शनिवार, नवंबर 13, 2010

laghukathaa raajaa kee nangaee राजा की नंगई

लघुकथा
राजा की नंगई
वीरेन्द्र जैन
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राजा नंगा है। उपदेश कथा में यह कहने का साहस एक बच्चे को छोड़कर किसी को भी नहीं हुआ था। कथा में उसका बाप उसे बार बार चुप कराने की कोशिश कर रहा था। सब राजा के तथाकथित वस्त्रों की तारीफ करके स्वयं की रक्षा कर रहे थे। अब समय दूसरा है। सारे के सारे लोग कह रहे हैं कि राजा नंगा है और चाहें तो राजा के नंगे होने की जाँच करा के देख लें। पर महाराजा और उसके बच्चे सारा सच जान समझ कर भी कह रहे हैं कि नहीं राजा नंगा नहीं है।
महाराजा ने अगर राजा को नंगा कह दिया तो उसके खुद नंगे हो जाने की सम्भावना है।
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वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शनिवार, अक्तूबर 30, 2010

शिशु जिज्ञासाएं और हाथियों के सौदे


व्यंग्य
शिशु जिज्ञासाएं और हाथियों के सौदे
वीरेन्द्र जैन
दीवाली सिर पर आ गयी थी ओर ढेर सारे काम करने को पड़े थे। यथा राजा तथा प्रजा- हमारा हाल भी नेताओं की तरह है कि जब चुनाव सिर पर आ जाते हैं तब याद आता है कि दलित एजेन्डा निकालना है, महिलाओं को आरक्षण आदि देना है,किसानों के पांच हार्स पावर के बिल माफ करने हैं सवर्णों के आरक्षण का प्रस्ताव केन्द्र को भेजना है, सच्चर कमेटी और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्टों पर विचार करना है बगैरह बगैरह।
रास्ते में याद आया कि रक्षाबंधन के अवसर पर बहिनों को लाने की तरह दीवाली पर लक्ष्मीजी को घर पर लाना है- चूंकि लक्षमीजी तो घर पर आ नहीं सकतीं इसलिए उनका फोटो ही आ जाये तो ठीक है। मैंने लक्ष्मी जी का पना, जो शायद उस पन्ना का अपभृंश है जिस पर छपा हुआ लक्ष्मी जी का फोटो बाजार में मिलता है, खरीद लिया। जो छोटी बच्ची उसे बेच रही थी उसने शायद कभी उसे गौर से देखा नहीं होगा, जैसे पत्रिकाएं बेचने वाले उन्हें कभी पढते नहीं हैं।
घर लौटा तो देखा कि उसी उम्र की पड़ौसी की छोटी बच्ची मेरे घर खेल रही थी, लक्ष्मी का पना देख कर पूछा ''यह क्या लाये अंकल, मैं देखूं?''
मैंने उस चित्र को बहुत नरमी से उसके हाथ में दिया ताकि लक्ष्मीजी और मेरी गृहलक्षमीजी की भावनाएं आहत न हों, क्योंकि मुझे लक्ष्मीजी से उम्मीदें और गृहलक्ष्मी से भय अभी भी है। सुना है कि लक्ष्मीजी दीवाली के दिन चुनावों के दिनों की तरह दीवाली को खूब राहतें लुटाती हैं, हो सकता है एकाध मुझे भी मिल जाये।
'' ये क्या है अंकल?'' बच्ची ने फिर पूछा
'' ये लक्ष्मीजी हैं बेटे'' मैंने स्वर में इतनी श्रद्धा लपेट कर कहा जितना कौर निगलने से पहले उसमें लार लपेटी जाती है।
'' ये वाटर में क्यों खड़ी हैं, इन्हें क्या बहुत गरमी लगती है अंकल ?''
'' हाँ बेटे ये धन की देवी हैं, और पैसों में बहुत गरमी होती है इसलिए इन्हें बहुत गरमी लगती होगी। देखो गरमी कम करने के लिए इनके हाथ से मैल की तरह पैसे छूट रहे हैं''
'' हाँ मेरे पापा भी कहते हैं कि पैसा हाथों का मैल होता है, पर अंकल मेरे हाथ जब गंदे हो जाते हैं तो मम्मी उन्हें धुलवा देती हैं पर उनमें से तो कभी भी पैसे नहीं निकलते?''
'' हाँ बेटे यह लक्ष्मीजी के ही हाथों का मैल होता है।''
बच्ची मान गयी पर फिर पूछा ''लक्ष्मीजी के दोनों ओर क्या हैं अंकल?''
''ये हाथी हैं बेटे''
'' आपको पक्का पता है?''
'' हाँ बेटे, आपके स्कूल में भी किताब में ऐलीफैंट का चित्र दिखाया गया है''
''हाँ अंकल वो तो पता है, पर ये हाथी ही क्यों है, उसकी वाइफ हथिनी क्यों नहीं है ?''
मैं चकरा गया, दोनों हाथी आधे पानी में डूबे हुए थे, मैंने इस दिशा में कभी सोचा भी नहीं था। अचकचा कर बोला ''बेटे सवारी गांठने और अंकुश चुभाने के लिए पुल्लिंग ही चुना जाता है, इसलिए ये हाथी ही है''
'' पर मैंने तो सुना है कि लक्ष्मीजी हाथी पर कभी नहीं बैठतीं, उनकी सवारी तो उल्लू है''
'' हाँ बेटे वे रोड और रेल मार्ग से यात्रा नहीं करती, हमेशा वायु मार्ग से आवागमन करती हैं इसलिए उनकी सवारी उल्लू होती है। हाथी तो दिखाने और सलामी देने के लिए खड़े कर रखे हैं।''
'' पर अंकल मैंने उनका ऐसा कोई चित्र नहीं देखा जिसमें वे उल्लू पर सवार हों, जब भी देखा है उन्हें कमल के फूल पर खड़े देखा है। उनके घर चेयर नहीं हैं क्या ?''
''बेटे उन्हें जब भी जरूरत होती है वे कमल के फूल को ही कुर्सी बनाती हैं या उल्लू पर सवार होकर फुर्र हो जाती हैं। उनका उल्लू बहुत तेज उड़ता है इसलिए वह फोटों में नहीं आ पाता''
''ये हाथी क्यों पालती हैं बेच क्यों नहीं देतीं जबकि इनके पास उल्लू और कमल का फूल दोनों ही हैं''
बच्ची की माया मेरी समझ में नहीं आ रही थी। उसके सवालों के आगे मैं लक्ष्मीवाहन का पट्ठा नजर आने लगा था मैंने झुंझला कर कहा- बेटे हाथी बिकने के लिए ही होते हैं, बिकेंगे बस कोई ठीक ठाक दाम चुकाने वाला भर मिल जाये। वे कर्नाटक में बिकेंगे, वे लखनउ में बिकेंगे, कहीं भी बिकेंगे। हाथी मंहगा बिकता है तथा ज्यादा पैसे वाला ही उसको खरीद पाता है- और हाँ अब तुम घर जाओं क्योंकि बहुत देर हो चुकी है।''
देश की जनता की तरह मासूम बच्ची नमस्ते अंकल कहती हुयी घर चली गयी और मैं हाथी के भविष्य पर विचार करने लगां
ऐसा लगा कि पना की लक्ष्मी मेरे ऊपर कुटिलता से मुस्करा रहीं थीं।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, सितंबर 11, 2010

व्यंग्य - साम्प्रदायिक सद्भाव वाया दूरदर्शन


व्यंग्य
सरकारी साम्प्रदायिक सद्भाव वाया दूरर्दशन
वीरेन्द्र जैन
ईद होली दिवाली दशहरा आदि जो कभी खुशी के अवसर होते थे अब आतंकित होने के हो गये हैं। एक दिन पहले से खाकी वर्दी के लोग ऐसी निगाहों से घूरने लगते हैं कि आइना देखने को मन होने लगता है कि आखिर इस चेहरे से कहीं आतंकी होने का संदेह तो नहीं टपक रहा। राम भरोसे से पूछता हूँ- यार क्या मैं आतंकवादी जैसा दिखता हूँ?
उत्तर में वह उल्टा सवाल करता है- और क्या मैं दिखता हूँ?
''नहीं तो, पर तुम क्यों पूछ रहे हो?'' मैं पूछता हूं
''उसी कारण से जिस कारण से तुम पूछ रहे थे, आजकल सारे पुलिस वाले हर आदमी में कहीं आतंक तलाशते फिरते हैं, वे ऐसे देखते हैं जैसे कि फिल्मों के अंतिम दृशयों में खलनायक हीरोइन को देखता है। त्योहार आ गया है न.....'' वह बताता है।
आजकल त्योहारों के आने का पता इसी से चलता है जब पुलिस वाले घूर घूर कर देखने लगें तो समझो त्योहार आने को है। यदि रीतिकाल में ऐसा होता तो उस समय के कविराज जरूर उस पर कई छन्द रच जाते- घूरन लगे पुलिस के ठुल्ले, सखि दीवाली आई। जब मोटर साइकिलों की चैकिंग हो रही हो तो समझो कि छब्बीस जनवरी या पन्द्रह अगस्त आ गया है।
ऐसे में सरकार का भी कुछ कर्तव्य बनता है कि वह साम्प्रदायिक सद्भाव इत्यादि फैलाये सो वह ठीक समय पर वैसे ही फैलाने लगती है जैसे कि बबलू की मम्मी बरसात जाने के बाद क्वांर की धूप में गरम कपड़े फैला देती हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाने के लिए सरकार के पास एक दूरर्दशन नामक चीज है जो जैसे हाथ धोना सिखा कर स्वाइन फ्लू भगाना सिखाता है वैसे ही सरकारी रिपोर्टों द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव फैलवाता है। इस बार ईद को उसने जम्मू में पूरे दिन मुसलमान कारीगरों द्वारा रावण बनाना दिखाया और उससे साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश फैलवाया। वे बेचारे अपनी रोटी के लिए जुटे थे और ये साम्प्रदायिक सद्भाव खोज रहे थे।
इससे पहले मुझे पता नहीं था कि यह इतनी सरल सी चीज है बरना मैं कब से इसमें जुट गया होता और दो चार कतरनों के संग्रह छपवा कर कई इनाम जीत चुका होता,या लाखों की दौलत बना चुका होता। कुछ नमूने देखिये-
• भोपाल। सुबह के छह बजे हैं और ये उस्मान भाई हमारे दरवाजे पर हैं। ये हमारी पूरी कालोनी में पिछले दस सालों से अखबार बांट रहे हैं। हमारी कालोनी में एक भी मुसलमान नहीं रहता। कालोनी के हिन्दू बिल्डर ने फ्लैट बेचते समय उसकी जो विशोषताएं बतायी थीं उनमें से फुसफुसा कर बतायी गयी यह भी एक थी कि- हमने किसी मियां भाई को एक भी फ्लैट नहीं दिया। इस कालोनी के कई खरीददार तो इसी पर मुग्ध होकर फ्लैट बुक करवाये थे। इसमें सब हिन्दू हैं पर उसमान भाई बिना नागा सबको अखबार पढवा कर साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल कायम किये हुये हैं। हमारा देश महान है।
• ये सलीम भाई हैं जो कम्प्रैसर से हवा भरने का काम करते हैं अपने छह बच्चों को हवा खाने से बचाने के लिए ये हिन्दू मुसलमान सभी की कारों और बाइकों में हवा भर के साम्प्रदायिक सद्भाव की बयार चला रहे हैं, ये किसी से उसकी जाति और धर्म नहीं पूछते, और पूछने की जरूरत भी क्या है वो तो हाथों में कलावा बांध कर, माथे पर रंग लगा कर जाली दार टोपी पहिन कर, पगड़ी बांध बाल बढा कर या बकरे जैसी दाढी बढा कर अपने आराघ्य की कृपा का नारा वाहन पर मोटे मोटे अक्षरों में लिखवा कर वैसे भी प्रकट करता रहता है। ये बीस साल से इसी तरह हवा भरने और पंचर जोड़ने का साम्प्रदायिक सद्भाव का काम कर रहे हैं। हमारा देश महान है। उनके खुद के पास भी एक साइकिल है जो 'थी' की क्रिया लगाने के लिए पूरी तौर पर तैयार है। वह अब है और नहीं है जैसे दार्शनिक आधार बना सकती है
• मुसलमान दर्जी हमारे सूट सिल कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते हैं
• मुसलमान मैकेनिक हमारी मशीनें सुधार कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते हैं
• भारत रत्न विसमिल्ला खां भगवान विश्वनाथ के मंदिर के पीछे बैठ शहनाई बजा कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते थे और पीछे इसलिए बैठते थे क्योंकि उनका प्रवेश वर्जित था। हमारा देश महान है। भारत रत्न भारत में सब जगह नहीं जा सकता।
• मुसलमान रिक्शावाले हमें रिक्शों पर बैठा मंदिर पहुँचा कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते हैं
जब सरकार और उसके दूरर्दशन के पास साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाने के इतने टोटके हैं तो फिर पता नहीं कि ये साला फैल क्यों नहीं रहा! क्यों बार बार मिरज मेरठ मुंबई गुजरात इंदौर धार होता रहता है। वे चाहें तो किसी हिन्दू को रोजा रखवा सकते हैं और किसी मुसलमान से ब्रत रखवा कर साम्प्रदायिक सद्भाव मजबूत करा सकते हैं। रोजा अफ्तार की दावतें दे सकते हैं।
हाँ नहीं करा सकते तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू नहीं करा सकते। लागू हो गई तो वे मजदूरी की मजबूरी से निकल कर कुछ और भी कर सकेंगे पढ लिख सकेंगे।
पर तब दूरदर्शन साम्प्रदायिक सद्भाव मजबूत कैसे करेगा!
जय हो!
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शुक्रवार, सितंबर 10, 2010

व्यंग्य- मनमोहिनी राष्ट्रीय पर्व


व्यंग्य
मनमोहिनी राष्ट्रीय पर्व
वीरेन्द्र जैन
शेक्सपियर ने कहा था- आई डू नाट फालो इंगलिश, इंगलिश फालोस मी अर्थात मैं अंग्रेजी का अनुशरण नहीं करता अंग्रेजी मेरा अनुशरण करती है।
हिन्दी के साहित्यकार समझते हों या न समझते हों किंतु हमारे देश के नेता भाषा को ऐसी ही चेरी समझते हैं। आदरणीय अडवाणी जी डीसीएम टोयटा को रथ कहते हैं, तो संघ परिवार स्कूलों को मन्दिर का नाम देती है- सरस्वती शिशु मन्दिर- तय है कि मन्दिरों में कोई मस्जिद वाला तो जायेगा नहीं सो अपने आप ही बँटवारा हो गया। अब हमारे [कांग्रेस]जन प्रिय प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह जी भी कम थोड़े ही हैं सो वे कामन वैल्थ गेम्स को राष्ट्रीय पर्व कहते हैं तो क्या गलत कहते हैं, आखिरकार हैं तो वर्ल्ड बैंक के पूर्व कर्मचारी।
हमारे यहाँ तो छोटे से छोटा मजदूर भी पर्व त्योहार जरूर मनाता है भले ही उधार लेकर मनाये। वह और दिन पेट काट लेगा पर कहेगा- वा साब तेहार तो मनाना ही पड़ता है। छोटे आदमी का छोटा त्योहार सौ पचास रुपये में निबट जाता है पर वर्ल्ड बैंक वाले मनमोहनजी का राष्ट्रीय पर्व तो एक लाख करोड़ में ही मन पायेगा। आप ठीक से पढ रहे हैं न एक......लाख.....करोड़..। आशिक का जनाजा है जरा धूम से निकले। कंजूस चीन ने बीस हजार करोड़ में ओलम्पिक करा लिये थे पर हमारे यहाँ एक लाख करोड़ में कामन वैल्थ गेम्स हो रहे हैं जो उन देशों का समूह है जो कभी अंग्रेजों के गुलाम थे। यह ऐसा ही है जैसे कभी जेल में साथ रहे कैदी अपना सम्मेलन करें। ब्रिट्रेन ने भी बहुत उदारता दिखाते हुये अपने ओलम्पिक 72000 करोड़ में निबटा लिये थे जिनमें 11000 खिलाड़ियों ने भाग लिया था जबकि हमारे कामन वैल्थ गेम्स में तो कुल 72 देश और दो हजार खिलाड़ी ही भाग ले रहे हैं।
जब इसके मेडल बाँटे जायेंगे तो हमें खेल में भले ही मेडल न मिलें पर खेल की तैय्यारियों में किये गये भ्रष्टाचार के लिए जरूर ही सबसे ज्यादा मेडल मिलेंगें। कैसे कैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं हमारे कर्ता धर्ता कि एक एक आदमी तीन तीन नामों से लूट रहा था। पहलवान तो डोपिंग टेस्ट में फँस गये अब कौन कहाँ कहाँ फँसा है यह बाद में पता लगायेंगे। एक खेल होना चाहिए कामन वैल्थ तैयारी गेम जिसमें दिल्ली से पशु भगाओ प्रतियोगिता हो, भिखारी भगाओ प्रतियोगिता हो, झुग्गी बस्ती उजाड़ो प्रतियोगिता हो। इससे बिल्डरों को बहुत सुविधा होगी। उजड़ी झुग्गी दुबारा तो बनने नहीं देंगे। रहमान को इसका संगीत रचने के लिए छह करोड़ दिये गये हैं तो मोदी के बाइब्रेंट गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर अमिताभ बच्चन और समाजवादी पूर्व सांसद जया बच्चन की बहू ऐश्वर्या राय को प्रमोशन के लिए कई कई करोड़ दिये जायेंगे। राम नाम की लूट है लूट सके सो लूट अंत काल पछतायेगा जब पोस्ट जायेगी छूट। दनादन कंडोम ढाले जा रहे हैं, दुनिया भर से आने वाली काल गर्लों के लिए पलक पाँवड़े बिछाये जा रहे हैं, आखिर विदेशी मेहमान जो आने हैं। यह अलग बात है कि हम जनता को सड़ता हुआ गेंहूं भी मुफ्त नहीं दे सकते, पीने को साफ पानी नहीं दे सकते, निरक्षरों को साक्षर नहीं बना सकते सफाई स्वास्थ आदि की बातें तो जाने ही दीजिए। यह भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत की तरह हो रहा है जिसमें चीफ के स्वागत के लिए पूरे घर और घर वालों को सजाया संवारा जाता है पर बूढी माँ को घर की एक कोठरी में बन्द कर दिया जाता है, आखिर चीफ को कुछ भी असुन्दर नहीं दिखना चाहिए।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, सितंबर 05, 2010

