रविवार, नवंबर 29, 2009

व्यंग्य वास्तु के कोण्



व्यंग्य
वास्तु शास्त्र के कोण
वीरेन्द्र जैन
जब से वास्तु विचार का अचार तेजी से डाला जाने लगा है तब से मैं एक एक कदम ऐसे सम्भाल कर उठाने लगा हूॅ जैसे कि कोई दुल्हिन वरमाला लेकर अपने सुनिश्चित हो चुके पति के गले में डालने जाते समय उठाती है। आज यह लेख लिखते समय मैं सोच रहा हूँ कि मेज के किस कोने पर बैठ कर लिखूं ताकि पूरब और पशचिम, उत्तर और दक्षिण की ओर मुंह किये बैठे सम्पादकों की नजरों में चढ जाऊँ या उतर जाऊँ पर गिरूं नहीं।
ऐसा नहीं है कि वास्तु विचार कोई नया विषय है, इसका प्रशिक्षण मुझे बचपन में ही मिल गया था स्कूल में पहली पहली बार जाने पर आगे बैठने का शौक चर्राया था तथा अध्यापक द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर न दे पाने का फल भी चखता रहता था। कुछ दिनों बाद कक्षा का वास्तु शास्त्र समझ में आया कि पीछे बैठने के क्या क्या मजे होते हैं। सवाल जबाबों के मामले में तो अध्यापक लोग आगे बैठने वालों से ही निपटते रहते हैं पीछे बैठने पर बाग से चुराकर लायी गई इमलियॉ, अमरूद, और केरियों खायी जा सकती हैं तथा अध्यापक द्वारा ब्लैक बोर्ड पर लिखते समय पीछे के दरवाजे से बाहर खिसका जा सकता है। यदि यह वास्तु शास्त्र पहले समझ में आ गया होता है तो मेरे कान इतने लम्बे नही होते ।
कक्षाओं के बदलने के साथ साथ वास्तु शास्त्र के कोण भी बदलते गये। खिड़की के पास वाली सीट से बाहर का नजारा और लड़कियों को देखा जा सकता था दरवाजे के पास वाली सीट से अध्यापक के आने की आहट पाकर भोला भाला बन कर बैठा जा सकता था। देर से आने पर चुपचाप घुस आने तथा अनुपस्थित की हाजिरी बोलने का काम भी पीछे बैठ कर किया जा सकता था। ये सारे लाभ वास्तु शस्त्र की सही समझ पर ही आधारित थे।
आज भी देखता हूँ कि कालेज की सहपाठिनों के साथ रेस्त्रां में काफी पीने आने वालों की पहली तलाश वास्तु विधा पर ही आधारित होती है। उन्हें ज्ञात है कि किस सीट पर बैठकर दूसरों की नजरों से बचा सकता है तथा दरवाजे की ओर पीठ करके बैठने के क्या क्या फायदें है। बाईक पर लड़की को किस कोण से बिठाने पर आउटिंग के लिए कितने लीटर पेट्रोल जलाया जाना चाहिए यह वास्तु विचार का ही विषय है।
सरकारी दफ्तर में काम के लिए आने वाला ' ग्राहक' कहॉ से पूछताछ शुरू करता है और उसे किस बिन्दु पर फांसा जा सकता है यह दफ्तर के अच्छे वास्तुविद को पता होता है। वह अपनी सीट ऐसे स्थान पर लगवाता है जहॉ से ग्राहक की पहली नजर उसी पर पड़े और तथा अफसर की सीधी निगाह से बचा रह सके।
बस का वास्तु शास्त्री जानता है कि किस सीट पर बैठकर किस समय किस दिशा में यात्रा करने पर हवा लगेगी या धूप लगेगी। मौसम के अनुसार वास्तु विचार करके ही वह अपनी सीट तय करता है। बस में प्रवेश करते ही सीट पर फटाक से बैठ जाने की जगह जो एक क्षण विचार करता हुआ नजर आता है उसे मैं वास्तुशास्त्री समझता हूँ
बालकनी के किस कोने में किस दिशा में मुंह करके बैठने पर बुढ़िया दिखायी देगी ओर किस ओर मुंह करके बैठने पर बाल सुलझाती युवतियॉ नजर आयेंगी यह वास्तुशास्त्र का विषय है।

सार्वजनिक कार्यक्रम में किस वीआईपी क़े आसपास रहने और बैठने से अखबारों व टीवी में फोटों आयेगी ये बात वास्तु शास्त्री ही जानते हैं और वहीं बैठने की कोशिश करते हैं। समाचारों में फोटो के नीचे जो एक लाईन लिखी रहती है कि कार्यक्रम में भाग लेते हुऐ मंत्री जी और अन्य - इस अन्य में अच्छे वास्तु ज्ञाता हमेशा मुस्करातें नजर आते हैं। भीख और शनि का दान मांगने वाले तक जानते हैं कि अस्पतालों और अदालतों की ओर जाने वाले किस बिन्दु पर बैठे भिखारियों और शनि-वाहकों के लिए जेब से सिक्के निकालकर डालते रहते हैं।
वास्तु शास्त्री हमेशा ही धन धान्य की दृष्टि से ही विचार करते हैं जबकि कचरे से पन्नी बीनने व दारू की खाली बोतलें उठाने वाला हर कचरे के डिब्बे को खंगालता है और वास्तु विचार नहीं करता। झुग्गी डाल लेने वाले एक मजदूर से जब मैने पूछा कि उसने झुग्गी डालने से पहले वास्तु विचार किया था या नही किया था तो वह हंसने लगा। साधु के चोलें में रहने वाले एक नेता का कहना था कि ये मजदूरों के आन्दोलन इसलिए सफल नहीं हो रहें हैं कि ना तो ये महूर्त दिखवाते है और ना ही सभा करते समय वास्तु विचार करते है बस मुंह उठाकर बोलना शुरू करते है तो बोलते ही जाते है। तंदूर में पत्नी को जलाते समय, या शिवानी भटनागर और मधुमिताशुक्ला की हत्या के समय यदि वास्तु विचार किया होता तो गिरफ्तारी की नौबत ही नही आती है।
यह लेख पढ़ते समय अगर आप सही दिशा में बैठे होंगे तो आपको यह लेख अच्छा लगा होगा। न लगा हो तो दिशा बदल कर पुन: पढ़ें।

