सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

व्यंग्य- बिना माल के दलाल्

व्यंग्य
माल बिना घूमता दलाल
वीरेन्द्र जैन
दलाल का काम होता है कि वह बेचने वाले और खरीदने वाले के बीच मेल बैठाये। बेचने वाले के पास माल होता है और खरीदने वाले के पास पैसा होता है और दोनों ही अन्धे होते हैं। इन दोनों के बीच गाल बज़ाने वाले को दलाल कहते हैं जो दोनों के बीच में रहकर दोनों से ही माल काटता है। चूंकि पूंजीवादी दुनिया में सारे सम्बन्ध व्यवसाय में बदलते जाते हैं और जहां व्यवसाय होगा तो वहां दलाल भी मिलेगा। हमारे देश की राजनीति में भी ऐसे कलाकार मिलते हैं और ज़रूरत पर देश के प्रधानमंत्री तक दलाल सलाम करने लगते हैं। वह फिल्मी कलाकारों की लोकप्रियता को वोटों से भुनवाने के लिये उन्हें राजनीतिज्ञों से मिलवाता है और कलाकारों को नेताओं के सौजन्य से सरकारी सुविधाये दिलवाता है। इधर का माल उधर, और उधर का माल इधर ।
आम तौर पर दलाल की दलाली तभी तक शिखर पर रहती है जब तक कि वह खुद उत्पादक या व्यापारी नहीं बनता, पर जब वह खुद ही व्यापार करने लगता है तो वह सन्दिग्ध हो जाता है।
दलाल के लिये ज़रूरी होता है कि माल वाले से उसका जुड़ाव बना रहे क्योंकि जब माल ही नहीं होगा तो वह क्या बेचेगा! पर कुछ दलालों को यह समझ कुछ देर से आती है। वे मुँह के ज़बर होते हैं जिन्हें सज्जनता की भाषा में वाकपटु कहा जाता है। माल खतम हो जाने की बाद भी वे सौदा करने के लिये फेरी लगाते रहते हैं। जब कवि सच्चे और स्वाभिमानी होते थे उस समय की एक लोक कथा है कि किसी कवि की कविताओं को छोड़ कर बाकी सब कुछ बिक गया केवल चारपाई का एक पाया शेष रहा। वह उसे ही बाज़ार में बेचने निकला। पुराने ज़माने में अपना माल बेचने का इकलौता तरीका यही होता था कि फेरी लगा कर आवाज़ लगाते हुये सामान बेचा जाये। वह गलियों गलियों यह कहते हुये घूमा-
खाट लो खाट
सियरा [सिरा] नईंयां [नहीं है],
पाटी नईंयां
बीच का झकझोल नईंयां
चार में से तीन नईंयां
खाट लो खाट
दलाल के पास बातें तो बहुत होती हैं, और बहुत क्या बातें ही बातें होती हैं, पर वह बात का धनी नहीं होता। उसके पास न बफादारी होती है, न बज़नदारी। सच्चाई तो उसके पास से नाक मूंद कर ऐसे दूर भागती है जैसे कि किसी सार्वजनिक पेशाबघर के पास से गुज़र रही हो। कभी वह ऐसा बीमार होना प्रदर्शित करता है कि शायद गंगाजल पीने और गौदान करने के अलावा और कुछ न कर सके, पर कुछ ही क्षणों में वह पलट कर पुराने पहलवानों से कुश्ती लड़ने के लिये तैयार हो जाता है। वह देश भर की यात्रायें करने लगता है और चैनल दर चैनल नल की तरह बहने लगता है।
स्वाभिमान तो उसके लिये अछूत होता है। वह दाँत निपोर कर किसी के भी साथ चिपक किसी की भी दावत में बिना बुलाये जा सकता है और डकार लेकर बाहर आने के बाद वह उसी को आंखें दिखा सकता है। अहसान किस चिड़िया का नाम है वह नहीं जानता, इसी लिये किसी का अहसान नहीं मानता। वह जहाँ से लतियाया जा चुका होता है उसी दरवाजे फिर से सलाम करने पहुँच जाता है। जिनको दिन में गाली देता है उन्हीं से रात में मिलता है और इसे वकील और क्लाइंट की भेंट बताता है, क्योंकि उसे दूसरा कोई वकील नहीं मिलता।
दलाल बातों में ही नहीं शरीर से भी गोलमटोल होता है। उसकी ज़ुबान कैंची की तरह चलती है और जब कैंची को कुछ नहीं मिलता तो अपनी ही बात को काटने लगती है। दलाल चाहे जो रूप धारण कर ले पर वह हमेशा दलाल रहता है। वह नेता भी बन जाये फिर भी उसका दलालत्व अमर रहता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह खूब कही.... इतनी मोती चमड़ी पर चिकोटी काटना भी एक अद्भुत काला है

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  2. भाई वीरेन्द्र जैन जी!
    ’बिना माल के दलाल’ नामक व्यंग्य पढ़ कर अच्छा लगा। आपकी लेखनी में जबरदस्त धार है। सद्भावी- डॉ० डंडा लखनवी

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