व्यंग्य- कानून , जिसे हमने हाथ में नहीं लिया


कानून जिसे हमने हाथ में नहीं लिया
वीरेन्द्र जैन

छोटे बच्चों की आदत होती है कि वे आपकी जेब मैं से चश्मा पैन या मोबाइल निकाल कर अपने मुँह में खाने लगते हैं। आप गोद में लिये हुये प्यारे प्यारे बच्चे का दिल भी नहीं तोड़ना चाहते पर उसे न खाने वाली चीज को मुँह में भी नहीं रखने देना पसंद करते हैं इसलिए उस चीज को छुपा देते हैं और कहते हैं कि कहाँ है वो तो छू हो गयी। अपने खाली हाथ दिखाते हुये आप उसकी अल्प विकसित समझ को भ्रमित करते हैं और वह हतप्रभ सा देखता रहता है कि इनके हाथ से वह चीज आखिर चली कहाँ गयी। कुछ लोग 'बड़े बूढे बच्चों' के साथ भी ऐसा ही खेल करते रहते हैं। उनकी दोनों जांघें सटी रहती हैं जिससे घुटने कुछ कुछ मुड़ जाते हैं पर वे दोनों हाथ खाली हिलाते हुये देश को बहलाते हुए नजर आने वाली मुख मुद्रा में कहते हैं कि हमने कानून को हाथ में नहीं लिया है! हम तो कानून हाथ में लेते ही नहीं हैं! देखो मेरे दोनों ही हाथ खाली हैं।
ज्यादातर लोग समझ नहीं पाते कि जब कानून इन्होंने हाथ में नहीं लिया तो आखिर कहाँ चला गया पर फिर भी कुछ लोग तो समझ ही जाते हैं कि इन्होंने कानून को कहाँ पर दबा रखा है। ये हाथ तो हिला कर दिखा रहे हैं पर टांगें नहीं हिला सकते, कुर्सी से उठ नहीं सकते।
हमारे देश में यह एक मंत्र वाक्य सा हो गया है कि कानून को हाथ में मत लो। नहीं लेते साब! लेते भी कैसे! जिन्दगी भर तो नून तेल सब्जी के थैले और गैस का सिलिन्डर हाथ में लिए घूमते रहे तो कानून को हाथ में कैसे लेते! हम तो कहते थे कि जिसको लेना हो सो ले हम तो सड़ने से बचाने के लिए राशन की दुकान से सस्ता गेंहू लेने जा रहे हैं, तुम्हें लेना हो तो तुम भी चलो।
पहले एकाध बार मन भी हुआ कि कानून को हाथ में लेकर देखें पर उसी समय पत्नी ने बच्चे को गोद में डालते हुये कहा कि अगर रोटी खाना हो तो पहले बैठ कर इसे खिलाओ। सो देश के भविष्य को हाथों में लिए बैठे रहे। कानून को हाथ में लेने का रोमांच कभी नहीं जिया।
समय बदला दुनिया बदली और यहाँ तक बदली कि कभी नेताजी के नाम से सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर उभरती थी पर अब गिजगिजी जुगुप्सा पैदा होती है। जो नेता पाठय पुस्तकों में अपनी जीवनी सहित छपते थे अब वे अखबारों के मुखपृष्ठ की शोभा बढाते हैं क्योंकि किसी को हत्या के लिए फाँसी की सजा हो रही होती है तो किसी को आजन्म कारावास की। कोई सवाल पूछने के पैसे लेने के लिए दण्डित हो रहा होता है तो कोई सासंद निधि स्वीकृत करने के लिए। कोई कबूतर बाजी कर रहा होता है तो कोई हवाला में बाइज्जत बरी होकर रथ पर सवार हो रहा होता है। यही कारण है कि अब नेता नहीं कहते कि कानून हाथ में मत लो। अब तो वे कहते हैं कि देखो तो बेचारा कानून कैसी जगह पड़ा हुआ है इसलिए हे वीर पुत्रो उठो और शिव के धनुष की तरह उसे हाथों में उठा कर उसकी प्रत्यंचा चढा दो।
राज्यों में जो दल सरकार में हैं वे ही प्रदेश बन्द का आवाहन करते हैं। हमारे एक मुख्यमंत्री ने एक बार कहा था कि वीरांगनाओं उठो और राशन की कालाबाजारी करने वालों का मुँह काला कर दो। महिलाएँ कहती हैं कि यह काम आप क्यों नहीं करते! तो उनका उत्तर होता है कि हमें जरा उनसे चुनावी चन्दा लेना पड़ता है इसलिए यह काम हम नहीं कर सकते। महिलाएं कहतीं हैं कि ठीक है पर जब तक तुम ये हमारी चूढियाँ सम्हाल कर रख लो और चाहो तो पहिन भी लो। वे चूढियाँ पहिन कर लालबत्ती वाली एसी गाड़ी में बैठ कर केन्द्र सरकार से और आर्थिक मदद माँगने चले जाते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री और कर भी क्या कर सकते हैं!
दिल्ली की मुख्यमंत्री ने तो दलालों को पीटने का आवाहन कर दिया था पर जब लोगों ने पूछा कि आपकी पार्टी क्या कर रही है तो वे बोलीं गरमी इतनी पड़ रही है कि वे एक कैन्टीन चलाने वाले की गाड़ियाँ ले कर शिमला मसूरी गये हुये हैं। वैसे भी वे अहिंसक हैं और खुद भी चुनावों में पिटते रहते हैं इसलिए मारपीट उनका काम नहीं है। ये काम तो जनता को करना चाहिये, रही कानून की बात सो कानून अपना काम करेगा उससे डरना नहीं चाहिये।
केन्द्र के कृषिमंत्री ने अपने कानूनमंत्री से बिना सलाह लिए किसानों को सलाह दे डाली कि वे गाँव के प्राइवेट सूदखोरों का उधार न चुंकायें।
असल में बन्दे मातृम गाने और सूर्यप्रणाम के बाद जैसे ही हम भारत माता के श्री चरणों में अपना सिर झुकाते हैं वैसे ही हमारा ध्यान बंटने के दौर में सिर पर रखा कानून कहाँ गायब हो जाता है पता ही नहीं चलता। हम केवल उनके हाथ देखते रह जाते हैं कि वे तो खाली हैं और कानून उनके हाथों में दिख तो नहीं रहा है।
कोई नहीं कह रहा कि उसने कानून हाथों में लिया हुआ है, पर आखिर वो गया कहाँ? जनता द्वापर युग की गोपियों की तरह पूछती फिर रही है कि- कौन गली गया कानून ?
या पूछती है- कानून तू कहाँ है, दुनिया मिरी जवाँ है।
शम्मी कपूर का जमाना होता तो गाया जाता- कानून मिरा आज खो गया हैं कहीं, आप के पाँव के नीचे तो नहीं!
लैला मजनू की शैली में कहा जाता- कानून कानून पुकारूं में वन में, मोरा कानून बसा मोरे मन में।
कहाँ छुप गया है तू कठोर, देख तिरे चाहने वाले दर दर भटक रहे हैं
अखबारों में विज्ञापन छपवाया जाता प्रिय कानून तुम जहाँ कहीं भी हो फौरन घर चले आओ, तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी मम्मी की तबियत बहुत खराब हो गयी है। घर पर कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। जो लोग भी कानून को देखें वे उसे हमारे घर तक पहुँचाने में मदद करें, उन्हें उचित इनाम दिया जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, अगस्त 21, 2010

व्यंग्य- पाकिस्तान में बाढ़


व्यंग्य
पाकिस्तान में बाढ
वीरेन्द्र जैन
“पाकिस्तान में बाढ आयी है और हमारे नेता परेशान हैं” राम भरोसे कुछ खीझ कर बोला।
“मानवीयता के नाते यह स्वाभाविक है” मेरी प्रतिक्रिया थी।
इसे सुनकर राम भरोसे कुटिलितापूर्वक मुस्कराया और बोला- इस सरकार के नेता, जो कहते हैं कि गेंहूं सड़ा देंगे पर गरीबों में नहीं बाँटेंगे, और मानवीयता?
“तो फिर?” मैने उसका मन टटोलना चाहा।
“उनमें से कई सोच रहे होंगे कि कामन वैल्थ गेम्स की तरह वहाँ से भी बाढ राहत का चेक देने पर दस परसेंट कमीशन मिल जायेगा जैसा अपने यहाँ से मिलता है”
“पर उन्होंने तो लेने से मना कर दिया था”
“उनके राष्ट्रपति खुद ही मिस्टर दस परसेंट के नाम से जाने जाते हैं और ऐसा ही क्रम चलता तो अंत में प्रार्थना ही बचती सो उन्होंने सोचा होगा कि प्रार्थना के लिए फालतू का अहसान क्यों लिया जाये”
“सुना है इसके लिए भी अमेरिका से सिफारिश लगवाना पड़ी है”
“अब इस महाद्वीप में अमेरिका की सिफारिश के बिना कुछ भी नहीं हो पाता, पाकिस्तान के प्रधान मंत्री की पत्नी पूछती होगी कि आज लंच के लिए चिकिन बिरयानी बनवा लें तो वे उत्तर देते होंगे हमसे क्या पूछती हो अमेरिका से पूछ लो, वे कह दें तो बनवा लेना। इसी तरह भारत की ओर से पचास लाख डालर की सहायता के लिये जब अमेरिका ने हाँ कह दी तभी उन्होंने स्वीकारी। हमारे नेता कहते हैं कि गेंहूं सड़ा देंगे पर गरीबों को नहीं देंगे और वहाँ के नेता कहते हैं कि चाहे बाढ पीढित मर जायें पर भारत की सहायता नहीं लेने देंगे। निदा फाजली ने कहा है न-
खूंखार दरिन्दों के फकत नाम अलग हैं
इंसान में शैतान यहाँ भी है वहाँ भी “
“पर डर है कि अगर बाढ पीढितों को सहायता नहीं मिली तो वे चालीस लाख लोग तालिबानों के प्रभाव में आ जायेंगे” “पता नहीं यह उनका डर है या अमेरिका को डराने का तरीका है। अभी जितने लोग तालिबानों के प्रभाव में आ गये हैं वे क्या बाढ पीढित हैं या अमेरिका पीढित!”
“पर हमारे यहाँ के नेता क्यों परेशान है?”
“इसलिए, क्योंकि बाढ हमारे यहाँ नहीं आयी और सूखे के न आने की भी भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं! बेचारे! सूखी तनखा पर गुजर करेंगे “

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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रविवार, अगस्त 15, 2010

सरकार का जुआ और कामन वैल्थ गेम्स


व्यंग्य
सरकार का जुआ और कामन वैल्थ गेम्स
वीरेन्द्र जैन
ममताजी उस प्रधानमंत्री की केबिनेट की सदस्य हैं जो माओवादियों को सबसे बड़ा खतरा बताते नहीं थकते। दूसरी ओर वे माओवादियों के साथ भी रैली करती हैं और उनके नेता की मौत को सरकारी हत्या बताते हुए निन्दा करती हैं।
पत्रकार ने ममताजी से पूछा कि आप यह सब कैसे कर लेती हैं तो वे बोलीं – “इसमें नया क्या है, हम तो तब से खतरों के खिलाड़ी हैं जब हम खेल मंत्री हुआ करते थे। तुम अभी नये हो और तुमको पता नहीं कि हम तो नरसिंह राव मंत्रिमण्डल में खेल मंत्री भी रहे है और हमने कलकत्ता के ब्रिग्रेड परेड ग्राउंड में अपनी सरकार के ही खिलाफ रैली करने की इजाजत मांगी थी क्योंकि हमारी सरकार खुल कर नहीं खेलने दे रही थी। बाद में नरसिंह राव ने मुझे मंत्रिमण्डल से बाहर निकाल दिया था। हम तो जो कुछ भी करते हैं अपने वालों के खिलाफ ही करते हैं।“ ममताजी गलत भी नहीं हैं। वे उस छोटे से बच्चे की तरह हैं जो अपनी ही माँ की गोद में लेटा हुआ उसके मुँह की तरफ लातें चलाता रहता है। न गोद से उतरता है और न ही लातें चलाना बन्द करता है। कांग्रेस में रहते हुये साफ कांग्रेस की माँग उठाते उठाते उन्होंने बंगाल से कांग्रेस को ही साफ कर दिया। एक बार कलकत्ता के अलीपुर में भाषण देते देते उन्होंने एक शाल अपने गले में लपेट लिया और उसकी गाँठ लगाने का खेल दिखा कर आत्महत्या-आत्महत्या खेलने लगीं। 1996 में जब उनकी पार्टी सरकार का हिस्सा थी, तब भी वे पेट्रोल कीमतों में वृद्धि के खिलाफ सदन के गर्भ गृह में उतर गयीं, और उस समय के समाजवादी पार्टी के हनुमान अमर सिंह की कालर पकड़ ली थी। खेल खेल में सब चलता है।
खेल खेलने में उन्होंने तत्कालीन रेल मंत्री राम विलास पासवान को भी नहीं छोड़ा और जिस दिन उन्होंने रेल बजट प्रस्तुत किया था तो उन्होंने अपना शाल उनके मुँह पर यह कहते हुए दे मारा था कि उन्होंने बजट में बंगाल की उपेक्षा की थी। इसके साथ ही उन्होंने खेल खेल में अपना स्तीफा भी दे दिया था। उस समय के रेफरी पी ए संगमा ने उनका स्तीफा स्वीकार नहीं किया था और संतोष मोहन देव ने मध्यस्थता करके खेल खेल में उनसे स्तीफा वापिस करवा दिया था। 1998 में एक बार फिर जब महिला आरक्षण बिल पर चर्चा हो रही थी और समाजवादी पार्टी गर्भ गृह में नारे लगा रही थी तब ममता बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के सांसद दरोगा प्रसाद सरोज का कालर पकड़ कर घसीटते हुए उन्हें गर्भ गृह से बाहर खींच लिया था।
इसी खेल खेल में 1999 में वे अटल बिहारी वाजपेयी वाली एनडीए सरकार में सम्मलित हो गयीं और किसी बच्चे की तरह खिलोने की तरह रेल [मंत्रालय] लेने की जिद कर बैठीं जिसे अल्पमत सरकार को पूरा करना पड़ा। यहाँ भी उन्होंने खेल खेलना नहीं छोड़ा और 2001 में एनडीए सरकार पर आरोप लगाती हुयी केबिनिट के बैठक से बाहर निकल आयीं। बाहर आकर उन्होंने सोनिया गान्धी के नेतृत्व वाली कांग्रेस से समझौता कर लिया क्योंकि बंगाल में चुनाव आने वाले थे और वहाँ भाजपा का कोई समर्थन नहीं था। इस चुनाव में हार जाने के बाद 2004 में वे फिर से अटल बिहारी मंत्रिमण्डल में सम्मलित हो गयीं और कोयला और खनिज मंत्रालय को सुशोभित किया। इसी साल हुये शाइनिंग इंडिया की चमक के चुनाव में अपनी पार्टी से वे अकेली ही चुनाव जीत सकीं। वैसे तो वे सब कुछ खेल खेल में करती हैं पर चुनावों को खेल भावना से नहीं लेतीं और हार जाने के बाद हमेशा आरोप लगाती हैं कि चुनावों में रिगिंग ही नहीं वैज्ञानिक रिगिंग हुयी। बहरहाल जीत जाने के बाद चुनाव ठीक हुये होते हैं। फिर कभी वे नन्दीग्राम को खेल का मैदान बना देती हैं तो कभी सिंगूर को, तो कभी लालगढ को।
ममताजी पैसे का खेल नहीं खेलतीं। यह खेल उनके दूसरे साथी खेलते हैं और उनके खेल में मदद करते हैं। अब वे बारूद के खेल में शामिल हो रही हैं और गा रही हैं मेरी मर्जी.........। असल में ममताजी के तरह तरह के खेलों के होते हुए कामन वेल्थ गेम कराने की जरूरत नहीं थी पर अगर उन्हें नहीं कराते तो करोड़ों, अरबों रुपयों का खेल कैसे हो पाता ! खेल की भावना इतनी प्रबल है कि सरकार देश से जुआ खेल रही है।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

