मंगलवार, अगस्त 11, 2009

व्यंग्य खाने का नया मीनू

व्यंग्य
खाने का नया मीनू
वीरेन्द्र जैन
मॅहगाई के मारे खाने के लाले पड़े हुये हैं। जिनके पास आज खाने को भी है वे भी कल की सोच सोच कर आज नहीं खा पा रहे हैं।
जो कुछ भी खा रही है सब मॅहगाई खा रही है।
मैं जब भी सोचता हूँ, जनहित में सोचता हूँ और मौलिकता बनाये रखने के लिए सबसे अलग सोचने की कोशिश करता हूँ । इसलिए आज जब खाने के लाले पड़े हुये हैं तब मैं खाद्य पदार्थों से इतर खाने की चीजें तलाश कर रहा हूँ।
सबसे सीधी सरल चीज तो यह है कि कसम खाइये। यह अभी तक मॅहगी नहीं हुयी है और सबसे अच्छी बात तो यह है कि हमेशा अपनी कसम खाने की जगह सामने वाले की खाइये जिससे अगर कसम खाने से कब्ज अफरा बदहजमी या कुछ भी होता हो तो सामने वाले को हो। वैसे तो किसी की भी झूठी सच्ची कैसी भी कसम खाने से अभी तक कोई नहीं मरा और अगर बाई द वे कुछ होना भी हो तो पहले उसे अवसर मिले। तेरी कसम, इस मँहगाई में, मैं तो यही करने की सोच रहा हूँ।
आप उर्दू में गम नहीं खा रहे हों तो हिन्दी में गम खा सकते हैं जिसका मतलब होता है अपने गुस्से को वश में रखना। वैसे बहुत भूखे हों तो आप गुस्सा खा सकते हैं, पर क्या फायदा यह आपको ही नुकसान करेगा क्योंकि सामाजिक डाक्टरों के अनुसार कभी भूखे पेट गुस्सा नहीं खाना चाहिये। वैसे ये बात अलग है कि भूखे पेट ही गुस्सा अधिक आता है। गुस्से के बारे मैं एक बात बहुत रोचक है कि इसके उदरस्थ करने की विधि के अनुसार इसकी प्रकृति बदल जाती है। कई बार जब आप देश काल परिस्तिथि के अनुसार गुस्सा खा नहीं पाते तब आप गुस्सा पी जाते हैं जो गुस्सा खाने से विपरीत प्रभाव पैदा करता है। लालू परसाद कहते हैं कि यदि मँहगाई का यही हाल रहा तो जनता हमें जूते मारेगी, पर मुझे नहीं लगता कि हमारे देश के गुस्सा पी जाने वाले लोग अभी गुस्सा खाने के लिए इतने उतावले हैं। वैसे लालू परसाद फिर से आस्तिक हो गये हैं और फिर से माँसाहार छोड़ दिया है सो उनका भविष्यवक्ता हो जाना भी संभव है। यही काम चुनाव से पहले किया होता तो जान जाते कि चुनाव में उनकी क्या दशा होने वाली है, व चौथे मोर्चे की नौबत नहीं आती।
किसी जमाने में पूरा बचपन मार खाने में बीत जाता था। कभी पूज्य पिताजी की मार खा रहे हैं तो कभी भाई बहिनों की मार खा रहे हैं। वहाँ से निकले तो मस्त मलंग सहपाठियों की मार खा रहे हैं और अगर उनसे बच भी गये तो स्कूल मास्टर की मार खा रहे हैं। पर अब वो जमाना नहीं रहा न वैसे बाप अब पाये जाते हैं और ना स्कूल मास्टर। भाई बहिन भी उतने नहीं होते कि ये भी भूल जायें कि दोपहर में किससे मार खायी थी और शाम को किससे खायी थी। अब तो एकाध पासवान को छोड़ कर पत्नियाँ भी कानूनन एक ही होती हैं।
हमें पता है आप नहीं खाते पर दूसरे सारे लोग रिश्वत खाते हैं जिसे कहीं घूस कहा जाता है पर उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक डिश वही होती है।
खाने में एक चीज ऐसी भी खायी जाती है जो पाँवों के सहारे तो चलती ही है साथ ही हाथों के सहारे भी चलती है जिसे हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में जूती कहा जाता है और जो जूते की स्त्रीलिंग होती है। ये हमारे देश में सैकड़ों सालों से विशिष्ट अवसरों के पकवानों की तरह प्रयोग में आ रही है। अब्दुल रहीम खानखाना जो कभी मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में गिने जाते थे और बाद में जिन्होंने 'मॉग मधुकरी खाने' का आनन्द भी लिया था, (जो कि भिक्षा का सोफस्टिकेटेड नाम है जैसे कि सिमई को नूडल्स कहने लगे हैं) खाने के बारे में बहुत ज्ञानी थे तभी उनके नाम के साथ खानखाना जुड़ा होगा। वे लिखते हैं कि -
रहिमन जिह्वा बाबरी कहगै सरग पताल
आप तो कहि भीतर भई जूती सहत कपाल
वैसे यह समय अपने आप और आप पर तरस खाने का समय है क्योंकि हमारी रोटी को कुछ ऐसे नेता खा रहे हैं जो इस प्रदेश और देश का पहले ही सब कुछ खा चुके हैं तथा हमारी भूख को भुना कर हमारे वोट खा लेना चाहते हैं।रोटी को तरसते हुये हम धोखा खाने जा रहे हैं। डा क़ृष्ण बिहारी लाल पाण्डेय लिखते हैं कि-
सिर्फ शपथ खानी थी मित्रवर
तुमने तो संविधान खा लिया

वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

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