मंगलवार, जून 29, 2010

व्यंग्य - लौट के जसवंत वापिस आये

व्यंग्य
लौट के जसवंत वापिस आये
वीरेन्द्र जैन
जसवंत सिंह के लौटने को एज यूजुअल घर वापिसी कहा जा रहा है। ऐसा अन्धविश्वास है कि जो लोग लौटते हैं सब घर ही लौटते हैं।

“पर लौटता तो वह है जो गया हो। जसवंत भैय्या ने भाजपा छोड़ी ही कब थी” राम भरोसे कहता है।
“ हाँ सच कह रहे हो, उन्हें तो निकाला गया था और धकियाये जाने के बाद तो विभीषण भी रावण के रहते लंका नहीं लौटा था और उन्होंने बार बार कहा था कि उन्हें निकालने से पहले औपचारिक शिष्टाचार तक नहीं बरता गया। फिर वैसे भी यह उनका घर थोड़े ही है, घर तो उनका है जो इसमें शाखा से प्रकट हुये हैं। सो इसे घर वापिसी कहना ठीक नहीं है। इसे तो कह सकते हैं कि-
शायद मुझे निकाल कर पछता रहे हैं आप
महफिल में इस ख्याल से फिर आ गया हूं मैं”
एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि जसवंत सिंह इसे ससुराल समझते हों, क्योंकि जब भाजपा ने उन्हें निकाल बाहर करने के बाद उनसे लोक लेखा समिति के पद से स्तीफा देने को कहा था तो उन्होंने लगभग डाँटते हुए कहा था कि इस मामले में भाजपा को शोर मचाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि लोक लेखा समिति के अध्यक्ष का पद कोई उसका दिया दहेज नहीं है।
घर तो इसलिए भी नहीं हो सकता कि जिसके बारे में उन्होंने कहा हो कि इस में भ्रष्टाचार चरम पर है और उसे आडवाणी और राजनाथ सिंह को बता देने का दावा भी किया हो उस चरम भ्रष्ट घर को ठीक किये बिना कोई ईमानदार और स्वाभिमानी कैसे जा सकता है।
बहरहाल इस वापिसी में पब्लिक को यह पता नहीं चला कि आखिर मुद्दा क्या था और वह कैसे सुलझा। पहले लोगों को ऐसा लगा था कि मुद्दा ज़िन्ना थे। जिन्ना भी क्या जिन्दा शख्शियत है कि जो मुर्दा होकर भी मुद्दा बनी रह्ती है और जिसका जिन्न पाकिस्तान , हिन्दुस्तान कहीं भी चैन से नहीं बैठने देता। जिस जिन्ना के एक भाषण की तारीफ के कारण आडवाणीजी को अध्यक्ष की कुर्सी छोड़नी पड़ी हो उस पर पूरी किताब लिख कर मुँह पर मार देने से निकाले जाने का असली कारण छुप गया था। जिस भाजपा ने उनकी योग्यता मापते हुये कहा था कि उन्हें पद इसलिए दिया गया था क्योंकि उनकी अंग्रेजी अच्छी है और वे अटलजी के साथ ड्रिंक किया करते थे। अब उस भाजपा ने उनकी कौन सी योग्यता फिर से पहचान ली पता ही नहीं चला। शायद अब विपक्ष के नेता का पद पक्ष के व्यक्ति द्वारा भरा जा चुका है और उसमें कोई फेर बदल नहीं हो सकता सो उसके अंडर में काम करने के लिए आ जाओ। बाकी के सारे पद भरे जा चुके हैं केवल झाड़ू पौंछा करने वाले की जगह खाली है।

