गुरुवार, मई 27, 2010

व्यंग्य कानून क़ानून होता है


व्यंग्य
कानून, कानून होता है
वीरेन्द्र जैन

यह वाक्य आपने भी सुना होगा कि ' कानून, कानून होता है'। मैने तो इसे हजारों बार सुना है और हो सकता है कि किसी दिन गिन्नीज बुक में वर्ल्ड रिकार्ड भी मेरे नाम से ही बने कि मैने सबसे अधिक बार इस बाक्य को सुना है। राज की बात यह है कि इतनी बार सुनने के बाद भी मैं आज तक इसका अर्थ नहीं समझ पाया। जिससे भी पूछों वह यही कहता है कि कानून - कानून होता है।
अपनी जिज्ञासा के चक्कर में मैने अनेक लोगों से माथा पच्ची की, पर खेद कि कोई भी मुझ जैसे मूढ को समझा नहीं सका। मैं एक डाक्टर के पास गया। मेरा भ्रम था कि वे भाषा विज्ञान के डाक्टर होंगे पर वे देह शास्त्र के डाक्टर निकले। बोले ' तुम्हें मालूम है, कानून के हाथ लम्बे होते हैं '' ।
मेरे मन में एक बिम्ब बना जिसमें एक मोटी पोथी में से दो हाथ निकले थे जो काफी लम्बे थे और एक दूसरे पर रखे हुये थे। मैने मन ही मन प्रश्न किया कि ये एक हाथ दूसरे हाथ पर क्यों रखा हुआ है, तो तुरन्त ही मेरे दिमाग ने उत्तर भी खोज निकाला कि कानून के हाथ लम्बे तो हैं पर वो हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। मुझे रहीम का दोहा याद आ गया -

बडे हुये तो क्या हुये, जैसे पेड़ खजूर
छांह न बैठें दो जनें, फल लागे अति दूर

पर इस मन का क्या करें, ये तो चंचल होता है। मैथलीशरण गुप्त तो पहले ही कह गये हैं कि-
कोई पास न रहने पर भी जन मन मौन नही रहता
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता
सो मन ने अगला सवाल किया कि यह कोई काम क्यों नहीं करता। इस सवाल का उत्तर भी अन्दर से ही आया- कानून अपना काम करेगा - ला विल टेक इट्स ओन कोर्स'।
ठीक है भाई, अपना काम ही करे! मैं कब कहता कि किसी और का काम करे,! पर करे तो। एक सुस्त आदमी को देखकर दूसरे को भी सुस्ती आती है। रात में कार का ड्रायवर कहता है कि अगर सोना है तो पीछे बैठिये क्योकि अगर मैं थोड़ी देर को भी सो गया तो आप हमेशा के लिए सो जाओगे- तस्वीर के नीचे लिखा मिलेगा 'चिर निद्रा निमग्न'। कानून अपना काम करे तो दूसरों को भी काम करने की प्रेरणा मिले। मन में सवाल किया कि क्या इसका कोई धनी धोरू नहीं है, कोई मालिक सर परस्त नहीं है ? पर दिमाग के पास तो सारे उत्तर रहते हैं। उससे उत्तर मिला है, इसकी देवी होती है जो आंखों पर पट्टी बांधे रहती है इसलिए उसे न काम करता हुआ कोई दिखता है और न बैठा हुआ दिखता है। निष्पक्षता के चक्कर में उसने देखना भी छोड़ दिया है।
मन में आया कि मैं इसकी कुछ मदद करूं। इसे थोड़ा हिलाऊं, डुलाऊं, उठाऊं, इसके मुंह पर पानी के छींटे मारूं और कहूं कि भाई हाथ पर हाथ धरे बहुत देर हो गयी अब तो उठो और कुछ करो धरो। आखिर काम को जल्द निबटाना है, देश को आगे बढ़ाना है। मैं जैसे ही उसकी ओर बढ़ा तो ऊपर से जोरदार आकाशवाणी हुयी- कानून को अपने हाथ में मत लो। मैं डर गया और तुरन्त पीछे हट गया। मुझे लगा कि मैं कानून की नींद नहीं, अपितु कानून ही तोड़ रहा था। फिर कानून के तो अपने दांव पेंच भी होते हैं यदि इसने एक का भी प्रयोग कर दिया तो मैं तो चारों खाने चित हो जाऊंगा तथा चारा खाने तक की हिम्मत नहीं बचेगी।
मैं सो गया तो मेरे सपने में वाल्तेयर आये। बोले बेटे कानून के चक्कर में मत पड़ो।
'' क्यों '' ? मैने आदत के अनुसार सवाल किया।
वे बोले- सारे कानून बेकार हैं क्योकि अच्छे लोगों के लिए किसी कानून की जरूरत नहीं है और बुरे लोग किसी कानून को नहीं मानते।
तब से मैने भी चिन्ता छोड़ दी है और हाथ पर हाथ धरे ही क्या हाथ पर लात धरे बैठा हूं।
----
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

बुधवार, मई 26, 2010

व्यंग्य आर्ट आफ स्लीपिंग


व्यंग्य
आर्ट ऑफ स्लीपिंग
वीरेन्द्र जैन


मैं आर्ट ऑफ स्लीपिंग सिखाना चाहता हूं।
जो आदमी बड़ा नहीं बन पाता वह बड़े आदमियों के आस पास रहकर सुख पाता है। मुझे लोगों को यह बताने में बहुत सुख मिलता है कि कुछ आईएएस अधिकारी मेरे मित्र रहे हैं। बांटनहारे को मेंहदी के रंग लग जाने की लालसा में निरंतर मेंहदी बांटता रहता हूं। अगर आप मेरी इस मित्रता से प्रभावित हो रहे हों तो आपको आगे बताऊं कि ऐसे ही एक आईएएस अधिकारी का फोन आया और उसने पूछा- '' तुम सुबह कितने बजे उठ जाते हो ? ''
'' साढ़े पॉच बजे '' मैने उत्तर दिया।
'' इतने सुबह उठ कर क्या करते हों ''
'' रक्त की शक्कर कम करके जिन्दगी में मिठास घोलने की कोशिश करता हूं- आदेश करें। मैं सुबह घूमने जाता हूं।''
'' एक अच्छी जगह चलोगे ''
'' अगर कोई ले चलने वाला हो तो मैं खराब जगह भी चलने को तैयार हूं। ''
'' गोद में थोड़े ही जाओगे। गाड़ी में बैठ जाना और चले चलना ''
'' पर, बाइ-द-वे चलना कहॉ है ''
'' आर्ट ऑफ लिविंग के क्लास में ''
'' तुम इतने बड़े अधिकारी हो गये और तुम्हें जीना भी नहीं आता। वह भी 'सीख' रहे हो।''
'' जीना तो कुत्ते बिल्ली शेर चीते सांप तितली सब को आता है पर हमारे बड़े मंत्री भी सीख रहे हैं सो सारे अधिकारी भी सीखने लगे हैं ''
'' चलो मुफ्त में मिल जाये तो चन्दन घिस लेने में क्या बुराई है! और वह भी मंत्री के सान्निध्य में'' मुझे संतोष हुआ।. बड़े लोगों के निकट चिपकने का सुख अकेले मैं ही नहीं लूटना चाहता हूँ, ये बड़े अधिकारी भी इसी रोग का शिकार है।
'' मुफ्त का नहीं है महानुभाव, पन्द्रह सौ रूपया फीस है तीन दिन के कोर्स की ''
'' मर गये, अगर मेरे पास इतना पैसा फालतू होता तो मैं अकेले क्या सैकड़ों लोगों को काजू वाले बिस्कुट खिला कर उन्हें जीने का तरीका सिखा देता- क्या टीवी के विज्ञापनों से लोग कुछ नही सीखते?
'' तो तुम नही चलोगे ''
'' इस कीमत पर चलना तो मेरे बूते के बाहर है ''

