रविवार, मार्च 28, 2010

व्यंग्य - दुखी होने में^ सुखी होने waale

व्यंग्य
दुखी होने में सुखी होने वाले
वीरेन्द्र जैन
वे रोते हुये पैदा हुये थे और जिन्दगी भर तक उसी अवस्था में बने रहना चाहते हैं। चाहते तो वे ये भी हैं कि जब ये दुनिया छोड़ के जायें तो कोई भी हँसता हुआ नहीं मिले, पर ऐसा होता कहाँ है कि चाहा हुआ पूरा हो जाये। वे कई दिनों तो इसी बात पर दुखी हो चुके हैं कि ये दुनिया लोगों के दुखी होने पर भी हँसती है और कुछ ज्यादा ही हँसती है। केले के छिलके पर पैर पड़ने से न जाने कितने लोग गिरे पर होंगे पर उससे कई गुना लोग उन गिरते हुये लोगों को देख कर हँसे होंगे। लोग अन्धों पर हँसते हैं, बहरों पर हँसते हैं, लंगड़ों पर हँसते हैं कुबड़ों पर हँसते हैं, तुतलों पर हँसते हैं, हकलों पर हँसते हैं। पड़ोसी का बच्चा फेल हो जाये तो हँसते हैं और पड़ोसी की लड़की किसी लड़के के साथ भाग जाय तो हँसते हैं, पर अगर पड़ोसी की लड़की किसी दूसरी लड़की के साथ भाग जाये तो और ज्यादा हँसते हैं।
उन्हें लगता है कि यह दुनिया दुखी होने के लिए ही बनी है और जिस दिन लोग दुखी होना बन्द कर देंगे उस दिन ये दुनिया नष्ट हो जायेगी। बुद्ध ने कुछ लोगों के दुख को देख कर सन्यास लेने का फैसला किया था ताकि दुनिया का दुख दूर करने के बारे में सोच सकें। तभी वे भगवान बन सके। आज सारी दुनिया में बौद्ध धर्म इसी कारण से तो छाया हुआ है भले ही इसे झुठलाने के लिए लॉफिंग बुद्धा को प्रचारित कर दिया गया। हिन्दुओं ने इसे मृत्युलोक कहा है और जैनों का तो कहना है कि दुनिया दुखों की खान है तथा सच्चा आनन्द तो मोक्ष में है।
वे सुबह से दुख की खोज में ऐसे निकलते हैं जैसे कि मछुआरे मछली पकड़ने के लिए निकलते हैं। सर्दी हो तो दुखी हो जाते हैं, और गर्मी हो तो दुखी हो लेते हैं। हवा ज्यादा चल रही हो तो दुख है और हवा न चल रही हो तो दुख है। बरसात नहीं हो तो फसल कम होने की आशंका में दुखी होते हैं और ज्यादा होने पर बाढ आने की आशंका में दुखी होते हैं। बरसात हो तो कीचड़ होने व कपड़े न सूख पाने के कारण दुखी होते हैं और न हो तो बीमारी फैलने की आशंका में हो लेते हैं।
लड़कियां कम कपड़ों में दिखें तो दुखी होते हैं और मुँह पर दुपट्टा लपेटे दिखें तो भी दुखी हो लेते हैं। बस देर से आये तो दुखी होते हैं और ज्यादा बसें आने पर वे ट्रैफिक के बहुत बढ जाने व प्रदुषण वृद्धि पर दुखी हो लेते हैं
उनसे कोई अखबार मांगे तो दुखी मन से देते हुये कहते हैं, कुछ खास नहीं है आज। वे चाहते हैं कि एक दो दुर्घटनायें, पांच सात कत्ल, एकाध दर्ज़न बलात्कार, कहीं साम्प्रदायिक तनाव, आदि नहीं घटे तो अखबार के पैसे बेकार गये। जब ट्रेन में बार बार टिकिट चेकर आता है तो दुखी होते हैं पर जब कहीं टिकिट चेक नहीं होता तो और ज़्यादा दुखी होते हैं कि टिकिट के पैसे बेकार गये। अगर टीसी ट्रेन में ही रिजर्वेशन दे दे तो उन्हें लगता है कि भीड़ नहीं थी जनरल डिब्बे में भी जया जा सकता था, और नहीं दे तो उन्हें लगता है कि साला ऊपर से पैसे देने वालों को ही देगा। रिजर्वेशन के डिब्बे में कम सवारियाँ हों तो उन्हें खुद को खर्चीला और दूसरों को मितव्ययी होते जाने का दुख होने लगता है।