किताब तो निकाले जाने के कारणों पर पर्दा डालने के लिए निकाली गयी थी। उन्हें निकाला तो इसलिए जाना था क्योंकि वे फौज से निकल कर आये थे, शाखा से नहीं निकले थे, और इसके प्रमाण स्वरूप वे हमेशा कन्धे पर फित्ती लगी कमीज पहिनते थे। समर्थन करते रहने तक तो ठीक है पर यह भी क्या बात कि अपनी वरिष्ठता के आधार पर आप विपक्ष के नेता पद के भी दावेदार बन जायें। यह नहीं चलेगा, वहाँ तो संघ के आदेश बिना शाखा भी नहीं चलती तो पत्ता क्या हिलेगा। पांचजन्य ने तो सितम्बर 09 अंक में लिखा ही था कि जसवंत को निकाल कर उन्हें खलनायक से नायक बना दिया जिससे उनकी किताब की 49000 प्रतियाँ बिक गयीं। अब क्या नायक से फिर खलनायक बनाना है।

ये कैसा घर है, ये कैसी वापिसी है जहाँ के लोग कि चाहे जहाँ थूक देते हैं और फिर.....................। आप स्वयं समझदार हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मो. 9425674629









बुधवार, जून 23, 2010

रिश्ते हैं रिश्तों का क्या


व्यंग्य
रिश्ते हैं रिश्तों का क्या
वीरेन्द्र जैन्
उद्योग जगत गदगदायमान है। भरत मिलाप का दृष्य देखकर सबकी आँखें खुशी से डबडबाई हुयी हैं। मुकेश अम्बानी और अनिल अम्बानी गले मिल रहे हैं। अनिल मुकेश से कह रहे हैं भैय्या ये ग्रहों की शरारत थी या अमर सिंह की थी पता नहीं जिसने हमें कुछ दिनों के लिए अलग कर दिया था पर पानी को चाहे जितना लाठी से पीटा जाये कहीं पानी अलग होता है। मुकेश मन ही मन कह रहे हैं पर हम तुम तो बरफ हो गये थे सो तोड़ दिये गये।
मुनव्वर राना का शेर है-
अमीरे शहर को रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
गरीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है
भाई तो भाई का दुश्मन बना बैठा ही था। एक भाई के हेलीकोप्टर के पैट्रोल टेंक में पत्थर पाये जाने लगे थे और दूसरे दिन वही पायलट जो हेलिकोप्टर उड़ाता था रेल लाइन पार करते हुये कट कर मर जाता है। ‘सामान्य’ दुर्घटना। भाई भाई तो एक हो जाते हैं और पायलट की आत्मा का रिश्ता परमात्मा से हो गया अब वह बिना हेलिकोप्टर के वायु भ्रमण कर रहा होगा। क्या संयोग है।

माँ की अपील भी काम नहीं आ पायी थी। दोनों के पास पैसा था गाड़ी थी, बंगले थे फैक्ट्री थी, पर माँ किसी के पास नहीं थी। मुरारी बापू को अपनी राम कथा पर बहुत भरोसा था सोचते थे कि उनके एक ही एपिसोड में भाई भाई फिर से मिल जायेंगे पर उनको भी वित्त जगत में प्रवचनों की औकात समझ में आ गयी थी। वे राम ल्क्षमण भरत शत्रुघ्न वाले भाई भाई के प्रेम कथा वाँचते होंगे पर अम्बानी बन्धुओं को रामायण के वे प्रसंग भाते होंगे जिनमें विभीषण् ने रावण को मरवा दिया था और सुग्रीव ने बालि को। महाभारत तो इसी भातृ प्रेम के लिए जाना जाता है। पैसे वाले पैसे के अलावा किसी रिश्ते को नहीं मानते। मानते होते तो अटल बिहारी द्वारा लक्षमण घोषित प्रमोद महाजन की मौत इतनी बुरी तो न होती और न उन्हें मारने वाले उनके भाई की भी। अगर रिश्ते की डोर पैसे से ज्यादा मजबूत होती तो मनेका गान्धी को इन्दिरा गान्धी के खिलाफ क्यों मुकदमा लड़ना पड़ता और राहुल गांधी और वरुण गांधी एक ही घाट पानी पीते। विजया राजे और माधव राव अलग अलग दिशाओं के यात्री नहीं होते तथा ज्योतिरादित्य को अपनी बुआ महाराज के खिलाफ चुनाव प्रचार न करना पड़ता। करुणानिधि और डीएमके की विरासत के लिए उनके बेटे आपस में गोलियां नहीं चलवाते।
बाप बड़ा न भैय्या, सबसे बड़ा रुपैय्या