इस बातचीत के बाद मुझे लगा कि इस दुनिया में जिनके पास पैसा है वे कुछ भी नहीं जानते, और उन्हें कुछ भी सिखाया जा सकता है। यही कारण है कि मैं अब 'आर्ट ऑफ स्लीपिंग'' सिखाना चाहता हूं। केवल ग्यारह हजार रूपये की मामूली राशि पर।
सोना एक कला है, जिसे सीखकर ही जाना जा सकता है। नवजात शिशु नहीं जानता, इसलिए दिन में तेइस घंटे सोता रहता है। बूढे लोग भी नहीं जानते इसलिए सुबह चार बजे से ही ''राम-राम'' करने लगते हैं। मजदूर लोग नहीं जानते इसलिए वे सोते नहीं लस्त पस्त होकर गिर पड़ते हैं। पर मैं इनमें से किसी को भी आर्ट ऑफ स्लीपिंग सिखाने नहीं जा रहा हूं ।
यह कला तो मैं आपको सिखाऊंगा। आप जैसे लोग, अर्थात वे जिनकी जेब में ग्यारह हजार रूपयें हैं। जेब में न होंगे, तो सेफ में होगे। और अगर एक नम्बर के हैं तो बैंक में होंगे। और यही पैसा तो आपको सोने नहीं देता। जब इसे आप मेरे यहॉ जमा कराके रसीद जेब में रख लेंगे तो बहुत चैन की नींद आना प्रारम्भ हो जायेगी।
इतना ही नहीं मैं सिखाऊंगा भी आपको। पहले जरा सिर के बाल मुढवा लूं। बाल मुढवाने से ललाट की चौड़ाई बढ़ जाती है और आदमी पहुँचा हुआ नजर आने लगता है, फले ही वह कहीं भी पहुँचा हुआ न हो। पहुँचे हुऐ लोगों की बात सुनने की परम्परा है। और पहुँचा हुआ दिखने के लिए पोषाक होती है। पैन्ट कोट वालों की बातें बाहर ही रह जाती हैं किन्तु धोती बांधने वालों की बातें हवा की तरह भीतर तक जाती है इसलिए धोती पहनने की आदत तो डाल लूं। थोड़ा त्यागी जैसा भी दिखने लगूंगा। लोगों को त्यागी आदमी को पैसा देने में बड़ा सुख मिलता है। बड़ी बड़ी सम्पत्ति वाले आश्रम के बाबा लोग त्याग का बड़ा ढोंग करते हैं और पैसे के प्रति निरपेक्ष दिखने की कोशिश करते हैं पर रात दस बजे के बाद सेक्रेटरी से पूंछते है कि वो झांसी वाला सेठ कितने पैसे दान कर गया।
मेरे भाषण का प्रारूप कुछ कुछ ऐसा होगा। सुनिये!
सोने के लिए लम्बे होकर लेट जाना चाहिए। लेटने के लिए चारपाई, तखत, या सिंगल अथवा डबल बैड, जैसी भी पारिवारिक स्थिति हो, का प्रयोग कर सकते हैं। भक्तो! सोने के इन उपकरणों को पहले जॉच लेना चाहिए कि इनमें कहीं खटमल तो नहीं हैं। फिर इनके ऊपर एक दरी बिछाना चाहिए। दरी पर गद्दा बिछाना चाहिए और उस गद्दे पर चादर बिछाना चाहिए। एक चादर ओढ़ने के लिए रख लेना चाहिए। मच्छरों से बचने के लिए आम तौर पर सोने वाला व्यक्ति मच्छर काटने वाले स्थान पर जोर का हाथ मारता है, ताकि मच्छर को हमेशा के लिए चैन की नींद सुला दे पर हथेली की हवा लगते ही मच्छर उड़ जाता है, तमाचा सोने वाले के शरीर पर ही पड़ता है। ऐसे चांटे खाते रहने से आदमी की नीद टूटती है इसलिए किसी देवता के आगे आप भले ही अगरबत्ती न लगाते हों किंतु कमरे में मच्छर अगरबत्ती या वाष्पीकृत होने वाले द्रव्य को बिजली के स्विच में लगाकर रख देना चाहिए। स्विच को आन कर देना चाहिए। किंतु यह तभी काम करेगा जब बिजली आ रही हो। कुछ लोग मच्छरदानी का प्रयोग भी करते हैं पर कभी कभी रात्रि में लघुशका करते समय भी उसे साथ लपेटे हुये उठ जाते हैं जिससे उनका हवा महल धाराशायी हो जाता है। वे जिन निद्रा देवी की गोद में लेटे होते हैं उन देवी की नींद भी टूट जाती है। यह स्थिति बाहर प्रतीक्षा कर रहे मच्छरों को सुविधा प्रदान करती है। इसलिए मच्छरों से बच कर सोना आर्ट आफ स्लीपिंग का महत्वपूर्ण पार्ट है।
सिर के नीचे तकिया लगाना चाहिए इससे पता चलता है कि सोये हुए आदमी का सिर किस तरफ है, मान लो रात्रि में कोई आपके पैर छूना चाहे तो गलती से सिर न छू ले। यही धोखा आपका गला काटने वाले को भी हो सकता है। गर्मी में पंखा, कूलर, या एसी क़ा प्रयोग किया जा सकता है और सर्दी में हीटर और रज़ाई का।