सरकारी काम में देर लगे तो भ्रष्टाचार की आशांका में दुखी होते हैं और अगर सचमुच रिशवत देकर काम निकालना पड़े तो कई दिनों के दुखों का स्टाक एक साथ पा लेते हैं।
बच्चे खेलने जायें तो दूसरों से लड़ाई झगड़े का डर सताने लगता है और न जायें तो वे बीमार लगने लगते हैं। घर का कोई सदस्य देर से घर आये तो उन्हें दुर्घटना की तरह तरह के नमूने दुखी करने लगते हैं। छींक आने पर निमोनिया और फुंसी होने पर उन्हें केंसर की गांठ का अनुमान होने लगता है।
बाजार में अगर सुन्दर सब्जी मिले तो उन्हें आयतित खाद से दूषित नजर आने लगती है और खराब मिले तो गाँव की याद आने लगती है। मिठाई में नकली मावा, नमकीन में खेसरी दाल ,धनिया में लीद, और काली मिर्च में पपीते के बीज होने का ख्याल स्वाद लेने से पहले ही लेने लगते हैं। दूध वाले के आते ही उन्हें पानी की मिलावट का ध्यान आता है और डेरी के दूध में पाउडर मिल्क सूंघ लेते हैं। घी के बारे में तो बिल्कुल ऐसे आश्वस्त रहते हैं कि वह नकली ही होगा, जितना कि कोई आस्तिक ईश्वर के बारे में होता है जिसे उसने तो क्या उसकी सात पीढियों ने भी नहीं देखा होता।
साहित्य में अच्छी रचना उन्हें विदेशी साहित्य की नकल लगती है और खराब रचना उससे भी ज्यादा खराब लगती है जितनी कि वह होती है। छंद उन्हें गंवारू लगता है और नई कविता पागलपन। गीत किशोर वय का रूमान लगता है और वीर रस को भौंकने से अधिक महत्व तब देते हैं जब मंच पर हास्य व्यंग्य के नाम पर चुटकलेबाजी दिखती है। बड़ी रचना को बकवास मानते हैं और छोटी रचना को चुटकला समझते हैं। चुटकले को तो वो रचना मानते ही नहीं जबकि सबसे पहले उसी को पढते हैं। किसी को पुरस्कार मिले तो वह जुगाड़ होता है और नहीं मिले तो अन्याय कि आखिर यह आदमी बेकार ही इतने कागज काले करता रहा। इससे तो सट्टा खिला कर ज्यादा कमा लेता।
जब काम होता है तो वह बहुत होता है और जब काम नहीं होता तो वक्त उन्हें काटने को दौड़ता है। कोई नमस्कार नहीं करता तो उन्हें दुनिया में समाज नष्ट होता नजर आता है और कोई नमस्कार करे तो उन्हें किसी स्वार्थ की गंध आने लगती है।
गांव जाते हैं तो बिजली की कमी, गन्दगी और निठल्लापन बुरा लगता है, और शहर में बढती आपाधापी, स्वार्थ, मंहगाई, प्रदूषण, आदि परेशान करते हैं। उन्हें जब भी दिखता है बुरा दिखता है। उनका अलिखित सिद्धांत है कि मूल तो दुख है, और सुख तो एक भ्रम है जो कभी कभी बादलों की तरह छा कर छंट जाता है।
वे आत्महत्या के सर्वाधिक सुपात्र व्यक्ति हैं जिसे वे कभी नहीं करेंगे क्योंकि उसके बाद वे दुखी नहीं हो सकेंगे, जिसके लिए वे जी रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, मार्च 26, 2010