उधर राजस्थान में एक सांसद अपनी मंत्री पत्नी से स्तीफा माँग रहे हैं। निर्दलीय सांसद किरोड़ी लाल मीणा की पत्नी गोलमा देवी राजस्थान में राज्य मंत्री हैं उनके चुनाव क्षेत्र में 33 आदिवासियों की भूख से मौत हो जाती है, सो सांसद को अखरता है। वे कहते हैं कि अगर उन्होंने स्तीफा नहीं दिया तो मैं अपने सांसद का पद छोड़ दूंगा। अब घर में तय होना है कि आदिवासियों की मौत की ज़िम्मेवारी कौन लेता है।
रिश्ते हैं रिश्तों का क्या!
प्रिया दत्त ने संजय दत्त से बहिन भाई का रिश्ता भुला दिया है। तो अमर सिंह ने जया बच्चन से देवर भावी का रिश्ता भुला दिया है। अमिताभ को नरेन्द्र मोदी से रिश्ता जोड़ने में शर्म नहीं आयी तो सुशील मोदी से राजनैतिक रिश्तेदारी रखने वाले नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी से रिश्ता जोड़ने में शर्म आयी और वे भाजपा से तलाक लेने तक उतर आये हैं।
केन्द्र सरकार ने तलाक को सरल करने का कानून बनाने का फैसला शायद बहुत दूरदृष्टि से लिया है

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, जून 19, 2010

व्यंग्य- मकान न खरीदने के आत्मसंतोष

व्यंग्य
मकान न खरीदने के आत्मसंतोष
वीरेन्द्र जैन
रोटी, कपड़ा और मकान, एक फिल्म का नाम होने से पूर्व भी सभ्य जानवरों के लिए प्राथमिकता की श्रेणी में आते थे और फिल्म बन जाने के बाद भी आते हैं। यद्यपि उनका क्रम निर्धारित है, पर कभी कभी इस क्रम में विचलन भी देखने को मिलते हैं, लंगोटी लगाए हुए और उसे भी उतारकर फेंक देने वाले पुरूषों को भी मैने रोटी खाते देखा है, रोटी सबसे पहली जरूरत है, किन्तु भूख से पीड़ित रहने वाली महिलाओं के लिए भी कपड़े पहली जरूरत में आते हैं। यही कारण हैं कि हमारे महान आध्यात्मिक देश के नागा साधु तो देखने में आते हैं नागा साध्वियॉ नही पाई जाती हैं।

रोटी पहली जरूरत हैं यह सिद्व करने के लिए ब्राम्हण लोग लगभग आधे वस्त्र उतारकर भोजन पर बैठते रहे हैं। कुछ विद्वानों का ऐसा भी विचार है कि अधिकांश समय दूसरों के घरों पर भोजन जीमने के कारण उसे छुपाकर अपने घर ले जाने की संभावनाओं से बचने की खातिर उन्हैं कम वस्त्रों में भोजन कराया जाता था। मेरे विचार से यह दृष्टिकोण सही नहीं है क्योकि दूसरों के घर से खाना ले जाने वालों के लिए वस्त्र कोई बाधा नहीं होते हैं, उनका पेट ही काफी होता है।वे अपना काम बना ही लेते हैं।