पर अच्छी नींद होने के लिए अच्छी कंपनी की गोली खाना चाहिऐ। गोली को अंगूठा और अनामिका में पकड़ कर मुंह के अन्दर ले जाना चाहिए और फिर तुरंत ही गिलास से पानी पी लेना चाहिए। जैसे ही गोली के अन्दर जाने का अहसास हो तो- गई - के अन्दाज में सिर हिलाकर संतोष करना चाहिए और इस विश्वास के साथ लेट जाना कि अब अच्छी नींद आयेगी। विश्वासं फल दायकं।

सोने से पहले नींद के आराध्य देव का स्मरण करना चाहिये। आप सब जानते ही होगे कि नींद के आराध्यदेव कौन हैं। यदि नहीं जानते तो जान लीजिए कि नींद के आराध्य देव आचार्य कुम्भकरण हैं। जो लोग भी कुम्भकरण महाराज की प्रार्थना करके सोते हैं उन्हें अच्छी नींद आती है। कुम्भकरण महाराज किसकी प्रार्थना करके सोते थे यह अभी खोज का विषय है। सोने के मामले में शेष शैया पर सोने वाले विष्णु जी को भी उदाहरण् के बतौर लिया जा सकता है जो लक्ष्मी जी से पैर दबवाने के बाद ही सोते हैं। भक्तों ने विष्णु भगवान के बैठे हुए चित्र कम ही देखे होंगे- या तो वे लेटे रहते हैं या फिर सुर्दशन चक्र में उंगली डाल कर खड़े रहते है उनके सोने से ही दुखी होकर भृगु महाराज ने लात मारी थी जिससे उनका कुछ भी नहीं घटा था।
का रहीम हरि को घटयो, जो भृगु भारी लात
एक बार किसी गांव के निवासी के घर में मेहमान आ गये तो उसने पड़ोसी धर्म का निर्वाह करते हुए अपने पड़ोसी से चारपाई मांगी।

'' मेरे पास तो कोई चारपाई फालतू नहीं है क्योकि घर में केवल दो ही चारपाइयॉ हैं जिनमें से एक पर मैं और मेरे पिता सोते हैं तथा दूसरी पर मेरी मॉ और मेरी पत्नी '' पड़ौसी ने अपनी विवशता दर्शायी।
'' चारपाई न देना हो तो मत दो, पर सोया किस तरह जाता है यह तो सीख लो '' पड़ोसी सलाह देकर वापिस चला आया। यह सलाह देने वाले मेरे गुरू थे। यदि ये पड़ोसी आर्ट ऑफ स्लीपिंग के क्लास में आते होते तो उन्हें दुविधा से नहीं गुजरना पड़ता।
सोने के महत्व का हमारे साहित्य में विस्तार से वर्णन मिलता है। कहा गया है कि-
किस किस को याद कीजिये- किस किस को रोइये
आराम बड़ी चीज है मुंह ढ़क के सोइये
एक और शायर ने कहा है कि -
'' है किसी माने में मुफलिस के लिए सोना नही ''
जिस तरह '' कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय '' उसी तरह उस सोने से इस सोने का महत्व ज्यादा है और सही तरीके से सोने की कला सीख कर ही आप सोने में सुहागा की कहावत को “सोने में सुहाग” होने को चरितार्थ कर सकते है। कृपया अपने मित्रों और मंत्रियों को भी इस क्लास के लिए प्रेरित करें। सिर्फ ग्यारह हज़ार रुपये में।

वीरेन्द्र जैन
2/1शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, मई 22, 2010

व्यंग्य--- छोटा मुंह बड़ी बात


व्यंग्य
छोटा मुँह बड़ी बात
वीरेन्द्र जैन
शासकों ने अभिव्यक्ति पर रोक लगाने के हजारों तरीके समय- समय पर विकसित और प्रयुक्त किए हैं, उनमें से सबसे बारीक तरीका साहित्यकारों, लेखकों द्वारा वाणी पर प्रतिबंध का संवेदनात्मक प्रचार कराना भी है।
अंग्रेजी में कहावत है कि '' इफ स्पीच इज सिल्वर देन साइलेंस इस गोल्ड '' वहीं, अपने यहॉ कहा गया है कि '' एक चुप सौ को हराती है ''। वाणी स्वातंत्र के इस युग में भी कहावत प्रचलित है कि '' मूर्ख अधिक बोलता है''। कवियों शायरों ने भी वाणी की जगह मौन रखने का प्रचार किया है। एक कवि कहते है:-
शब्द तो शोर है तमाशा है
भाव के सिंधु में बताशा है,
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है।
शब्द की जगह इशारों की अधिक तारीफ करते हुए एक गीतकार कहता है कि '' इशारों- इशारों में दिल लेने वाले बता, ये हुनर तूने सीखा कहॉ से । ''
या -
नैन मिले उठे झुके, प्यार की रात हो गई,
मौन का मौन रह गया बात की बात हो गई।

आज के रैप और पॉप के युग में भी फिल्मी गीतकार
'' कुछ न कहो, कुछ भी ना कहो'' का राग अलाप रहे हैं जबकि पहले तो फिल्मों के नाम तक ''मैं चुप रहूँगी'' ''खामोशीी'' आदि हुआ करते थे और गीतकार कहते है कि
''सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो ''
शब्द की शक्ति को समाप्त करने का सुन्दर षडयंत्र इस गीत में निहित है कि '' ऑखों- ऑखों में बात होने दो। ''
कुछ लोग अपने आप ही अनुशासन पर्व मनाने और गाने लगते हैं
'' अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नही कहते''
कुछ न बोलते हुए भी बोलने की धमकी देते है कि '' हम बोलेगा तो बोलेगा कि बोलता है। ''

मेरी समझ में नही आता है कि यदि सारी बातें इसके बिना ही हो सकती थीं तो परमपिता परमात्मा ने असीम अनुकंपा आदि करके मुँह का निर्माण क्यों किया ? मेरे सवाल के जवाब में नास्तिक प्रतिप्रश्न दाग सकते हैं कि उन्हैं '' मेड बाई परमात्मा '' की मुहर दिखाई जाए कि उसने ही औरिजनल मनुष्य और अंगों का निर्माण किया है, तब ही वे यह आरोप स्वीकारेंगे अन्यथा यह तो उस राजनीतिक षडयंत्र जैसा हुआ कि भ्रष्टाचार के सारे आरोप स्वर्गीय नेताओं पर सिद्व करके खुद बरी हो जाओ।