व्यंग्य- भावना का ठेसित होना

व्यंग्य
भावना का ठेसित होना
वीरेन्द्र जैन
देश में दो तरह के लोग हैं। एक वो कि जिनकी भावना को निरंतर ठेस लगती रहती है और दूसरे वे जो कि इस ठेसित भावना से नुकसान उठाते रहते हैं। कल ऐसे ही ठेसित भावना वाले लोगों ने मेरा स्कूटर फूंक दिया और मैं यह भी नहीं कह सका कि आपकी इस हरकत से मेरी भावना को ठेस लग रही है।
उनकी भावना भावना है क्योंकि उनके हाथ में लाठी है।
नया मुहावरा यही बनेगा कि जिसके हाथ में लाठी उसीकी भावना, भावना। आप बिना हाथ में लाठी लिए हुये अपनी भावना को ठेस भी नहीं लगवा सकते!
पता नहीं पुराने जमाने में भावनाएं नहीं होती थीं या भावनाएं ठेस प्रूफ हुआ करती थीं पर अब तो भावनाएं ही भावनाएं और ठेसों ही ठेसों की वैसी भरमार है जैसे जून के मौसम में ठेलों ठेलों पर आम ही आम भरे पड़े रहते हैं- बादाम, दशहरी, लंगड़े बम्बइंया-पता नहीं अब उन्हें मुम्बइया कहा जाने लगा या नहीं- आदि।
भावना को ठेस लगने की कई विधियां होती हैं। अब कहां तक गिनाउं ये इतनी ज्यादा हैं कि मैं कितनी भी गिनाउं कोई ना कोई छूट ही जायेगी। इसलिए गिनती पहाड़ों में भरोसा नहीं करना चाहिये।
आपके कोई महापुरूष हैं? हैं क्या, होंगे ही ! आजकल सबके होते हैं। आदमी बिना रोटी के तो रह लेगा पर बिना महापुरूष के नहीं रह सकता। वह जो भी महापुरूष है आपकी जाति का हो तो ठीक रहता है उससे भावना को ठेस लगने में बहुत सुविधा रहती है। हां तो जो वो महापुरूष है उसकी मूर्ति चौराहे पर लगी होगी और यदि नहीं लगी है तो और भी सुविधा है क्योंकि इसी से आपकी भावना ठेसित हो सकती है। साले इन टुच्चे फुच्चे लोगों के महापुरूषों की तो मूर्तियां चौराहों पर ठुकी हैं और आपके इतने महा महापुरूष की मूर्ति चौराहे पर नहीं है। लो लग गई भावना को ठेस। बस अब यही ठेस अपने जातिभाइयों को भी लगवा दो और इस सरकार की तो..........।
लोकतंत्र में सरकार मन्दिर में लटके घंटे की तरह होती है जो भी वहां से गुजरता है वही ठोकता हुआ निकल जाता है। टन् न् न् न् न् न्न। भावना को ठेस भर लगने की देर है बस फिर तो आप कुछ भी करने के लिए परम स्वतंत्र हैं। पहुंचिये चौराहे पर रोकिये रस्ता और जलाकर रख दीजिये दस पांच वाहनों को । पुतला फूंक दीजिए, टायरों में आग लगाइये क्योंकि वे ज्यादा धुंए के साथ देर तक जल कर आपकी ठेसित भावना को दूर दूर तक प्रवाहित करते हैं।