रोटी और कपड़े के बाद मकान का तीसरा नंबर आता है भले ही दुनिया के अधिकांश भागों में रोटियां मकानों में ही बनाई जाती हैं और कपड़े भी मकान के अंदर ही बदले जाते हैं। (जो लोग कॉच के मकानों में रहते हैं वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते हैं तथा लाइट बंद करके कपड़े बदलते हैं।)

मकान दो तरह के होते हैं, एक किराए का मकान, दूसरा खुद का मकान। वैसे बनावट की दृष्टि से दोनों तरह के मकान लगभग एक जैसे ही होते हैं फिर भी यह कहावत है कि किराये का मकान किराये का होता है। खुद के मकान में रहने वाला जगह की जुगाड़ निकाल कर किराए से देने के लिए संभावनाएं तलाशता रहता है तो वहीं किराये के मकान में रहने वाला अपने मकान के सपने देखता रहता है।

अखबारों में छपनेवाले आकर्षक विज्ञापन उसकी मकान की भूख में चटनी का काम करते हैं, वह अपनी कल्पना के ड्राइंग- कम-डाइनिंग रूप में सोफा टीवी और शो-केश की जगह निश्चित करने लगता है। किसी का भी ड्राइंग रूम उसकी ईष्या का कारण बनने लगता है। उसकी लपलपाती जीभ से लगातार लार टपकने लगती है।

जैसे जैसे मनुष्यता का पतन होता जा रहा है, वैसे वैसे भवन और ऊंचे होते जा रहे हैं। कई कई मंजिलों वाले मकानों की बाढ़ आती जा रही है। मनुष्य आज जितनी ऊँचाई पर पहुँचता है उसके नैतिक मूल्य उतने ही गिर जाते हैं, उसी भॉति किसी भी भवन के फ्लेट जितनी उँचाई पर होते हैं उनके मूल्य भी इतने ही कम होते जाते हैं। यह तो सरकार की समर्थन मूल्य योजना का हिस्सा है कि वो भवनों को मंजिलों की संख्या सीमित रखे हुए है, बरना यह मनुष्य तो स्वर्ग तक मंजिल ले जाता और कई लोग मुफ्त में स्वर्गवासी हो जाते।

मकान लोलुप प्राणी अखबार में केवल वर्गीकृत विज्ञापन देखकर ही उस ओर लपकता है। वह जानता है कि वहां जाने पर और कुछ मिले न मिले पर चिकने कागज पर छपा हुआ एक रंगीन ब्रोशर तो हाथ लग ही जावेगा जो पत्नी के सामने प्रयासरत रहने के प्रमाण के अलावा, बच्चों के लिए नावें बनाने या कमरे से झाड़ा हुआ कचरा उठाने के काम तो आएगा ही आएगा।

भवनों में आते जाते वह उसकी सारी शब्दावली सीख जाता है। एचआईज़ी, एमआईज़ी सीनियर एमआईज़ी, जूनियर एमआईज़ी, एलआईज़ी प्लाट, फ्लैट, इंडिपेंडेंट ग्राउंड फ्लोर, टाप फ्लोर, टैरेस, सेपरेट पार्किंग आदि का मतलब वह खूब समझने लगता है। ''इसका प्लिंथ एरिया कितना है ?'' वह प्रधान अध्यापक द्वारा बच्चे से पूछे गए सवाल की तरह उसके गाइड से पूछता है।
'' इसका किचिन बहुत छोटा है '' एक जगह वह कहता है।

'' किचिन के साथ विडों होना बहुत जरूरी हैं वरना धुएँ के मारे दम घुट जाएगा ''

'' एक ही बाथरूम है! कम- से-कम एक लैट-कम-बाथ होना चाहिए और एक टायलेट, वरना मेहमानों के आने पर बहुत मुश्किल होती है। ''

'' इस टायलेट में तो मेरे मथुरा वाले मोटे चाचा फंस ही जाएँगे ''। यह कहकर वह साथी को भी हँसते हुए देखना चाहता हैं जो उसके झूठ पर नही हँस पाता।