बुधवार, अगस्त 11, 2010

व्यंग्य - प्रेरणा की प्रेरणा

व्यंग्य
प्रेरणा की प्रेरणा
वीरेन्द्र जैन
वो तो अच्छा है कि लोग बाग आज के सत्तारूढ़ नेताओं की सलाहों पर ध्यान नही देते हैं बरना बेचारे बारहों महीने प्रेरणा लेते लेते परेशान हो जाते। सुबह से चाहे टीवी ख़ोलो या अखबार पढ़ो, उसमें कोई राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या जम्बो जैट मंत्रिमण्डल के दीगर मंत्री कहीं न कहीं कहते मिल जायेंगे कि देश की जनता को फलां फलां के जीवन से प्रेरणा लेना चाहिए। इन नेताओं की बात मानकर यदि कोई नागरिक प्रेरणा लेना शुरू कर दे तो बेचारा सब्जी लेने कब जायेगा। छत्तीस करोड़ देवता और दीगर महापुरूषों के इस देश में पॉच वक्त की नमाज की तरह पॉच वक्त प्रेरणा लेना भी शुरू कर दे तब भी प्रेरणा देने वाले कम नही पड़ेंगे पर आदमी के पास समय कम पड़ जायेगा।
सुबह सुबह प्रेरणा लेने के लिए निकले आदमी को देखकर चबूतरे पर स्थायी स्तंभ की तरह जमें बूढे आादमी- औरतें टोके बिना थोडे ही मानेंगे और पूछ ही लेंगे
- काय भईया सबेरें सबेरें कितै चले ?
- कउं नईं बाई, आज राणा प्रताप जयंती है सौ सोची कि नैक उनके जीवन से प्रेरणा लै आयें।
- हऔ भईया ऐन लैं आओ, नैकाद हमाये लानें भी लेत अईयों।
कस्बे में यह सबसे बुरी बीमारी पायी जाती है कि मुहल्ले के लोग टोके बिना नहीं मानते। । आप अकेले कुछ नही कर सकते मिलने जुलने वाले आपकी हर चीज में शमिल होना चाहते हैं। यदि आप उनसे यह भी कह दें कि हम तो प्रेम करने जा रहें हैं तो वे उसमें भी जोड़ देंगे कि थोड़ा हमारी ओर से भी कर लेना। शहरों में ऐसा नही है। एक तो आपका पड़ोसी भी आपको ठीक से नहीं पहचानता और पहचानता भी हो तथा उससे आप कहें कि मैं तो मरने जा रहा हूँ तो वो कहेगा - औ क़े बैस्ट ऑफ लक- और स्कूटर स्टार्ट करके फुर्र से उड़ जायेगा।
नेता सुबह गांधी के जीवन से प्रेरणा लेने की सलाह देता है तो शाम को सुभाष चन्द्र बोस के जीवन से प्रेरणा लेने की सलाह देता है। गणेश शंकर विद्यार्थी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी दोनो से ही प्रेरणा लेने की सलाह एक साथ दी जा सकती है। गांधी के ठीक सामने सावरकर का चित्र लटकवाया जा सकता है और दोनों से ही एक साथ प्रेरणा लेने की प्रेरणा दी जा सकती है। सरकारी कार्यालयों और स्कूलों में महापुरूषों की जयन्तियों व पुण्यतिथियों के दिन इसीलिए तो छट्टी रखी जाती है कि कर्मचारी और विद्यार्थी जिन्हें आम तौर पर कम समय मिलता है वे महापुरूषों से प्रेरणा ले सकें। यदि सरकार छुट्टियों में कटौती करेगी तो महापुरूषों से प्रेरणा लेने वालों की संख्या में कमी आयेगी। प्रेरणा के उचित आदान प्रदान के लिए छुट्टी बहुत अनिवार्य होती है। लोग सोचने लगते हैं कि ऐसे आदमी से क्या प्रेरणा लेना जो अपने जन्म दिन पर छुट्टी भी घोषित नही करवा सकता। जिस दिन छुट्टी होती है उस दिन आदमी भरपूर नींद लेता है, भारी नाश्ता लेता है और फिर तीसरी चाय लेकर प्रेरणा लेने निकल पड़ता है । बाहर गुप्ता जी पौधों में पानी दे रहे होते है वह पूछता है - चल रहे हो गुप्ता जी ?
' कहॉ ? गुप्ता जी पूछते हैं।
'वही, प्रेरणा लेने, और कहॉ!'
'अब, अरे हम तो सबेरे से ही ले आये- दूध लेने गये थे सो सोचा प्रेरणा भी लेते चलें फिर, बाद में कौन आयेगा। ग्यारह बजे ठेकेदार से अपना हिस्सा लेने जाना है। तुम्हें बहुत लगती है और तुम्हारे पास टैम है सो लेते रहो प्रेरणा। हम तो थोड़ी सी प्रेरणा में ही काम चला लेते हैं।
जिस समय यह कहावत बनी थी कि - पंडित, वैध्य मशालची, इनकी उल्टी रीत, औरन गैल बताय कैं, आपहु नाकें भीत - उस समय तक नेता नामक प्राणी ने अवतार नहीं लिया होगा, वरना उसका भी नाम इसमें जुड़ा होता। नेता प्रतिदिन कहता रहता है कि इससे प्रेरणा लो, उससे प्रेरणा लो, पर खुद कभी प्रेरणा नही लेता । वो अगर प्रेरणा लेने लगे तो फिर रिशवत कौन लेगा, संविधान की झूठी शपथ कौन लेगा, डालरों में चन्दा कौन लेगा, इसलिए प्रेरणा लेने का काम जनता पर छोड़ दिया है कि लेते रहो प्रेरणा। .....वाह सुनील बाबू बढ़िया है।
प्रेरणा लेकर घर लोटे पति के सामने बाल्टी पटक कर पत्नी कहती है- ले आये प्रेरणा- अब हैण्डपम्प से दो बाल्टी पानी ले आओ! नल न आये हुए आज तीसरा दिन है। बिना पानी के प्रेरणा कैसे चाटोगे! उसकी दृष्टि में प्रेरणा लाने की तुलना में पानी लाना ज्यादा जरूरी है। बच्चे पूछते हैं कि हमारी किताबें लाये? मॉ पूछती है कि हमारी दवाई लाये ? इन सब जरूरतों की कमी इस नेता द्वारा दिलाई जा रही प्रेरणा से पूरी नहीं होती है।
कोई ऐसी प्रेरणा नही दिलाता जिससे आदमी के रोटी कपड़ा और मकान की जरूरतें पूरी होने लगें।
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-- वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र फोन 9425674629

सोमवार, अगस्त 02, 2010

व्यंग्य- उपयोगितानुसार वापिसी

व्यंग्य
उपयोगितानुसार वापिसी
वीरेन्द्र जैन
राम भरोसे आज मूड में था। मेरे पूछने से पहले ही बोल उठा- आज एक मनोरोग चकित्सिक के पास एक स्वस्थ नौजवान आया और मरीजों वाले स्टूल पर बैठ गया। डाक्टर ने बहुत ही नम्रता से पूछा कि किसे दिखाना है तो वह बोला कि खुद को। डाक्टर के यह पूछने पर कि क्या शिकायत है वह बोला
“डाक्साब शिकायत यह है कि मुझे जूते की तुलना में चप्पलें ज्यादा पसन्द हैं।“ डाक्टर ने उसे नीचे से ऊपर तक गौर से देखा तो पाया कि वह बेहद सभ्य और शालीन नजर आ रहा था व उसने करीने से कपड़े पहिन रखे थे, उन्हें उसमें कोई भी असामान्य चीज नहीं दिखाई दी तो वे बोले- इसमें परेशानी की क्या बात है, मुझे भी जूते की तुलना में चप्पलें ज्यादा पसन्द हैं।“
“वो तो ठीक है डाक्साब, पर आप उन्हें भून कर खाना पसन्द करते होंगे और मैं उबाल कर खाना।“ अब डाक्टर कभी उस की तरफ देख रहा था और कभी मेरी तरफ।
इतना कह कर राम भरोसे हो हो हो कह कर हँस दिया। मैंने कहा राम भरोसे ये पुराना लतीफा है
राम भरोसे गम्भीर होते हुये बोला होगा, पर सन्दर्भ नया है।
“कैसे?” मुझे उत्सुकता जगी।
“अरे भाई तुमने एम जी वैद्य का वह बयान नहीं पढा जिसमें उन्होंने कहा है कि जसवंत सिंह की तुलना में उमा भारती ज्यादा उपयोगी थीं, पर उन्हें पुनर्प्रवेश देने की जगह जसवंत सिंह को पुनर्प्रवेश दे दिया गया। बकौल शायर- रहा न दिल में वो बेदर्द, और दर्द रहा
मकीम कौन हुआ है, मकाम किसका था”
“तो इसमें गलत ही क्या है यह उपयोगितावाद का ही युग है- यूज एंड थ्रो। भाजपा में लोगों का महत्व उपयोगिता से ही है न कि उनके त्याग, तपस्या, बलिदान, समर्पण, और सिद्धांतवादिता से। हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, वाणी त्रिपाठी, शत्रुघ्न सिंन्हा, विनोद खन्ना, दारा सिंह, अरविन्द त्रिवेदी, दीपिका चिखलिया, नवजोत सिंह सिद्धू, चेतन चौहान, मनेका गान्धी, वरुण गान्धी, वसुन्धरा राजे, यशोधरा राजे, सब उपयोगी वस्तु की तरह ही आयात किये जाते हैं।
चुनाव जिताने के लिए उपयोगी होने तक धर्मेन्द्र को उम्मीदवार बना दिया, बाद में उन्हें कहना पड़ा कि भाजपा ने मुझे इमोशनली ब्लेकमेल किया। अब जब भाजपा अध्यक्ष खुद ही धर्मेन्द्र के डायलोग बोलने लगे हैं तो धर्मेन्द्र की क्या जरूरत!अब तो कुत्ते का खून पी जाने वाले और भी हैं काके। गोबिन्दाचार्य तो जिन्दगी भर भाजपा के टेंक होने का भ्रम पाले रहे किंतु उपयोगिता घटते ही उन्हें नाली के पानी की तरह बाहर का रास्ता दिखा गया। लम्बे समय तक वे समझते रहे कि वे भाजपा को रास्ता दिखाते हैं किंतु अब स्वयं रोड मैप पूछते नजर आ रहे हैं, कौन से रस्ते से आऊँ, खिड़की से, दरवाजे से, रोशनदान से, या छत से। बता दे कोई कौन गली गये श्याम – रोड मैप का पुराना प्रश्न।“ सर्व श्रेष्ठ सांसद का सम्मान पाने वाले जसवंत सिंह की तुलना में उमा भारती की उपयोगिता सचमुच ही अब ज्यादा होना चाहिए बरना विवादित स्थलों पर मस्जिद गिराने की खुशी में मुरली मनोहर जोशी के कंधों पर कौन सवार होगा! विवादित ईदगाह मैदान पर तिरंगा फहराने के बहाने साम्प्रदायिकता की भूमि कौन तैयार करेगा! किसी लिब्राहन आयोग के आगे गवाही के लिए बुलाये जाने पर कौन सब कुछ भूल जायेगा और कहेगा कि मुझे कुछ भी याद नहीं है कि उस दिन क्या हुआ था!
याद नहीं अब कुछ,
भूल गयी सब कुछ
बस ये ही बात न भूली, जूली........ नहीं नहीं कुर्सी.......।
आज नेताओं के मुँह से जो गालियाँ निकल रही हैं उसकी शुरुआत तो उमा जी बरसों पहले कर चुकी थीं जब उन्होंने अपने विरोधी दल के मुख्यमंत्री से हेलीकाप्टर माँगते हुये अपने सन्देह में घिरे साथी से कहा था कि वे देंगे कैसे नहीं, हेलीकोप्टर क्या उनके बाप का है! चुनावी भाषणों में वे कहती रही हैं कि इस दिग्विजय सिंह को तो सड़क के गड्ढों में पटक पटक कर बिजली का करंट लगाना चाहिए। सच कह रहे हैं वैद्य साब कि उनकी उपयोगिता अब जसवंत सिंह से ज्यादा है, अब जब तक सरकार नहीं है तो कौन सा आतंकवादियों को कन्धार छोड़ने जाना है। अरे अगर भविष्य में सोनिया गान्धी प्रधान मंत्री चुनी जाती हैं, तो सिर मुढा कर, चने खाकर, जमीन में सोने की धमकी क्या जसवंत सिंह देंगे!
उमाजी ही क्यों हमारे वैद्य साब तो संजय जोशी को भी वापिस लेने के लिए उतावले हैं जबकि देश की जनता को यह भी नहीं पता कि उन्हें कब पार्टी से बाहर कर दिया गया था और अगर कर दिया गया था तो मध्य प्रदेश पुलिस से क्लीन चिट प्राप्त इस नेता को किस आरोप में बाहर किया गया था ये तो बता ही देते।
इसलिए भैय्या राम भरोसे ये उनकी समस्या है कि वे जूते से चप्पल को ज्यादा पसन्द करें और भूनने के बजाय उबाल कर खाने को बेहतर समझें। और कहें- मेरी मर्जी।

रविवार, जुलाई 18, 2010

लघुकथा -नाक और गरदन कटिंग बनाम आनर किलिंग


लघु कथा [व्यंग्य]
नाक और गरदन कटिंग बनाम आनर किलिंग
वीरेन्द्र जैन
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”मैं उन दोनों को मार डालूंगा” वे गुस्से में भरे हुये थे। ”
क्या बात हो गयी किस को मार डालोगे?” मैंने पूछा
”अपनी बेटी और उस हरामी की औलाद जिससे उसने शादी कर ली है” उन्होंने गुस्से में फनफनाते हुए कहा। गुस्से के मारे उनके मुँह से झाग निकल रहे थे, आँखें फटी पड़ रही थीं। वे दुर्वासा के साक्षात रूप बने हुए थे, पर उनमें श्राप देने की क्षमता नहीं थी इसलिए सीधे सजा देने पर उतर आये थे। किसी जमाने के कथा कहानी में ये बीच का रास्ता हुआ करता था जो अब खतम हो गया है।
” अरे भाई दोनों ही पढे लिखे हैं, दोनों ही नौकरी करते हैं, हमउम्र हैं, एक दूसरे को पसन्द करते हैं, और फिर तुम्हारी ही जाति के हैं इस पर तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि दहेज भी नहीं देना पड़ा और हर तरह से योग्य दामाद भी घर बैठे मिल गया। दावत देने वाली बात पर तुम उन्हें सजा दे रहे हो।“
” पर दोनों का गोत्र तो एक ही है”
”होगा यार अपने हिन्दुओं को छोड़ कर और कौन गोत्र की चिंता करता है, पर उनकी शादियाँ भी सफल होती हैं और उनका औसत स्वास्थ भी अपने औसत स्वास्थ से अच्छा ही रहता है ”
” पर ये जो अपने समाज में मेरी नाक कट रही है सो.........?” उन्होंने आखिरी शब्द पर अतिरिक्त जोर देकर कहा।
” तो अपनी नाक के लिए तुम उनकी गरदन काट दोगे, अपनी बेटी दामाद की जान ले लोगे! और फिर ये गैर कानूनी भी है, कहाँ तक भागोगे, अंततः पुलिस की गिरफ्त में आओगे, हथकड़ियाँ पहिन कर अदालत में जाओगे, अपनी बेटी दामाद के हत्यारे कहलाओगे तो क्या तुम्हारी नाक नहीं कटेगी”
” हाँ.................... नहीं कटेगी, हत्या करने पर समाज में नाक नहीं कटती पर गोत्र में शादी करने पर कटती है” वे गुस्से में बोले।

वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, जुलाई 12, 2010

व्यंग्य- असली साहित्य सेवी


व्यंग्य
असली साहित्य सेवी
वीरेन्द्र जैन

हे हिन्दी के साहित्यकारो, तुम कहाँ हो! कौन सी दुनिया में मस्त हो! तुम्हे पता भी है कि तुम्हारी दुनिया में क्या चल रहा है। अरे इतना मस्त तो इन्द्र भी नहीं रहता था जिसके पास जगत की श्रेष्ठ नृत्यांगनाएं थीं । उसने भी तकनीक का सहारा लेकर ऐसा सिस्टम बना रखा था कि जब भी कोई तपस्या आदि में जी जान से ऐसा जुट जाता था जैसे कि मध्य प्रदेश के मंत्री पैसा लूटने में जुटे हुये हैं, तो उसका आसन डोलने लगता था और वह उनकी तपस्या भंग करने के लिए दस पाँच ठौ मेनका रम्भाएं मृत्युलोक में टपका देता था जिससे कि ऋषि मुनि सारी तपस्या भूल जाते थे। पर तुम्हारा खोयापन तो ऐसा लगता है जैसा कि किसी शायर ने कहा है-
खोये हुये से बैठे तिरी बज्म में हमें
ये भी नहीं है याद कि क्या भूल गये हैं
क्या तुम किसी सेमिनार में भाड़ झौंक रहे हो या किसी पुरस्कार की जुगाड़ में लगे हुये हो या अपने किताबें कोर्स में ठुसवाने के प्रयास में हो और इधर तुम्हारी दुनिया पर दूसरे कब्जा करते जा रहे हैं। एक दिन ऐसा भी आ जायेगा जब तुम्हारे हाथ में प्रदेश के दलितों की तरह केवल पट्टा रह जायेगा और कब्जा फिसल जायेगा।
अगर अब भी नहीं समझे तो समझ जाओ कि देश की इकलौती सांस्कृतिक संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अब साहित्य पर उतर आयी है और उसने भाजपा में अध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर ऐसा साहित्य प्रेमी थोपा है जो हिन्दी की बिन्दी लगा कर भाषा और साहित्य की अनूठी सेवा कर रहा है। उसकी वाइफ तक भाषा की विदुषी है [ बड़े लोगों की पत्नी नहीं होती वाइफ होती है] और जब हिन्दी भाषी प्रदेश के विद्वान सेवकों ने इन्दौर में उसके फाइव स्टार टेंट के बाहर नितिन गडकरी की जगह नितीन लिखवा दिया था तो उसकी वाइफ़ ने बोला था कि ओह गाड! इन्हें शुद्ध भाषा भी नहीं आती।
पिछले दिनों इन्हीं अध्यक्ष महोदय ने लालू प्रसाद और मुलायम सिंह को सोनिया के तलुवे चाटने वाला कुत्ता बतलाया था। जब उनसे पूछा गया तो उनका उत्तर था कि उन्होंने तो मुहावरे में कुत्ता कहा था। यह बतलाता है कि उन्हें व्याकरण का कितना अच्छा ज्ञान है और ये हिन्दी भाषी प्रदेश के लोग मुहावरे भी नहीं जानते। इसके बाद लालू प्रसाद यादव के राम कृपाल ने गडकरी को छछूंदर कह दिया तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी क्योंकि वे विद्वान जानते थे कि छछूंदर के सिर में चमेली का तेल भी एक मुहावरा है।
जब इन्हीं भाषा विज्ञानी गडकरी ने अफजल को कांग्रेस का दामाद बताया और मूर्खों को दामाद शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुये कहा कि दामाद उसे कहते हैं जिसे अपनी बेटी दी जाती है सो कांग्रेस से सवाल किया कि क्या उन्होंने अफजल को अपनी बेटी दी हुयी है? जब इस पर नासमझ कांग्रेसियों ने अपने पिंजरे में बँधे बँधे फूँ फाँ की तो राजीव प्रताप रूडी ने कालिदास काल के पंडितों की तरह विद्योतमाओं को अर्थ बताते हुये कहा कि यह कांग्रेस की रचनात्मक आलोचना है इसलिए माफी माँगने का कोई सवाल ही नहीं। अब हिन्दी के साहित्यकारों को सीखना चाहिए कि रचना क्या होती है, आलोचना क्या होती है और रचनात्मक आलोचना किसे कहते हैं।
इधर मध्य प्रदेश में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव भाजापा के प्रदेश अध्यक्ष को समझा रहे हैं कि औकात का अर्थ हिन्दी में क्षमता और अंग्रेजी में कैपिसिटी होता है। हालांकि उन्होंने शब्दार्थ तो बता ही दिया साथ ही उदाहरण देकर उनकी औकात भी बता दी कि इसी प्रदेश में एक पत्रकार के रूप में अर्जुन सिंह से अपने निजी काम कराने के लिए किस तरह गिड़गिड़ाते थे।
राजनीति में जहाँ देखो वहाँ भाषा व्याकरण और साहित्य चल रहा है किंतु हिन्दी के साहित्य सेवी शायद आगामी चौदह सितम्बर तक के लिये सोये हुये हैं जब वे हिन्दी सेवा के लिए इस या उस सरकारी संस्था से धैर्य धन्य नत मस्तक हो शाल ओढ कर शालीन होंगे, और अगले साल तक बने रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