वीरेन्द्र जैन
2@1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, नवंबर 28, 2009

हास्य व्यंग्य चोरी

व्यंग्य
चोरी
वीरेन्द्र जैन
चौर्य कला हमारे संस्कृति में वर्णित 64 कलाओं में से एक है। भले ही महावीर स्वामी ने आज से 2500 साल पहले अस्तेय अर्थात चोरी न करो कह कर हमारे सामने इस बात का एतिहासिक प्रमाण दे दिया कि उस ज़माने में भी चोरियां होती थीं। हमारी भारतीय संस्कृति की दुहाई देने का ठेका लिये हुये लोग भले ही मुग्ध होने की मुद्रा बना कर यह कहें कि पहले के ज़माने में घरों में ताले नहीं लगाये जाते थे पर सचाई यह है तब तालों का अविष्कार ही नहीं हुआ था।
हमारे धर्म प्रवर्तक भले ही कुछ भी कहते रहें, हम उनके कहे का बुरा नहीं मानते, पर सच तो यह है कि चोरी हमारे स्वभाव में है। मैथली शरण गुप्त ने कहा था-
जो पर पदार्थ के इच्छुक हैं
वे चोर नहीं तो भिच्छुक हैं
इसलिये हमारे यहां बौद्ध धर्म ने चोरी से बचने के लिये भिक्षा का मार्ग अपनाया था। मुझे वर्णाश्रम का सार भी यही लगता है कि जब आदमी चोरी कर पाने में असमर्थ हो जाये तो वो भिच्छुक हो जाये।
हमारे कृष्ण कन्हैया ने कभी भी चोरी से परहेज नहीं किया और ना ही ऐसा कोई उपदेश झाड़ा कि ये मत करो वो मत करो। वे बचपन में माखन चुराया करते थे तो युवा अवस्था में गोपियों का दिल ही नहीं चुराते थे, अपितु लेन देन में भी डण्डी मारी करते थे-
तुम कौन सी पाटी पढे हौ लला,
मन लेऊ पै देऊ छटाक नहीं
त्रेता युग में तो राक्षस और वानर दूसरे की पत्नियाँ चुरा लेते थे।
व्यापार में कर चोरी होती है तो आम जनता का बड़ा वर्ग बिजली चोरी करता है जिसमें बिजली विभाग के अधिकारी सहयोगी होते हैं। दफ्तर के बाबू दफ्तर से कागज़, पेंसिलें, आदि स्टेशनरी चोरी कर के ले जाते हैं ताकि उनके बच्चों को स्कूल में चोरी न करना पढे।
दरअसल आज बार बार चोरी की याद इसलिये आ रही है कि अखबार में खबर छपी है कि शिल्पा शेट्टी के बहिन शमिता ने अपनी बहिन की शादी में अपने जीजू राज कुन्द्रा के जूते चुराये और जूते चुराने के बदले में 51 लाख रुपये वसूले।
अब यह खबर पढ कर कौन सी लड़की होगी जो जूते चुराने को उतावली न हो रही होगी, आखिर लोग बाज़ार देख कर ही तो शेयर खरीदने लगते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 25, 2009

व्यंग्य उनके पास माँ है

व्यंग्य
उनके पास माँ है
वीरेन्द्र जैन
किसी हिन्दी फिल्म का एक डायलाग बहुत प्रसिद्ध हुआ था जिसमें नायक का भाई कहता है कि आज मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, दौलत है, तुम्हारे पास क्या है?
इस पर नायक कहता है कि- मेरे पास माँ है।
डन डनन डन डनन डन डिन।
हिन्दी फिल्में हमारे देश के लोगों पर बहुत प्रभाव डालती हैं, इन लोगों में साधारण जन से लेकर कांग्रेस जन भी होते हैं। कांग्रेस जन दर असल अन्य केटेगरी में आते हैं। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरि शंकर परसाई कहते थे कि आदमी तीन तरह के होते हैं, एक सज्जन दूसरे दुर्जन और तीसरे कांग्रेस जन।
कभी वर्ल्ड बैंक के प्रतिनिधि रहे हमारे प्रधान मंत्री, जिन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि वे कभी प्रधान मंत्री बनेंगे, जब अमेरिका गये तो उन्होंने वहां पर कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि चीन का अर्थिक विकास हमारे आर्थिक विकास से बेहतर है फिर भी हमारे यहां मानव अधिकारों का आदर व कानून के सम्मान के अलावा बहु सांस्कृतिक, बहुप्रजातीय, बहुधार्मिक अधिकारों को महत्व देने जैसे कुछ अन्य मूल्य हैं, जो जीडीपी की वृद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
यह वैसा ही था जैसे वे कह रहे हों कि हमारे पास माँ है।
शायद उन्हें विनायक सेन और इरोम शर्मीला के मानव अधिकार याद नहीं आ रहे होंगे या गुजरात के 2002 के और दिल्ली के 1984 के नरसंहारों की याद नहीं रही होगी।उन्हें याद नहीं रहा होगा कि सलमान खान ही नहीं शबाना आज़मी को भी मुम्बई में मकान नहीं मिलता।उन्हें याद नहीं रहा होगा कि हरियाना में अपनी मर्जी से शादी करने वालों को अदालत द्वारा दिये गये सुरक्षा आदेश के बाद भी मार डाला जाता है और हत्यारों का कुछ नहीं बिगड़ता क्यों कि आगामी विधान सभा चुनावों में वे जाट मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते थे। अपने मन से अपने धर्म का चुनाव करने वालों को ज़िन्दा जला दिया जाता है।
हमारे प्रधान मंत्री अमेरिका से लौट कर आयेंगे और उनके पास कोई प्रतिनिधि मण्डल जाकर कहेगा कि हम उन 72 करोड़ लोगों में से एक हैं जो अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार बीस रुपये रोज़ में गुज़ारा चलाने वालों में से आते हैं तो वे कहेंगे बोलो रोटी चाहिये या मानव अधिकार?
दोनों ही चाहिये हुज़ूर- वे कहेंगे
दोनों नहीं मिल सकते, चाहे रोटी ले लो या मानव अधिकार ले लो! जल्दी बोलो अभी मुझे वर्ल्ड बैंक के प्रतिनिधि से बात करने जाना है।
रोटी पहले चाहिये हुज़ूर क्योंकि अगर रोटी नहीं मिली तो फिर मानव अधिकार क्या लाश-अधिकार में नहीं बदल जायेगा और लाश का कोई अधिकार नहीं होता सिवाय बदबू फैलाने के अगर उसे जल जाने या दफन हो जाने की सुविधा नहीं मिले।
अरे भाई थोड़ा इंतज़ार कर लो अगले साल हमारे यहाँ एशियन गेम्स होने वाले हैं उन्हें देखना, मेट्रो में सफर करना, 2015 तक हम हर गाँव में बिजली पहुँचा देंगे 2020 तक हम खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे।
हो सकता है हम इंतज़ार कर भी लें पर 2014 में तो आप चुनाव हार जायेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, नवंबर 23, 2009

