शनिवार, अगस्त 22, 2009

व्यंग्य हिन्दी को उचित स्थान

व्यंग्य 
हिन्दी को उचित स्थान

वीरेन्द्र जैन

    विद्धान का काम भाषण बघारना होता है। दुनिया के सारे सभागार इसी प्रतीक्षा में रहते हैं कि कोई विद्धान आये और भाषण बघारे, तालियाँ पिटवाये और सभागार का सन्नाटा तोड़े। भाषण का भूखा सभागार भाषण के बिना हींड़ता रहता है। जिस दिन कोई भाषण फटकारने नहीं आता उस दिन वह सोचता है कि देखो आज कोई नहीं आ रहा। सब मर गये क्या! किसी को भाइयो बहिनो या देवियो और सज्जनों तथा पत्रकार बंधुओं को सम्बोधित करने की खुजली नहीं मच रही! कोई किसी को उसका उचित स्थान दिलवाने के लिए हाँका नहीं लगा रहा।
     अभी कल ही एक सभागार में एक विद्धान आवाहन कर रहे थे कि हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाने के लिए हमें प्राण प्रण से जुट जाना चाहिये। मुझे लगा कि जैसे हिन्दी के पास रेलवे के स्लीपर क्लास का टिकिट है पर उस पर डेली अप एन्ड डाउन करने वाले एमएसटी धारी पसर कर पपलू खेल रहे हैं और हमें चाहिये कि उसे उसके आरक्षित शयनयान में उसका उचित स्थान दिलायें भले ही हमें दैनिंदिन यात्रियों के मुष्टिका प्रहार झेलना पड़ें। भाषण के बाद मैंने विद्धान के भाषण की झूठी प्रशसा करते हुये जानना चाहा कि वे स्वयं कैसे कैसे प्राण प्रण से जुटे हुये हैं और अब तक हिन्दी को किसी कोने में नितम्ब टिकाने की जगह दिलवाने में क्या प्रगति हुयी है!
वे बोले देखते नहीं हो आज इस सभागार में भाषण दिया था कल स्टेट बैंक में देना है, परसों इंडियन आइल में देना है नरसों इंङियन एयर लाइन्स में देना है, मैं लोगों को प्राण प्रण से जुटने का संदेश देने के लिए प्राण प्रण से जुटा हुआ हूँ।
       कहा गया है कि ओजस्वी वक्ता वही है जो अपने देश की खातिर प्राणों को बलिदान करने के लिए सफलतापूर्वक आपको उकसाता रहे। जो आपके पिचके टयूब में हवा भर के आपको दौड़ाता रहे और खुद कम्प्रैसर के पास कुर्सी डाल कर पैसे वसूलता रहे। भाट और चारण खुद शहीद नहीं होते रहे अपितु दूसरों को होने का सौभाग्य देते रहे। सबके अपने अपने धंधे हैं। जब हिन्दी के विद्धान को उसकी वांछित सम्मान निधि नहीं मिल पाती तो वह आयोजकों को फूल, स्टुपिड और रास्कल कहने लगता है।
      संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है कि 'स्थान भ्रष्ट: न शोभंते दंत:, केश: नख:, नरा:' अर्थात अपने स्थान पर न होने की स्थिति में दांत बाल और नाखून शोभा नहीं देते। इस श्लोक में भाषा को सम्मिलित नहीं किया गया है। हो सकता है तब भाषा अपने उचित स्थान पर बैठी हो या तब किसी को भाषा के नाम पर राजनीति ठोकना नहीं आती हो। अंग्रेजी को हटाने का नारा लगाने के मामले में वे ही लोग आगे आगे उचकते हैं, जो खुद और उनके पूर्वज अंग्रेजों को हटाने के मामले में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर हँसा करते थे। हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का नारा लगाने वालों ने अंग्रेजी लाने वालों और उसे ढोने वालों के खिलाफ कभी कोई झन्डा नहीं उठाया।

       मुझे लगता है कि सारा झगड़ा उचित स्थान का ही है! शिवाजी को औरंगजेब ने उचित स्थान नहीं दिया और छोटे मनसबदारों में खड़ा किया था इसलिए वे उसके खिलाफ हो गये थे, यदि उन्हें बड़े मनसबदारों में स्थान मिल गया होता तो आज इतिहास कुछ और ही होता। तब पूरे देश के प्रमुख चौराहों पर किसी और के घोड़े और मूर्तियां रखी होतीं। लक्ष्मीबाई के दत्तकपुत्र को उसका उचित स्थान मिल गया होता तो न झांसी की रानी को खूब लड़ना पड़ता और ना बेचारी झलकारिन ही वैकल्पिक रानी बन कर शहीद होती।
      हिन्दी को भी उसका उचित स्थान मिलना ही चाहिये नही तो विद्धान हमें प्राण प्रण से जुटा कर ही मानेंगे। ज्यादातर विद्धानों ने तो अपना उचित स्थान प्राप्त कर लिया है पर अब हिन्दी के बहाने दूसरों को उकसा रहे हैं। पर हिन्दी उचित स्थान पर कैसे आ सकती है जबकि उस स्थान पर बैठने वाले अंग्रेजी बोलने वालों का ही काम करने को प्राण प्रण से जुटे हैं। हिन्दी तो तब बैठेगी जब हिन्दीवालों का काम करने के बारे में सोचा जाये। इसीलिए राष्ट्रीयकरण के दौर में हिन्दी आती है और विनिवेशीकरण के समय अंग्रेजी आती है। हो सकता है कि हिन्दी का यही स्थान उचित स्थान हो।
        हिन्दी के बहाने कई लोगों को अच्छे अच्छे स्थान मिल गये, प्लाट मिल गये, दान और अनुदान मिल गये, भवन बन गये जिनमें विवाह होते हैं और अंग्रेजी दारू पीने के बाद बराती अंग्रेजी में ही बोलते हैं। पर भाषणवीर अभी भी हिन्दी को उचित स्थान दिलाने का धंधा कर रहे हैं। उनके अपने धंधे का सवाल है आखिर!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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