पर में तो सबसे भला बना रहना चाहता हूँ और मुझे जगतगति नहीं व्यापती, (सबसे भाले मूढ, जिन्हें न व्यापे जगत गति) अत: मान लेताहूँ कि जैसे समाज रूपी शरीर में मुँह में भी मुँह ऊपर है और श्रेष्ठ माना गया है।

अंग्रेजी में कहा गया है कि '' फेस इस द इंडेक्स ऑफ हर्ट '' अर्थात मुँह दिल की दुकान का साईन बोर्ड या दिलरूपी रेस्तरां का मीनू कार्ड है। मुँह की सीमा संकुचित नही है, अर्थात चाय सुड़कने, रोटियाँ निगलने, रसगुल्ले से सराबोर होने, आइसक्रीम चूसने, गालियॉ बकने, चापलूसी करने या उधार मॉगने के काम आने वाला शरीर का भाग ही मुंह नही है अपितु उपरोक्त कार्य करने वाला हिस्सा जहॉ स्थित होता है उस पूरे भाग को मुँह कहते हैं। यही कारण है कि सुबह उठते ही जिस क्षेत्रफल को सबसे पहले धोया जाता है उसे मुँह ही कहते हैं और उसमें पूरा चेहरा सम्मिलित होता है।

अगर ऐसा नहीं होता तो नई ब्याही दुल्हिन को मुँह दिखाई करने के लिए पूरा घूँघट उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, वह तो बिना घूँघट उठाए भी दिख जाता। कोई लड़की यदि बिना दहेज के अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुन लेती तो मॉ- बाप यह नहीं कहते कि उसने हमारे मुँह पर कालिख पोत दी है और हम मुँह दिखाने लायक ही नही रहे।
पुरानी परंपराओं में कुछ लोग प्रकृति प्रदत्त शरीर के अधूरेपन या पिता प्रदत्त जाति के कारण भी प्रात: काल में मुँह देखने लायक नहीं समझे जाते थे, भले ही उनकी बहिन- बेटियॉ लंबे समय तक दहेज तय होने पर ही विवाह करती थीं। मूलत: शदियॉ तो ऊपर आसमानों में परमपिता द्वारा तय की हुयी होती हैं। अधम पिताओं का काम तो केवल दहेज तय करना होता है, जिसके लिए लड़के का बाप पूरा मुँह फाड़कर खड़ा हो जाता है। आम तौर पर लडकियां ऐसे संभावित ससुर को घर से निकल जाने को कहना चाहती हैं पर लाज के मारे वे मुँह नहीं खोल पातीं और बात मुँह की मुँह में रह जाती है। विवाह कराने के मध्यस्थ ऐसे मौके पर या तो मुँह सिलकर बैठ जाते हैं या मुँह देखे की कहते हैं जो इस बात पर निर्भर करता है कि उनका मुँह मीठा कराने की क्षमता किसमें कितनी है। अगर मध्यस्थ कोई ब्राम्हण हुआ तो उसका मुँह मीठा कराना बहुत श्रमसाध्य होता है क्योकि वह अग्निमुख होता है जिससे मीठा करने की सारी सामग्री उसके मुखरूपी अग्निकांड में भस्म होती जाती है।

मुँह बोले भाई या बहिन के सबंध अधिक प्रगाढ़ होते हैं जैसे लक्ष्मी बाई कानपुर के नाना की मुँहबोली बहिन छबीली थीं और उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संगाम में उन्हैं सर्वाधिक मदद की थी। दोनो ने मिलकर अंग्रेजों के मुँह का स्वाद बिगाड़ दिया था। यदि सिंधिया ने साथ दिया होता तो अंग्रेजों ने उसी समय मुँह की खाई होती।

आम तौर पर बड़े आदमी किसी को ज्यादा मुँह नही लगाते पर जिन नेताओं की सार्वजनिक शत्रुता जगजाहिर होती है वे चुनाव के अवसर पर मुँह से मुँह लगा कर बातें करते हुए फोटो खिंचवाते हैं तथा आम जनता को एकता का धोखा देते हैं, भले ही उनक मुँह में राम और बगल में छुरी हो।

कुछ लोग मुँह उठाकर चलते हैं तो कुछ लोग मुँह बाकर सोते हैं। किसी के मुँह पर हवाइयॉ उड़ती हैं तो किसी के मुँह पर मक्खियॉ भिनभिनाती हैं। मुँह का रंग गोरा हो या काला पर जब अचानक ही कोई हादसा घटित हो जाता है तो मुँह पर एक रंग आता है और एक जाता है।

आम तौर पर लोग मुँह से ही बोलते है पर टेलीफोन के दूसरी ओर बात करने वाला अक्सर ही पूछता है कि कहॉ से बोल रहे हैं ? अब उत्तर देने वाले की मजबूरी होती है कि वो कहे कि मैं तो मुँह से बोल रहा हूँ और आप कहॉ से बोल रहे हैं।
मुँह खाद्य एंव पेय पदार्थो के आने जाने का मार्ग ही नही है अपितु इसके द्वारा अंग प्रत्यंग भी आते जाते रहते हैं। बचपन में दांत आते हैं और बुढापे में चले जाते हैं। कइयों की तो ऑतें भी साथ में ले जाते हैं और कहा जाता है कि 'न मुँह में दॉत न पेट में ऑत'। कभी कभी किसी का कलेजा भी मुँह को आने लगता है तथा जिनका नहीं भी आता उनके मुँह में भी मिठाइयों को देखकर पानी आ जाता है।

आम तौर पर मानव जाति में एक ही मुँह होता है पर साँपों के दो मुँहे भी होने का भ्रम प्रचलित है। ब्रम्हा विष्णु, महेश नाम के एक ही धड़ में तीन सिर लगे कलैंडर भी बाजार में मिलते हैं, चतुर्मुखी विष्णु, पंचमुखी महादेव के साथ साथ दस मुँह वाले रावण के चित्र भी प्राप्त होते हैं।

कवियों ने नायिका को चंद्रमुखी कहते कहते इस उपमा को इतना घिसा कि मुक्तिबांध को''चॉद मुँह टेढ़ा है'' कहकर उन्हें झटका देना पड़ा। किन्तु मुक्तिबोध से भी काफी पहिले बुंदेलों की एक कहावत इस एकरूपता को तोड़ रही थी। कहावत है कि '' मौं तौ थपरियन लाख दुर खौं बिरजीं ''।
(अर्थात मुंह तो चॉटों के लायक है पर नाक में पहिने जाने वाले गहने 'दुर' के लिए रूठी- मचली हुई हैं।)

