शुक्रवार, जून 26, 2009

कैरी का अचार और बच्चों स्कूल डालने का समय

कैरी का अचार और बच्चों को स्कूल में डालने का समय
वीरेन्द्र जैन
एक जमाना था जब बापश्री अपनी औलादों को बकरी की तरह घसीटते हुये ले जाते थे और गुरूजी के चरणों में पटकते हुये कहते थे कि हड्डी-हड्डी मेरी और मांस खाल आपका, बस इसे पढा लिखा कर चिट्ठी बांचने और हिसाब किताब करने लायक बना दीजिये।
तब गुरूजी कसाई की तरह प्रसन्न होते थे तथा पीठ पर हाथ फेरते हुये हुये मांस टटोल लेते थे, फिर प्रसन्नता से अपनी छड़ी की ओर देख कर कहते कि चिंता न करें कल लाकर पाटी पूजन करा दें।
उस जमाने में पीठ पूजने से पहले पाटी पूजने की परंपरा हुआ करती थी तथा शिष्य को आदमी बनाने से पहले मुर्गा बना कर डार्विन के सिद्धांत का सत्यापन किया जाता था। स्कूल जाने से पहले बच्चे ऐसी दहाड़ें मार मार कर रोते थे जितना आजकल डाक्टर के यहाँ इंजैक्शन लगवाने को ले जाते समय भी नहीं रोते। इस कठिन तपस्या से तपकर जो लोग निकलते थे उन्हें डरने की आदत पड़ जाती थी और वे सरकार बहादुर के बफादार कर्मचारी बनते थे।
आज माहौल दूसरा है। जून के पहले सप्ताह से ही समाचार पत्रों के पृष्ठ दर पृष्ठ रंगीन विज्ञापनों से भरे रहते हैं और छात्रों के साथ साथ अभिवावकों को अपने विद्यालयों महाविद्यालयों में प्रवेश के लिए ललचाते रहते हैं। नगर की दीवारें दर दीवारें होनहारों के पत्ते चीकने करने के आश्वासनों से रंग दी जाती हैं। जो स्कूल अखबारों में विज्ञापन नहीं दे पाते वे अखबारों में परचे ठुंसवा देते हैं। बच्चे तो बच्चे, बच्चों के मां बाप तक भ्रम में फंस जाते हैं कि सपूत को भावी प्रशासनिक अधिकारी, डाक्टर, इंजीनियर, या दीगर ऊपरी कमाई वाले पद पर जाने योग्य बनाने के लिए कौन से संत के कान्वेंट में डलवाया जाये।
यह वही मौसम होता है जब घराें घरों तक फैली मम्मियों की जाति सोच रही होती है कि नई कैरी आ रही है, इसका अचार कैसे और काहे में डलवाया जाये। इस बहाने बोलचाल बन्द पड़ोसिनों से बोलचाल भी शुरू हो जाती है।
क्यों बबलू की मम्मी तुमने अचार डाल लिया?
हाँ- हमने तो परसों ही डाल लिया
बहुत जल्दी डाल लिया!
हाँ, परसों सन्डे था, बबलू के पापा फ्री थे, सो उनसे आम कटवा लिए।
काहे में डाला?
सरसों के तेल में डाला
तेल भौत मेंगा हो गया है
हाँ अभी तो उसकी धार भी देखो, अभी क्या है!
बाद में इसी भाषा में बबलू के बारे में बात होने लगती है।
बबलू का एडमीशन हो गया?
हाँ फार्म डलवा दिया है
कौन से स्कूल में डलवाया?
अब नाम तो इनके याद रहते नहीं पर वो थाने के पीछे वाले अंग्रेजी स्कूल में डलवाया है
कितने पैसे लगे?
फीस, वो तो बारह हजार लग गये,ड्रैस किताबें सब वहीं से मिलेंगीं
स्कूल में भी भौत पैसे लगने लगे हैं, सब में धन्धा हो रहा है
तेल हो या स्कूल मम्मियों का काम मंहगाई पर हाय करना हो गया है
इस मौसम में आम का अचार और बच्चे को स्कूल में डलवा कर जो निबट लेता है वही शान्ति के साथ सो पाता है। जरा सी देर हो जाये तो आम अचार के लायक नहीं रह जाते। आम का अचार तो फिर भी ठीक है पर स्कूल का चुनाव बहुत कठिन है। स्कूलों के विज्ञापन इतने लुभावने छपने लगे हैं कि विज्ञापन की कला से ग्राहक फांसने वाले बिल्डर और पर्यटकों को पटाने वाले होटल तक हीनता बोध के शिकार हो जाते हैं। वैसे विज्ञापन का यथार्थ यह होता है कि प्राइमरी से कम्प्यूटर पर शिक्षा देने का दावा करने वाला स्कूल बच्चों को पीने का साफ पानी नहीं दे पाता जिसे उन बच्चों को घर से लाद कर ले जाना पड़ता है। पढाई से ज्यादा होमवर्क मिलता है जिससे माँ बाप शिक्षित होते रहते हैं। इन बच्चों को टैस्टों और स्कूल की परीक्षाओं में अवशय ही पचहत्तर प्रतिशत से अधिक अंक देने का नियम है ताकि फीस चुकाने वाले मॉ बाप उनके भविष्य के लालच में भ्रमित रह कर सोचते रहें कि बेटे के अधिकारी बन जाने पर कौन से बैंक में लॉकर लेंगे। संयोग से अभी तक स्कूलों के विज्ञापनों में अभिवावकों को फंसाने के लिए हसीन मॉडलों का प्रयोग प्रारंभ नहीं हुआ है पर जब बीड़ी और मोटर साइकिलें हसीनाओं के कारण बिक सकती हैं तो स्कूल में एडमीशन क्यों नहीं हो सकते!
जब भी कोई बड़े पद पर पहुँचता है तो उसके परिचय में यह बताया जाता है कि वह कौन से स्कूल में पड़ा है पर रिश्वत और टैक्सचोरी में पकड़े जाने पर संतों के नाम वाले उस पवित्र शिक्षा संस्थान का नाम उल्लेख नहीं होता जहाँ से निकल कर उसने यह प्रतिभा अर्जित की है। मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक अंग्रेजी स्कूल के बोर्ड पर उन पूर्व प्रतिभाशाली छात्रों के शुभ नाम लिखे जाना चाहिये जिनके घर पर छापा पड़ चुका है। इन छापों वाले सम्मान का प्रयाेग स्कूल वाले अपने नये विज्ञापनों में दे सकते हैं और टयूटोरिल क्लासेज वालों को ता यह काम आवशयक रूप से करना ही चाहिये ताकि दुनिया को पता लगे कि उनके संस्थान से निकल कर लोगों की हैसियत कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

