सोमवार, दिसंबर 21, 2009

व्यंग्य मुद्रा गाथा

व्यंग्य
मुद्रा गाथा
वीरेन्द्र जैन
वैसे तो मुंह से मुद्रा शब्द का उच्चारण होते ही मन में सोने के नही तो लोहे के सिक्के खनखनाने लगते हैं किन्तु मेरा आशय उन मुद्राओं से न होकर मनुष्य की मुद्राओं से है।
योग और ध्यान में मुद्राओं को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। योग जिसे आत्मा का परमात्मा से जोड़ माना जाता है वह भी मुद्रा के बिना सम्भव नहीं है। मुझे तो लगता है कि शायद इसी गलतफहमी में लोग परमात्मा से जुड़ने के लिए मुद्राएं जोड़ कर रखने लगे होगें। जिस प्रकार महापुरूषों ने अपने अपने पंथ अलग अलग बना रखे हैं। उसी तरह उनकी मुद्राऐं भी अलग अलग हैं। बुद्व की मूर्तियां उनकी मुद्रा से ही अलग पहचान में आ जाती हैं। जिस तरह जीता हुआ आदमी दो उंगलियों से अंग्रेजी का वी बनाकर विजयी होने की सूचना देता है उसकी प्रकार बुद्व की मूर्तिया तर्जनी उंगली और अंगूठे को जोडकर ( और शेष तीन उंगलियों को खड़ी रख कर) जिस शून्य का निर्माण करते हैं उससे वे अपने शून्यवाद का उपदेश देते हुए प्रतीत होते है। महावीर और बुद्व की मूर्तियों में उनके बालों के घुंघराले होने से पता चलता है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए केश विन्यास का क्या महत्व है।
हिन्दी साहित्य के महान साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में अपनी अपनी मुद्राओं की सूचनाएं दी है। जिन साहित्य कारों ने अपनी मुद्राओं की सूचनाए नहीं दी हैं उन पर रिसर्च करने वाले भविष्य में उनकी मुद्राएं भी खोज निकालेंगे। कबीरदास अपने फक्कड़पने के अन्दाज में ही अपनी मुद्रा और मुद्रा स्थल का जिक्र करते हुए कहते हैं कि -
कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ'
कबीर की मुद्रा, खडे 'होने' ही नही, खडे 'रहने' की मुद्रा है। वे यह मुद्रा सूने जंगल में जाकर नही बनाते अपितु बीच बाजार में बनाते हैं तथा सहारे के लिए हाथ में लाठी भी लिये रहते है। भक्तिकाल की मशहूर कवियत्री मीरा बाई राज परिवार से हैं और वे खड़े होकर नही रह सकतीं। बाजार से तो वैसे भी उनका कोई सम्बंध नहीं क्योकि वे चादर बनाती नहीं, ओढ़ती हैं। इसलिए मीरा बाई की मुद्रा बैठने की मुद्रा है वे कहती हैं कि –
संतन ढिंग बैठ बैठ लोक लाज खोई ।
कबीर और मीरा की मुद्राओं का अन्तर उनकी पृष्ठभूमियों का अन्तर है। कबीर मेहनतकश हैं।,इसलिए अपना उत्पाद बेचने हेतु बाजार में खडे हैं- मीरा राजपरिवार से हैं इसलिए संतो के पास बैठी हैं और बेच कुछ नहीं रहीं हैं, खो रही हैं।
दाग साहब की मुद्रा उठने बैठने की मुद्रा है। वे कहते हैं- हजरते दाग जहॉ बैठ गये- बैठ गये। वे बैठना पसन्द करते हैं पर बैठ पाना नसीब में नहीं है। इसलिए जब बैठ पाते हैं तो बैठ ही जाते हैं।
मिर्जा गालिब चलकर रहने में भरोसा करते हैं। उन्हें एकान्त तो पसन्द है, पर जम कर बैठना पसन्द नहीं। वे कहते हैं- रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहॉ कोई ना हो। गालिब का चलकर रहना' शोर से चलकर तनहाई में जा बसना नहीं है बल्कि वे गतिमान ही बने रहना चाहते हैं इसलिए जहॉ कोई भी न हो वहॉ भी वे चलकर ही रहना चाहते हैं। इशक के दरिया में भी वे डूब कर चलते हैं- पर चलते है- इक आग का दरिया है और डूब कर जाना है। अगर उन्हें बैठना भी पडता है तो वे उसमें भी दोष खोजते रहते हैं और पछताते रहते हैं कि - इशक ने गालिब निकम्मा कर दिया। बरना वह भी आदमी था काम का।
गालिब से अलग कुछ ऐसे भी शायर हुए हैं जिनकी मुद्रा ही आराम की मुद्रा रही है वे न केवल खुद आराम पसन्द करते हैं अपितु दूसरों को भी सलाह देते है कि ''आराम बड़ी चीज है मुंह ढक के सोइये'।
घुटने मोड़कर आधे पैरों को आसन बना लेने वाले गांधी जी की चर्खा कातने की अलग ही मुद्रा है तो चन्द्रशोखर आजाद की मुद्रा मूंछ ऐंठने की है। अम्बेडकर उंगली उठाकर समाज के दोषियों को इंगित करते रहते है तो एकदम सीधे खड़े रहने में और सिर को ताने रहने में विवेकानन्द का कोई सानी नहीं है।
आधुनिक काल के साहित्याकारों में बड़े बडे बालो के साथ सुमित्रानन्दन पंत की मुद्रा दूसरों से अलग हटकर है।इस समय नीरज जैसे- लोकप्रिय कवि की अपनी मजबूरी है जब वे कहते है कि “एक पॉव चल रहा अलग अलग और दूसरा किसी के साथ है”। पता नहीं यह कौन सी मुद्रा होगी!
हां मुद्रा राक्षस के बारे में मुझ जैसे देवता आदमी में कुछ कहने का साहस नहीं है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

2 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया जानकारी देती हुई पोस्ट के लिए आभार।

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  2. वाह उस्ताद वाह! आपका हर व्यंग्य कुछ नया सीखा जाता है। बहरहाल हम तो सिर्फ इतना ही कह सकते है कि आपकी व्यंग्य मुद्रा परसाइ से टक्कर लेती है।

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