिव्यक्ति की आजादी है'' रामभरोसे ने फिर भाजपाई कुतर्क पेश किया।
'' पर जब इसी आजादी का स्तेमाल हरेन पंडया करना चाहते हैं तो उनकी हत्या हो जाती है,उमाभारती करती हैं, कल्याणसिंह करते हेै बाबूलाल मरांडी करते हैं तपन सिकदर करते हैं, कांशीराम राणा करते हैं, मदनलाल खुराना करते हैं, शेखावत करते हैं, और जिन्ना के मामले में स्वयं आडवाणी करते हैं तो पूरा संघ परिवार लाल होकर उन्हें अध्यक्ष पद से हटा देता है। जब धर्मेंन्द्र कहते हैं कि भाजपा ने मुझे इमोशानली ब्लैकमेल किया तो उनका टिकिट काट दिया जाता है। अभिव्यक्ति की यह आजादी क्या केवल अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलने के लिए ही होती है?''
राम भरोसे बोला ''मुझे जरा काम से जाना है बाद में आकर बात करता हूँ।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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टिकिट की नीलामी
वीरेन्द्र जैन

'' बिना टिकिट यात्रा एक दण्डनीय अपराध है जिसमें आपको जुर्माना और सजा दोनों हो सकती है''।
हमारी भारतीय रेल में यह वाक्य जहॉ भी जगह होती है, लिख दिया जाता है। पर लोकतंत्र की रेल में ऐसा नहीं है क्योकि जब चुनाव होते हैं तो कुछ और लिखने के लिए जगह ही खाली नहीं रहती यहॉ तक कि '' पेशाब करना मना है '' तक के ऊपर नेता जी का मुस्कराता और वोट मांगता फोटो चिपका दिया जाता है, और आप मना किये जाने की सूचना पढे बिना पेशाब करते रह सकते हैं।
लोकतंत्र में चुनाव की यात्रा आप बिना टिकिट भी कर सकते हैं रेल में बिना टिकिट यात्रा करने पर पकड़ लिए जाने के बाद आपको जमानत मिल सकती है पर चुनाव में बिना टिकिट यात्रा के बाद आपकी जमानत जब्त हो सकती है। टिकिट बिकते हैं। रेल में भी बिकते हैं और चुनाव में भी बिकते हैं पर रेल में खुले काउन्टर से मिलते हैं। चुनाव में खुले काउन्टर से नहीं मिलते हैं वे गोपनीय ढंग से मिलते है। बहुजन समाज पार्टी के एक नेता को इसलिए दल से निकाल दिया गया था क्याकि उनने कह दिया कि इस पार्टी में टिकिट नीलाम होते हैं।
टिकिट वितरण के कई ढंग हो सकते हैं जिनमें यह भी एक हो सकता है। डिमांण्ड और सप्लाई वाला फार्मूला लागू होगा। इस गोपनीय कार्य में कितनी पारदर्शिता है। कोई पक्षपात नहीं- कोई रिशतेदारी नातेदारी नहीं - खुल्ला खेल फरूक्खाबादी। जो ज्यादा दाम लगाये सो टिकिट ले जाये। सील बन्द लिफाफें में टैन्डर आमंत्रित है। चुनाव चिन्ह आवंटन के अंतिम दिन अंतिम क्षण तक टेैन्डर डाल सकते हैं।खूब सोचने समझने का मौका है।