'' ड्राइंग-कम-डायनिंग में टीवी और फ्रिज के लिए प्वाइंट होने चाहिए ''
'' क्या केबिल लाईन भी नही हैं ?”
'' बालकनी यदि बेडरूम के साथ होती तो ज्यादा ठीक रहता'' वह कहता हैं।

'' मुझे तो ग्राउंड फ्लोर से सख्त नफरत हैं '' सारी गाड़ियॉ यही दरवाजे के सामने हुई हुर्र करके धुऑ छोड़ती हैं। रात के बारह बजे तक दोड़ पदौड़ सुनाई देती रहती है, और सुबह से ही पानी की मोटर घीं घीं करने लगती है। किसी को कहीं जाना हो ग्राउण्ड फ्लोर वाले की घंटी बजाकर पता पूछता हैं, यह भी नही देखता कि रात है कि दिन। दरवाजा बंद न हो तो ऐसा लगता हैं कि फुटपाथ पर बैठे हैं, सब घूरते हुए निकलते हैं। चोरियॉ भी ज्यादातर निचली मंजिल में ही होती हैं व सारे भिखारी यहीं पर अपनी बपौती समझते हैं। ''
''ऊपर की मंजिल में भी क्या रहना न जमीन अपनी न आसमॉ अपना। पिंजरे की तरह लटके हुए हैं अधर में। उपर वाले धमाधम करते रहें तो वह झेलो और जरा सा अपुन दूध को उबलने से रोकने के लिए दौड़ पडे तो नीचे वाले कहते हैं कि क्या रामलीला में लक्ष्मण- परशुराम संवाद चल रहा है। अजीब मुसीबत होती है। पोस्टमैन डाक नीचे ही डाल जाता है और नीचे उतरने तक सब्जी वाले के पास कानी और टेढ़ी- मेढ़ी सब्जी ही शेष रह पाती है। जरा- जरा सी चीजों के लिए नीचे ऊपर होते समय यह इच्छा होती हैं कि इससे अच्छा तो पर्वतारोही हो जाना होता, कम से कम नाम और नामा तो मिलता।''
''टॉप फ्लोर पर रहने से तो अच्छा है कि आदमी बनवास ले ले। एक आदमी ऊपर की मंजिल पर आत्म हत्या के लिए चढ़ा तथा चढते चढते हॉफ गया। पर उसने देखा कि उपर की मंजिल पर भी लोग रहते हैं तो उसने उन लोगों के जीवन को देखकर आत्महत्या का इरादा ही बदल दिया कि इनके कष्ट तो मुझसे भी ज्यादा हैं फिर भी जिंदा हैं। ''

''दरअसल फ्लैट सिस्टम ही ठीक नही हैं- न लान, न हरियाली, न गमले, न धनिया, पुदीना की सुविधा। ज्यादा से ज्यादा दारू की खाली शीशी में पानी डालकर मनीप्लांट लगा लो। अपना इंडिपेंडेट घर होने पर धूप लेने के बहाने पड़ोस के नवयौवन को तिरछी नजर से घूरते रह सकते हैं। न किसी की रें- रैं न पैं पैं पड़ोसी यही समझते रहैं कि पति पत्नी में बड़ा प्रेम हैं। फ्लेट में तो किसी को छींक भी आती हैं तो पड़ोसी अपनी विक्स की शीशी छुपाने लगता हैं कि कही मांगने न आ जाये। शाकाहारी नथुनों में मांसाहारी महक पहुँचती है।''