लघुकथा (व्यंग्य) नेता सुअर बुखार और हाथों की सफाई


लघुकथा
नेता, सुअर बुखार और हाथों की सफाई
वीरेन्द्र जैन
बच्चा बड़ी गौर से दूरदर्शन में बच्चों के लिये बनाया गया एक विज्ञापन देख रहा था । विज्ञापन में बताया गया था कि आप खांसने छींकने और बाहर से आने के बाद अगर अपने हाथ धोते हैं तो इंफेक्शन से बच कर सुअर बुखार से बच सकते हैं और लाखों जानें बचा सकते हैं। थोड़ी ही देर बाद उस चैनल पर समाचार आने लगे जिसमें बताया गया कि दुनिया में जिस इकलौते राजनेता को सुअर बुखार ने अपनी गिरफ्त में लिया वे हमारे देश के एक विकसित प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। विज्ञापन के प्रभाव में आये बच्चे ने अपने पिता से पूछा कि क्या उक्त नेता हाथ नहीं धोता!
हाँ बेटा इस नेता ने 2002 से अपने हाथ नहीं धोये हैं और यह तभी से अपने गंदे हाथ लिये राज्य सरकार चला रहा है इसीलिये तो दूरदर्शन कहता है कि अपने हाथ धोना चाहिये- पिता ने बेटे को समझाया।
जो नेता हाथ धोते हैं वे कौन से साबुन से हाथ धोते हैं? बेटे ने फिर पूछा
वे क्षमा याचना ब्रांड साबुन से हाथ धोते हैं और खाने पीने व अपने बच्चों को दुलारने के बाद फिर से हाथ गंदे करने निकल जाते हैं- पिता ने बताया।
क्या हम हाथ गंदे करने से बच नहीं सकते!- बेटे की अगली जिज्ञासा थी।
बच सकते हैं, पर उसके लिये पूरे देश में सफाई करना पड़ेगी- पिता ने ठंडी सांस भरकर कहा। बेटे को समझ में नहीं आया कि पूरे देश में सफाई के नाम पर पिता ने ठंडी सांस क्यों भरी।

वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

व्यंग्य -----शेयरों के शेरों का पुनर्जीवन्

व्यंग्य
शेयरों के शेरों का पुर्नजीवन वीरेन्द्र जैन
जब शेयरों के दाम मिग विमानों की तरह गिरने लगते हैं तब घर की मशीनों के दिन फिरने लगते हैं उनकी धूल पौंछ दी जाती है और शेयर बाजार जाने के बहाने घर से बाहर निकलने वाले सेवानिवृत्तों को काम मिल जाता है। घर के प्लास, पैंचकश, पाना, हथौड़ा, कीलों का डिब्बा, ग्रीस का डिब्बा, तेल की कुप्पी, फटे पुराने कपड़े जो अब केवल पौंछने के काम आ सकते हैं, ब्रुश और चश्मा एक जगह एकत्रित कर लिया जाता है। पुराने पंखे, कूलर, स्कूटर, कार, मिक्सी, हीटर, कन्वेटर आदि पर अनुभवी दिमाग अपने शिथिल होते जा रहे हाथों के कमाल दिखाने को उतावले हो जाते हैं। घर के बच्चे अपने दादा जी के करतब देखने के लिए इस तरह घेरकर बैठ जाते हैं जैसे कि चौराहे के मदारी को घेरते हैं। पेंचों और ढिबरियों को खुलते हुऐ देखना तथा उस खुलने के साथ ही उपकरण के अंग अंग का बिखरना बच्चों को नवअनुभव स्फुरण से भर देता है। वे एक एक गरारी को छू कर देखना चाहते हैं पर खुर्राट, दादा जी उन्हें दूर रहने की घुड़.की देते रहते हैं। अपने हाथ चिकने और काले होने की चिन्ता किये बिना वे एक एक पुर्जे को पोंछ कर आवश्यकतानुसार ग्रीस लेपन करके एक ओर रखते जाते है।

इस ओवर हालिंग के बाद दादा जी उपकरण को दुबारा वैसा ही फिट करके चलाकर देखना चाहते हैं पर अक्सर ही वे फिट करना भूल जाते हैं। दो तीन बार दो तीन तरह से जोड़ कर पैंच कसते हैं पर कोई न कोई हिस्सा कहीं छूट ही जाता है। कई बार समझ में नहीं आता है कि ये छूट गया पेंच या ढिबरी कहॉ फिट थी। डरते हैं कि कहीं इसके बिना मशीन चलाकर देखी तो कुछ टूट और फंसकर न रह जाये। वे झुंझलाते हैं और बच्चों को घुड़कते हैं, और फिर पूरी मशीन खोलते हैं। जब समझ में नहीं आता तो एक कोने में समेट कर मैकेनिक के निमित्त उसे ऐसे छोड़ देते हैं जैसे मरीज के रिश्तेदार मंहगे डाक्टरों से इलाज कराने के बाद भी ठीक न होने वाले मरीज को भगवान भरोसे छोड़ देते है।