व्यंग्य- जार्ज जया और जे डी [यू]


व्यंग्य
जार्ज, जया और जे डी [यू]
वीरेन्द्र जैन
पता नहीं अब लिखा रहता है या नहीं पर पहले बसों में लिखा रहता था कि अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें बस वालों की कोई ज़िम्मेवारी नहीं होगी। जो अपना सामान दूसरों के यहाँ छोड़ कर चले आते हैं उनके साथ यही होता है। जेडी[यू] की जया जैटली के साथ भी यही हो रहा है, उनका सामान जार्ज के घर में रखा है और लैला उस थैला को उठाने के लिए उन्हें घर में नहीं घुसने दे रहीं हैं।
जब तक लैला अपना सामान खुला छोड़े हुये थीं तब तक उनके सामान के साथ भी यही हो रहा था, पर भला हो चुनाव आयोग का कि उसने चुनाव लड़ने के लिये अपने सामान की सूची घोषित करना जरूरी कर दिया और जिससे लैला को पता चला कि जिसे वे मामूली सामान समझ रही थीं वह तो बहुत मूल्यवान है और उस पर कानूनी हक उनका है। जार्ज के मुड़े तुड़े बिना प्रेस के कपड़े और हवा में उड़ते बालों वाले समाजवादी के पास पन्द्रह करोड़ की दौलत का पता होता तो लैला क्यों अपना घर ऐसा खुला छोड़तीं कि कोई भी आकर अपना सामान वहाँ रख जाये। अब जब गलती समझ में आ गयी तो सुधार ली। भूल करना तो मानव का स्वभाव है और उसे ठीक करना समझदारी। सामान सम्पत्ति के मामले में असली चीज होती है कब्जा। मायावती समझदार थीं कि उन्होंने कब्जा बनाये रखा सो कानूनी हकदार भी अपना सामान नहीं ले जा सके। याद रखने वालों को याद होगा कि जब एमजी रामचन्द्रन की शव यात्रा के समय जय ललिता उनके शव वाहन पर बैठ कर जाने लगीं थीं तो राम चन्द्रन के भांजे ने उनके साथ कैसा दुर्व्यवहार किया था। उस समय उन्होंने जय ललिता को कब्जा नहीं लेने दिया था पर बाद में जयललिता ने पूरे तामिलनाडु पर कब्जा कर के दिखा दिया था। रामा राव के दामाद चन्द्रबाबू नायडू और उनकी सौतेली सास के साथ भी कुर्सी के लिए कुछ कुछ ऐसा ही हुआ था। इन्दिरा गान्धी और मनेका गान्धी को संजय गान्धी की सम्पत्ति के लिए अदालत के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ी थी। जब भाजपा सांसद के एल शर्मा का देहांत हुआ था तब भी उनकी एक महिला मित्र ने उनके घर में रखी एक अलमारी पर अपना दावा किया था जबकि भाजपा नेतृत्व का कहना था कि अलमारी किसी की हो पर पैसा पार्टी का है, और वह महिला दिवंगत के साथ अपनी मित्रता रही होने का गलत फायदा उठा रही है। लैला के इस व्यवहार के बाद देश की सभी लैलाओं को सावधान हो जाना चाहिए और अपने अपने सामानों को अपने अपने घरों में सुरक्षित रखते हुये भर को खुला न छोड़ें। भला यह भी कोई बात हुयी कि किसी के घर में किसी की अलमारी रखी हुयी हो। अरे भाई दुनिया में स्विजरलेंड भी एक जगह है जहाँ के बैंकों में हिन्दुस्तानियों के खाते खुलने की सुविधाएं हैं सो लाकर भी होंगे जिसे भी रखना हो वह अपना सामान वहाँ रखे। हमारे देश के जिन समझदार लोगों ने वहाँ 1456 अरब डालर रखे हैं उनसे सीख क्यों नहीं लेते। कम से कम इस मामले में तो हम सारी दुनिया से आगे हैं क्योंकि दूसरे किसी देश के लोगों ने अपने सामान इस तरह से सुरक्षित नहीं रखे हैं।

वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जुलाई 01, 2010

व्यंग्य -------जाने कब


व्यंग्य
जाने कब!
वीरेन्द्र जैन
आज से बहुत पहले मौत और ग्राहक का कोई ठिकाना नहीं होता था कि वह जाने कब आ जाये। आज जाने कब आ जाने वाली इस इस सूची में वृद्धि होती जा रही है ।
पहले बरसात समय से होती थी, जून के महीने से ही पुराने अन्डरवियर बनियानें और जूते आदि धो पौंछ कर रख लिए जाते थे ताकि बाहर से निचुड़ते हुये लौट कर बदल लिए जायें क्योंकि सुबह वाले तो दो दिन में सूखने वाले होते थे। आज कल तो बरसात कभी भी किसी भी महीने में हो सकती है और ज्यादातर तो प्रतीक्षा ही रहती है कि जाने कब होगी।
बरसात की तो छोड़ दीजिए, नल का कोई ठिकाना नहीं रहता कि कब आ जायें! सुबह, शाम, दोपहर, देर रात, कभी भी नल आ सकते हैं, जो हमारे कस्बे में वैसे भी दो या तीन दिन में एकाध बार ही आते हैं और उसी एकाध बार का ठिकाना नहीं। जब पूरे मुहल्ले में 'आ गये आ गये' का शोर उठने लगे तो समझो नल ही आ गये क्योंकि जिस उत्साहपूर्ण स्वागत के साथ नल आते हैं उस तरह से मुहल्ले में और कोई नहीं आता, नेता भी नहीं, जमाई भी नहीं। इस पर भी सावधानी के लिए पूरे नगर ने नलों में टोंटियां नहीं लगवायी हैं जिससे तेजी से हवा की सूं सूं सुनकर उनके आने का पता चल सके।
नल ही नहीं नाली साफ करने आने वाले कर्मचारी के आने की भी कोई नियमितता नहीं हैं। लबालब भर जाने और उस पानी में मच्छरों की दो तीन पीढियों के बड़े हो जाने पर जब कभी वह आ जाता है तो किसी अहसान की तरह नाली का कचरा उठा कर बाहर सड़क पर ढेर लगा देता है। फिर उसे उठाने के लिए आने वाली गाड़ी की भी उसी तरह अनिश्चितता बनी रहती है जैसी कि नल और नाली सफाई कर्मचारी की रहती है। जब वह कीचड़ दसों दिशाओं में अपना यश फैला चुका होता है तो उम्मीद की जाने लगती है कि वह जाने कब अचानक कचरा उठाने आ जाये। और वह तब आ भी जाता है जब उसके आने की सारी प्रतीक्षा मर चुकी होती है।
वैसे नलों के आने में राज्य सरकार की जिम्मेवारी होती है क्योंकि जब बिजली आयेगी तब ही तो नल सप्लाई करने वाली पानी की टंकी में पानी चढाया जा सकेगा। अब किसी को पता नहीं रहता कि बिजली कब आयेगी। जिससे भी पूछो वह यही कहता है कि पता नहीं साब ,जाने कब आयेगी। जब बिजली आ जाती है तो नल से पानी चढाने वाले का पता नहीं होता। उसके बारे में चौकीदार बताता है कि वह टेंकर सप्लाई करने वालों से हप्ता वसूलने गया है। पता नहीं वह जाने कब आयेगा ।
बिस्तर पर पड़े पड़े सोच रहे हैं कि नींद जाने कब आ जाये! और जब नींद आती है तभी चौकीदार चिल्लाता है जागते रहो! [चोर जाने कब आ जाये।]
बारह बजे की ट्रेन दो घन्टे लेट होती है तीन घन्टे हो चुकने के बाद स्टेशन पर पता नहीं रहता कि कब आ जाये! प्लेटफार्म के इस कोने से उस कोने तक सारे मुसाफिर सोचते रहते हैं कि जाने कब आ जाये। कोई इन्क्वारी तक नहीं जाना चाहता क्योंकि पता नहीं हम वहाँ पूछने गये और इधर ट्रेन आ जाये। वैसे इंक्वारी वाला पूछने पर हमेशा राइट टाइम बताता है या कहता है कि आने वाली है। उसके लिए जब आ जाती है वही तो राइट टाइम है।
दिन में डाकिये का कुछ निश्चित नहीं रहता कि कब आयेगा और उससे भी ज्यादा तो कोरियर वाले का पता नहीं कि जाने कब आ जाये। सम्पादक की रचना की स्वीकृति अस्वीकृति का पता नहीं रहता कब आ जाये और फिर रचना छप जाने के बाद उसके पारिश्रमिक का भी पता नहीं रहता कि कब आ जाये ज्यादातर तो नहीं ही आता क्योंकि सम्पादक एक टुच्ची सी राशि भेजकर आपका अपमान नहीं करना चाहता, और अगर ज्यादा मिलना होता तो उसके रिश्तेदार क्या मर गये थे जो वो आपसे लिखवाता।
टेलीफोन ऐसा ही उपकरण है कि जाने कब उसकी घन्टी बज जाये। जाने कब मोबाइल पर एसएमएस आ जाये भले ही वो ऐसी रिंगटोन का हो जिसे सुनकर आपको भी शर्म आये और आपसे वार्तालाप करने वाले को भी।
समय बदल जाने से मेहमान तो अब अतिथि नहीं रहे और वे फोन करके ही आते हैं पर अब घर के लोगों का पता नहीं रहता कि वे कब आयेंगे! अपना घर है कभी भी चले चलेंगे।
सरकारें अविश्वास प्रस्ताव के बारे में सोचती रहती हैं कि वह जाने कब आ जाये।
संत कहते हैं कि- राम नाम रटते रहो धरे रहो मन ध्यान, कबहुँ दीन दयाल के भनक परेगी कान। जाने कब उनके कान में हमारे द्वारा लिया हुआ उनका नाम पड़ जाये। जाने कब सीप के मुँह में स्वाति की बूंद पड़ जाये। दीन दयाल की अदालत में कोई र्रोज रोज सुनवाई थोड़े ही होती है। वहाँ भी कम अन्धेर नहीं है। जाने कब, जाने कब, कहीं कोई ठिकाना नहीं अब तो आठ बजने का भी ठिकाना नहीं रहता कि जाने कब बज़ जायें!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

मंगलवार, जून 29, 2010

व्यंग्य - लौट के जसवंत वापिस आये

व्यंग्य
लौट के जसवंत वापिस आये
वीरेन्द्र जैन
जसवंत सिंह के लौटने को एज यूजुअल घर वापिसी कहा जा रहा है। ऐसा अन्धविश्वास है कि जो लोग लौटते हैं सब घर ही लौटते हैं।

“पर लौटता तो वह है जो गया हो। जसवंत भैय्या ने भाजपा छोड़ी ही कब थी” राम भरोसे कहता है।
“ हाँ सच कह रहे हो, उन्हें तो निकाला गया था और धकियाये जाने के बाद तो विभीषण भी रावण के रहते लंका नहीं लौटा था और उन्होंने बार बार कहा था कि उन्हें निकालने से पहले औपचारिक शिष्टाचार तक नहीं बरता गया। फिर वैसे भी यह उनका घर थोड़े ही है, घर तो उनका है जो इसमें शाखा से प्रकट हुये हैं। सो इसे घर वापिसी कहना ठीक नहीं है। इसे तो कह सकते हैं कि-
शायद मुझे निकाल कर पछता रहे हैं आप
महफिल में इस ख्याल से फिर आ गया हूं मैं”
एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि जसवंत सिंह इसे ससुराल समझते हों, क्योंकि जब भाजपा ने उन्हें निकाल बाहर करने के बाद उनसे लोक लेखा समिति के पद से स्तीफा देने को कहा था तो उन्होंने लगभग डाँटते हुए कहा था कि इस मामले में भाजपा को शोर मचाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि लोक लेखा समिति के अध्यक्ष का पद कोई उसका दिया दहेज नहीं है।
घर तो इसलिए भी नहीं हो सकता कि जिसके बारे में उन्होंने कहा हो कि इस में भ्रष्टाचार चरम पर है और उसे आडवाणी और राजनाथ सिंह को बता देने का दावा भी किया हो उस चरम भ्रष्ट घर को ठीक किये बिना कोई ईमानदार और स्वाभिमानी कैसे जा सकता है।
बहरहाल इस वापिसी में पब्लिक को यह पता नहीं चला कि आखिर मुद्दा क्या था और वह कैसे सुलझा। पहले लोगों को ऐसा लगा था कि मुद्दा ज़िन्ना थे। जिन्ना भी क्या जिन्दा शख्शियत है कि जो मुर्दा होकर भी मुद्दा बनी रह्ती है और जिसका जिन्न पाकिस्तान , हिन्दुस्तान कहीं भी चैन से नहीं बैठने देता। जिस जिन्ना के एक भाषण की तारीफ के कारण आडवाणीजी को अध्यक्ष की कुर्सी छोड़नी पड़ी हो उस पर पूरी किताब लिख कर मुँह पर मार देने से निकाले जाने का असली कारण छुप गया था। जिस भाजपा ने उनकी योग्यता मापते हुये कहा था कि उन्हें पद इसलिए दिया गया था क्योंकि उनकी अंग्रेजी अच्छी है और वे अटलजी के साथ ड्रिंक किया करते थे। अब उस भाजपा ने उनकी कौन सी योग्यता फिर से पहचान ली पता ही नहीं चला। शायद अब विपक्ष के नेता का पद पक्ष के व्यक्ति द्वारा भरा जा चुका है और उसमें कोई फेर बदल नहीं हो सकता सो उसके अंडर में काम करने के लिए आ जाओ। बाकी के सारे पद भरे जा चुके हैं केवल झाड़ू पौंछा करने वाले की जगह खाली है।

किताब तो निकाले जाने के कारणों पर पर्दा डालने के लिए निकाली गयी थी। उन्हें निकाला तो इसलिए जाना था क्योंकि वे फौज से निकल कर आये थे, शाखा से नहीं निकले थे, और इसके प्रमाण स्वरूप वे हमेशा कन्धे पर फित्ती लगी कमीज पहिनते थे। समर्थन करते रहने तक तो ठीक है पर यह भी क्या बात कि अपनी वरिष्ठता के आधार पर आप विपक्ष के नेता पद के भी दावेदार बन जायें। यह नहीं चलेगा, वहाँ तो संघ के आदेश बिना शाखा भी नहीं चलती तो पत्ता क्या हिलेगा। पांचजन्य ने तो सितम्बर 09 अंक में लिखा ही था कि जसवंत को निकाल कर उन्हें खलनायक से नायक बना दिया जिससे उनकी किताब की 49000 प्रतियाँ बिक गयीं। अब क्या नायक से फिर खलनायक बनाना है।

ये कैसा घर है, ये कैसी वापिसी है जहाँ के लोग कि चाहे जहाँ थूक देते हैं और फिर.....................। आप स्वयं समझदार हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, जून 23, 2010