यदि आपके महापुरूष की मूर्ति चौराहे पर लगी है तो भी कोई बात नहीं तब अन्धेरे में उसके मुंह पर कालिख मलने से भावना को ठेस पहुंचायी जा सकती है या उस मूर्ति की एकाध उंगली तोड़ी जा सकती है ताकि दस पांच सिर तोड़े जाने का बहाना मिल सके। इस आधार पर आप फिर सरकार का घन्टा बजा सकते हैं कि यह सरकार महापुरूषों की मूर्तियों की चौकीदारी क्यों नहीं करती!
यदि आप मूर्तिपूजक नहीं हैं तो भी कोई बात नहीं । आप के पास या आपके जातिभाई के पास अपने महापुरूष का कोई चित्र तो है नहीं इसलिए आप किसी पत्रिका में कहीं पर छपे किसी चित्र या कार्टून को अपने महापुरूष का बता कर भावना को ठेसित मान सकते हैं और चाहे जहां आग लगाते फिर सकते हैं। चूंकि आपकी भावना को ठेस लगी हुयी है इसलिए कोई ये भी पूछने की हिम्मत नहीं करेगा कि आप कैसे कह सकते हैं कि ये आपके ही महापुरूष का कार्टून है।

कोई अपनी पूजापद्धति बदल ले तो भावना ठेसित हो सकती है, कोई अपनी पसंद से विवाह कर ले तो भावना ठेसित हो सकती है कोई खास तरह के कपड़े पहिन ले तो भावना ठेसित हो सकती है और कोई चुम्बन ले ले, जिस पर चुम्बित को कोई आपत्ति नहीं हो, तब भी भावना ठेसित हो सकती है। ये भावना वर्तमान पर ही ठेसित हो यह जरूरी नहीं है यह इतिहास की ‘सच्चाइयों’ से भी ठेसित हो सकती है।

आप भले ही मार्डन आर्ट की एबीसीडी भी नहीं जानते हों और आपको यह समझ में भी नहीं आता हो कि ये जो बनाया गया है वह क्या बला है पर आप उस चित्र में नग्नता ढूंढ कर भावना को ठेसित कर सकते हैं। यदि कोई प्रसिद्ध आलोचक किसी के साहित्य का मूल्यांकन करते हुये उसे खारिज कर दे तो उससे भी आप अपनी भावनाओं को ठेसित करवाने का खेल खेल सकते हैं। आप फिल्मों के विषयों से भावना को ठेसित करा सकते हैं, आप कविता से, कहानी से, व्यंग्य से या साहित्य की किसी भी विधा से भावना को ठेस लगवा सकते हैं। अस्सी के दशक में दूरर्दशन के एक सीरियल में दिये जाने वाले टाइटिल में हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक डा राही मासूम रजा की बहू का नाम पार्वती खान आने से एक की भावना ठेसित हुयीं और उससे डरकर दूरर्दशन ने पार्वतीखान का नाम टाइटिल से हटा दिया था। कभी भाषा के रूप में भावना ठेसित होती है तो कभी क्षेत्र के रूप में।

हमारी भावना तो भीड़ भरे मेले में लहंगा फैलाये घूम रही है और अपेक्षा कर रही है कि उसे ठेस ना लगे। आप फिर भी बचा कर निकलेंगे तो वह खुद टकरा जायेगी क्योंकि उसके भड़ुवे उसके साथ लाठी लेकर जो चल रहे हैं।

हमारी भावना पड़ोस में भूखे बैठे आदमी की विवशता से ठेसित नहीं होती और न सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को देख कर। हमारी भावना कचरा बीनने वाले बच्चों को देखकर भी ठेस नहीं खाती और घर में शौचालय के अभाव में सड़क किनारे धोती उठा कर शौच करती गृहलक्षमियों को देख कर।

कुछ लोग सुबह से भावना को ठेस लगवाने के लिए ही बैठे रहते हैं, गोलमालकरजी अखबार बांचते भावुकजी से दांत कुरेदते हुये पूछते हैं-क्यों भाउ ठेस लगी क्या?
भावुकजी कहते हैं -ढूंढ रहा हूं भाउ आज तो कुछ नजर नहीं आ रहा ।
गोलमालकरजी कहते हैं- ढूंढों ढूंढों यदि नहीं मिले तो बताना! बरना किसी मूर्ति का अंग भंग करा कर ठेस लगवा लेंगे।

वीरेन्द्र जैन
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रविवार, मार्च 21, 2010