कुछ मुँह तो खाद्य पदार्थो की विशोषताओं के अनुरूप ही बने होते हैं जैसे कि मसूर की दाल खाने के लिए कुछ खास तरह के मुँहों की दरकार होती है जिससे अलग होने पर मसूर की दाल की अपेक्षा रखने वाले से कहॉ जाता है कि ये मुँह और मसूर की दाल। कुछ मुँह आकार में बड़ी चीजों के लिए ही होते है ओर छोटे आइटमों से उनकी संगति नही बैठती तथा ऐसी स्थिति आने पर 'ऊँट के मुँह में जीरा' कहकर आयटम के छोटे होने के साथ साथ उन्हैं बेडोल पशु की उपाधि भी दे दी जाती है। सरकारी इंसपेक्टर, चाहै वे सेल्सटैक्स के हों या लेबर के जगह जगह मुँह मारते रहते हैं दुकानदार भी उनके मुँह का नाप अपने पास रखते हैं और उन्हैं मुँहमॉगी राशि प्रतिमाह बॉध देते हैं।

वैसे तो मैं कुछ और भी कहना चाहता था पर जानता हूँ कि आप ही अब कह देंगे कि तू छोटे मुँह बड़ी बात करता है, इसलिए चुप हूँ।

---- वीरेन्द्र जैन
2\1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

गुरुवार, मई 20, 2010

व्यंग्य- न साधु की जात पूछो और न ज्ञान्

व्यंग्य
न साधु की जाति पूछो और न ज्ञान
वीरेन्द्र जैन
यह कहना गलत है कि साधु की जाति नहीं होती। साधु की जाति तो होती है किंतु वह बताना नहीं चाहता। हमारे नीतिज्ञों ने कहा है- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीज़िए ज्ञान
ये बातें अगर सही अर्थों में स्मझी जायें तो बहुत काम की हैं, भल्र ही थोड़ी बहुत मुश्किल हैं। बहरहाल पहली बात पर आयें और गौर फरमाएं कि नीतिज्ञों ने कहा है कि साधु की जाति तो होती है, पर पूछिएगा मत क्योंकि ज्यादातर साधु उन्हीं जातियों में से बनते हैं जो समाज में निचली समझी जाती रही हैं। ऊंची जाति वाले तो वैसे ही मालपुये उड़ाते रहते रहे हैं सो उन्हें आधुनिक साधु बनने के पाखण्ड की क्या ज़रूरत! ये पुरानी कहावत पहले भी सही थी और उस स्तिथि में अभी भी कोई खास फर्क नहीं आया है। मानलो राम भरोसे ने किसी साधु से उसकी जाति पूछ ली-
“महाराज कौन ठाकुर हौ?” अब यदि बाबा किसी दलित मानी जाने वाली जाति में से हुआ तो वो क्या बताएगा। वह आँखें दिखा सकता है, गुस्सा दिखा सकता है, गाली दे सकता है, श्राप दे सकता है पर जाति बता कर अपने धन्धे का भविष्य खराब नहीं करना चाहता, भले तुम्हारा कर दे। इसलिए समझदारी इसी में है कि उसकी जाति मत पूछो।
पर एक स्तिथि ऐसी भी आती है जब साधु को दोनों जहाँ की फिक्र सताने लगती है और वह राजनीति में कूद पड़ता है। बस यहीं उसे अपनी जाति बताना पड़ती है। साधु हो या साध्वी उसे बताना पड़ता है कि वह लोधी है या यादव है जिससे लोधी या यादवों के वोटों को देखते हुये उसे टिकिट मिल सके और टिकिट मिलने के बाद वोट भी मिल सकें।
सन्यासी जब होंगे तब होंगे अभी तो प्रत्याशी हैं और प्रत्याशी की जाति जाने बिना वोट नहीं मिलते। तुन सड़क बनवा दो पुल बनवा दो, स्कूल खुलवा दो अस्पताल खुलवा दो और अगर पहले से खुला हुआ है तो उसमें डाक्टर और मास्टर पोस्ट करा दो, यदि पोस्ट हैं तो उनका आना सुनिश्चित करवा दो, पर यदि अपनी जाति के नहीं हो तो सब बेकार। इन साले वोटरों के बच्चों को जैसे वोट नहीं देना हो अपनी बेटी व्याहना हो। सो साधु को भी जाति खोलना पड़ती है।
भले बाबा का ढाबा चल निकले और योग की डिश खूब बिकने लगे पर आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्ट्री में फायदा तभी हो सकता है जब मज़दूरों को ठीक से वेतन न देना पड़े और सरकार की उदार सहायता मिलती रहे। सो लालू और मुलायम को बताना पड़ता है कि तुम भी यादव हम भी यादव। बाबा बन गये पर जात नहीं भूले।
में किरार मुख्यमंत्री हो तो लोधी साध्वी को प्रदेश में स्थान नहीं मिलता। उसे अपनी तशरीफ लोधी बहुल दूसरे राज्य में ले जाकर अपने चोगे के रंग को भुनाने की सलाह दी जाती है-
जोगी तुम जाओ रे,
ये है धन प्रेमियों की बस्ती,
यहाँ पैसा ही है ईश्वर
जोगी तुम जाओ रे.................
[ पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं]

बेचारा साधु अपना इकतारा बजाता हुआ अपनी जाति वालों के पास चला जाता है। यही सत्य है यही ईश्वर है। आखिर में अंतिम संस्कार अपनी जाति वाले ही करते हैं। दूसरी बात कि अगर आप साधु का ज्ञान पूछने लगे तो आपका कल्यान निश्चित है। वे मोटे मोटे डंडे, चिमिटा और त्रिशूल आदि इसीलिए रखते हैं कि ज्ञान पूछने वाले का संज्ञान ले सकें। साला, हमारा ज्ञान पूछता है, कपड़ों का रंग नहीं देखता। हमने ये रंग चुना यही हमारा ज्ञान है। हम साधु हैं और चाहे जिस भक्त पर जीप चढा दें, कानून हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। नंगों से भगवान भी डरता है ये तो उस सरकार की पुलिस है जो इस बात पर भी अपनी पीठ खुद थपथपाती है कि साधु की जीप से इतने कम लोग मरे, कुम्भ सफल रहा। साधु कोई राज्यपाल थोड़ी है कि उसका स्टिंग आपरेशन हो जाये तो स्तीफा देना पड़े या साड़ी लुटाकर पचासों औरतों को मार दे और अंतर्ध्यान हो जाये। भगवा पहिन कर कुछ भी करते रहो और फिर भी देश सेक्युलर होने का ढिंढोरा पीटता रहे। जय हो।
इसलिए न साधु की जात पूछना और ना ज्ञान पूछना इसी में कल्याण है। नचिकेता की कथा यही कहती है कि ज़िन्दा रहना चाहते हो तो कुछ मत पूछो।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