दादा जी रगड़ रगड़ कर हाथ धोते हैं पर न कालिख पूरी तरह छूटती है और न गंध। हाथों में मिट्टी का तेल और डिटर्जेन्ट मलते हैं और फिर मिट्टी के तेल की गंध छुड़ाने के लिए फिर धोते हैं पोंंछते हैं। खुशबूदार तेल लगाते हैं और सूंघते हैं धीमी धीमी गंध फिर भी आती रहती है। वे आने देते हैं कि और क्या करें ! जैसे शेयर के दाम गिर जाने पर शेयरों को डले रहने देते हैं और क्या करें। दिन ही खराब चल रहें हैं। एक ओर शेयर के भाव गिर रहे हैं दूसरी ओर हाथों की गंध नहीं जा रही। नहीं जा रही तो न जाये - क्या कर सकते हैं। मंदिर जाते है तो मन नहीं लगता। ऐसा लगता है कि सब समझ रहे हैं कि ये क्या करके आ रहे हैं।

प्रापर्टी में बड़ा रट्टा है। एक एक जमीन को लोग तीन तीन लोगों को बेच देते हैं । अब जिसे केवल इन्वेस्टमेंट करना है वो पजेशन लेने थोड़े ही जायेगा। वो तो रेट बढाने के लिए खरीदता है। दाम के दाम गये और रजिस्ट्री खर्च भी गया । दूसरे को बेचेगें तो वह तो तुम्हारे ऊपर ही सवारी गांठेगा। बड़ा झंझट है। दादा जी की समझ में नही आता कि पैसे का क्या करें। पूरी उम्र जैसे कमाया है उसे मेहनत करके कमाया मानते हैं। साठ रूपयें से नौकरी शुरू की थी चालिस साल बाद रिटायर होते समय अट्ठारह हजार मिलते थे। पर मानसिकता एक बार बन गई, सो बन गयी। वह जिन्दगी भर साठ रूपये वाली ही रही। सोच समझ के खर्च करना। वे तब से उपभोक्ता फोरम के सोशल एक्टिविस्ट जैसे हैं जब कोई उपभोक्ता फोरम का नाम भी नहीं जानता था । दो रूपयें की चीज डेढ़ रूपयें में खरीदने पर उतारू। उनसे सवा दो तो कोई किसी हालत में नही ले सकता था। खराब निकल आये तो दुकानदार के सिर पर मार आयें और पैसे वापिस ले आयें। रिटायरमेंट पर जो पैसा मिला था उसमें से सात साल बीत जाने तक भी घटा कुछ नहीं। बढ़ता ही रहा। चाहे ब्याज से या छोटे मोटे लेन देन से। पिछले दो सालों से दूसरे बूढों के साथ में शेयर बाजार जाने लगे थे। समय कटता था और दो चार सौ का लाभ कमा लेते थे। पर सरकार बदली सो देशभक्त बंदेमातरम कहते हुये बाजार धरती माता को चूमने लगे। तीस हजार का नुकसान हो रहा था। जिन्दगी में पहली बार घाटा खाने का अनुभव सामने आया सो बेचैैनी बढ़ने लगी। शेयर बाजार जाना बन्द हुआ सो समय काटे नहीं कटता था। घर की मशीनें सुधारने बैठे सो वे पुर्जो में बदल गयीं। मिस्त्री के पास ले जायेगें तो मनमाना मांगेगा।

बैकों की फिक्सड डिपोजिट पूरी हो गयी थीं। बदलवायीं तो ब्याज दरें आधी रह गयी थीं।पछता रहे थे कि उसी समय ही पांच साल के लिए ही क्यों न करा लीं थीं। हर तरफ घाटा ही घाटा और मंहगाई ऊपर चढने लगी। बिजली मंहगी हुयी, गैस मंहगी हुयी, पेट्रोल मंहगा हुआ। ऐसे लोग मरने के लिए भी किसी हादसे का इंतेजार करते है। ताकि अंतिम संस्कारों के लिए दस पचास हजार सरकार से मिल जायें और बाकी बीमा से दुगनी राशि मिले।
पर, हादसा होने से पहले ही शेयरों के दाम चढ़ना शुरू हो गये। उनके सहारे दादाजी भी चढ़कर निराशा के कुएं से बाहर निकल आये और खोल डाली गयी मशीनों को मैकेनिक के यहॉ भिजवाने की सोच रहे हैं।

बच्चे नागार्जुन की कविता पढ रहे थे- बछिया ने फिर ली अंगड़ाई बहुत दिनों के बाद, कौवे ने खुजलायीं पाखें बहुत दिनों के बाद।
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वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, नवंबर 14, 2009

व्यंग्य - उंगली के कारनामे

व्यंग्य
उँगली
वीरेन्द्र जैन

वैसे तो रीढ़ की हड्डी का अंतिम मनका छोड़कर किसी भी अंग को अनुपयोगी नही कहा जा सकता है और हो सकता है कि चमचागिरी के चरम क्षणों में परम चमचों के लिए वह भी दाएँ-बाएँ हिलाने के काम आता हो पर उँगलियॉ शरीर का अति महत्वपूर्ण अंग होती हैं। एक फेफड़े या किडनी के न होने पर आप विकलांगता का प्रमाण-पत्र और सुविधाएँ नही पा सकते जबकि उँगलियों के न होने पर आप इस तरह की सुविधा पाने के अधिकारी हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि उँगलियॉ शरीर का अंग हैं फेफडे और किडनी नही हैं।

आदमी को लाश हो जाने से बचने के लिए जिंदा होना परम आवशयक है व जिंदा रहने के लिए उसे भोजन करना पड़ता है। भोजन चाहे छुरी- कांटे से किया जाए या उनके बिना, पर भोजन करने के लिए उंगलियॉ नितांत आवश्यक हैं। जो पॉच होती हैं तथा समान नही होतीं, किन्तु खाते समय विषयवस्तु पर समान रूप से केन्द्रित होती हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे कि सत्तारूढ पार्टियों के पॉचों गुट चुनाव के समय एक हो जाते हैं जिससे कि दूसरी कोई पार्टी देश को न खा सके।