व्यंग्य - गडकरी का लाफ्टर चैलेन्ज शो


व्यंग्य
गडकरी का लाफ्टर चैलेंज शो
वीरेन्द्र जैन
अरे ओ हिन्दुस्तान भर के मनहूसो अगर तुम्हारे दिमाग है तो कुछ तो महसूसो। तुम्हारी मनहूसियत को मिटाने आ गया है जनाब गडकरी जी का दि ग्रेट गडकरी लाफ्टर चैलेंज शो। तुतींतींतींतींतीं तींतींतींतींतीं डमाडम डमाडम डमाडम डमाडम इसे देखने के बाद चाहे जितना हँस लो। यह देखने के बाद आपकी सारी मनहूसियत विदा हो जायेगी और हो सकता है कि आपका स्वास्थ गडकरी जी से होड़ लेने लगे। इस लाफ्टर चैलेंज शो में सम्मलित हैं लाफ्टर की दुनिया के मशहूर मारूख नवजोत सिंह सिद्धू जो बिना बात के भी हँस सकते हैं और कलाकारों के अश्लील चुटकलों को अपनी हथेली की थाप और कुर्सी पर देह को दुहरा कर उससे भी ज्यादा अश्लील बना सकते हैं जितना कि वह वास्तव में हो सकता है। अगर आपको अश्लीलता पसन्द नहीं और मारधाड़ ही पसन्द है तो वे उसमें भी पीछे नहीं है अपितु एकाध हत्या का मामला तो उन पर विचाराधीन ही है। वह भी पसन्द नहीं हो तो वो क्रिकेट खिलाड़ी भी रहे हैं और इसी लोकप्रियता को भुनाने के लिए ही तो भाजपा ने उन्हें सजा रखा है भले ही उनके कारण पार्टी की पंजाब इकाई में दनादन हो रही हो।
अगर क्रिकेट भी पसन्द नहीं तो भी हाल से बाहर जाने की ज़रूरत नहीं अभी बैठे रहिये गडकरी जी की नाटक मंडली में मनोरंजन का पूरा इंतज़ाम है। उनके पास हैं दुनिया की मशहूर नृत्यांगना और कलाकार श्रीमती..... नहीं नहीं .. सुश्री हेमा मालिनी.... अब इनका क्या परिचय दें इनका परिचय देना तो सूरज को दीपक दिखाना है। खेद है कि इनके मित्र धर्मेन्द्र जिन्होंने पार्टी के सांसद रहते हुये भी कहा था कि पार्टी ने उन्हें इमोशनली ब्लेकमेल किया अब किसी पद पर नहीं हैं और जिस दिन सुश्री हेमा मालिनी को पार्टी का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया उसी दिन इस इमोशनली ब्लेकमेल हुये कलाकार को छोटा सा अटैक आया। कोई बात नहीं इमोशंस में सब चलता है।
अगर नृत्यांगना नहीं चाहिये, घरेलू बहू चाहिये तो वह भी इसी नाटक मंडली में ही मिलेगी। मिलिये पार्टी की सचिव स्मृति ईरानी से। अगर ईरानी नहीं हिन्दुस्तानी रानी पसन्द हैं तो वह भी हैं, श्रीमती वसुन्धरा राजे सिन्धिया जो राजस्थान में पार्टी का भट्टा बैठाने के बाद अब राष्ट्रीय स्तर पर नमूदार हो रही हैं, जिन्होंने पहले अध्यक्ष को ऐसा नाच नचवाया कि बेचारे न घर के रहे न घाट के। अगर फिर भी ग्लैमर की कमी महसूस कर रहे हों तो बता दें कि एक और टीवी कलाकार वाणी त्रिपाठी भी हैं। क्या कह रहे हैं आप कि ऎंग्री यंग मैन के बिना कहानी में मज़ा नहीं आता तो दुखी न हों गडकरी की मन्डली में वरुण गांधी हैं जो अपनी माँ के पशु प्रेम के कारण धर्मेन्दरजी की तरह किसी कुत्ते का खून पीने में भरोसा नहीं करते अपितु केवल हाथ काट देने की धमकी देते हैं। वैसे कलाकारों की कमी तो पहले भी नहीं थी और ज़रूरत पड़ने पर विनोद खन्ना, शत्रुघन सिन्हा, दारा सिंह, नीतीश भारद्वाज, दीपिका चिखलिया, अरविन्द त्रिवेदी, आदि मेहमान कलाकारों की भूमिका निभाने वाले पहले से ही मौजूद हैं, सो जहाँ भीड़ जुटाना होगी सो जुटा फैंकेंगे। कुल दस प्रतिशत वोट बढाने का ही तो वादा किया है, और अब तो अमिताभजी भी मोदीजी के सम्पर्क में हैं।
यह हिन्दी पट्टी वालों की फिल्म कम्पनी है इसलिये दक्षिण के कलाकारों को कम जगह मिली है वैसे भी दक्षिण में जिस व्यापारी से अनैतिक समझौता करके सत्ता हथियाई थी वह संसद में विपक्ष की नेता का कृपापात्र है सो उसने ऐसा कोड़ा फटकारा कि येदुरप्पा को शोभाहीन कर दिया। ऐसा लगता है कि यह मंडली आम सभाओं में भीड़ खूब जुटायेगी क्योंकि मुलायम मंडली में से ठाकुर अमर सिंह के साथ जयाप्रदा, जया बच्चन, और संजय दत्त के निकल जाने के बाद पहलवान की यादव डेयरी बची है सो मनोरंजन के लिये सबको इस रामलीला नाटक मंडली का ही सहारा मिलेगा। मंथरा भी अपना रास्ता बना चुकी हैं बस चुपचाप मौके की तलाश में हैं सो पहला शो मध्य प्रदेश में ही होगा।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, मार्च 20, 2010