सोमवार, जून 22, 2009

बच्चे और गड्ढे

व्यंग्य
बच्चे और गङ्ढे
वीरेन्द्र जैन
जैसे यह तय करना मुश्किल है कि मुर्गी पहले आयी या अण्डा उसी तरह यह तय करना भी कठिन है कि गड्ढ़ों में गिराने के लिए बच्चे पैदा किया जाते है या पैदा हो गये बच्चे को गिराने के लिए गङ्ढे खोदे जाते हैं । बहरहाल कुछ भी हो पर जो परिणाम मुर्गी और अण्डों का होता है वही आजकल बच्चों और गङ्ढों का होने लगा है। महीने में कोई सप्ताह ऐसा नही होता जिसमें कोई बच्चा किसी गङ्ढे में गिर गर राष्ट्रीय समाचार न बनता हों। राष्ट्रीय समाचार बनने को व्याकुल कई नेता और कवि तो गङ्ढों के आस पास ही घूमते पाये गये है। ताकि किसी तरह राष्ट्रीय समाचारों का हिस्सा बन सकें। पर यह गङ्ढों की संकीर्णता ही रही कि उन्होने इन मोटी अकल वालों को अपने अन्तर में नही समेटा। वे बेचारे हत्या में फंसे रिशवत में फंसे, सवाल पूछने में फंसे, सांसद निधि के दान में फंसे, कबूतरबाजी में फंसे, डकैती, चोरी, अपहरण, मारपीट, साम्प्रदायिक बलवों में फंसे, पर गड्ढ़ों में नही फंस पाये।
गङ्ढों में बच्चे ही फंसे।
लोग बच्चे दर बच्चे पैदा करते रहे और योजनाएं बनाते रहे, इसे डाक्टर बनायेंगे, इसे इंजीनियर बनाएंगे, इसे वकील बनाएंगे और इस चौथे वाले को गङ्ढे में फंसने के लिए छोड़ देंगे। अगर सचमुच फंस गया और कुछ चैनलों की टीअारपी बढ़वा दी तो हो सकता है यह डाक्टरों, इंजीनियरों व वकीलों से कई गुना कमाई बचपन में ही करके गङ्ढे से बाहर निकले। सरकार ने भले ही बालश्रम के खिलाफ कानून बना कर मुक्ति पा ली हो और होटलों, ढ़ावों, मोबाईल मैकेनिकों की दुकानों पर काम करने वालों को काम से छुड़ा कर भूखा मरने के लिए छोड़ दिया हो पर गङ्ढे तो खुले छोड़ रखे हैं। अगर कोई काम नही है तो गङ्ढों में ही गिर लो- चौबीस घंटे समाचार देने वाले चैनलों को कुछ काम ही मिलेगा। गङ्ढे में कैमरा डाल कर वे इस छोटे सद्दाम की डैथ का लाइव टेलीकास्ट दिखाते रहेंगे।
ईसा मसीह ने कहा था कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले है। जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं पर यह मामला उन बड़े बूढों के लिए है जो अपनी लम्बी उम्र के बाद भी अपना ह्रदय बच्चों की तरह रख सकें। जो अभी बच्चे ही हैं उनके लिए स्वर्ग के दरवाजे खोलने के लिए हमें कुछ करना होता है सों हमने गडढे खोद रखे है। हमारे गॉव देहात, विलियर्ड की टेबिल जैसे हो गये हैं जिसके चारों कोनों पर गङ्ढे हैं जिनमें हम गोल गोल रंगीन गेंदों जैसे बच्चों को गिराने के लिए ठेलते रहते है।
जो बच्चे ऐसे गडढों में गिरने से बच जातें उनके लिए बड़ी बड़ी कोठियॉ बनवा ही जाती हैं जो निठारी गॉव जैसे बच्चों को बुला बुला कर गङ्ढों में दबाते रहते हैं लगता है नालों पर सरकार इसीलिए अतिक्रमण कराती रहती है और नालों की सफाई नहीं करवाती। कुछ राज्य सरकारें पाठयक्रम बदलवा रही हैं और हो सकता है कि अगले पाठयक्रम में गणित के परचों में कुछ ऐसे सवाले हों-
' यदि एक नाले की सफाई से बीच बच्चों के कंकाल निकल सकते हैं तो पूरे नोएडा के नालों की सफाई कराने पर कितने बच्चों के कंकाल निकलेंगे? नोएडा में कुल कितने नाले हैं यह वहॉ के निगम वालों को भी पता नही है।
नगर निगम अपनी आय में वृद्वि करने के लिए मेडिकल कालेजों को नरकंकाल सप्लाई करने के ठेके ले सकती है। बस उसे नालों की नियमित सफाई करानी पड़ेगी। पर ऐसा कराने पर चिकनगुनिया फैलाने वाले मच्छर और बहुराष्ट्रीय कंपनियाें की दवाएं बिकवाने वाले झोलाछाप डाक्टर नाराज हो सकते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शुक्रवार, जून 19, 2009