रिश्ते हैं रिश्तों का क्या


व्यंग्य
रिश्ते हैं रिश्तों का क्या
वीरेन्द्र जैन्
उद्योग जगत गदगदायमान है। भरत मिलाप का दृष्य देखकर सबकी आँखें खुशी से डबडबाई हुयी हैं। मुकेश अम्बानी और अनिल अम्बानी गले मिल रहे हैं। अनिल मुकेश से कह रहे हैं भैय्या ये ग्रहों की शरारत थी या अमर सिंह की थी पता नहीं जिसने हमें कुछ दिनों के लिए अलग कर दिया था पर पानी को चाहे जितना लाठी से पीटा जाये कहीं पानी अलग होता है। मुकेश मन ही मन कह रहे हैं पर हम तुम तो बरफ हो गये थे सो तोड़ दिये गये।
मुनव्वर राना का शेर है-
अमीरे शहर को रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
गरीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है
भाई तो भाई का दुश्मन बना बैठा ही था। एक भाई के हेलीकोप्टर के पैट्रोल टेंक में पत्थर पाये जाने लगे थे और दूसरे दिन वही पायलट जो हेलिकोप्टर उड़ाता था रेल लाइन पार करते हुये कट कर मर जाता है। ‘सामान्य’ दुर्घटना। भाई भाई तो एक हो जाते हैं और पायलट की आत्मा का रिश्ता परमात्मा से हो गया अब वह बिना हेलिकोप्टर के वायु भ्रमण कर रहा होगा। क्या संयोग है।

माँ की अपील भी काम नहीं आ पायी थी। दोनों के पास पैसा था गाड़ी थी, बंगले थे फैक्ट्री थी, पर माँ किसी के पास नहीं थी। मुरारी बापू को अपनी राम कथा पर बहुत भरोसा था सोचते थे कि उनके एक ही एपिसोड में भाई भाई फिर से मिल जायेंगे पर उनको भी वित्त जगत में प्रवचनों की औकात समझ में आ गयी थी। वे राम ल्क्षमण भरत शत्रुघ्न वाले भाई भाई के प्रेम कथा वाँचते होंगे पर अम्बानी बन्धुओं को रामायण के वे प्रसंग भाते होंगे जिनमें विभीषण् ने रावण को मरवा दिया था और सुग्रीव ने बालि को। महाभारत तो इसी भातृ प्रेम के लिए जाना जाता है। पैसे वाले पैसे के अलावा किसी रिश्ते को नहीं मानते। मानते होते तो अटल बिहारी द्वारा लक्षमण घोषित प्रमोद महाजन की मौत इतनी बुरी तो न होती और न उन्हें मारने वाले उनके भाई की भी। अगर रिश्ते की डोर पैसे से ज्यादा मजबूत होती तो मनेका गान्धी को इन्दिरा गान्धी के खिलाफ क्यों मुकदमा लड़ना पड़ता और राहुल गांधी और वरुण गांधी एक ही घाट पानी पीते। विजया राजे और माधव राव अलग अलग दिशाओं के यात्री नहीं होते तथा ज्योतिरादित्य को अपनी बुआ महाराज के खिलाफ चुनाव प्रचार न करना पड़ता। करुणानिधि और डीएमके की विरासत के लिए उनके बेटे आपस में गोलियां नहीं चलवाते।
बाप बड़ा न भैय्या, सबसे बड़ा रुपैय्या

उधर राजस्थान में एक सांसद अपनी मंत्री पत्नी से स्तीफा माँग रहे हैं। निर्दलीय सांसद किरोड़ी लाल मीणा की पत्नी गोलमा देवी राजस्थान में राज्य मंत्री हैं उनके चुनाव क्षेत्र में 33 आदिवासियों की भूख से मौत हो जाती है, सो सांसद को अखरता है। वे कहते हैं कि अगर उन्होंने स्तीफा नहीं दिया तो मैं अपने सांसद का पद छोड़ दूंगा। अब घर में तय होना है कि आदिवासियों की मौत की ज़िम्मेवारी कौन लेता है।
रिश्ते हैं रिश्तों का क्या!
प्रिया दत्त ने संजय दत्त से बहिन भाई का रिश्ता भुला दिया है। तो अमर सिंह ने जया बच्चन से देवर भावी का रिश्ता भुला दिया है। अमिताभ को नरेन्द्र मोदी से रिश्ता जोड़ने में शर्म नहीं आयी तो सुशील मोदी से राजनैतिक रिश्तेदारी रखने वाले नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी से रिश्ता जोड़ने में शर्म आयी और वे भाजपा से तलाक लेने तक उतर आये हैं।
केन्द्र सरकार ने तलाक को सरल करने का कानून बनाने का फैसला शायद बहुत दूरदृष्टि से लिया है

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, जून 19, 2010

व्यंग्य- मकान न खरीदने के आत्मसंतोष

व्यंग्य
मकान न खरीदने के आत्मसंतोष
वीरेन्द्र जैन
रोटी, कपड़ा और मकान, एक फिल्म का नाम होने से पूर्व भी सभ्य जानवरों के लिए प्राथमिकता की श्रेणी में आते थे और फिल्म बन जाने के बाद भी आते हैं। यद्यपि उनका क्रम निर्धारित है, पर कभी कभी इस क्रम में विचलन भी देखने को मिलते हैं, लंगोटी लगाए हुए और उसे भी उतारकर फेंक देने वाले पुरूषों को भी मैने रोटी खाते देखा है, रोटी सबसे पहली जरूरत है, किन्तु भूख से पीड़ित रहने वाली महिलाओं के लिए भी कपड़े पहली जरूरत में आते हैं। यही कारण हैं कि हमारे महान आध्यात्मिक देश के नागा साधु तो देखने में आते हैं नागा साध्वियॉ नही पाई जाती हैं।

रोटी पहली जरूरत हैं यह सिद्व करने के लिए ब्राम्हण लोग लगभग आधे वस्त्र उतारकर भोजन पर बैठते रहे हैं। कुछ विद्वानों का ऐसा भी विचार है कि अधिकांश समय दूसरों के घरों पर भोजन जीमने के कारण उसे छुपाकर अपने घर ले जाने की संभावनाओं से बचने की खातिर उन्हैं कम वस्त्रों में भोजन कराया जाता था। मेरे विचार से यह दृष्टिकोण सही नहीं है क्योकि दूसरों के घर से खाना ले जाने वालों के लिए वस्त्र कोई बाधा नहीं होते हैं, उनका पेट ही काफी होता है।वे अपना काम बना ही लेते हैं।

रोटी और कपड़े के बाद मकान का तीसरा नंबर आता है भले ही दुनिया के अधिकांश भागों में रोटियां मकानों में ही बनाई जाती हैं और कपड़े भी मकान के अंदर ही बदले जाते हैं। (जो लोग कॉच के मकानों में रहते हैं वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते हैं तथा लाइट बंद करके कपड़े बदलते हैं।)

मकान दो तरह के होते हैं, एक किराए का मकान, दूसरा खुद का मकान। वैसे बनावट की दृष्टि से दोनों तरह के मकान लगभग एक जैसे ही होते हैं फिर भी यह कहावत है कि किराये का मकान किराये का होता है। खुद के मकान में रहने वाला जगह की जुगाड़ निकाल कर किराए से देने के लिए संभावनाएं तलाशता रहता है तो वहीं किराये के मकान में रहने वाला अपने मकान के सपने देखता रहता है।

अखबारों में छपनेवाले आकर्षक विज्ञापन उसकी मकान की भूख में चटनी का काम करते हैं, वह अपनी कल्पना के ड्राइंग- कम-डाइनिंग रूप में सोफा टीवी और शो-केश की जगह निश्चित करने लगता है। किसी का भी ड्राइंग रूम उसकी ईष्या का कारण बनने लगता है। उसकी लपलपाती जीभ से लगातार लार टपकने लगती है।

जैसे जैसे मनुष्यता का पतन होता जा रहा है, वैसे वैसे भवन और ऊंचे होते जा रहे हैं। कई कई मंजिलों वाले मकानों की बाढ़ आती जा रही है। मनुष्य आज जितनी ऊँचाई पर पहुँचता है उसके नैतिक मूल्य उतने ही गिर जाते हैं, उसी भॉति किसी भी भवन के फ्लेट जितनी उँचाई पर होते हैं उनके मूल्य भी इतने ही कम होते जाते हैं। यह तो सरकार की समर्थन मूल्य योजना का हिस्सा है कि वो भवनों को मंजिलों की संख्या सीमित रखे हुए है, बरना यह मनुष्य तो स्वर्ग तक मंजिल ले जाता और कई लोग मुफ्त में स्वर्गवासी हो जाते।

मकान लोलुप प्राणी अखबार में केवल वर्गीकृत विज्ञापन देखकर ही उस ओर लपकता है। वह जानता है कि वहां जाने पर और कुछ मिले न मिले पर चिकने कागज पर छपा हुआ एक रंगीन ब्रोशर तो हाथ लग ही जावेगा जो पत्नी के सामने प्रयासरत रहने के प्रमाण के अलावा, बच्चों के लिए नावें बनाने या कमरे से झाड़ा हुआ कचरा उठाने के काम तो आएगा ही आएगा।

भवनों में आते जाते वह उसकी सारी शब्दावली सीख जाता है। एचआईज़ी, एमआईज़ी सीनियर एमआईज़ी, जूनियर एमआईज़ी, एलआईज़ी प्लाट, फ्लैट, इंडिपेंडेंट ग्राउंड फ्लोर, टाप फ्लोर, टैरेस, सेपरेट पार्किंग आदि का मतलब वह खूब समझने लगता है। ''इसका प्लिंथ एरिया कितना है ?'' वह प्रधान अध्यापक द्वारा बच्चे से पूछे गए सवाल की तरह उसके गाइड से पूछता है।
'' इसका किचिन बहुत छोटा है '' एक जगह वह कहता है।

'' किचिन के साथ विडों होना बहुत जरूरी हैं वरना धुएँ के मारे दम घुट जाएगा ''

'' एक ही बाथरूम है! कम- से-कम एक लैट-कम-बाथ होना चाहिए और एक टायलेट, वरना मेहमानों के आने पर बहुत मुश्किल होती है। ''

'' इस टायलेट में तो मेरे मथुरा वाले मोटे चाचा फंस ही जाएँगे ''। यह कहकर वह साथी को भी हँसते हुए देखना चाहता हैं जो उसके झूठ पर नही हँस पाता।

'' ड्राइंग-कम-डायनिंग में टीवी और फ्रिज के लिए प्वाइंट होने चाहिए ''
'' क्या केबिल लाईन भी नही हैं ?”
'' बालकनी यदि बेडरूम के साथ होती तो ज्यादा ठीक रहता'' वह कहता हैं।

'' मुझे तो ग्राउंड फ्लोर से सख्त नफरत हैं '' सारी गाड़ियॉ यही दरवाजे के सामने हुई हुर्र करके धुऑ छोड़ती हैं। रात के बारह बजे तक दोड़ पदौड़ सुनाई देती रहती है, और सुबह से ही पानी की मोटर घीं घीं करने लगती है। किसी को कहीं जाना हो ग्राउण्ड फ्लोर वाले की घंटी बजाकर पता पूछता हैं, यह भी नही देखता कि रात है कि दिन। दरवाजा बंद न हो तो ऐसा लगता हैं कि फुटपाथ पर बैठे हैं, सब घूरते हुए निकलते हैं। चोरियॉ भी ज्यादातर निचली मंजिल में ही होती हैं व सारे भिखारी यहीं पर अपनी बपौती समझते हैं। ''
''ऊपर की मंजिल में भी क्या रहना न जमीन अपनी न आसमॉ अपना। पिंजरे की तरह लटके हुए हैं अधर में। उपर वाले धमाधम करते रहें तो वह झेलो और जरा सा अपुन दूध को उबलने से रोकने के लिए दौड़ पडे तो नीचे वाले कहते हैं कि क्या रामलीला में लक्ष्मण- परशुराम संवाद चल रहा है। अजीब मुसीबत होती है। पोस्टमैन डाक नीचे ही डाल जाता है और नीचे उतरने तक सब्जी वाले के पास कानी और टेढ़ी- मेढ़ी सब्जी ही शेष रह पाती है। जरा- जरा सी चीजों के लिए नीचे ऊपर होते समय यह इच्छा होती हैं कि इससे अच्छा तो पर्वतारोही हो जाना होता, कम से कम नाम और नामा तो मिलता।''
''टॉप फ्लोर पर रहने से तो अच्छा है कि आदमी बनवास ले ले। एक आदमी ऊपर की मंजिल पर आत्म हत्या के लिए चढ़ा तथा चढते चढते हॉफ गया। पर उसने देखा कि उपर की मंजिल पर भी लोग रहते हैं तो उसने उन लोगों के जीवन को देखकर आत्महत्या का इरादा ही बदल दिया कि इनके कष्ट तो मुझसे भी ज्यादा हैं फिर भी जिंदा हैं। ''

''दरअसल फ्लैट सिस्टम ही ठीक नही हैं- न लान, न हरियाली, न गमले, न धनिया, पुदीना की सुविधा। ज्यादा से ज्यादा दारू की खाली शीशी में पानी डालकर मनीप्लांट लगा लो। अपना इंडिपेंडेट घर होने पर धूप लेने के बहाने पड़ोस के नवयौवन को तिरछी नजर से घूरते रह सकते हैं। न किसी की रें- रैं न पैं पैं पड़ोसी यही समझते रहैं कि पति पत्नी में बड़ा प्रेम हैं। फ्लेट में तो किसी को छींक भी आती हैं तो पड़ोसी अपनी विक्स की शीशी छुपाने लगता हैं कि कही मांगने न आ जाये। शाकाहारी नथुनों में मांसाहारी महक पहुँचती है।''

''अकेले घर के जमाने लद गये, बिना दो नंबर की कमाई के कोई अकेला घर बनवा ही नहीं सकता। ले-दे के एकाध कोई भला आदमी बनवा भी लेता है तो फिर बाद में सारी उमर पछताता रहता है। घर से बाहर निकले नहीं कि चोरी का खतरा सिर पर। देह कहीं रहे, मन का चोर घर के चारों ओर ही चक्कर काटता रहता है। फ्लेटों में अलग अलग रहकर भी संयुक्त परिवार का सुख। पूरब पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊँच-नीच जाति- धर्म का कोई भेद नहीं, आर्दश भारत का नमूना। अकेला घर बनाकर आदमी व्यक्तिवादी और स्वार्थी हो जाता है। घुन्ना और घमंडी। बाकी दुनिया से कोई मतलब ही नही। घर क्या बनवा लिया गोया महल खड़ा कर लिया, बादशाह हो गए।''
दरअसल ये सारे तर्क आदमी धीरे धीरे सीख जाता है, जब उसके पास इतने पैसे ही नही होते हैं कि वो बिल्डर्स की भरी हुई तिजोरियों में अपनी ओर से कोई और योगदान कर सके तो हर मंजिल के फ्लेटरूपी अंगूर उसके लिए खट्टे हो जाते हैं और वह अपने किराए के पिंजरें में आकर एक गिलास पानी पीकर अखबार में फिर वर्गीकृत विज्ञापन देखने लगता है। और क्या करे! एक अदद ब्रोशर तो चाहिए ही चाहिए।

वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, जून 08, 2010

व्यंग्य - जनता की पेंशन सरकार की टेंसन

व्यंग्य
जनता की पेंशन, सरकार का टेंशन
वीरेन्द्र जैन
वैसे तो जिन्दा लोग सरकारों के लिए हमेशा ही मुसीबत पैदा करते रहते हैं और प्रख्यात समाजवादी चिंतक रामनोहर लोहिया ने कहा भी है कि जिन्दा कौमें पॉच साल तक इन्तजार नहीं करतीं पर ये जिन्दा लोग भिन्न कारण से मुसीबत बन गये हैं॥ जब सरकार ने पेंशन योजना के बारे में सोचा होगा तो उसे यह उम्मीद नहीं रही होगी कि हमारा कर्मचारी बिना रिश्वत खाये तथा आधी तनखा पाकर बीमारियों से घिरे बुढापे को इतना लम्बा खींच ले जायेगा । उसकी सोच रही होगी कि पेंशन को क्लीयर करवाने में ही वह आधा मर जायेगा, फिर क्लीयिर होने के बाद पेंशन लेने जाने के धक्कों में कही टें बोल जायेगा, और रिश्वत न मिलने से हींड हींड कर वह अपनी बाकी जान दे देगा। पर अब ऐसा नहीं हो रहा। रिटायरमेन्ट के बाद भी पट्ठा जिन्दा है, और शान से जिन्दा है। च्ववनप्राश, केशर और शिलाजीत खाकर सीढियॉ चढ रहा है और सुईयों में बिना चश्मा लगाये धागा डाल रहा हैं। पेंशन के बढ़ते बिलों को देखकर सरकारों को टेंशन हो रहा है और पेंशन धारक चैन से सौ रहा है।