बुधवार, मई 19, 2010

व्यंग्य - प्लेटफार्म पर मौतें

व्यंग्य प्लेटफार्म पर मौत
वीरेन्द्र जैन
----------------------------------------------------------
मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ
कहाँ ?
रेलवे स्टेशन पर
पर सारी दुनिया में आत्महत्या करने के लिए लोग स्टेशन पर नहीं रेल की पटरियों पर जाते हैं।
जाते होंगे, पर यह हिन्दुस्तान है, यहाँ लोग प्लेटफार्म पर भी मर सकते हैं।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, मई 16, 2010

व्यंग्य अखिल भारतीय श्वान सम्मलेन में व्यक्त चिंताएं


अखिल भारतीय श्वान सम्मेलन में व्यक्त चिंताएं
वीरेन्द्र जैन
अगर कोई जाति दलित पिछड़ी या उपेक्षित होती है तो वह अपनी पहचान बनाये रखकर भी अपनी जाति को प्रचलित नामों की जगह संस्कृतनिष्ठ शब्दों में बदलकर अपना जाति सम्मेलन आयोजित करती है। शायद यही कारण रहा होगा कि जब कुत्तों ने माननीय नेताओं के उदगारों पर अपने विचार व्यक्त करना चाहे तो उस आयोजन का नाम कुत्ता सम्मेलन न रखकर अखिल भारतीय श्वान सम्मेलन रखा और उसीका बैनर लगाया ताकि पढे लिखे लोग भी यह न कह सकें कि साला कुत्ता सम्मेलन हो रहा है। प्लेक्स के बैनर पर श्वान शिरोमणि को पाँच पाण्डव और सती द्रोपदी के साथ हिमालय की ओर कूच करता हुआ दर्शाया गया था। इतना ही नहीं सम्मेलन का उद्घाटन करने वाले श्वान श्री ने कहा कि ये सम्मेलन महान स्वामिभक्त श्वानों का सम्मेलन है किसी राजनीतिक पार्टी की सभा नहीं है। इसमें श्वानों की समस्याओं पर गम्भीरता पूर्वक विचार होगा। उनकी इस ओज़ पूर्ण वाणी पर सभी श्वानों ने तलुआ ध्वनि करके हर्ष व्यक्त किया।
विषय प्रवर्तन करते हुये श्वान प्रमुख ने कहा कि आज हम अपनी जाति के अपमान से आहत होकर इतनी बड़ी संख्या में यहाँ एकत्रित हुये हैं और यही कारण है कि दूर दूर से पधारे अपने श्वान भाइयों पर भोंकने की परम्परा को छोड़ कर हम एक साथ बैठे हुये हैं। ये नेता लोग पिछले कई सालों से लगातार हमारा अपमान करते चले आ रहे हैं और अब तो हद ही हो गयी। हमने बहुत दिनों से तलुवे चाटना बन्द कर दिया है और आजकल बंगलों में रहने वाले बन्धु मालिकों के मुँह चाटते हैं न कि तलुवे। हमें इंसान के जैसा बताकर हमारा अपमान किया जा रहा है। हम इंसान के जैसे कृतघ्न नहीं हो सकते कि जो राज्य में हमारी सरकार बचाये हम उसी के खिलाफ केन्द्र में बिक जाएं और बार बार बिक जाएं ।
...............न हम चारा खाते हैं और न भाईचारा !
[इसके बाद वह कुछ सैकिंड तक रुका ताकि श्वानों को तलुवे पीटने का अवसर मिल सके, और संकेत समझ कर तलुवे पीटे भी गये]
हम तो दूध रोटी, बोटी या अंडे वगैरह खाते हैं जो सत्तर प्रतिशत इंसानों को नसीब नहीं होते। ये इंसान ज़िन्दा रहने में ही नहीं मरने में भी हमारी नकल करने लगा है और देश के लाखों इंसान हमारी [कुत्तेकी] ही मौत मर रहे हैं। जाने को तो हम यधुष्टिरों के साथ स्वर्ग में भी गये हैं, पर

रौनके ज़न्नत कभी भी हमको रास आयी नहीं
हम ज़हन्नुम में ही रहना चाहते परवरदिगार
हमने तो कभी संसद में भी जाना पसन्द नहीं किया बरना जब वहाँ तीन सौ करोड़पति जा सकते हैं तो उनकी सुरक्षा करने वाला क्यों नहीं जा सकता। जब वहाँ तरह तरह के अपराधों के आरोपों से घिरे आरोपी पहुँच सकते हैं, गद्दार पहुँच सकते हैं, सांसदनिधि बेचने वाले पहुँच सकते हैं, सवाल उठाने के लिए पैसे माँगने वाले पहुँच सकते हैं, कबूतरबाज़ी करने वाले पहुँच सकते हैं, दलाली करने वाले पहुँच सकते हैं, तो हम स्वामिभक्त क्यों नहीं जा सकते। पर नहीं, हमने तय किया है कि हमें वहाँ नहीं जाना सो नहीं जाना, भले ही वहाँ कभी कभी कुछ अच्छे इंसान भी मिल जाते हों। हमारा वंश चाँद पर सबसे पहले जाने वालों का वंश है। हम भले ही पुलिस में चले जायें, पर वहाँ नहीं जाना सो नहीं जाना। किंतु ये इंसान फिर भी हमारी तुलना वहाँ जाने वाले खराब लोगों से करने पर तुला हुआ है। किसी ज़माने में हमारी तुलना ब्राम्हणों और नाइयों के साथ होती थी, पर हा... आते आते क्या ज़माना आ गया है कि हमारी तुलना कैसे कैसे लोगों से होने लगी है। दलाल लोग सरे आम कहने लगे हैं कि हमें मालूम है कि कुत्ता कौन है। जैसे ग़ालिब चचा कह गये हैं कि हमको मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन, दिल के बहलाने को ग़ालिब ये खयाल अच्छा है। अरे भाई मालूम है तो बताओ भी। उसे अपनी टेलीफोन टेपिंग की तरह छुपा क्यों रहे हो। पर दलाल तो हर मामले में सौदा करना चाहता है। फिल्म में सस्पेंस हो तो खूब चलती है। कयास लगाने वाले सम्भावनाओं की पतंगें दूर दूर तक उड़ाने लगते हैं। .......और ये सब हमारी कीमत पर हो रहा है। यदि ये नेता नहीं माने तो हमें ज़बाबी कार्यवाही करना पढेगी जिसका यह उपयुक्त समय है। हमें मालूम है कि ज्यादातर स्वास्थ संचालकों के घरों से करोड़ों रुपये निकल रहे हैं, किंतु, अस्पतालों में रैबीज़ के इंजेक्शन नहीं हैं और जो हैं या तो वे नकली हैं या एक्स्पायरी डेट के हैं। इस समय हमला कर देने से ये घर के रहेंगे न घाट के। [ सभा में ज़ोश भर गया था और तलुवे पीटे जाने लगे]
पत्रकार लोग तुरंत वहाँ से खिसक लिये ताकि एकाध अदद रैबीज़ के इंजैक्शन का जुगाड़ ज़मा सकें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, मई 14, 2010