चुनावी पार्टियों के पैर नहीं होते वे पैसे से ही चलती हैं। पैसा कहॉ से आयेगा। कोई दलित तो पैसों की फैक्ट्रियां लगाकर नहीं बैठे हैं जो पैसा दे देंगे। सरकार ने सांसद निधि और विद्यायक निधि ऐसे ही नहीं बनायी है- उसका आशय समझो -उसका खर्च दिखाओ और पार्टी को मजबूत करो। हमने दलित को मुफ्त में ही नहीं समझा दिया कि तुम्हारा शोषण हो रहा है, अपमान हो रहा है। जबसे ये दलित मतदाता हुये है तब से इन्होने बेगार करनी बन्द कर दी है। अब ये हर बात के पैसे चाहते हैं। हम कहते हैं कि तुम्हारा शोषण हो रहा है तो वे कहते है कि कैसे मानें ? हम कहते है कि तुम्हें अपमान की जिन्दगी जीना पड़ रही है तो वे फिर कहते हैं कि कैसे मानें? फिर हम पूछते हैं कि घर में कितने वोटर हैं, तो वे कहते है- तेरह! तेरह कहते हुये उनकी आंखों में चमक आ जाती है- हम वोटर लिस्ट निकालते हैं और तेरह नामों पर निशान लगाते हैं। निशान लगाकर उन्हें सौ सौ के तेरह नोट देते हैं तो वे उन्हें मोड़कर धोती की अंटी में खोंस लेते हैं और पूछते हैं कि वोट कब गिरना है ? आप ही बताइये कि फी वोटर सौ रूपयें कहॉ से आयेगें यदि टिकिट की नीलामी न की जाये। वैसे भी जो जितने ज्यादा दाम देकर टिकिट खरीदेगा वो उतना ज्यादा कमायेगा। इस कमाई से दलित वर्ग के बेटे बेटियों का भला होगा। जमीनें आयेगी, बंगले आयेगे सोने और हीरे जड़े मुकुट पहने जायेंगे। ज्योतिषी जी बता रहे थे कि जन्म दिन के महूर्त पर हीरा पहिनने से मंगल शनि सारे ग्रह मुलायम पड़ जाते है। सोने से सोनिया अगले दरवाजे से आकर पिछले दरवाजे से बाहर जाती हैं। लालची टंडन फिर से भाई बन सकते हैं। धातुओं और माणिकों में बड़ी ताकत होती है। ये सिद्वांतों, कार्यक्रमों और घोषणापत्रों के बंधनों से बचाते हैं और आकाश में स्वतंत्र विचरण करते हुये सभी रास्ते खुले रखने का अवसर देते हैं।
आप जनता की चिंता न करें वह तो लुटने के लिए ही होती है। सवर्ण हिन्दुओं को भाजपा मूख बना रही है तो मुसलमानों को कांग्रेस ने बनाया यदि हम दलितों को बना रहें है तो क्या गलत कर रहे हैं। हम नहीं बनायेगे तो उन्हें कोई और बनायेगा पर हमारी जिम्मेदारी ज्यादा बनती हैं क्योंकि वे हमारे जाति भाई हैं। जातिवाद का यही अर्थ है कि अपनी जाति के वोट बटोरकर उन्हें उचित कीमत पर बेच दिया जाये। वोटाों के खुले बाजार का नाम लोकतंत्र है। चुनाव भ्रष्टाचार के विकेन्द्रीकरण का सुनहरा अवसर है।