उँगलियॉ खाने व लिखने के काम ही नही आतीं, ये इशारे करने के काम भी आती हैं। रेल्वे स्टेशनों के संडासों पर, महिला व पुरूष शौचालयों पर उंगली के इशारे से इंगित करने वाले प्रतीक इतने अधिक प्रचलित हैं कि कई बार तो साधारण इशारा करने वाला भी ऐसा लगता हैं कि जैसे किसी शौचालय की ओर इशारा कर रहा हो। शायद यही कारण हैं कि कक्षाओं में बच्चों को लघुशंका का विश्वास होने पर अपनी छोटी उँगली उठाकर अनुमति मांगना सिखाया जाता हैं। वैसे इस बारे मैं मैं कुछ नही कह सकता कि इसके लिए छोटी उँॅगली से ही इशारे का नियम क्यों और कैसे बना। पर यदि ऐसा नियम नही होता तो मुझे क्रिकेट का एम्पायर भी किसी खिलाड़ी को आउट देते समय ऐसा लगता जैसे कि खिलाड़ियों से लघुशंका के लिए अनुमति मांग रहा हो। यूँ इशारे तो ऑखो- ऑखों और गर्दन का यथा संभव मोड़ देकर भी किए जाते हैं पर उंगलियों के इशारों से जितना व्यापक संप्रेषण संभव हैं उतना ऑखों और गर्दन के हिलाने - डुलाने से नही। यही कारण हैं कि हमारे दूरर्दशन पर बधिरों के लिए केवल उँगलियों के इशारे से सारी दुनिया की जानकारी दे दी जाती हैं।

उँगलियों केवल तिलक या चंदन लगाने के काम ही नही आतीं, इनसे आप किसी की मांग में सिंदूर भी भर सकते हैं औैर घूँघट भी उठा सकते हैं। जिनका घूँघट उठा नही होता हैं वे बंद घूघट में से दो उँगलियों के सहारे से घूँघट के बाहर का नजारा भी देख सकती हैं।
टूथ-पेस्ट को ब्रश पर रखकर 'ब्रश' करने का कार्य हम- आप नितप्रति करते हैं, पर जिन्हैं बासी और जूठा ब्रश करना पसंद नही वे यही श्रेय उंगली को प्रदान करते हैं और किसी गलतफहमी के न पैदा होने की दृष्टि से इस क्रिया को मंजन करना कहा जाता है।

आश्चर्य की स्थिति में उंगली दांतो तले दबाने के काम भी आती है। इन क्षणों में आम तौर पर दांतों तले अपनी ही उंगली दबाई जाती हैं। जिससे दांतों के दबाव पर अपना नियंत्रण रहता है किंतु कुछ परजीवी व्यक्ति ऐसे क्षणों में दूसरों की उंगली दबाते हैं और इतने आश्चर्य चकित दिखने का प्रयास करते हैं कि दांतों पर अपना सारा नियंत्रण खो देते हैं।

उंगलियाँ नही होतीं तो ऑखों में काजल देके अंखियों को बड़ी बड़ी और कजरारी कैसे किया जाता ? और कई ऑखें तो इतनी धरदार होती रही हैं कि पुरातन काल के हिन्दी कवियों ने कहा ही है
काजर दे ना ऐ री सुहागन
आंगुरी तेरी कटेगी कटाछन।

उँगलियॉ नहीं होतीं तो वोट डालने से पहले किस अंग को कलंकित किया जाता। उँगलियाँ नहीं होतीं तो रूपए कैसे गिने जाते और उन रूपयों से भरे सूटकेस कैसे उठाए जाते। उंगलियॉ नही होतीं तो कांग्रेस का चुनाव चिन्ह् जाने कैसा नजर आता। यूँ छिद्रान्वेषी व्यक्ति उंगलियों में कुछ कमियॉ भी बताते हैं, कहते हैं कि सीधी उंगली से घी नहीं निकलता, पर घी निकालने के लिए उंगली को टेढ़ी करने की सुविधा भी उपलब्ध होती है। इसके लिए केवल मजबूत इरादे की जरूरत भर होती है। मजबूत इरादे वाले लोग ठसाठस भरी बसों या बाजारों में सीधी उंगली से न जाने कितनी जेबों से नोट व बटुए निकाल लेते हैं और उससे घी घरीदते हैं, जिसे उंगली को टेढी करके निकालते रहते हैं।

यदि पौराणिक कथाओं पर भरोसा करें तो कृष्ण कन्हैंया ने एक उंगली पर गोवर्धन उठा लिया था तथा विष्णु का सुर्दशन चक्र भी एक उंगली पर ही घूमता था। यह कैकेयी की उंगली का ही कमाल था जो उन्होने युद्वरत दशरथ के रथ में ठीक समय पर डालकर रामकथा का सूत्रपात किया था।

हमारे इतिहास में एक भी उंगली विहीन महापुरूष नही हुआ। यदि उंगलीमाल अपने उद्देशय में सफल हो जाता तो गौतमबुद्व का कभी भगवान होना संभव नही हो पाता। गॉधीजी ने भी अपना पहला सफल आंदोलन उंगलियों के निशानों को लेकर ही अफ्रीका में चलाया था और फिर उसे वापिस लेकर उन्ही उंगलियों से उसका परिणाम भी झेला था। देशभर में लगी बाबा साहब अम्बेडकर की आदमकद प्रतिमाएँ एक उंगली उठाकर संवैधानिक सत्ता की महत्ता को दर्शाती रहती हैं और चुनाव या मैच जीतने वाले सारे विजेता दो उंगलियों से 'वी' बनाकर विजय का उल्लास व्यक्त करते हैं।

चतुर पत्नियॉ अपने पति को उंगलियों पर ही नचाती हैं। उंगलियों ही चोटियों गूंथती हैं, जुएँ बीनती हैं, या प्यार से अपने पति के कोट के बटन लगाती हैं। किसी डिटर्जेट के विज्ञापन में यदि दाग धब्बों को ढूंढते रह जाने की बात भी कहनी हो तो उसमें भी उंगली घुमाने की कला आना आवश्यक होती है।
लखनऊ में ककड़ियाँ बेचने वाले उन्हैं लैला की उंगलियॉ कहकर बेचते हैं और खरीदने वाले इसी धोखे में पहले उन्हैं खरीदते हैं, फिर खा जाते हैं। अंग्रेजी वालों ने यही श्रेय भिंडी को दिया हैं और उसे लेडिज फिंगर का नाम दिया हैं।