सरकारें सोचती हैं ये मरता क्यों नहीं। उसने स्वास्थ सेवाओं को सशुल्क कर दिया, सरकारी, अस्पतालों को नरक में बदल दिया, डॉक्टरों से प्राइवेट प्रेक्टिस कराने लगी, दवाइयों के दाम आसमान में पहुँचा दिये पर ये आदमी है कि कछुआ या काक्रोच जो मरता ही नहीं। पहली तारीख को सुबह से बैंक में लाईन लगा कर खड़ा हो जाता है। लाओ हमारा कर्ज चुकाओ। साहूकार और मकान मालिक भी इतना तिथि और समय का पावन्द नहीं होता जितना कि पेंशन लेने वाला। आदमी मकान मालिक, दूध वाले, अखबार वाले, आदि से इतना नहीं घबराते जितने बैंक वाले पैंशन धारकों से घबराते हैं । साढ़े दस, माने साढे दस काउन्टर वाला, काउन्टर पर नही आ पाता पर पैंशनर आ जाता है। बैंक में अपने जिन्दा होने का प्रमाण पत्र स्वंय देना पड़ता है, वह उसके लिए तैयार है- मै घोषित करता हूँ मै जिन्दा हूँ आप गवाही लीजिए, मैं जिंदा हूँ और सचमुच सम्पूर्ण जिन्दा हूँ। सरकार ने सामूहिक बीमा योजना के अन्तर्गत मेरे एक हाथ के पॉच हजार, दोनो हाथों के दस हजार के अनुपात में पच्चीस हजार तक बीमा करवा रखा था पर मैने उस राशि में से एक पैसा भी नहीं वसूला तथा अपने सारे अंगों प्रत्यंगों के साथ जिन्दा हूँ। बिना टीका लगवाये भी मुझे हैपिटाइटिस - बी नहीं हुआ और कोई सावधानी रखे बिना भी एड्स नहीं हो रहा। नालों का सर्व मिश्रित जल भी मेरे लिए संजीवनी हो रहा है और जो खाने को मिल रहा है उसी में सारे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेड, विटामिन और मिनरल्स निकल आते हैं।
लाईये पेंशन निकालिये।
एक सरकार ने कहा था कि केवल पचहत्तर वर्ष तक ही पेंशन मिलेगी शेष जीवन हिमालय की कन्दराओं में बिताने के लिए जाना होगा तथा कन्दमूल फल खाना होगा, पर पेंशनधारियों ने वह सरकार ही बदल दी। उसके मंत्री ने सोचा था कि सबकी जन्मकुण्डलियों को देखकर ही नियुक्ति दी जायेगी ताकि ज्यादा दिनों तक पेंशन न पा सकने वालों की ही नियुक्ति हो इसके लिए उसने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष की पढ़ाई शुरू करवा दी पर उसने अपनी जन्म कुण्डली पता नही किस ज्योतिषी से दिखवायी कि वह खुद ही पराजित होकर मुंह के बल गिरा जबकि उसने महूर्त दिखवाकर ही पर्चा भरा था।

सरकार ने पेंशनधारियों के जमा पर ब्याज दर कम कर दी ताकि कुछ फर्क आये पर वह भी नहीं आया। उसने गैस, मिट्टी का तेल, पेट्रोल डीजल, टेलीफोन, बिजली, सबकी दरें बढ़ा दीं पर पैशनर पहली तारीख को फिर भी बैंक में खड़ा मिला। भूले भटके एकाध पेंशनर मर भी जाता तो सौ दूसरे खड़े हो जाते- लाओ पैंशन, लाओ पेंशन्।
सरकारी कर्मचारी पूरी जिंदगी नौकरी ही इसलिए खीचता है ताकि उसे पेंशन मिल सके। बिना काम किये हुये धन का मिलना किसे अच्छा नही लगता जो मजा वेतन में नही आता वह पेंशन में आता है। वेतन अपनी बीबी है पर पेंशन परायी बीबी लगती है। रहीम आज होते तो कहते-

गौधन गजधन वाजधन
और रतनधन खान
जब मिल जावे पेंशन
सो सबधन धूरि समान

भूतपूर्व सांसदों विद्यायकों ने तो इसीलिए अपनी पैंशन पहले से तय कर ली है।

वीरेन्द्र जैन
21शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425श74श29

शनिवार, जून 05, 2010

व्यंग्य गिफ्ट आइटम


व्यंग्य
गिफ्ट आइटम
वीरेन्द्र जैन

जिस चीज को खरीदते समय गुणवत्ता के प्रति एक गहरा निरपेक्ष भाव और देते समय मुस्कराहट के नीचे मजबूरी का मजबूत आधार छुपा होता है उसे गिफ्ट आइटम कहते हैँ।
गिफ्ट आइटम खरीदना एक कठिन काम होता है। यह साधारण खरीद से भिन्न किस्म की खरीद होती है। आम तौर पर इसका विचार निमंत्रण पत्र की प्राप्ति वाले दिन से जन्म लेता है और आयोजन की तिथि आने तक पलता और टलता रहता है। इस खरीद के टलने में एक सोच तो आयोजन के स्थगन या रद्द होने की सम्भावना की कल्पना के कारण पैदा होता है जो सामान्यतय: पूरा नही होता। अंतत: वह दिन आ ही जाता है जब दफ्तर से लौटने के बाद आप पाते हैं कि पत्नी अपने से ज्यादा आकर्षक वेषभूषा में तैयार बैठी है तथा बच्चे अच्छे कपड़ों के गन्दे हो जाने से बचने के लिए सीधे बैठे बैठे बेचैन हो रहे हैं। यह दृश्य देखकर ही आप पर गिफ्ट आइटम खरीदने की कठिन परीक्षा वाली घबराहट छा जाती है।

गिफ्ट आइटम खरीदने में एक बात तो तय रहती है कि इतने रूपयें से ज्यादा का नहीं खरीदना है, चाहे जो हो जाये। चंन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार पर राजा हरिशचन्द्र का टरै न सत्य विचार - की तरह आप तय की हुयी राशि में गिफ्ट आइटम खरीदने निकलते हैं। आप चाहते हैं कि आइटम दिखने में आकर्षक, चमकीला और आकार में बड़ा हो ताकि आयोजन स्थल पर बड़ा डिब्बा देखकर लगे कि आप कोई बड़ी चीज लेकर आये हैं। आपकी कोशिश रहती है कि यह बड़ी सी चीज आपके द्वारा निर्धारित की गयी छोटी सी राशि में आ जाये ताकि चार लोगों के नियोजित परिवार द्वारा व्यंजनों का अनियोजित भक्षण किया जा सके और कोई शर्म न महसूस हो।

दुकानदार आपकी व्यथा समझता है। वह जानता है कि आपकों उस वस्तु का उपयोग नहीं करना है केवल देना है। वह केवल गिफ्ट देने से पहले न टूटे या अधिक से अधिक एक दो बार काम कर जाये तो बहुत है। नकली माल पर असली का लेबिल लगाना उसे आता है। रेट की स्लिप भी चौगुने दामों की चिपका देता है। सौ रूपयें का माल पॉच सौ रूपयो के स्लिप के साथ मजबूत डिब्बे में पैक करके दिया जाता है जिस पर रंगीन चमकीला रैपर चढ़ा रहता है। डिब्बे पर रिबिन बांधकर फूलदार गांठ लगा दी जाती है। गिफ्ट आइटम तैयार है। दुकानदार गिफ्ट पैकिंग के चार्ज अलग से वसूलना चाहता है। जो आप देना नहीं चाहते क्योकि यह राशि उससे अधिक हो जाती है जो आपने तय कर रखी है। दुकानदार जानता है कि इस आधार पर आप आइटम वापिस नहीं करेंगे। वैसे भी आपको देर हो रही है इसलिए वह अड़ जाता है कि गिफ्ट पैकिंग के पैसे अलग से लगेंगे। अतंत: कुछ घट बढ़ कर सौदा पट जाता है तथा अच्छे रैपर में लोकल (जीवित और अजीवित) माल स्कूटर पर फंसा कर आप चल देते हैं। रस्ते में याद आता है कि आपने पैकिट पर अपने नाम की स्लिप तो लगवायी ही नहीं है इसके बिना सारी मेहनत बेकार जाने वाली है। यदि मंदिरों के पत्थरों पर नाम लिखवाया जाना अधार्मिक घोषित हो जाये तो मूर्तियां हाथ ठेलों पर घर घर र्दशन देने के लिए उपलब्ध हो सकती हैं। आप तुरन्त ही एक दुकान पर रूकते हैं और स्टेपलर मांग कर अपना विजटिंग कार्ड डिब्बे पर स्टेपल कर देते हैं- तीन चार जगह से ।

जब बाजार व्यवस्था में एक सौदा निरंतर चलता रहता है- कम से कम देकर ज्यादा से ज्यादा पाने की तमन्ना दोनों ओर से जारी रहती है तो फिर गिफ्ट आइटम ही क्यों अलग रहें।

वीरेन्द्र जैन
2-1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629


बुधवार, जून 02, 2010

व्यंग्य मानसून प्लीज कम सून


व्यंग्य
मानसून प्लीज़ कम सून
वीरेन्द्र जैन
संसद का मानसून सत्र तक आने वाला है पर मानसून नहीं आया। बलवीर सिंह रंग की पंक्तियाँ हैं-
उबासी आ गयी अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आये
कवियों की जून महीने में पावस की फुहारों पर लिखी गई कविताओं से हवा करके सम्पादक लोग पसीना सुखा रहे हैं। मैंढक और केंचुए ज़मीन में दबे दबे परेशान हो चुके हैं। वे छुपाछुप्पुअल खेलने वाले छुपे बच्चों की तरह बाहर निकलने को बैचैन हो रहे हैं। जिन दिनों मैंढकों की टर्र टर्र सुनायी देती थी, उन दिनों कूलरों की आवाज़ें आ रही हैं। कज़री गाने वाली बालाएं बीजना डुला रही हैं। जिन पेड़ों पर झूले डाले जाते थे उन पर गिद्धों का बसेरा हो चुका है। मेघों को दूत बना कर सन्देशा भेजने वाले कोरियर सर्विस के चक्कर लगा रहे हैं क्योंकि स्पीड पोस्ट के आगे स्कूलों में एडमीशन के लिए लगी लम्बी लाइनों से भी लम्बी लाइन लगी हुयी है। इस साल जामुन की फसल नहीं आ पायी और गर्मी के मारे गोरी गोरी लड़कियाँ जामुनी हुयी जा रही हैं, पाउडर लगा लेने पर ऐसी लगती हैं जैसे जामुनों पर नमक लगा हो।
मानसून, तुम कहाँ चले गये हो। तुम नगर पालिका के नलों की तरह या मध्य प्रदेश की बिजली की तरह हो गये लगते हो। तुम्हें पता है कि मध्य प्रदेश में गाँव गाँव बिजली के खम्भे लगे हैं, जो ढोरों के बाँधने के काम आते हैं, या कुत्तों के मूतने के। उनके तारों पर चिड़ियाँ बैठती हैं फिर उड़ती हैं, उड़ कर फिर बैठ जाती हैं, बैठ कर फिर उड़ जाती हैं। अपना कमीशन बनाने के लिए उचित समय पर ट्यूब लाइट या बल्ब बदल दिये जाते हैं भले ही उनने नवलेखकों की रचनाओं की तरह कभी भी प्रकाशन का सुख नहीं देखा हो। अगर नहीं बदली जायेंगीं तो नगर पालिका अध्यक्ष और पार्षदों का चुनाव में फूंका पैसा कैसे वापिस मिलेगा।
क्षमा करना मैं मीठी मीठी बातों से तुम्हें बहला रहा हूं मानसून! तुम हमारे क्षेत्र का भ्रष्टाचार देखने के बहाने ही आ जाओ, या साम्प्रदायिक हिंसा में हमारे द्वारा जलाए गए घरों की आग बुझाने ही आ जाओ। कुछ न हो तो हमारे उन मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियों की लाज रखने के लिए ही आ जाओ, जिन्होंने अच्छी वर्षा की भविष्यवाणी की थी। तुम नहीं आओगे तो हमारे मुख्य मंत्री यज्ञ और हवन के नाम पर जनता की गाड़ी कमाई का न जाने कितना रुपया फूंक देंगे जिनके पास शिक्षा का अधिकार लागू करवाने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है। इनके पाखण्ड की आग बुझाने ही आ जाओ। ज्योतिषी लोग ज़ज़मानों की गर्मी से बचे बचे फिर रहे हैं, अखबारों में उनकी नौकरी की रक्षा के लिए ही आ जाओ।
हमने भी तुम्हारे स्वागत में कुछ गीत चुरा कर रखे थे। चोरी से बचने के लिए चार पंक्तियां इसके गीत की और चार उसके गीत की उड़ा कर कई नये गीत जोड़ लिए थे, किंतु तुम तो किसी मंत्री की तरह वादा करके भी नहीं आ रहे हो और में मानपत्र वाचक की तरह बैचैनी में टहल रहा हूं। तुम्हारे न आने से छातों को छाती से लगा कर रखने की रितु ही नहीं आयी है, और् बरसाती की तहें ही नहीं खुल पा रहीं। प्रभु इच्छा से एक मन्दिर में बदल गये अपेक्षाकृत अच्छे जूतों को पहचान लिए जाने के डर से बरसात में प्रयोग के लिए सुरक्षित रख छोड़ा था, जो तुम्हारे न आने पर पावस गीत लिखने और गाने वालों के लिए काम में आने वाले हैं। छत पर टपकने वाली जगह में भरने हेतु लाया गया तारकोल पिघल कर बहने लगा है, जो पकौड़े खाने को उतावले मुँह पर मलने के काम आयेगा। इन कवियों और पकौड़ों वालों की इज़्ज़त के लिए ही आ जाओ।
तुम तो परिदृष्य से ऐसे गायब हो जैसे अखबारों के पृष्ठों से अटल, ज़ार्ज़, या अर्जुन सिंह गायब हो गये हैं। हमारे राज्यपाल बनकर ही आ जाओ। पर आओ, मानसून प्लीज़ कम सून! तुम्हारे न आने से मम्मी पापा, भैया दीदी और और भी कोई सब दुखी हैं, कोई तुमसे कुछ नहीं कहेगा, तुम आ जाओ।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मंगलवार, जून 01, 2010

व्यंग्य - लगे रहो बाबा भाई


व्यंग्य
लगे रहो बाबा भाई

जहॉ जितने अधिक भ्रष्ट अधिकारी और टैक्सचोर, व्यापारी, ठेकेदार पाये जाते हैं वहीं बाबाओं की दुकानें भी बड़ी बड़ी लगती हैं। बडे बाबा ना तो कस्बों में जाना पसंद करते हैं और ना गॉवों में। आखिर क्लाइन्टेल का सवाल है। ग्राहकी ही नहीं होगी तो बाबा क्या झक मारेंगे। जब तक एकाध ठो राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री, ठेकेदार चेम्बर ऑफ कामर्स के अध्यक्ष आदि को चरणों में नही पटक लेते तब तक बाबा जी की आत्मा बैचैन रहती है। दबे कुचले लूले लंगड़े बीमार गरीब गुरवा तो कीड़े मकोड़ों की तरह हर बाबा के चरणों में बिलबिलाते ही रहते हैं पर असली भक्त तो वीआईपी ही होतें हैं। बाबा की निगाहें टकटकी लगाये देखती रहती हैं कि कोई वीआईपी ग़िरा कि नही गिरा। जब तक नही गिरे तब तक भजन चलने दो। बाबाजी के नल रूपी मुंह में प्रवचन का जल तभी प्रवाहित होता है जब वीआईपी सफेद मसनद से पीठ टिका ले।

गॉव कस्बे फुटकर दुकानदारों के लिए छोड़ रखे हैं, जहॉ सौ दो सौ से मूड़ मारो तब कहीं दस पॉच हजार खींच पाते हैं। राजधानी में एकाध को ही चित कर लिया तो लाख दो लाख फेंक जाता है। इस दशा को प्राप्त होने के लिए भी बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। अलग अलग भावपूर्ण मुद्राओं में रंग बिरंगे फोटो और चिकने कागजों पर पोस्टर छपवाने पड़ते हैं। हजारों रूपयें महीने के तो प्रवचन तैयार करने वाले लगाये जाते हैं और अखबारों में मय फोटो के दार्शनिक चिंतन छपवाने के लिए पीआरओ लगाने पड़ते हैं। सम्पादकों उपसम्पादकों को परसाद के नाम पर मिठाई और मेवों के डिब्बे देना होते हैं। चमत्कारों की झूठी कहानियों फैलाने वालों को लगातार सक्रिय रखना होता है। जहॉ प्रवचन का डौल जमाया जाता है वहॉ पर लाखों की पब्लिसिटी लगती है। अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन, पोस्टर, भित्तिलेखन पम्फलेट से लेकर चुनाव प्रचार में लगने वाले सारे साधन झौंक दिये जाते हैं। बच्चों की जिज्ञासा जगाने वाले हाथी घोड़ों के जलूस से भीड़ भड़क्का जुटा कर नगर के सारे बैण्ड बाजे वालों को लाईन से लगा दिया जाता है कि ठोके जाओं मरे चमड़े पर डम डमा डम , ये साले प्रेस वाले तभी आयेंगे। और फिर बाबा के दरबार से कोई खाली हाथ थोड़े ही जायेगा।

बाबा, वैरागी हैं । फल के प्रति उदासीनता से ओत प्रोत। प्रवचन रूपी कर्म कर दिया फल की चिन्ता नहीं है कि उन प्रवचनों पर कोई कभी कहीं अमल भी कर रहा है या नहीं। बाबाजी पेले जा रहे हैं प्रवचन पर प्रवचन और अच्छे अच्छे बाद्य यंत्रों पर भजनों का गायन चल रहा है। शेम्पू से धुले बिना डैन्ट्रिफ वालें केश और चमकदार भगवा पोषाक मेवा और पौष्टिक पदार्थो से पुष्ट देह बाबा जी का वैराट्य प्रदर्शित कर रही है।
आखिर ये रिटायर्ड बूढे क़हॉ जायें! प्रवचन ही सुन लें! क्या जाता है। दिन भर मिनमिनाती सासें क्या करें? घंटे के लिए बहुओं को भी छुट्टी दें और खुद भी छुट्टी काटें, बाबा की बकवास सुन कर कौन सा बदलाव लाना है। जीवन तो जैसा हांकना है वैसा ही हांकेगे। बाबा भी कहॉ पूछने आते है कि पिछले प्रवचन से क्या निकला था जो इस बार फिर गधे की तरह मुँह लटकाए फिर आ बैठते हो। साल-दर-साल बाबा- दर बाबा पिले पड़े हैं और अपना कर्तब्य कर रहे हैं पर नगर उस दिशा में बदल रहा है, जो कोई बाबा नही बतलाता।
बाबा की कही कोई बात, कोई भी नही मानता। मानते होते तो कम से कम माईक वाले शमियाने वाले, सजावट वालों में ही कुछ परिवर्तन देखने को मिलता जो प्रत्येक बाबा के लिए सजाते हैं, बिछाते हैं और फिट करते हैं व बदइंतजामी की आशांका से लगातार सजग रह कर डियूटी देते रहते हैं। उनके लिए भी वह अर्थहीन स्वर होता है जो श्रोताओं के लिए भी होता है। बाबा मंन्दिर में लगे लाउडस्पीकर की तरह बजे जा रहे हैं। उन्हें रोका नही जा सकता इसलिए बज लेने दो।