''अकेले घर के जमाने लद गये, बिना दो नंबर की कमाई के कोई अकेला घर बनवा ही नहीं सकता। ले-दे के एकाध कोई भला आदमी बनवा भी लेता है तो फिर बाद में सारी उमर पछताता रहता है। घर से बाहर निकले नहीं कि चोरी का खतरा सिर पर। देह कहीं रहे, मन का चोर घर के चारों ओर ही चक्कर काटता रहता है। फ्लेटों में अलग अलग रहकर भी संयुक्त परिवार का सुख। पूरब पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊँच-नीच जाति- धर्म का कोई भेद नहीं, आर्दश भारत का नमूना। अकेला घर बनाकर आदमी व्यक्तिवादी और स्वार्थी हो जाता है। घुन्ना और घमंडी। बाकी दुनिया से कोई मतलब ही नही। घर क्या बनवा लिया गोया महल खड़ा कर लिया, बादशाह हो गए।''
दरअसल ये सारे तर्क आदमी धीरे धीरे सीख जाता है, जब उसके पास इतने पैसे ही नही होते हैं कि वो बिल्डर्स की भरी हुई तिजोरियों में अपनी ओर से कोई और योगदान कर सके तो हर मंजिल के फ्लेटरूपी अंगूर उसके लिए खट्टे हो जाते हैं और वह अपने किराए के पिंजरें में आकर एक गिलास पानी पीकर अखबार में फिर वर्गीकृत विज्ञापन देखने लगता है। और क्या करे! एक अदद ब्रोशर तो चाहिए ही चाहिए।

वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, जून 08, 2010

व्यंग्य - जनता की पेंशन सरकार की टेंसन

व्यंग्य
जनता की पेंशन, सरकार का टेंशन
वीरेन्द्र जैन
वैसे तो जिन्दा लोग सरकारों के लिए हमेशा ही मुसीबत पैदा करते रहते हैं और प्रख्यात समाजवादी चिंतक रामनोहर लोहिया ने कहा भी है कि जिन्दा कौमें पॉच साल तक इन्तजार नहीं करतीं पर ये जिन्दा लोग भिन्न कारण से मुसीबत बन गये हैं॥ जब सरकार ने पेंशन योजना के बारे में सोचा होगा तो उसे यह उम्मीद नहीं रही होगी कि हमारा कर्मचारी बिना रिश्वत खाये तथा आधी तनखा पाकर बीमारियों से घिरे बुढापे को इतना लम्बा खींच ले जायेगा । उसकी सोच रही होगी कि पेंशन को क्लीयर करवाने में ही वह आधा मर जायेगा, फिर क्लीयिर होने के बाद पेंशन लेने जाने के धक्कों में कही टें बोल जायेगा, और रिश्वत न मिलने से हींड हींड कर वह अपनी बाकी जान दे देगा। पर अब ऐसा नहीं हो रहा। रिटायरमेन्ट के बाद भी पट्ठा जिन्दा है, और शान से जिन्दा है। च्ववनप्राश, केशर और शिलाजीत खाकर सीढियॉ चढ रहा है और सुईयों में बिना चश्मा लगाये धागा डाल रहा हैं। पेंशन के बढ़ते बिलों को देखकर सरकारों को टेंशन हो रहा है और पेंशन धारक चैन से सौ रहा है।