संगीत की सारी दुनिया ही उंगलियों से गूंजती है, सितार हो या वीणा, तबला हो या हारमोनियम सभी उंगलीयों की कला से ही गुंजायमान होते हैं। और तो और चुटकी तक बिना उंगलियों के नही बजाई जा सकती।

फीस लेने और उसे उंगलियों के सहारे से गिनने के बाद डाक्टरों की उंगलियॉ नब्ज पर पड़ते ही भीतर की सारी गतिविधि का अंदाज कर लेती हैं। इन्ही उंगलियों की सहायता से वह शरीर के अनावश्यक बीमार हिस्सों को अलग कर देता है और उसी से इंजेक्शन भी लगता है। उंगलियों के सहारे आज लाखों टाईपिस्ट और कम्प्यूटर आपरेटर देशभर के दफ्तर चला रहे हैं जिनमें रिश्वत की फसलें लहलहा रही हैं। बच्चा सबसे पहले उंगली पकड़कर ही चलना सीखता है और गिनती भी। विवाह बंधन में बंधने से पूर्व उंगली में अंगूठी पहनाने की सबसे पहली रस्म होती है।

बंदूक के ट्रिगर पर रखी हुई उंगली अपराधियों को पास नही फटकने देती। स्कूटर के क्लिच पर रखी उंगलियां आपको कहॉ से कहॉ ले जाती हैं व जरूरत पड़ने पर हार्न भी बजाती हैं। उंगलियों नही होतीं तो कारों और बसों के स्टीयरिंग कैसे संभाले जाते ? उंगलियों नही होतीं तो आप दरवाजे का हैंडिल कैसे घुमाते या दफ्तर से घर आकर घर की घन्टी कैसे बजाते ? शर्ट के बटन लगाने हों या पाजामें के नारे की गांठ लगानी हो, उंगलियों के बिना संभव नही हो सकता हैं। उंगलियों के बिना ना तो बोतल का ढक्कन खोला जा सकता हैं और ना ही गिलास उठाया जा सकता है। यहॉ तक कि दांतों में फॅसा हुआ तिनका भी उंगलियों के बिना नही निकाला जा सकता है। सिगरेट के निकालने से लेकर सुलगाने और पीने तक उंगलियों का अपना महत्व है।

उंगलियों का महत्व कहाँ तक गिनाउं ! इसलिए अंत में मेरी यही शुभकामना हैं कि आपकी पॉचों उंॅगलियों सही सलामत ही नही घी में भी रहैं और ऐसा घी गर्म कड़ाही में न हो।

बुधवार, नवंबर 04, 2009

व्यंग्य -भारतीय पीलिया पार्टी में वारयल फीवर

व्यंग्य
भारती पीलिया पार्टी में वायरल फीवर
वीरेन्द्र जैन
अंग्रेजी में एक कहावत है कि अगर डाक्टर कहता है कि आपको वायरल फीवर है तो इसका मतलब होता है कि उसे भी आपकी तरह कुछ समझ में नहीं आ रहा कि बीमारी क्या है।
वायरल फीवर को हमारे यहाँ मेहमान का दर्जा प्राप्त है जिसके बारे में भरोसा रहता है कि वह अधिक से अधिक दो चार दिन रूक कर और हमारी देह का सर्वश्रेष्ठ चर कर चला जायेगा व लुटे पिटे से हम अगले मेहमान के आने तक पुन: अपने नुकसान की भरपाई में जुट जायेंगे। रहीम ने शाायद वायरल फीवर के लिए ही कहा होगा-
रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय
हित अनहित या जगत में जान परत सब कोय
पर यह वायरल फीवर अगर दूसरी बीमारियों के साथ हो तो खतरनाक भी हो सकता है जैसे कि पीलिया के साथ। इसका उदाहरण अभी हमें राजस्थान में देखने को मिला। एक भूतपूर्व महारानी जो दूसरे सैकड़ों भूतपूर्व राजे रानियों की तरह वर्तमान में भी स्वयं को रानी समझती हैं, को फिल्टर का पानी और मौसम से बचाव आदि सारी सावधानियों के बाद भी वायरल हो गया। चूंकि महारानी को हुआ था इसलिए महा वायरल हुआ होगा। छोटे मोटे लोगों को डाक्टर दो तीन दिन में ही ठीक मान लेते हैं किंतु महारानी का महावायरल दो हफ्ते वाला था। उनके डाक्टर ने उन्हें दो हफ्ते तक सख्त आराम की सलाह दी दी। मजदूर तो वायरल में भी काम करते रहते हैं पर महारानी इतनी महाअशक्त हो गयीं कि बेचारी अपने डाक्टर की सलाह से दो सप्ताह में एक कागज पर दस्तखत करने तक की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। वह कागज उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से त्याग पत्र पर छोटे से दस्तखत करने के सम्बंध में था जिसके लिए वे पहले ही मौखिक सहमति दे चुकी थीं। उनके त्यागपत्र पर दस्तखत न करने से स्तीफा मांगने वाले हाई कमान की इज्जत, लोकसभा चुनाव के बाद जितनी भी बची रह गयी हो, मिट्टी में मिल चुकी थी और मिट्टी अपनी इज्जत के लिए परेशाान हो रही थी। वे दो सप्ताह में पहले ठीक हुयीं फिर स्वस्थ हुयीं और तब इस लायक हुयीं कि पूर्व उपप्रधानमंत्री तथा निरंतर पंधानमंत्री पद प्रत्याशाी से मिलने के बाद स्तीफे पर अपने दस्तखत बना सकीं। उधर अपनी इज्जत को मिट्टी में मिलाये अध्यक्ष महोदय कहते रह गये
की उसने मेरे कत्ल के बाद कत्ल से तौबा
हाय उस वादा पशेमां का पशेमां होना
एक बार तो इसी पार्टी के एक अध्यक्ष अपनी पार्टी की एक साध्वी से इतना परेशाान हो गये थे कि उनकी पत्नी बीमार पड़ गयीं। प्रेम में ऐसा ही होता है कि बाबर ठीक हो जाता है और हुमांयुं बीमार हो जाता है। अपनी पत्नी की सेवा सुश्रूषाा के लिए पाटी अध्यक्ष ने त्यागपत्र मुँह पर मारने में दो सप्ताह का समय नहीं लिया और फटाक से दे मारा। पर साध्वी नीम चढे करेले का रस पीकर ही बोलने के लिए मशहूर थीं और बीमार की बीमारी का पूरा इतिहास रखती थीं सो उन्होंने देशा की जनता को बताना जरूरी समझा कि पार्टी अध्यक्ष ने अपनी पत्नी की रजोनिवृत्ति को राष्ट्रीय बीमारी बना दिया है। ये भारतीय संस्कृति की जनशक्ति वाली साध्वी थीं और अपनी बात पूरी शाक्ति से कहने की आदी थीं भले ही वह सही हो या गलत! उधर अध्यक्ष महोदय भी इतने सेवाभावी थे कि उसके बाद उन्होंने पार्टी में उपाध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया जिससे बीमार पत्नी और बीमार पार्टी दोनों की ही सेवा कर सकें।
बीमारी में अगर राजनीति मिल जाती है तो वह बीमारी बहुचर्चित हो जाती है। गुजरात के एक पूर्व मुख्यमंत्री की पत्नी की बीमारी पर जब ढेर सारे मंत्रियों और विधायकों ने एक साथ मिजाजपुर्सी की तो मुख्यमंत्री के कान खड़े हो गये जो विधायकों की दीवारों में लगे रहते थे। उन्हें अपनी कुर्सी डगमग नजर आने लगी तो वे अपनी पार्टी में अपने सबसे बड़े विरोधी के यहॉ बाकी के मंत्रियों को लेकर मिजाजपुर्सी के लिए पहुँच गये। अगर सब एक साथ गये होते तो वहाँ मंत्रिमंडल की बैठक हो सकती थी।
पर जनता की मिजाज पुर्सी की किसी को चिंता नहीं है जो कराह करह कर कह रही है कि-
अच्छे ईसा हो मरीजों का ख्याल अच्छा है
हम मरे जाते हें, तुम कहते हो हाल अच्छा है
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (मप्र)