व्यंग्य ईश्वर और आतंकवादी

व्यंग्य
ईश्वर और आतंकवादी
वीरेन्द्र जैन
रामभरसोसे ईश्वर की तलाश् में है। सरकार आतंकवादी की तलाश् में है। दोनों परेशान हैं कि दोनों को दोनों नहीं मिल रहे।
दोनों ही छुपे रहते हैं। उनके कारनामों भर का पता चलता है जिससे उनकी उपस्तिथि का भ्रम बनता है। काम चाहे जिसने किया हो पर इनके नाम पर मढ दिया जाता है।
रामभरोसे के आठ बच्चे हैं, और वह इन सबके लिए कह देता है कि सब ईश्वर की देन हैं जबकि मुहल्ले भर को उसके एक एक बच्चे के बारे में पता है। शाखा के एक भाई साहब रात को चोरी चोरी उसके घर के बाहर एक स्टिकर चिपका गये थे 'हिन्दू घटा देशा बँटा'। तब से राम भरोसे जी ने अपने घर में ंहिंदुओं को घटने नहीं दिया। बच्चों के हिस्से की रोटी घट गयी। दूघ घट गया। पत्नी के तन पर का कपड़ा जहाँ जहाँ से फटता गया वहाँ वहाँ से घटता गया॥ पर रामभरोसे ने हिंदू नहीं घटने दिया। हर साल जब ताली ठाेंक कर बधाई देने वाले अपनी खरखरी आवाज में नाच गा कर बधाई दे रहे होते तो मुहल्ले के लोगों को पता चलता कि रामभरोसे ने एक हिंदू और बढा दिया है। रामभरोसे मुश्किल से पाँच रूप्या निकाल पाते जबकि वे पाँचसौ माँग रहे होते। अंतत: वे रूपये रामभरोसे के मुँह पर मार कर और थूक कर चले जाते। रामभरोसे देशाभक्ति से अपनी शर्म उसी तरह ढक लेते जिस तरह बहुत सारे लोग अपने पाप ढक लेते हैं, अपनी साम्प्रदायिकता ढॅक लेते हैं।
आतंकवादी भी दस घटनाएँ करता है और सौ घटनाएँ अपने नाम पर जुड़वा लेता है। शाम को दफ्तर का चपरासी जाते समय बाहर लगा बल्ब खींच ले जाता है और अगले दिन कह देता है कि आतंकवाद बहुत बढ गया है, देखो आतंकवादी रात में बल्ब खींच कर ले गये। अब छुपा आतंकवादी सफाई देने थोड़े ही आ सकता है। हत्या चोरी, डकैती अपहरण सारे अपराध आतंकवादियों के नाम लिख कर पुलिस दिन दहाड़े टांगें पसारकर सो जाती है। जब जागती है तो जाकर दो चार डकैतीं डाल लीं, राहजनी कर ली, दारू पी मुर्गा खाया, वीआई पी डयूटी की और सो गये। प्रैस वालों से कह दिया कि सारे अपराध आतंकवादी कर गये। ज्यादातर आतंकवादी विदेशी या विदेश प्रेरित माने जाते हैं इसलिए मामला विदेश मंत्रालय से सम्बंधित माना जाता है। बेचारे विदेशमंत्री ओबामा और हिलेरी के नखरे देखें या या तुम्हारी चोरी डकैती की चिंता करें। उनका भी काम यह कह कर चल जाता है कि विदेश प्रभावित आतंकवाद बहुत बढ गया है।
सरकार परमाणु बम फोड़ सकती है, सीमा पर फौज खड़ी कर सकती है, मिसाइल का परीक्षण कर सकती है पर आतंकवादी नहीं तलाश सकती। जैसे रामभरोसे को ईश्वर नहीं मिलता वैसे ही सरकार को आतंकवादी नहीं मिलता।