व्यंग्य- मुहावरे में कुत्ता


व्यंग्य
मुहावरे में कुत्ता
वीरेन्द्र जैन
कुत्ता बहुत पुरानी जाति है। पाण्डव स्वर्ग जाते हुये अपने कुत्ते को स्वर्ग में भी साथ ले गये थे और उसके बिना युधिष्टर ने स्वर्ग में जाने से भी मना कर दिया था। तब से ही यह परम्परा चल पड़ी है कि जो भी बड़ा आदमी कहीं जा रहा है उसके पीछे पीछे उसके कुत्ते भी जाते हैं। परम्परा बड़ी खराब चीज़ होती है जो चलती चली जाती है। पिछले दिनों जब अमेरिका के प्रेसीडेंट भारत आये थे तब गान्धीजी की समाधि पर जाने से पहले उनके कुत्तों ने गान्धीजी की पूरी समधि को सूंघा था। वे सोचते होंगे कि क्या पता ये गान्धी अब पुराने गान्धी न हों और अचानक ही समाधि से उठ कर धायँ धायँ कर दें। अमेरिका ने इतने पाप किये हैं कि उसके पदाधिकारियों को हरेक से डर लगता रहता है।
किसी ज़माने में कुत्ते पुलिस के विशेषण की तरह याद किये जाते थे किंतु बहुत दिनों से पुलिस वालों ने उस विशेषण से पीछा छुड़ा लिया है क्योंकि अब राठौर जैसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ और भी बड़े बड़े विशेषण जुड़ने लगे हैं। किसी ज़माने में किसी कवि ने लिखा था कि - कुत्ता कहने से बुरा मानते पुलिस वाले
रक्खा निज ठौर का फिर नाम कुतवाली क्यों
राजनीति को सर्वग्रासी कहा जाता है सो वो अब विशेषणों से लेकर गालियों तक सब कुछ हज़म करने लगी है। गालिब पहले ही कह गये हैं कि – गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ। किसी ज़माने में जब राम जेठमलानी भाजपा में थे तब उन्होंने बोफोर्स काण्ड पर राजीव गान्धी से प्रति दिन दस सवाल पूछने का सिलसिला शुरू किया था शायद वे राजीव जी की क्षमता पहचानते थे और नहीं चाहते होंगे कि एक दिन में ज्यादा सवाल पूछ कर सारे उत्तर एक साथ माँगे जायें। राजीवजी ने उनके किसी सवाल का तो उत्तर नहीं दिया था अपितु इतना भर कहा था कि कुत्ते भौंकते ही रहते हैं। प्रति उत्तर में अपने समय के नामी वकील जो अभी मनु शर्मा की वकालत करने में भी बिल्कुल नहीं शरमाये थे उत्तर में कहा था कि कुत्ता चोर को देखकर ही भौंकता है।
लोगों के शौकों का पता धीरे धीरे ही चलता है हाल ही में पता चला है कि भाजपा के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी को मुहावरे दार भाषा बोलने का बहुत शौक है और इसी शौक के वशीभूत उन्होंने कह दिया कि लालू और मुलायम कुत्ते की तरह सोनिया जी के तलुवे चांटते है। अब ये बात काँग्रेसियों को कैसे हज़म हो सकती है कि उनके हक़ को दूसरी पार्टी के लोग हड़प जाएं। उन्होंने विरोध किया तो भारतीय संस्कृति के गौरव माननीय गडकरी जी ने कहा कि उन्होंने तो मुहावरे में कुत्ता कहा था। कल्पना करें कि अगर उन्होंने उक्त स्पष्टीकरण नहीं दिया होता तो हो सकता था कि लोग सोचते कि सोनिया जी के तलुवे इतने साफ सुथरे इसलिए रहते हैं। यह् रहस्य अब समझ में आया।
आदरणीय गडकरीजी जब मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करते हैं तो उन्हें पता ही होगा कि हिन्दी में मुहावरों का भण्डार भरा हुआ है। इनमें से कुछ हैं- राम नाम जपना पराया माल अपना मुँह में राम बगल में छुरी राम मिलायी जोड़ी, इक अन्धा इक कोड़ी राम नाम ले हज़म कर गये, गौशाला के चन्दे इत्यादि मुहावरे कम पड़ जायें तो इस अकिंचन को सेवा का अवसर दें। आप जैसे मुहावरेदार महानुभाव की सेवा करके मुझे बड़ी खुशी होगी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