व्यंग्य -में गाँव नहीं जा पाया

व्यंग्य
मैं गाँव नहीं जा पाया
वीरेन्द्र जैन
बचपन में राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त की कविता पढ़ी थी।
अहा ग्राम्यजीवन भी क्या है!
पर उन दिनों कविता केवल हिन्दी की किताब में पड़ने की चीज होती थी और उस पर प्रयोग करने की संभावना नहीं थी। फिर मुझे राहत इंदौरी का एक शेर बहुत पसंद आया था। शेर यूँ था-
शहरों में तो बारूदों का मौसम है
चलो गाँव को अमरूदों का मौसम है
पर अब मुझे यह शेर भी 'शेर' की तरह डराता है। हुआ ये कि यह शेर सुन कर मैं गाँव के लिए बिस्तरा बांधने लगा था तभी पता चला कि मालेगाँव में बम विस्फोट हो गया और पता नहीं दुर्भाग्य से या सौभाग्य से यह विष्फोट समय से पहले हो गया और कुछ इस तरह से हुआ कि -
जो तोहे कांटा बुहे, ताहि बूह तू फूल
तुझको फूल के फूल हैं, बाको हैं त्रिशूल
सो भइया हुआ यूँ था कि दूसरों के लिए बम बनाने वालों ने बम तो बना लिये थे पर बेचारे बम बनाने वाले हिन्दू भाई कुछ ज्यादा ही उतावले थे सो बनाने वालों के साथ ही फट गये और त्रिशूल दीक्षा लेने वालों के लिए त्रिशूल बन गये । इन बम बनाने वालों ने तैयारी तो पूरी कर रखी थी। उनके अड्डे से मुसलमानों जैसी नकली दाढी और पाजामे शोरवानी तक बरामद हुयीं थीं जिन्हें पहिन कर वे जाते और प्रत्यक्षदर्शी पुलिस को बताते कि ऐसी रूपरेखा वाले यहाँ घूम रहे थे और यह उन्हीं की करतूत है। मीडिया को मशाला मिल जाता और फिर क्या था उर्वर दिमाग लगातर कहानियाँ उगलते रहते। पर मैं डर गया और कहीं नहीं गया।
कई महीने गुजर जाने के बाद फिर गाँव जाने का भूत सवार हुआ तो मैंने फिर बिस्तर बांधना शुरू किया और फिर वही हुआ। दीवाली से ऐन पहले मडगाँव में पटाखा फट गया जो कुछ बड़ा था और जिसे ले जाकर बाजार में रखने जा रहे दोनों वीर, वीर गति को प्राप्त हुये। ये बेचारे भी उसी गैंग के सदस्य थे जो खुद बम विष्फोट करके दूसरे धर्म वालों पर जिम्मेवारी थोपने का काम अपनी भगवा पार्टी के मुँहजोरों को सौंप देते हैं ताकि महौल में साम्प्रदायिकता छा जाये जो बहुमत के वोटों की बारिश करे। समाज में बंटवारा होगा तो लाभ बहुसंख्यकों की पार्टी को ही होगा।
वैसे मैं तीसरी बार भी चिरगाँव जाने की कोशिश करता पर मेरा दुर्भाग्य कि इस बार हिन्दी के एक कवि की कविता मेरी राह में आ गयी। मैं गाँव जाने को था और स्व क़ैलाश गौतम की कविता कह रही थी-

गाँव गया था गाँव से भागा
पंचायत की चाल देख कर
आंगन की दीवाल देख कर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आंख में बाल देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

नये नये हथियार देखकर
लहू लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देख कर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का श्रंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

कविता तो बहुत लंबी है पर मेरे लिए इतनी ही काफी थी और मैंने सोच लिया कि मालेगाँव, मडगाँव, चिरगाँव, क्या किसी गाँव नहीं जाऊँगा।
............नहीं तो जाऊंगा पर शहर में भी सुकून कहाँ है! और यह अमेरिका तो ग्लोबल विलेज बनाने को तैयार है व हमारे प्रधानमंत्री जिसके लिए उतावले हैं।
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र