एक बाबा दूसरे की सार्वजनिक निन्दा नहीं करता है, उनमें सहकारिता है। मोबाइल से डेटें तय करते रहते हैं। सब की अपनी अपनी तारीखें होती हैं। एक के पोस्टर फट नही पाते कि दूसरे के चिपक जाते हैं। एक के बैनरों के अन्डरवियर सिल के नहीं आ पाते है कि दूसरा बैनर बनियानों के लिए आ जाता हैं। गरीबों को बाबा का यही प्रसाद है। लगे रहा बाबा भाई- हम भी लगे हुऐ हैं। एक गांधी बाबा था जिसकी बात का असर होता था क्योंकि वह स्वंयं भी पहले वही करता था जो बोलता था। हरिजन बस्तियों में आश्रम बनाना हो या अपना शौचालय स्वंयं साफ करना, कोढ़ियों की सेवा हो या चरखा कातना, वह खुद करके दिखाता था। उसके कहने पर लाखों लोगों ने खादी पहनी और विदेशी कपड़ों की होली जलायी। वह एक चादर में इंग्लैण्ड गया और सूरज न डुबोने वाले साम्राज्य की बत्ती गुल कर दी। पर आज के बड़े बड़े बाबाओं के चेले दिन में प्रवचन सुनने के बाद शाम को बार में पाये जाते हैं और बाबा अपने वकीलों से मुलाकात कर रहे होते हैं ताकि हत्या, बलात्कार, अतिक्रमण या टैक्स चोरी के प्रकरणों की सुनवाई की तारीखें बढ़वाने की रणनीति पर सलाह मशविरा कर सकें।

गांधी बाबा को इन्ही बाबाओं के भक्तों जैसे लोगों ने गोली दगवा दी थी। गांधी बाबा होता तो शायद इन बाबाओं की दाल नहीं गल पाती। अगर किसी बाबा में कभी गांधी बाबा जैसा सच जग जाये, जिसकी सम्भावना ना के बराबर है तो सच्ची आत्म कथा लिखकर दिखाएं- गांधी बाबा जैसी। किसी ने नहीं लिखी, कोई नहीं लिख सकेगा।

वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629



गुरुवार, मई 27, 2010

व्यंग्य कानून क़ानून होता है


व्यंग्य
कानून, कानून होता है
वीरेन्द्र जैन

यह वाक्य आपने भी सुना होगा कि ' कानून, कानून होता है'। मैने तो इसे हजारों बार सुना है और हो सकता है कि किसी दिन गिन्नीज बुक में वर्ल्ड रिकार्ड भी मेरे नाम से ही बने कि मैने सबसे अधिक बार इस बाक्य को सुना है। राज की बात यह है कि इतनी बार सुनने के बाद भी मैं आज तक इसका अर्थ नहीं समझ पाया। जिससे भी पूछों वह यही कहता है कि कानून - कानून होता है।
अपनी जिज्ञासा के चक्कर में मैने अनेक लोगों से माथा पच्ची की, पर खेद कि कोई भी मुझ जैसे मूढ को समझा नहीं सका। मैं एक डाक्टर के पास गया। मेरा भ्रम था कि वे भाषा विज्ञान के डाक्टर होंगे पर वे देह शास्त्र के डाक्टर निकले। बोले ' तुम्हें मालूम है, कानून के हाथ लम्बे होते हैं '' ।
मेरे मन में एक बिम्ब बना जिसमें एक मोटी पोथी में से दो हाथ निकले थे जो काफी लम्बे थे और एक दूसरे पर रखे हुये थे। मैने मन ही मन प्रश्न किया कि ये एक हाथ दूसरे हाथ पर क्यों रखा हुआ है, तो तुरन्त ही मेरे दिमाग ने उत्तर भी खोज निकाला कि कानून के हाथ लम्बे तो हैं पर वो हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। मुझे रहीम का दोहा याद आ गया -

बडे हुये तो क्या हुये, जैसे पेड़ खजूर
छांह न बैठें दो जनें, फल लागे अति दूर

पर इस मन का क्या करें, ये तो चंचल होता है। मैथलीशरण गुप्त तो पहले ही कह गये हैं कि-
कोई पास न रहने पर भी जन मन मौन नही रहता
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता
सो मन ने अगला सवाल किया कि यह कोई काम क्यों नहीं करता। इस सवाल का उत्तर भी अन्दर से ही आया- कानून अपना काम करेगा - ला विल टेक इट्स ओन कोर्स'।
ठीक है भाई, अपना काम ही करे! मैं कब कहता कि किसी और का काम करे,! पर करे तो। एक सुस्त आदमी को देखकर दूसरे को भी सुस्ती आती है। रात में कार का ड्रायवर कहता है कि अगर सोना है तो पीछे बैठिये क्योकि अगर मैं थोड़ी देर को भी सो गया तो आप हमेशा के लिए सो जाओगे- तस्वीर के नीचे लिखा मिलेगा 'चिर निद्रा निमग्न'। कानून अपना काम करे तो दूसरों को भी काम करने की प्रेरणा मिले। मन में सवाल किया कि क्या इसका कोई धनी धोरू नहीं है, कोई मालिक सर परस्त नहीं है ? पर दिमाग के पास तो सारे उत्तर रहते हैं। उससे उत्तर मिला है, इसकी देवी होती है जो आंखों पर पट्टी बांधे रहती है इसलिए उसे न काम करता हुआ कोई दिखता है और न बैठा हुआ दिखता है। निष्पक्षता के चक्कर में उसने देखना भी छोड़ दिया है।
मन में आया कि मैं इसकी कुछ मदद करूं। इसे थोड़ा हिलाऊं, डुलाऊं, उठाऊं, इसके मुंह पर पानी के छींटे मारूं और कहूं कि भाई हाथ पर हाथ धरे बहुत देर हो गयी अब तो उठो और कुछ करो धरो। आखिर काम को जल्द निबटाना है, देश को आगे बढ़ाना है। मैं जैसे ही उसकी ओर बढ़ा तो ऊपर से जोरदार आकाशवाणी हुयी- कानून को अपने हाथ में मत लो। मैं डर गया और तुरन्त पीछे हट गया। मुझे लगा कि मैं कानून की नींद नहीं, अपितु कानून ही तोड़ रहा था। फिर कानून के तो अपने दांव पेंच भी होते हैं यदि इसने एक का भी प्रयोग कर दिया तो मैं तो चारों खाने चित हो जाऊंगा तथा चारा खाने तक की हिम्मत नहीं बचेगी।
मैं सो गया तो मेरे सपने में वाल्तेयर आये। बोले बेटे कानून के चक्कर में मत पड़ो।
'' क्यों '' ? मैने आदत के अनुसार सवाल किया।
वे बोले- सारे कानून बेकार हैं क्योकि अच्छे लोगों के लिए किसी कानून की जरूरत नहीं है और बुरे लोग किसी कानून को नहीं मानते।
तब से मैने भी चिन्ता छोड़ दी है और हाथ पर हाथ धरे ही क्या हाथ पर लात धरे बैठा हूं।
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वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मई 26, 2010

व्यंग्य आर्ट आफ स्लीपिंग


व्यंग्य
आर्ट ऑफ स्लीपिंग
वीरेन्द्र जैन


मैं आर्ट ऑफ स्लीपिंग सिखाना चाहता हूं।
जो आदमी बड़ा नहीं बन पाता वह बड़े आदमियों के आस पास रहकर सुख पाता है। मुझे लोगों को यह बताने में बहुत सुख मिलता है कि कुछ आईएएस अधिकारी मेरे मित्र रहे हैं। बांटनहारे को मेंहदी के रंग लग जाने की लालसा में निरंतर मेंहदी बांटता रहता हूं। अगर आप मेरी इस मित्रता से प्रभावित हो रहे हों तो आपको आगे बताऊं कि ऐसे ही एक आईएएस अधिकारी का फोन आया और उसने पूछा- '' तुम सुबह कितने बजे उठ जाते हो ? ''
'' साढ़े पॉच बजे '' मैने उत्तर दिया।
'' इतने सुबह उठ कर क्या करते हों ''
'' रक्त की शक्कर कम करके जिन्दगी में मिठास घोलने की कोशिश करता हूं- आदेश करें। मैं सुबह घूमने जाता हूं।''
'' एक अच्छी जगह चलोगे ''
'' अगर कोई ले चलने वाला हो तो मैं खराब जगह भी चलने को तैयार हूं। ''
'' गोद में थोड़े ही जाओगे। गाड़ी में बैठ जाना और चले चलना ''
'' पर, बाइ-द-वे चलना कहॉ है ''
'' आर्ट ऑफ लिविंग के क्लास में ''
'' तुम इतने बड़े अधिकारी हो गये और तुम्हें जीना भी नहीं आता। वह भी 'सीख' रहे हो।''
'' जीना तो कुत्ते बिल्ली शेर चीते सांप तितली सब को आता है पर हमारे बड़े मंत्री भी सीख रहे हैं सो सारे अधिकारी भी सीखने लगे हैं ''
'' चलो मुफ्त में मिल जाये तो चन्दन घिस लेने में क्या बुराई है! और वह भी मंत्री के सान्निध्य में'' मुझे संतोष हुआ।. बड़े लोगों के निकट चिपकने का सुख अकेले मैं ही नहीं लूटना चाहता हूँ, ये बड़े अधिकारी भी इसी रोग का शिकार है।
'' मुफ्त का नहीं है महानुभाव, पन्द्रह सौ रूपया फीस है तीन दिन के कोर्स की ''
'' मर गये, अगर मेरे पास इतना पैसा फालतू होता तो मैं अकेले क्या सैकड़ों लोगों को काजू वाले बिस्कुट खिला कर उन्हें जीने का तरीका सिखा देता- क्या टीवी के विज्ञापनों से लोग कुछ नही सीखते?
'' तो तुम नही चलोगे ''
'' इस कीमत पर चलना तो मेरे बूते के बाहर है ''

इस बातचीत के बाद मुझे लगा कि इस दुनिया में जिनके पास पैसा है वे कुछ भी नहीं जानते, और उन्हें कुछ भी सिखाया जा सकता है। यही कारण है कि मैं अब 'आर्ट ऑफ स्लीपिंग'' सिखाना चाहता हूं। केवल ग्यारह हजार रूपये की मामूली राशि पर।
सोना एक कला है, जिसे सीखकर ही जाना जा सकता है। नवजात शिशु नहीं जानता, इसलिए दिन में तेइस घंटे सोता रहता है। बूढे लोग भी नहीं जानते इसलिए सुबह चार बजे से ही ''राम-राम'' करने लगते हैं। मजदूर लोग नहीं जानते इसलिए वे सोते नहीं लस्त पस्त होकर गिर पड़ते हैं। पर मैं इनमें से किसी को भी आर्ट ऑफ स्लीपिंग सिखाने नहीं जा रहा हूं ।
यह कला तो मैं आपको सिखाऊंगा। आप जैसे लोग, अर्थात वे जिनकी जेब में ग्यारह हजार रूपयें हैं। जेब में न होंगे, तो सेफ में होगे। और अगर एक नम्बर के हैं तो बैंक में होंगे। और यही पैसा तो आपको सोने नहीं देता। जब इसे आप मेरे यहॉ जमा कराके रसीद जेब में रख लेंगे तो बहुत चैन की नींद आना प्रारम्भ हो जायेगी।
इतना ही नहीं मैं सिखाऊंगा भी आपको। पहले जरा सिर के बाल मुढवा लूं। बाल मुढवाने से ललाट की चौड़ाई बढ़ जाती है और आदमी पहुँचा हुआ नजर आने लगता है, फले ही वह कहीं भी पहुँचा हुआ न हो। पहुँचे हुऐ लोगों की बात सुनने की परम्परा है। और पहुँचा हुआ दिखने के लिए पोषाक होती है। पैन्ट कोट वालों की बातें बाहर ही रह जाती हैं किन्तु धोती बांधने वालों की बातें हवा की तरह भीतर तक जाती है इसलिए धोती पहनने की आदत तो डाल लूं। थोड़ा त्यागी जैसा भी दिखने लगूंगा। लोगों को त्यागी आदमी को पैसा देने में बड़ा सुख मिलता है। बड़ी बड़ी सम्पत्ति वाले आश्रम के बाबा लोग त्याग का बड़ा ढोंग करते हैं और पैसे के प्रति निरपेक्ष दिखने की कोशिश करते हैं पर रात दस बजे के बाद सेक्रेटरी से पूंछते है कि वो झांसी वाला सेठ कितने पैसे दान कर गया।
मेरे भाषण का प्रारूप कुछ कुछ ऐसा होगा। सुनिये!
सोने के लिए लम्बे होकर लेट जाना चाहिए। लेटने के लिए चारपाई, तखत, या सिंगल अथवा डबल बैड, जैसी भी पारिवारिक स्थिति हो, का प्रयोग कर सकते हैं। भक्तो! सोने के इन उपकरणों को पहले जॉच लेना चाहिए कि इनमें कहीं खटमल तो नहीं हैं। फिर इनके ऊपर एक दरी बिछाना चाहिए। दरी पर गद्दा बिछाना चाहिए और उस गद्दे पर चादर बिछाना चाहिए। एक चादर ओढ़ने के लिए रख लेना चाहिए। मच्छरों से बचने के लिए आम तौर पर सोने वाला व्यक्ति मच्छर काटने वाले स्थान पर जोर का हाथ मारता है, ताकि मच्छर को हमेशा के लिए चैन की नींद सुला दे पर हथेली की हवा लगते ही मच्छर उड़ जाता है, तमाचा सोने वाले के शरीर पर ही पड़ता है। ऐसे चांटे खाते रहने से आदमी की नीद टूटती है इसलिए किसी देवता के आगे आप भले ही अगरबत्ती न लगाते हों किंतु कमरे में मच्छर अगरबत्ती या वाष्पीकृत होने वाले द्रव्य को बिजली के स्विच में लगाकर रख देना चाहिए। स्विच को आन कर देना चाहिए। किंतु यह तभी काम करेगा जब बिजली आ रही हो। कुछ लोग मच्छरदानी का प्रयोग भी करते हैं पर कभी कभी रात्रि में लघुशका करते समय भी उसे साथ लपेटे हुये उठ जाते हैं जिससे उनका हवा महल धाराशायी हो जाता है। वे जिन निद्रा देवी की गोद में लेटे होते हैं उन देवी की नींद भी टूट जाती है। यह स्थिति बाहर प्रतीक्षा कर रहे मच्छरों को सुविधा प्रदान करती है। इसलिए मच्छरों से बच कर सोना आर्ट आफ स्लीपिंग का महत्वपूर्ण पार्ट है।
सिर के नीचे तकिया लगाना चाहिए इससे पता चलता है कि सोये हुए आदमी का सिर किस तरफ है, मान लो रात्रि में कोई आपके पैर छूना चाहे तो गलती से सिर न छू ले। यही धोखा आपका गला काटने वाले को भी हो सकता है। गर्मी में पंखा, कूलर, या एसी क़ा प्रयोग किया जा सकता है और सर्दी में हीटर और रज़ाई का।

पर अच्छी नींद होने के लिए अच्छी कंपनी की गोली खाना चाहिऐ। गोली को अंगूठा और अनामिका में पकड़ कर मुंह के अन्दर ले जाना चाहिए और फिर तुरंत ही गिलास से पानी पी लेना चाहिए। जैसे ही गोली के अन्दर जाने का अहसास हो तो- गई - के अन्दाज में सिर हिलाकर संतोष करना चाहिए और इस विश्वास के साथ लेट जाना कि अब अच्छी नींद आयेगी। विश्वासं फल दायकं।

सोने से पहले नींद के आराध्य देव का स्मरण करना चाहिये। आप सब जानते ही होगे कि नींद के आराध्यदेव कौन हैं। यदि नहीं जानते तो जान लीजिए कि नींद के आराध्य देव आचार्य कुम्भकरण हैं। जो लोग भी कुम्भकरण महाराज की प्रार्थना करके सोते हैं उन्हें अच्छी नींद आती है। कुम्भकरण महाराज किसकी प्रार्थना करके सोते थे यह अभी खोज का विषय है। सोने के मामले में शेष शैया पर सोने वाले विष्णु जी को भी उदाहरण् के बतौर लिया जा सकता है जो लक्ष्मी जी से पैर दबवाने के बाद ही सोते हैं। भक्तों ने विष्णु भगवान के बैठे हुए चित्र कम ही देखे होंगे- या तो वे लेटे रहते हैं या फिर सुर्दशन चक्र में उंगली डाल कर खड़े रहते है उनके सोने से ही दुखी होकर भृगु महाराज ने लात मारी थी जिससे उनका कुछ भी नहीं घटा था।
का रहीम हरि को घटयो, जो भृगु भारी लात
एक बार किसी गांव के निवासी के घर में मेहमान आ गये तो उसने पड़ोसी धर्म का निर्वाह करते हुए अपने पड़ोसी से चारपाई मांगी।