मिल भी जाये तो आतंकवादी को पकड़ने की परंपरा नहीं है, उसे मार दिया जाता है। अगर उसे पकड़ लिया गया तो वह बता सकता है कि कि मैंने पुलिस के रास्ते में बम जरूर बिछाये थे पर दफ्तर का बल्ब नहीं चुराया, डकैती नहीं डाली, राहजनी नहीं की, इसलिए उसे मार दिया जाना जरूरी है। ज्ञात तो ज्ञात अज्ञात आतंकवादी तक मार गिराये जाते हैं। देश ने शायद ऐसी गोलियाँ तैयार कर लीं हैं जो आंख मूँद कर चलाये जाने पर भी किसी आतंकवादी को ही लगती हैं और उसे मार गिराती हैं। सैनिक की गोली से मारा जाने वाला हर व्यक्ति आतंकवादी होता है। उसकी धर्मप्राण गोली किसी निर्दोष को लगती ही नहीं।
रामभरोसे ईश्वर की आराधना करते हैं, पूजा करते हैं, आरती करते हैं, व्रत -उपवास करते हैं माथा रंगीन करते हैं, चोटी रखते हैं, हाथ में कलावा बाँधते हैं, जहाँ कहीं सिंदूर लगा पत्थर दिख जाए तो माथा झुकाते हैं, पर ईश्वर नहीं मिलता।
सरकार के सैनिक भी इधर से उधर गाड़ियाँ दौड़ाते हैं, मुखबिर पालते हैं, संदेशों की रिकार्डिंग करते हैं डिकोडिंग करते हैं, रात रात भर जागते हेैं, कोम्बिंग आपरेशान करते हैं, रिश्तेदारों को टार्चर करते हैं, पर आतंकवादी नहीं मिलते।
दोनों की ही ग्रहदशा एक जैसी है। दोनों के ही आराध्य अंर्तध्यान हैं। रामभरोसे ने मंदिर में उसकी संभावित मूर्ति बैठा रखी है। सुरक्षा सैनिकों ने उनके संभावित चित्र बनवा रखे हैं। दोनों ही सोचते हेैं कि एक बार मिल भर जाये तब देखते हैं कि फिर कैसे छूटते हेैं हमारी पकड़ से। शायद उसी खतरे को सूंघ कर ही न इश्वर खुले में आता है और ना ही आतंकवादी।
ईश्वर सर्वत्र है। आतंकवादी भी सर्वत्र हैं- सरकारी नेताओं की भाषा में कहें तो वर्ल्डवाइड फिनोमिना। वे पंजाब में रहे हैं, वे कश्मीर की जन्नत में रह रहे हैं, वे असम में हैं वे त्रिपुरा में हैं, नागालैण्ड में हैं, वे तामिलनाडु में हेैं, वे तेलंगाना में हैं, वे बस्तर में हैं, बिहार उड़ीसा झारखण्ड में हेैं। वे केरल में उभर आते हें व पश्चिम बंगाल में वारदातें कर के भाग जाते हेैं। वे कभी अयोध्या में दिखते हैं तो बनारस और मथुरा में भी दिख सकते हैं, वे मालेगाँव में होते हें तो बेलगाँव में भी होते हेैं। वे कहाँ नहीं हैं। वे लंका में हैं, वे अफगानिस्तान में हैं, नेपाल में हैं और यहाँ तक कि अमेरिका की चाँद पर भी बाजे बजाते रहते हेैं।
वे चित्र प्रदशर्िनियों में चित्र फाड़ते हैं, फिल्में नहीं बनने देते, बन जाती हेैं तो चलने नहीं देते, वे क्रिकेट के मैदान में पिचें खोद देते हैं, वे लाखों संगीतप्रेमियों को प्रभावित करने वाले गजल गायकों के कार्यक्रम नहीं होने देते, वे दिलीप कुमार के घर के बाहर दिगंम्बर प्रर्दशान करते हैें। वे मंदिर तोड़ते हैं, गिरजा तोड़ते हैं मस्जिद तोड़ते हैं। वेलंटाइन डे पर प्रेमियों का दिल तोड़ते हैं।
अगर सरकार की ऑंख भेंगी ना हो और वो विकलांग न हो तो बहुत सा आतंक साफ साफ देखा जा सकता है। और उसी तरह अगर रामभरोसे का मन साफ हो तो तो उसे भी ईश्वर दिख सकता है जैसे गाँधीजी को दरिद्र में दिख गया था और उन्होंने उसे दरिद्र नारायण का नाम दिया था। पर अभी ना तो सरकार को आतंकवादी दिख रहा है और ना ही रामभरोसे को ईश्वर।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, जून 16, 2009