बोली लगाओ और टिकिट पाओ। जो लगायेगा सो पायेगा नही तो खड़ा खड़ा पछतायेगा। जनता के पास जाओगे तो वो भी यही मांगेगी। ये टिकिट के आरक्षण की एजेन्सी है। यहॉ कनफर्म टिकिट मिलेगा। कहीं सिद्वांत फिद्वांत में फंस गये तो शहीद के चित्र पर चढ़े पुष्पों के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। न माया मिलेंगी न राम।
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वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629
व्यंग्य
कौन कहाँ पर है
वीरेन्द्र जैन
देश में मंचों के लाड़ले गीतकार गोपालदास 'नीरज' ने कई साल पहले कहा था जो ऐसा लगता है कि आज की राजनीति पर कहा गया है-
है अनिशचित वस्तु हर
हर एक क्षण
सिर्फ नििशचत है अनिशचितता यहाँ
देश की राजनीति में भी कुछ कुछ ऐसा ही चल रहा है
• शारद पवार कांग्रेस के साथ हैं
• वही शरद पवार शािव सेना के साथ हैं
• िशवसेना भाजपा के साथ है
• पर शिवसेना तब तक भाजपा के साथ है जब तक मराठी प्रधानमंत्री बनने का अवसर नहीं आता
• यदि मराठी प्रधानमंत्री प्रत्याशी सामने आता है तो गुजरात से लड़ने वाले सिन्धी लालकृष्ण आडवाणी के साथ िशवसेना नहीं होगी तब वह शरद पवार के साथ हो सकती है या किसी और के साथ जैसे कि राष्ट्रपति के चुनाव में वह प्रतिभा पाटिल के साथ थी।
• काँग्रेस अमरसिंह की उंगलियों पर नाचने वाले मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के साथ थी यदि वह उसे पच्चीस सीटें दे देती। वह सत्तरह पर अटक गयी इसलिए काँग्रेस समाजवादी के साथ नहीं है। यह सिद्धांत की बात है।
• समाजवादी पार्टी भी काँग्रेस के साथ नहीं है पर वह सोनिया और राहुल के साथ है उधर कॉग्रेस भी मुलायम और अखिलेश के साथ है पर समाजवादी के साथ नहीं है।यह सिद्धांत की बात है।
• समाजवादी यूपीए में नहीं हैं क्योंकि मुलायम को गृहमंत्री नहीं बनाया गया। वे बाहर से समर्थन दे रहे हैं। लालू यूपीए में हैं पर काँग्रेस के साथ नहीं हैं वे अब अपने जानी दुशमन रामविलास पासवान के साथ हो गये हैं।
• राम विलास भी यूपीए में हैं पर काँग्रेस के साथ नहीं हैं वे लालू के साथ हैं।
• समाजवादी बिहार में लालू राम विलास के साथ हैं पर शेष भारत में अवसर के साथ हैं। लालू रामविलास भी उत्त्रप्रदेश में समाजवादी के साथ हैं उनके लिए बिहार ही पूरा देशा है।
• झारखण्ड में काँग्रेस और लालू दोनों ही शीबू सूरेन के साथ हैं पर बिहार में नहीं हैं।
• बिहार में नीतीश कुमार भाजपा को जूनियर पार्टनर बनाये हुये हैं पर वे जार्ज के साथ नहीं हैं जार्ज बिस्तर पर ही चुनाव लड़ने के लिए छटपटा रहे हैं पर उनके साथ टिकिट वंचित दिग्विजयसिंह को छोड़. कर कोई नहीं है- सुख के सब साथी दुख में ना कोय।
• पीएमके ने यूपीए छोड़ दिया है और एआईडीएमके के साथ हो लिए हैं।
• मायावती प्रधानमंत्री बनने के लिए तीसरे मोर्चे के साथ हें पर सीटों के हिस्सेदारी में वे अलग हैं- खीर में सौंझ, महेरी में न्यारे- वाला मामला है।
• नवीन पटनायक अब भाजपा के साथ नहीं हैं उन्होंने तीसरे मोर्चे के नये मुहल्ले में शारण ले ली है। भाजपा विरह में तड़फ रही है। मन तड़पत पटनायक को आज।
• ममता भाजपा का साथ छोड़ चुकी हें वे अब काँग्रेस के साथ हैं। भाजपा छोड़ चुके तपन सिकदर फिर भाजपा में चले गये हैं।
• पूर्व उपराष्ट्रपति भैंरो सिंह शेखावत आडवाणीजी की धोती में पटाखा बांध कर एक कोने में दुबुक लिये हैं। आडवाणीजी ने उन्हें राष्ट्रपति बनाना चाहा था अब वे कह रहे हैं कि देखें कि कैसे प्रधानमंत्री बनते हैं।
• उमर अब्दुल्ला भी भाजपा के साथ नहीं हैं पर कभी गर्जना के साथ भाजपा को ठोकर मार कर निकले प्रह्लाद पटेल डम्पर को भुला कर शािवराज के चरणों में बिना शर्त समर्पण कर चुके हे इससे डर कर उमा भारती भी अडवाणी की बेटी बनने को मचल रही हैं। बसपा का फन्ड पचाये हुये नेता अपनी सुरक्षा की चिंता में सत्तावाली पार्टी में संरक्षण ले रहे हैं।
यह रहस्यवाद है जो जहाँ था वहाँ से खिसक रहा है क्यों कि सबके पेट का पानी हिल रहा है।