व्यंग्य- पड़ोसी प्रेम्

व्यंग्य
पड़ौसी प्रेम
वीरेन्द्र जैन
जिनसे हमारे सबंध खराब होते हैं, वे मुझे पड़ोसी की तरह लगने लगते हैं क्योकि किसी पड़ोसी से हमारे सबंध कभी अच्छे नहीं रहे। इस मामले में हमारा हाल भारत सरकार जैसा है न उनके सबंध पड़ोसियों से अच्छे रहते है, और न हमारे। पाकिस्तान से तो हमारे खराब सम्बंधों का इतिहास उतना ही पुराना है कि जितना कि खुद पाकिस्तान। फिर हमें अपने शत्रुओं की संख्या में में कुछ कमी नजर आयी तो हमने और राहुल की दादी ने पाकिस्तान को दो टुकड़े होने में अपना पूरा आत्मीय समर्थन दिया जिससे हमारे एक की जगह दो दुश्मन हो गये। अब बंगलादेश भी हमारे सैनिकों की लाशों को बांस पर टांग कर वापिस भेजता है, त्रिपुरा और असम, नागालैण्ड और मणिपुर सहित सभी उत्तरपूर्व के आंतकवादी उसी तरह बंगलादेश में मेहमानवाजी करते हैं जैसे कि कश्मीर के आंतकवादी पाकिस्तान में। श्रीलंका के सैनिक हमारे प्रधानमंत्री को बट प्रहार से सलामी देते हैं और भूतपूर्व प्रधानमंत्री हो जाने पर उन्हें बम से उड़ा देते हैं। नेपाल के जो लोग नेपाल में ही रहते हैं वे सुबह सुबह उठकर भगवान पशुपतिनाथ का नाम बाद में लेते हैं, हमारे देश को गाली पहले देते हैं।

लगभग ऐसा ही सुख मुझे भी अपने पड़ोसियों से प्राप्त है चाहे वे हमारे दायें वालें हो या बायें वाले उपर वाले हो या नीचे वाले। मै बड़ी शान से कह सकता है कि देश की नीतियों पर ठीक तरह से चलने वाले नागरिकों में मेरा वही स्थान है जो गाजर के हलुवे में काजू का होता है। पड़ोसियों के दो ही तो काम होते हैं- एक-सार्वजनिक सुविधाओं का अधिकतम हिस्सा अपने लिए हड़पना और दूसरा- ऐसा करने वाले पड़ोसियों को न करने देना- और कर रहें हों तो उनसे लड़ना।

मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है जिसका अर्थ होता है कि कोई उसके पड़ोस में रहता है तथा वह किसी के पड़ोस में रहता है। इस आस पास अलग- अलग रहने को ही सामाजिकता और प्रकारान्तर में पड़ोस कहते हैं। इन सामाजिक प्राणियों के सामाजिक सम्बध होते है जो आमतौर पर '' करेले और नीम चढ़े '' के होते है। एक तो बेचारा नीम पूरी बेल को अपने ऊपर चढ़ाये रहता है तथा फिर भी उसके मूल दुर्गण को बढ़ाने में अपने ऊपर दोष भी सहता है।

इतिहास बताता है कि पड़ोसियों के बीच पुराने समय में ही सम्बंध अच्छे नहीं रहते थे। यही कारण है कि ईसा मसीह को अपने भक्तों से कहना पड़ा कि अपने पड़ोसियों से प्रेम करो। यदि वे पहले से ही ऐसा कर रहे होते तो ईसा मसीह को ये उपदेश देने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

फिल्मों में भी पड़ोस के प्रेम के ज्यादा उदाहरण नहीं मिलते। देवदास, तेरे घर के सामने, पड़ोसन प्यार किये जा आदि में भी पड़ोसी और पड़ोसिनों के प्रेम के उदाहरण जरूर मिलते हैं पर पड़ोसी पडोसी के बीच तो दुश्मनी ही चलती रहती है। पड़ोसी के बीच ईर्षा चलती है, द्वेष चलता है, चुगलियां चलती है, पर प्रेम नहीं चलता।

बहुमंजिले भवनों और नई कालोनियों में रहने वाले तो जन्मजात शत्रु ही होते है। उनके घरों के दरवाजे खुले कम और बन्द ज्यादा रहते हैं आमने सामने रहने वाले शर्मा जी को वर्मा जी की ओर वर्मा जी को शर्मा जी की शकल कम और दरवाजे पर लटकी नेम प्लेट ज्यादा नजर आती है। पड़ोसियों के कारण ही दीवारों में कान हुआ करते थे और अब तो दरवाजों में आंख पैदा हो गयी है। वर्मा जी दरवाजा खोलने से पहले देख लेते हैं कि शर्मा जी तो नहीं निकल रहे और यही काम शर्मा जी के दरवाजे की आंख से भी होता है।

रहीम ने तो '' निन्दक नियरे राखिये '' कहकर पड़ोसी के चरित्र चिंतन में कोई कसर ही बाकी नहीं छोड़ी। घर छोड़ कर हिमालय की कन्दराओं में बसने की जरूरत पड़ोसी के कारण ही पड़ती होगी क्योकि पडोस छोड़े बिना शन्ति कहॉ सम्भव है। मिर्जा गालिब को इन्हीं पड़ोसियों के कारण ही कहना पड़ा होगा कि - रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो।
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वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मार्च 10, 2010