मेरा साठवां जन्म दिन

मेरा ६० वां जन्म दिन १२ जून को मेरा ६० वां जन्म दिन था जिसे मेरे मित्रों ने धूमधाम से मनाया . व्यंग्य लेखक एवं वरिष्ठ आई ऐ एस अधिकारी ज़ब्बार ढाकवाला सुप्रसिद्ध कथा लेखिका उर्मिला शिरीष और प्रगति लेखक संघ के कार्यकारी महासचिव शैलेन्द्र कुमार शैली ने योजना बनाई और पत्रिका राग भोपाली का एक अंक मेरे ऊपर प्रकाशित किया. इस पत्रिका का विमोचन समारोह मेरे जन्म दिन पर ही आयोजित किया गया . पत्रिका का विमोचन वरिष्ठ लेखक अक्षय कुमार जैन द्बारा किया गया तथा मुझ से भी कुछ रचनाएँ सुनाने को कहा गया. इस अवसर पर भोपाल के सभी प्रमुख साहित्यकार उपस्थित हुए जिनमें राजेश जोशी, कमला प्रसाद, राम प्रकाश त्रिपाठी, मनोहर वर्मा, मुकेश वर्मा , माणिक वर्मा , ज्ञान चतुर्वेदी, मनोज कुलकर्णी ,बलराम गुमास्ता फिरोजा अशरफअनवारे इस्लाम, बादल सरोज दिल्ली से आये हुए गौरी नाथ, किशन कालजयी, हेतु भारद्वाज, आदि सौ से अधिक लोग उपस्थित थे. में सबका आभारी हूँ क्योंकि सबने मुझे धैर्य पूर्वक सुना. यह सबकुछ अनायास हुआ और बहुत सफल माना गया