मंगलवार, मई 04, 2010

शौचालय और मोबाइल की क्या तुलना

शौचालय और मोबाइल की क्या तुलना
वीरेन्द्र जैन


कभी आदमी की मौलिक ज़रूरतों में रोटी कपड़ा और मकान हुआ करता था किंतु अब प्रथिमिकताएं बदल गई हैं, रोटी कपड़ा और मकान की जगह रोटी कपड़ा और मोबाइल ने ले ली है।
मकान न हो तो चलेगा। वैसे भी अगर मोबाइल आ जाये तो आदमी मकान से बाहर ही निकलता है। ओशो रजनीश की भाषा में कह सकते हैं कि मकान से मोबाइल तक अर्थात मकान पहला कदम है और मोबाइल उसकी मंज़िल। जो पहले कदम पर ही जम कर बैठ गया तो उसे मंज़िल कैसे मिलेगी। पहला कदम ज़रूरी है पर उसी पर टिक कर नहीं रह जाना है। ओशो यही सिखा गये हैं।जड़ से चेतन की ओर यात्रा।
मकान है और मोबाइल आ गया तो पड़ोसियों को कैसे पता लगेगा कि हमारे पास मोबाइल आ गया है तो सिग्नल बाहर आकर ही मिलते हैं और इसी बाहर आने से सिग्नल बाहर तक पहुँचते भी हैं। मोबाइल आ गया तो अपनों के प्यार भरे फोन भी आयेंगे और फोन आयेंगे तो बातें भी होंगीं अब वे बातें ऐसी तो होती नहीं जैसे कि सास बहू के सीरियल हों या झगड़े हों, जो घर परिवार के सभी सदस्यों के बीच कह-सुन ली जायें सो बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। कहने का मतलब यह कि मोबाइल ने आदमी को मोबाइल अर्थात गतिवान बनाया है। घर से बाहर निकल खेत की ओर चल.....[निदा फाज़ली से क्षमा याचना सहित]
मोबाइल के कई उपयोग होते हैं जैसे कि आप उसे कान से लगाकर प्राणांतक कवि गोष्ठी से बाहर निकल कर सुख-संतोष की सांस ले सकते हैं, और कोई आपको सींग पुच्छविहीन पशु भी नहीं कह सकता है, क्योंकि ज़रूरी काल आया है। इसकी कालर ट्यून तो मरघट तक में हो गयी तेरी बल्ले बल्ले कर सकती है।
कितने गिनवाऊँ मोबाइल के फायदे ही फायदे हैं, पर कुछ लोग हैं जिन्हें तुलना करने की बीमारी होती है वे तुलना ही करते रहते हैं जैसे कि कोई कांग्रेसी कहे कि भाजपा ने गुजरात में गुजरात में तीन हज़ार मुसलमान मार डाले तो वे पलट कर कहते हैं कि इससे ज्यादा तो तुमने 1984 में सिख मार डाले थे। ऐसे ही लोग कहते हैं कि देश में शौचालय से अधिक मोबाइल हो गये हैं। अरे भाई शौचालय अपनी जगह और मोबाइल अपनी जगह। यही देखो कि शौचालय मोबाइल में तो आ नहीं सकता किंतु मोबाइल शौचालय में जा सकता है। छोटे बच्चे तक अपनी मम्मी से कहने लगे हैं कि मम्मी तुम टायलेट से बाहर रहो और मोबाइल से पूछती रहो कि छिछ्छी की या नहीं। शौचालय का उपयोग दिन में एक दो बार होता है किंतु मोबाइल का उपयोग दिन में दो सौ बार हो सकता है। शौचालय में तो अनावश्यक रूप से पानी की बरबादी होती है क्योंकि किये कराये पै पानी फेरना होता है किंतु मोबाइल में एक बून्द भी पानी की चली जाये तो उसकी बोलती बन्द हो जाती है। यही कारण है कि पानी बचाओ आन्दोलन वाले उसी पेज पर मोबाइल के दस बीस विज्ञापन छापते रहते हैं जिस पेज पर पानी बचाने की दस बीस लाइनें छपी होती हैं। पानी बचाने की यह भी एक तरक़ीब है कि मोबाइल को पास रखो जिसे पानी से दूर रखना पड़ता है। शौचालय को गन्दा स्थान समझा जाता रहा है कि जिसमें आदमी को मजबूरी में ही जाना होता है और वह वहाँ से शीघ्रातिशीघ्र बाहर आना चाहता है किंतु मोबाइल ऐसी चीज होती है जिसे दिन में तो क्या रात में भी दूर नहीं रखा जाता। साइलेंट या बाइब्रेशन मूड में तो इसे दिल के और ज्यादा करीब रखा जाता है। क्या कभी किसी ने मोबाइल में से बदबू आने की शिकायत की है या मोबाइल सुधारने वाले को किसी ने कभी अछूत समझा है? शौचालय जड़ है जबकि मोबाइल चेतन होने के सारे गुण रखता है वह धड़कता है, बोलता है, गाता है, संगीत सुनाता है, मनोरंजन करता है, सन्देशों का आदान प्रदान करता है। अब आप ही बताइए कि मोबाइल की शौचालय से क्या तुलना?
हमारे ऋषि मुनि जब हिमालय पर तपस्या करने जाते थे तो महीनों सालों तक शौचालय के बारे में सोचते तक नहीं थे किंतु अपनी आत्मा के मोबाइल से परम पिता परमात्मा से डायलोग करते रहते थे। यह हमारी पुरानी परम्परा का थ्री जी सिस्टम था जिससे संजय युद्ध का ताजा हाल महल-बैठे अन्धे धृतराष्ट्र को सुनाता रहता था। अनेकानेक जगहों को हमने महाभारत काल, रामायण काल के स्मारकों की तरह संरक्षित कर रखा है किंतु इन पौराणिक काल की पांडव कुटीरों आदि में कहीं भी शौचालय नज़र नहीं आते। ये गन्दी सोच तो आज के लोगों की है कि शौचालय के बारे में सोचते हैं। हमारे किसी भी काल के किसी भी पौराणिक ग्रंथ में इसे समस्या के रूप में नहीं लिया गया और ना ही वर्णन किया गया। जबकि बाकी के सारे काम किये जाने के श्लोक मिल जाते हैं। इसलिए अगर शौचालय की तुलना में मोबाइल बढ रहे हैं तो स्वाभाविक है। दर असल जिनके यहाँ शौचालय नहीं हैं उन्होंने कभी चिंता प्रकट नहीं की, आज तक कोई आन्दोलन शौचालय की माँग को लेकर नहीं हुआ, जबकि यह खुरापात तो उनके दिमागों की उपज है जिनके यहाँ एक बैड रूम से अटैच रहता है और दूसरा बाथ रूम से। जिनके यहाँ शौचालय नहीं हैं वे पक्के राष्ट्रवादी हैं और पूरे देश को माँ की गोद समझते हैं। मिनरल वाटर की बोतल में सादा पानी भरा और लोगों की नज़रें बचा के जहाँ जगह मिली सो हज़रते दाग की तरह बैठ गये, बैठ गये। और एक बार जहाँ बैठे वहाँ दुबारा नहीं देखा। हर बार एक नई जगह की तलाश में कोलम्बस की तरह निकल पड़ते हैं।
इसलिए प्यारे भाइयो, बहिनो और पत्रकार बन्धुओ, कृपया मोबाइल से शौचालय की तुलना न करें अपितु शौचालय से शौचालय की और मोबाइल से मोबाइल की तुलना करें। तुलना बराबरी वालों में ही ठीक रहती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629