व्यंग्य किडनी और राज्यसभा सदस्यता के सौदे

व्यंग्य
किडनी और राज्य सभा सदस्यता के सौदे
वीरेन्द्र जैन
एक होती है किडनी, [वैसे तो एक व्यक्ति के पास किडनियाँ दो होती हैं पर किस्से कहानियों में ऐसे ही कहा जाता है] जो मनुष्यों के शरीर में पायी जाती है। इसका काम गन्दे खून को साफ करना होता है। कृपया खून को खून के अर्थ में ही लें, वैसे इसके कई अर्थ हो सकते हैं, जैसे किसी ने कहा कि मेरा स्व. प्रमोद से खून का रिश्ता था, क्योंकि मैंने उसका खून कर दिया था, या लोग अपने बच्चे की किसी सफलता पर गर्व से कहते हैं कि यह मेरा खून है तथा दूसरे के बच्चे की नालायकी पर कहते हैं कि न जाने किस कमीन का खून है आदि। अब किडनियों के बदले जाने की सुविधा हो गयी है किंतु पुराने ज़माने में किडनियाँ खराब हो जाने के बाद वैसे ही बदली नहीं जा सकतीं थीं जैसे कि आजकल के ज़माने में चाइना के माल के बारे में कहा जाता है कि -नो एक्सचेंज। यौं पहले सरज़री तो होती थी। पौराणिक गणेशजी के स्वरूप के उदाहरण को छोड़ भी दें तो भी रीतिकालीन कवि ‘कटि का कंचुक काट के कुचक मध्य धर दीन’ लिख कर कुशल सरज़री की उपस्तिथि का संकेत दे गये हैं। आते आते वो ज़माना आ गया कि किडनियाँ न केवल बदली ही जाने लगीं अपितु बाज़ार में मोबाइल सैटों की तरह बिकने भी लगीं। पिछ्ले दिनों ही दिल्ली में किडनी का धन्धा करने वालों का बड़ा रैकिट पकड़ा गया था किंतु इस हाथ ले उस हाथ दे वाले सिद्धांत के अनुसार सब कुछ रफा दफा हो गया। अब बेचारी जनता को भी चौबीस घंटे के मीडिया द्वारा रोज़ रोज़ नये नये स्टिंग दिखाये जाने लगे हैं कि वह भी ऊब चुकी है। वह बेचारी भी कितना याद रखे!

कानून ने किडनी समेत सभी अंगों के सौदों को अवैध घोषित कर रखा है पर अगर कानून के किये कुछ होता होता तो अब तक समाजवाद आ गया होता। कानून तो किताबों में लिखने और पढने की चीज़ है। उसका हाल तो वैसा है जैसा कि किसी कवि ने कहा है कि- सत्य अहिंसा दया धर्म का उनसे बस इतना नाता है दीवालों पर लिख देते हैं, दीवाली पर पुत जाता है
अगर कानून के रोके किडनी का व्यापार रुकता होता तो हमारे राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के बीच किडनी सौदे का जो सार्वजनिक विवाद चल रहा है उस पर कोई कार्यवाही हो जाती। अगर आपको याद नहीं आ रहा हो तो याद दिला दूं कि पिछले दिनों जब आज़मगढ के ठाकुर अमर सिंह ने, जिनकी ज़ुबान खुद को मुलायम सिंह का हनुमान बताते बताते नहीं सूखती थी, समाजवादी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता और राज्य सभा की सदस्यता को छोड़ कर शेष सारे पदों से स्तीफा दे दिया तथा जब राज्य सभा से भी स्तीफा देने की मांग की गयी तो कहा कि पहले मेरी किडनियाँ वापिस दो, तब राज्यसभा की सदस्यता से स्तीफा दूंगा। ये सीधा सीधा किडनी का सौदा है और मानव अंग अवैध प्रत्यारोपण जैसे कानून के अंतर्गत आता है। ठाकुर अमर सिंह राजपूत जो अब अपने को यादव मरीचिका से स्वतंत्र मानते हैं अपनी किडनियाँ वापिस माँग रहे हैं।
‘ तुम मुझे किडनी दो मैं तुम्हें स्तीफा दूंगा’

अब बेचारे पहलवान मुलायम सिंह लौटाने के लिये किडनियाँ कहाँ से लायें उन्हें तो यह लग रहा है कि जैसे कोई कह रहा हो- तलाक दे तो रहे हो बड़ी अकड़ के साथ मेरा शबाब भी लौटाओगे, मेहर के साथ?

पहले वाले लोहियावादी मुलायम सिंह होते तो कह सकते थे कि किडनियाँ तो लौटा दूंगा किंतु तुमने जो मेरा दिमाग और दिल निकाल लिया है वह तो लौटा दो। जिस देश में पैसों और किडनियों की दम पर उच्च सदन चल रहे हों उस देश के मालिक तो फाइव स्टार आश्रमों में रहने वाले रास रचैय्या बाबा ही होंगे!
जय जय नित्यानन्द की जय!
वीरेन्द्र जैन
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