वीरेन्द्र जैन

शुक्रवार, अप्रैल 03, 2009

अथ पोलिंग गाथा

व्यंग्य
अथ पोलिंग कथा
वीरेन्द्र जैन

पहले केवल ढोल की पोल हुआ करती थी जिसे कभी कभी लोग देख सुन समझ कर ज्ञानगर्व से मुस्कराते रहते थे और लोगों को बताते थे कि उन्हें ढोल की पोल का पता है, कि परसों ढोल की पोल खुल गयी थी। लोकतंत्र के जबरदस्ती घुस आने के बाद ढोल तो गोल हो गये पर पोल ही पोल रह गयी। कभी लोकसभा का पोल हो रहा है तो कभी विधानसभा का पोल हो रहा है कभी पंचायत पोल चलते हैं तो कभी नगरपालिका के पोल चलते हैं। बारह महीनों चौबिसों घंटे या तो पोल चलते हैं या पोल की तैयारी चलती है। कौन किसकी ओर देख कर खॉस और छींक रहा है इसका सम्बंध भी पोल के साथ खोल दिया जाता है।

इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दिग्दिंगत में व्याप्त हो जाने के बाद तो पोल कई अवस्थाओं कें होने लगे हैं। एक प्री पोल होता है, फिर एक्जिट पोल होता है और इन दोनों के बीच होता है और इन दोनों के बीच में मुख्य पोल होता है। ये पोल तब तक चलते हैं जब तक कि परिणामों की पोल नहीं खुल जाती। अब देखना तो देखना, लोग पोल में भाग तक लेते हैं। पहले ठप्पा लगाने में लगे रहते थे अब चीं बुलाने में लगे रहते हैं। इस खेल में इतना मजा आता है कि बच्चे तक सोचने लगे हैं कि हम कब अट्ठारह साल के हों और चीं बुलाने के लिए जायें। जब नेता पूरे पॉच साल तक हमें चीं बुलाते रहते हैं तो हम क्या एक दिन भी उनकी चीं नहीं बुला सकते। जिस पोल का उपयोग टामी लोग एक टांग उठाकर किया करते थे अब वे भी देखने लगे हैं कि यह कहीं वह वाला ' पोल ' तो नहीं है जिसे लोकतंत्र का महोत्सव आदि कह कर प्रणाम किया जाता हो।

पोल के लिए एक पोलिंग बूथ हुआ करता है जो मिल्क बूथ या टेलीफोन बूथ की ही तरह कम से कम जगह घेरने की कोिशश करता है। संकोची, कंजूस वृत्ति वाले इस स्थान से तो कई बार जन सुविधाओं वाले सुलभ स्थान ज्यादा बडे होते है। इन स्थानों से भी आम जन को तनाव मुक्ति की वैसी ही सुविधा प्राप्त होती है। चुनाव की घोषणा होते ही उसका पेट फूलना शुरू हो जाता है। प्रतिदिन उसके क्षेत्र में कोई न कोई किसी ना किसी की हवा बांधने के लिए आता है यह हवा खुले आकाश में तो बंध नहीं पाती इसलिए लोगों के पेटों का उपयोग किया जाता है। आंखों कानों के द्वारा जो हवा शरीर में प्रवेश करती है वह सीधे पेट में पहुचती है और वोटर मतदान तिथि की प्रतीक्षा में उतावला होने लगता है। प्रात: से ही वह व्यक्ति हड़बड़ाने लगता है ताकि पेट में बंधी हुयी हवा को खोल सके। दौड़ा दौड़ा पोलिंग बूथ की ओर भागता है पर वहॉ भी सिनेमाघरों और रेल के डिब्बों की तरह लाईन लगी होती है क्योकि सभी के पेट में हवा बंधी होती है जिसे निकालने के लिए सभी बेचैन रहते हैं। एक बार यह बंधी हवा निकल जाये तो अगले पोल तक की छुट्टी हो। एक बार चीं बोलते ही सबको पता लग जाता है कि इसकी बंधी हुयी हवा निकल गयी। चीं बुलाकर आदमी ऐसे गर्व से बाहर निकलता है जैसे अस्पताल से डिस्चार्ज होकर निकला हो तथा अस्पताल का बिल भी सरकार को चुकाना हो।

चीं बुलाकर बाहर आते ही वह मुहल्ले में हवा बांधने वाले कार्यकर्ता से हाथ मिलाना चाहता है पर उसकी कलंकित उंगली को देखकर कार्यकर्ता ऐसे हाथ पीछे खींच लेता है जैसे नित्यकर्म से निपट कर बिना हाथ धोये हाथ मिलाना चाहता हों। घर पर आकर वह हाथ का कलंक जितना मिटाना चाहते है वह उतना ही और गहरा होने लगता है। हार कर वह कलंक को स्वीकार कर लेता है। एक झूठी आशा बांधता है कि शायद चुनाव परिणामों से उसका कलंक धुल जाये। पर आशा, आशा ही रहती है। पेन्ट के दाग पानी से नहीं मिट्टी के तेल से छूटते हैं। पानी से छूटने की उम्मीद करना बेकार होता है और मिट्टी का तेल ब्लेक में भी नहीं मिल रहा। पोलिंग की पोल में सब समा जाता है।

वीरेन्द्र जैन
2 /1शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629


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