शुक्रवार, जून 12, 2009

सठियाने का दिन

आज में प्रमाणपत्र के साथ सठिया गया हूँ , सुबह से सहानिभूति के फोन आ रहे हैं और में उन्हें जल्दी ही सेम टु यू की शुभकामनाएं लौटा रहा हूँ

बुधवार, जून 03, 2009

राष्ट्रीय से अन्तर्राष्ट्रीय तक लातें ही लातें

व्यंग्य
राष्ट्रीय से अर्न्तराष्टीय तक लातें ही लातें
वीरेन्द्र जैन
आस्ट्रेलिया आकर वह भारतीय अपने देश को भूल गया था। आस्ट्रेलिया वैसे ही प्रवासियों का देश है जहाँ प्रति हजार में से चार सौ तो प्रवासी हैं जिनमें से कुछ पहली पीढी के हैं तो कुछ दूसरी और तीसरी पीढी के। वह कहने लगा था कि-
न हम हैं यारो आलू, ना तुम हो यार गोभी,
हम भी हैं यार धोबी तुम भी हो यार धोबी।
पर क्या करें बकौल सुभद्रा कुमारी चौहान- तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियां कब भाईं, रानी विधवा हुयी हाय विधि को भी नहीं दया आयी- सो उसका देश भूलने का सुख भी विधिना से देखा नहीं गया। ............और एक दिन-वह लात घूंसे और जूते की ठोकरें खा खा कर बेहोश हो गया था। तब उसे अपने देश की याद आयी, बकौल रहीम - जा पर विपदा परत है सोहि आवत इहि देश। विपदा में उसका राष्ट्रीय प्रेम जागा। अगर यूं ही पिटना था तो बम्बई, .......नहीं नहीं मुम्बई ही क्या बुरी थी। आस्ट्रेलिया की गोरी गोरी औरतें उसे बहुत भाती थीं पर पिटने के मामले में उसे काला गेंहुआ रंग ही पसंद था। इस दिशा में वह बेहद राष्ट्रीय किस्म का आदमी था। राज ठाकरे की बात और है। उसे याद आया कि जब वह मुम्बई में राज ठाकरे के गुंडों से पिटा था तब विपक्ष के नेता को भी कुछ कहने में हफ्ता भर लग गया था क्यों कि वह देश का मामला था तथा उनके चुनावी सहयोगियों का मामला था। पर उसके आस्ट्रेलिया में पिटते ही वही विपक्ष के नेता तीर की तरह बयान देने लगे। अरे मुम्बई तो छोड़ो खास बिहार में जब उसके गाँव के जमींदार उसे पीटते थे तब चोट भले इससे ज्यादा लगती हो पर पीड़ा कम होती थी। आस्ट्रेलिया आकर वह भूल गया था कि वह अपने देश में नहीं विदेश में है।
देश ऐसी चीज नहीं है कि जिसे भूला जाये। किसी न किसी तरह उसकी याद आ ही जाती है। ये मेरे प्यारे वतन ये मेरे बिछुड़े चमन तुझ पर दिल कुरबान।
पर सवाल यह है कि आस्ट्रेलिया वालों ने ऐसा किया क्यों? मैंने जानने की कोशिश की तो मुझे रामभरोसे ने बताया कि यह सब हिन्दी के कारण हुआ है।
''हिन्दी के कारण! क्या? कैसे?'' मैंने पूछा
'' अरे कुछ लोगों ने उन्हें हिन्दी सिखा दी जिससे उनने हमारी वह कहावत भी सुन ली कि दूध देने वाली गाय की लातें भी सहन की जाती हैं, तुम तो जानते ही हो कि वहाँ गायें भी खूब हैं और दूघ भी खूब है सो उन्हें समझ में जल्दी आ गया कि हम लोग दूध के कितने प्रेमी हैं और उसी के लिए आस्ट्रेलिया तक गये हैं, सो लातें भी सह लेंगे, बस इसीलिए उन्होंने लातें मारना शुरू कर दीं। पर वे यह भूल गये कि ये कहावत देशी गाय के लिए है न कि जर्सी गाय के लिये''
मुझे रामभरोसे की बात कुछ कुछ समझ में आ रही है, एक बार लोगों की समझ में ये आ जाये कि ये लात खा लेते हैं तो फिर देश क्या और विदेश क्या जगह जगह लिखा मिल जायेगा-
लातें ही लातें, एक बार मिल तो लें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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