सोमवार, नवंबर 02, 2009

व्यंग्य - प्रयोगशाला में रक्त

व्यंग्य
प्रयोगशाला में रक्त
वीरेन्द्र जैन
समाचार न्यूयार्क का है और इसे एडवांस्ड सेल टैक्नोलौजी, रोचेस्टर स्थित मायो क्लीनिक और शिकागो की इलीनोसिस यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने खुशी खुशी दिया है। समाचार यह है कि उन्होंने प्रयोगशाला में रक्त बनाने में सफलता पा ली है।
इस खबर से जहाँ अमरीका के वैज्ञानिकों को खुशी हो रही है वहीं इसने मेरा खून खौला दिया है, जो असली है।
यह हमारे पौराणिक इतिहास पर हमला है । हमारा तो सारा पौराणिक साहित्य ही रक्तरंजित है और इसी रक्तरंजन से हमारा मनोरंजन होता रहा है। भक्ति साहित्य में हमारे सारे नायक अपने अपने समय के खलनायकों को रक्त स्नान कराते रहे हैं व इसी रक्त प्रवाह को देख कर हम अपने नायकों की महानता और ताकत को पहचानते रहे हैं। कोई वाण चला रहा है तो कोई चक्र चला रहा है कोई त्रिशूल से एक साथ तीन छेद कर रहा है तो कोई मुग्दर से खोपड़ा फोड़ रहा है। हथियारों द्वारा न मरने का वरदान भी ले लिया हो तो हमारे देवताओं ने घुटनों पर रख कर नाखूनों से ही चीरफाड़ डाला। जाओ बेटे कहाँ जाते हो। ये बिल्कुल वैसा ही था जैसे कभी कभी कोई थानेदार मंत्री के खास सिफारिशी आदमी को हरिजन महिला से बलात्कार के मामले में फंसवा कर कहता है कि और करा ले मंत्री की सिफारिश अब देखते हैं कि मंत्री का आशीष भी तुझे कैसे बचाता है? खूनाखच्चर से कोई बचना भी चाहे तो उसे गीता सुना दी जाती है जिससे वह 'जो आज्ञा' कह कर मैदान में कूद जाता है। अब अगर नकली खून बन गया तो सारा मजा ही जाता रहेगा। ज्यादा से ज्यादा कंजूस आदमी अफसोस करेगा कि दस हजार का खून बह गया, बहुत नुकसान हो गया।

अब पता नहीं खून के संबंधों का क्या होगा! लोग पूछेंगे कौन से खून के सम्बंध? असली के या नकली के? 'खून का बदला खून' का अर्थ होगा कि तुमने हमारे दो लीटर खून का नुकसान कराया था अब हम तुम्हारे चार लीटर खून का नुकसान करायेंगे।
विश्वहिंदू परिषद के लोग जब नारा लगायेंगे- जिस हिंदू का खून न खौले खून नहीं वो पानी है- तब लोग अपनी तरफ से एक दो लीटर खून उन्हें यह कहते हुये भिजवा देंगे कि अभी जरा मैं व्यस्त हूँ तुम और किसी हिंदू के यहॉ खौलवा लो।
'खून भरी मांग' से कोई नये तरह के कॉस्मेटिक आइटम की कल्पना कर सकता हैं जैसे लिपिस्टक में जानवरों का खून लगता था वैसे अब मनुष्यों के नकली खून का प्रयोग होने लगेगा और उसे वैसा ही शाकाहारी मान लिया जायेगा जैसे बायलर अंडे को अहिंसा धर्म वाले अनेक लोग शाकाहारी मान चुके हैं। लिपिस्टक पर कन्टेंट्स में लिखा रहेगा 'आर्टीफीशियल ह्यूमन ब्लड यूज्ड'।
खून के आंसू ग्लिसरीन के आंसुओं की ही दूसरी किस्म मान ली जायेगी। गालिब का वह शेर बेकार हो जायेगा जिसमें वे कहते हैं कि जो आंख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है! जब कवि भावुकता पैदा करने के लिए कहेंगे कि मानव का रक्त बहुत सस्ता हो गया है तो लोग समझेंगे कि बाजार में नकली खून के रेट गिर गये हैं। अग्रवाल साब जैन साब से पूछने लगेंगे कि नकली खून बनाने वाली कम्पनी के तुम्हारे पास कितने शोयर हैं उसके रेट गिर रहे हैं।
बाजार में भी लोग नकली खून के भी असली होने की मांग करेंगे क्योंकि तब तक नकली खून के भी कई डुप्लीकेट ब्रान्ड बाजार में आ जायेंगे। मरीज के रिश्तेदार दुकानदार से कहेंगे कि यार अपने घर का मामला है जरा असली वाला देना चाइना वाला मत टिपा देना।
असली मुसीबत तो रक्त दान शिविरों पर आयेगी जिसमें किसी के भाग लेने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी। तब जहाँ राजीव गांधी, इंदिरा गांधी, संजय गांधी आदि के जन्म दिन पर जो शिविर लगाये जाते रहे हैं ऐसे शिविरों में पार्टी के सेठों द्वारा एक क्विंटल दो क्विंटल रक्त दान की घोषणा होने लगेगी। रक्तदान के लिए युवाओं की जरूरत पड़ती थी सो अब वह भी खतम हो जायेगी। बस पैसे वाले मिल जायें तो चाहे जितना खून दान करवा लें।
नकली खून से कई पार्टियाँ अपने झंडे को रंग कर लाल कर लेंगी तब कम्युनिष्टों को स्पष्ट करना पड़ेगा कि उनका झंडा असली रक्त से रंगा होने के कारण ही लाल है।
डाक्टर लोग अपनी प्रिय कम्पनी का रक्त लेकर ही आने को कहेंगे तथा यह चेतावनी भी दे देंगे कि दूसरी कम्पनी का ब्लड लाये तो डाक्टर की कोई जिम्मेवारी नहीं होगी। शाम को मेडिकल रिप्रिजेंटेटिव उनका पूरा हिसाब कर जायेगा।
ये वैज्ञानिक लोग दिल जिगर आदि को खोल खोल कर पहले ही शायरी का सत्यानाश कर चूके हैं, और अब नकली खून बना कर बचे खुचे का भी सत्यानाश कर देना चाहते हैं। हमारे पवित्र जगत्गुरू देश को ऐसी सारी वैज्ञानिक उपलब्धियों का कस विरोध करना चाहिये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629