'' मेरे पास तो कोई चारपाई फालतू नहीं है क्योकि घर में केवल दो ही चारपाइयॉ हैं जिनमें से एक पर मैं और मेरे पिता सोते हैं तथा दूसरी पर मेरी मॉ और मेरी पत्नी '' पड़ौसी ने अपनी विवशता दर्शायी।
'' चारपाई न देना हो तो मत दो, पर सोया किस तरह जाता है यह तो सीख लो '' पड़ोसी सलाह देकर वापिस चला आया। यह सलाह देने वाले मेरे गुरू थे। यदि ये पड़ोसी आर्ट ऑफ स्लीपिंग के क्लास में आते होते तो उन्हें दुविधा से नहीं गुजरना पड़ता।
सोने के महत्व का हमारे साहित्य में विस्तार से वर्णन मिलता है। कहा गया है कि-
किस किस को याद कीजिये- किस किस को रोइये
आराम बड़ी चीज है मुंह ढ़क के सोइये
एक और शायर ने कहा है कि -
'' है किसी माने में मुफलिस के लिए सोना नही ''
जिस तरह '' कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय '' उसी तरह उस सोने से इस सोने का महत्व ज्यादा है और सही तरीके से सोने की कला सीख कर ही आप सोने में सुहागा की कहावत को “सोने में सुहाग” होने को चरितार्थ कर सकते है। कृपया अपने मित्रों और मंत्रियों को भी इस क्लास के लिए प्रेरित करें। सिर्फ ग्यारह हज़ार रुपये में।

वीरेन्द्र जैन
2/1शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, मई 22, 2010

व्यंग्य--- छोटा मुंह बड़ी बात


व्यंग्य
छोटा मुँह बड़ी बात
वीरेन्द्र जैन
शासकों ने अभिव्यक्ति पर रोक लगाने के हजारों तरीके समय- समय पर विकसित और प्रयुक्त किए हैं, उनमें से सबसे बारीक तरीका साहित्यकारों, लेखकों द्वारा वाणी पर प्रतिबंध का संवेदनात्मक प्रचार कराना भी है।
अंग्रेजी में कहावत है कि '' इफ स्पीच इज सिल्वर देन साइलेंस इस गोल्ड '' वहीं, अपने यहॉ कहा गया है कि '' एक चुप सौ को हराती है ''। वाणी स्वातंत्र के इस युग में भी कहावत प्रचलित है कि '' मूर्ख अधिक बोलता है''। कवियों शायरों ने भी वाणी की जगह मौन रखने का प्रचार किया है। एक कवि कहते है:-
शब्द तो शोर है तमाशा है
भाव के सिंधु में बताशा है,
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है।
शब्द की जगह इशारों की अधिक तारीफ करते हुए एक गीतकार कहता है कि '' इशारों- इशारों में दिल लेने वाले बता, ये हुनर तूने सीखा कहॉ से । ''
या -
नैन मिले उठे झुके, प्यार की रात हो गई,
मौन का मौन रह गया बात की बात हो गई।

आज के रैप और पॉप के युग में भी फिल्मी गीतकार
'' कुछ न कहो, कुछ भी ना कहो'' का राग अलाप रहे हैं जबकि पहले तो फिल्मों के नाम तक ''मैं चुप रहूँगी'' ''खामोशीी'' आदि हुआ करते थे और गीतकार कहते है कि
''सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो ''
शब्द की शक्ति को समाप्त करने का सुन्दर षडयंत्र इस गीत में निहित है कि '' ऑखों- ऑखों में बात होने दो। ''
कुछ लोग अपने आप ही अनुशासन पर्व मनाने और गाने लगते हैं
'' अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नही कहते''
कुछ न बोलते हुए भी बोलने की धमकी देते है कि '' हम बोलेगा तो बोलेगा कि बोलता है। ''

मेरी समझ में नही आता है कि यदि सारी बातें इसके बिना ही हो सकती थीं तो परमपिता परमात्मा ने असीम अनुकंपा आदि करके मुँह का निर्माण क्यों किया ? मेरे सवाल के जवाब में नास्तिक प्रतिप्रश्न दाग सकते हैं कि उन्हैं '' मेड बाई परमात्मा '' की मुहर दिखाई जाए कि उसने ही औरिजनल मनुष्य और अंगों का निर्माण किया है, तब ही वे यह आरोप स्वीकारेंगे अन्यथा यह तो उस राजनीतिक षडयंत्र जैसा हुआ कि भ्रष्टाचार के सारे आरोप स्वर्गीय नेताओं पर सिद्व करके खुद बरी हो जाओ।

पर में तो सबसे भला बना रहना चाहता हूँ और मुझे जगतगति नहीं व्यापती, (सबसे भाले मूढ, जिन्हें न व्यापे जगत गति) अत: मान लेताहूँ कि जैसे समाज रूपी शरीर में मुँह में भी मुँह ऊपर है और श्रेष्ठ माना गया है।

अंग्रेजी में कहा गया है कि '' फेस इस द इंडेक्स ऑफ हर्ट '' अर्थात मुँह दिल की दुकान का साईन बोर्ड या दिलरूपी रेस्तरां का मीनू कार्ड है। मुँह की सीमा संकुचित नही है, अर्थात चाय सुड़कने, रोटियाँ निगलने, रसगुल्ले से सराबोर होने, आइसक्रीम चूसने, गालियॉ बकने, चापलूसी करने या उधार मॉगने के काम आने वाला शरीर का भाग ही मुंह नही है अपितु उपरोक्त कार्य करने वाला हिस्सा जहॉ स्थित होता है उस पूरे भाग को मुँह कहते हैं। यही कारण है कि सुबह उठते ही जिस क्षेत्रफल को सबसे पहले धोया जाता है उसे मुँह ही कहते हैं और उसमें पूरा चेहरा सम्मिलित होता है।

अगर ऐसा नहीं होता तो नई ब्याही दुल्हिन को मुँह दिखाई करने के लिए पूरा घूँघट उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, वह तो बिना घूँघट उठाए भी दिख जाता। कोई लड़की यदि बिना दहेज के अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुन लेती तो मॉ- बाप यह नहीं कहते कि उसने हमारे मुँह पर कालिख पोत दी है और हम मुँह दिखाने लायक ही नही रहे।
पुरानी परंपराओं में कुछ लोग प्रकृति प्रदत्त शरीर के अधूरेपन या पिता प्रदत्त जाति के कारण भी प्रात: काल में मुँह देखने लायक नहीं समझे जाते थे, भले ही उनकी बहिन- बेटियॉ लंबे समय तक दहेज तय होने पर ही विवाह करती थीं। मूलत: शदियॉ तो ऊपर आसमानों में परमपिता द्वारा तय की हुयी होती हैं। अधम पिताओं का काम तो केवल दहेज तय करना होता है, जिसके लिए लड़के का बाप पूरा मुँह फाड़कर खड़ा हो जाता है। आम तौर पर लडकियां ऐसे संभावित ससुर को घर से निकल जाने को कहना चाहती हैं पर लाज के मारे वे मुँह नहीं खोल पातीं और बात मुँह की मुँह में रह जाती है। विवाह कराने के मध्यस्थ ऐसे मौके पर या तो मुँह सिलकर बैठ जाते हैं या मुँह देखे की कहते हैं जो इस बात पर निर्भर करता है कि उनका मुँह मीठा कराने की क्षमता किसमें कितनी है। अगर मध्यस्थ कोई ब्राम्हण हुआ तो उसका मुँह मीठा कराना बहुत श्रमसाध्य होता है क्योकि वह अग्निमुख होता है जिससे मीठा करने की सारी सामग्री उसके मुखरूपी अग्निकांड में भस्म होती जाती है।

मुँह बोले भाई या बहिन के सबंध अधिक प्रगाढ़ होते हैं जैसे लक्ष्मी बाई कानपुर के नाना की मुँहबोली बहिन छबीली थीं और उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संगाम में उन्हैं सर्वाधिक मदद की थी। दोनो ने मिलकर अंग्रेजों के मुँह का स्वाद बिगाड़ दिया था। यदि सिंधिया ने साथ दिया होता तो अंग्रेजों ने उसी समय मुँह की खाई होती।

आम तौर पर बड़े आदमी किसी को ज्यादा मुँह नही लगाते पर जिन नेताओं की सार्वजनिक शत्रुता जगजाहिर होती है वे चुनाव के अवसर पर मुँह से मुँह लगा कर बातें करते हुए फोटो खिंचवाते हैं तथा आम जनता को एकता का धोखा देते हैं, भले ही उनक मुँह में राम और बगल में छुरी हो।

कुछ लोग मुँह उठाकर चलते हैं तो कुछ लोग मुँह बाकर सोते हैं। किसी के मुँह पर हवाइयॉ उड़ती हैं तो किसी के मुँह पर मक्खियॉ भिनभिनाती हैं। मुँह का रंग गोरा हो या काला पर जब अचानक ही कोई हादसा घटित हो जाता है तो मुँह पर एक रंग आता है और एक जाता है।

आम तौर पर लोग मुँह से ही बोलते है पर टेलीफोन के दूसरी ओर बात करने वाला अक्सर ही पूछता है कि कहॉ से बोल रहे हैं ? अब उत्तर देने वाले की मजबूरी होती है कि वो कहे कि मैं तो मुँह से बोल रहा हूँ और आप कहॉ से बोल रहे हैं।
मुँह खाद्य एंव पेय पदार्थो के आने जाने का मार्ग ही नही है अपितु इसके द्वारा अंग प्रत्यंग भी आते जाते रहते हैं। बचपन में दांत आते हैं और बुढापे में चले जाते हैं। कइयों की तो ऑतें भी साथ में ले जाते हैं और कहा जाता है कि 'न मुँह में दॉत न पेट में ऑत'। कभी कभी किसी का कलेजा भी मुँह को आने लगता है तथा जिनका नहीं भी आता उनके मुँह में भी मिठाइयों को देखकर पानी आ जाता है।

आम तौर पर मानव जाति में एक ही मुँह होता है पर साँपों के दो मुँहे भी होने का भ्रम प्रचलित है। ब्रम्हा विष्णु, महेश नाम के एक ही धड़ में तीन सिर लगे कलैंडर भी बाजार में मिलते हैं, चतुर्मुखी विष्णु, पंचमुखी महादेव के साथ साथ दस मुँह वाले रावण के चित्र भी प्राप्त होते हैं।

कवियों ने नायिका को चंद्रमुखी कहते कहते इस उपमा को इतना घिसा कि मुक्तिबांध को''चॉद मुँह टेढ़ा है'' कहकर उन्हें झटका देना पड़ा। किन्तु मुक्तिबोध से भी काफी पहिले बुंदेलों की एक कहावत इस एकरूपता को तोड़ रही थी। कहावत है कि '' मौं तौ थपरियन लाख दुर खौं बिरजीं ''।
(अर्थात मुंह तो चॉटों के लायक है पर नाक में पहिने जाने वाले गहने 'दुर' के लिए रूठी- मचली हुई हैं।)

कुछ मुँह तो खाद्य पदार्थो की विशोषताओं के अनुरूप ही बने होते हैं जैसे कि मसूर की दाल खाने के लिए कुछ खास तरह के मुँहों की दरकार होती है जिससे अलग होने पर मसूर की दाल की अपेक्षा रखने वाले से कहॉ जाता है कि ये मुँह और मसूर की दाल। कुछ मुँह आकार में बड़ी चीजों के लिए ही होते है ओर छोटे आइटमों से उनकी संगति नही बैठती तथा ऐसी स्थिति आने पर 'ऊँट के मुँह में जीरा' कहकर आयटम के छोटे होने के साथ साथ उन्हैं बेडोल पशु की उपाधि भी दे दी जाती है। सरकारी इंसपेक्टर, चाहै वे सेल्सटैक्स के हों या लेबर के जगह जगह मुँह मारते रहते हैं दुकानदार भी उनके मुँह का नाप अपने पास रखते हैं और उन्हैं मुँहमॉगी राशि प्रतिमाह बॉध देते हैं।

वैसे तो मैं कुछ और भी कहना चाहता था पर जानता हूँ कि आप ही अब कह देंगे कि तू छोटे मुँह बड़ी बात करता है, इसलिए चुप हूँ।

---- वीरेन्द्र जैन
2\1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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फोन 9425674629

गुरुवार, मई 20, 2010

व्यंग्य- न साधु की जात पूछो और न ज्ञान्

व्यंग्य
न साधु की जाति पूछो और न ज्ञान
वीरेन्द्र जैन
यह कहना गलत है कि साधु की जाति नहीं होती। साधु की जाति तो होती है किंतु वह बताना नहीं चाहता। हमारे नीतिज्ञों ने कहा है- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीज़िए ज्ञान
ये बातें अगर सही अर्थों में स्मझी जायें तो बहुत काम की हैं, भल्र ही थोड़ी बहुत मुश्किल हैं। बहरहाल पहली बात पर आयें और गौर फरमाएं कि नीतिज्ञों ने कहा है कि साधु की जाति तो होती है, पर पूछिएगा मत क्योंकि ज्यादातर साधु उन्हीं जातियों में से बनते हैं जो समाज में निचली समझी जाती रही हैं। ऊंची जाति वाले तो वैसे ही मालपुये उड़ाते रहते रहे हैं सो उन्हें आधुनिक साधु बनने के पाखण्ड की क्या ज़रूरत! ये पुरानी कहावत पहले भी सही थी और उस स्तिथि में अभी भी कोई खास फर्क नहीं आया है। मानलो राम भरोसे ने किसी साधु से उसकी जाति पूछ ली-
“महाराज कौन ठाकुर हौ?” अब यदि बाबा किसी दलित मानी जाने वाली जाति में से हुआ तो वो क्या बताएगा। वह आँखें दिखा सकता है, गुस्सा दिखा सकता है, गाली दे सकता है, श्राप दे सकता है पर जाति बता कर अपने धन्धे का भविष्य खराब नहीं करना चाहता, भले तुम्हारा कर दे। इसलिए समझदारी इसी में है कि उसकी जाति मत पूछो।
पर एक स्तिथि ऐसी भी आती है जब साधु को दोनों जहाँ की फिक्र सताने लगती है और वह राजनीति में कूद पड़ता है। बस यहीं उसे अपनी जाति बताना पड़ती है। साधु हो या साध्वी उसे बताना पड़ता है कि वह लोधी है या यादव है जिससे लोधी या यादवों के वोटों को देखते हुये उसे टिकिट मिल सके और टिकिट मिलने के बाद वोट भी मिल सकें।
सन्यासी जब होंगे तब होंगे अभी तो प्रत्याशी हैं और प्रत्याशी की जाति जाने बिना वोट नहीं मिलते। तुन सड़क बनवा दो पुल बनवा दो, स्कूल खुलवा दो अस्पताल खुलवा दो और अगर पहले से खुला हुआ है तो उसमें डाक्टर और मास्टर पोस्ट करा दो, यदि पोस्ट हैं तो उनका आना सुनिश्चित करवा दो, पर यदि अपनी जाति के नहीं हो तो सब बेकार। इन साले वोटरों के बच्चों को जैसे वोट नहीं देना हो अपनी बेटी व्याहना हो। सो साधु को भी जाति खोलना पड़ती है।
भले बाबा का ढाबा चल निकले और योग की डिश खूब बिकने लगे पर आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्ट्री में फायदा तभी हो सकता है जब मज़दूरों को ठीक से वेतन न देना पड़े और सरकार की उदार सहायता मिलती रहे। सो लालू और मुलायम को बताना पड़ता है कि तुम भी यादव हम भी यादव। बाबा बन गये पर जात नहीं भूले।
में किरार मुख्यमंत्री हो तो लोधी साध्वी को प्रदेश में स्थान नहीं मिलता। उसे अपनी तशरीफ लोधी बहुल दूसरे राज्य में ले जाकर अपने चोगे के रंग को भुनाने की सलाह दी जाती है-
जोगी तुम जाओ रे,
ये है धन प्रेमियों की बस्ती,
यहाँ पैसा ही है ईश्वर
जोगी तुम जाओ रे.................
[ पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं]

बेचारा साधु अपना इकतारा बजाता हुआ अपनी जाति वालों के पास चला जाता है। यही सत्य है यही ईश्वर है। आखिर में अंतिम संस्कार अपनी जाति वाले ही करते हैं। दूसरी बात कि अगर आप साधु का ज्ञान पूछने लगे तो आपका कल्यान निश्चित है। वे मोटे मोटे डंडे, चिमिटा और त्रिशूल आदि इसीलिए रखते हैं कि ज्ञान पूछने वाले का संज्ञान ले सकें। साला, हमारा ज्ञान पूछता है, कपड़ों का रंग नहीं देखता। हमने ये रंग चुना यही हमारा ज्ञान है। हम साधु हैं और चाहे जिस भक्त पर जीप चढा दें, कानून हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। नंगों से भगवान भी डरता है ये तो उस सरकार की पुलिस है जो इस बात पर भी अपनी पीठ खुद थपथपाती है कि साधु की जीप से इतने कम लोग मरे, कुम्भ सफल रहा। साधु कोई राज्यपाल थोड़ी है कि उसका स्टिंग आपरेशन हो जाये तो स्तीफा देना पड़े या साड़ी लुटाकर पचासों औरतों को मार दे और अंतर्ध्यान हो जाये। भगवा पहिन कर कुछ भी करते रहो और फिर भी देश सेक्युलर होने का ढिंढोरा पीटता रहे। जय हो।
इसलिए न साधु की जात पूछना और ना ज्ञान पूछना इसी में कल्याण है। नचिकेता की कथा यही कहती है कि ज़िन्दा रहना चाहते हो तो कुछ मत पूछो।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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