सरकारें सोचती हैं ये मरता क्यों नहीं। उसने स्वास्थ सेवाओं को सशुल्क कर दिया, सरकारी, अस्पतालों को नरक में बदल दिया, डॉक्टरों से प्राइवेट प्रेक्टिस कराने लगी, दवाइयों के दाम आसमान में पहुँचा दिये पर ये आदमी है कि कछुआ या काक्रोच जो मरता ही नहीं। पहली तारीख को सुबह से बैंक में लाईन लगा कर खड़ा हो जाता है। लाओ हमारा कर्ज चुकाओ। साहूकार और मकान मालिक भी इतना तिथि और समय का पावन्द नहीं होता जितना कि पेंशन लेने वाला। आदमी मकान मालिक, दूध वाले, अखबार वाले, आदि से इतना नहीं घबराते जितने बैंक वाले पैंशन धारकों से घबराते हैं । साढ़े दस, माने साढे दस काउन्टर वाला, काउन्टर पर नही आ पाता पर पैंशनर आ जाता है। बैंक में अपने जिन्दा होने का प्रमाण पत्र स्वंय देना पड़ता है, वह उसके लिए तैयार है- मै घोषित करता हूँ मै जिन्दा हूँ आप गवाही लीजिए, मैं जिंदा हूँ और सचमुच सम्पूर्ण जिन्दा हूँ। सरकार ने सामूहिक बीमा योजना के अन्तर्गत मेरे एक हाथ के पॉच हजार, दोनो हाथों के दस हजार के अनुपात में पच्चीस हजार तक बीमा करवा रखा था पर मैने उस राशि में से एक पैसा भी नहीं वसूला तथा अपने सारे अंगों प्रत्यंगों के साथ जिन्दा हूँ। बिना टीका लगवाये भी मुझे हैपिटाइटिस - बी नहीं हुआ और कोई सावधानी रखे बिना भी एड्स नहीं हो रहा। नालों का सर्व मिश्रित जल भी मेरे लिए संजीवनी हो रहा है और जो खाने को मिल रहा है उसी में सारे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेड, विटामिन और मिनरल्स निकल आते हैं।
लाईये पेंशन निकालिये।
एक सरकार ने कहा था कि केवल पचहत्तर वर्ष तक ही पेंशन मिलेगी शेष जीवन हिमालय की कन्दराओं में बिताने के लिए जाना होगा तथा कन्दमूल फल खाना होगा, पर पेंशनधारियों ने वह सरकार ही बदल दी। उसके मंत्री ने सोचा था कि सबकी जन्मकुण्डलियों को देखकर ही नियुक्ति दी जायेगी ताकि ज्यादा दिनों तक पेंशन न पा सकने वालों की ही नियुक्ति हो इसके लिए उसने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष की पढ़ाई शुरू करवा दी पर उसने अपनी जन्म कुण्डली पता नही किस ज्योतिषी से दिखवायी कि वह खुद ही पराजित होकर मुंह के बल गिरा जबकि उसने महूर्त दिखवाकर ही पर्चा भरा था।

सरकार ने पेंशनधारियों के जमा पर ब्याज दर कम कर दी ताकि कुछ फर्क आये पर वह भी नहीं आया। उसने गैस, मिट्टी का तेल, पेट्रोल डीजल, टेलीफोन, बिजली, सबकी दरें बढ़ा दीं पर पैशनर पहली तारीख को फिर भी बैंक में खड़ा मिला। भूले भटके एकाध पेंशनर मर भी जाता तो सौ दूसरे खड़े हो जाते- लाओ पैंशन, लाओ पेंशन्।
सरकारी कर्मचारी पूरी जिंदगी नौकरी ही इसलिए खीचता है ताकि उसे पेंशन मिल सके। बिना काम किये हुये धन का मिलना किसे अच्छा नही लगता जो मजा वेतन में नही आता वह पेंशन में आता है। वेतन अपनी बीबी है पर पेंशन परायी बीबी लगती है। रहीम आज होते तो कहते-

गौधन गजधन वाजधन
और रतनधन खान
जब मिल जावे पेंशन
सो सबधन धूरि समान

भूतपूर्व सांसदों विद्यायकों ने तो इसीलिए अपनी पैंशन पहले से तय कर ली है।

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, जून 05, 2010

व्यंग्य गिफ्ट आइटम


व्यंग्य
गिफ्ट आइटम
वीरेन्द्र जैन

जिस चीज को खरीदते समय गुणवत्ता के प्रति एक गहरा निरपेक्ष भाव और देते समय मुस्कराहट के नीचे मजबूरी का मजबूत आधार छुपा होता है उसे गिफ्ट आइटम कहते हैँ।
गिफ्ट आइटम खरीदना एक कठिन काम होता है। यह साधारण खरीद से भिन्न किस्म की खरीद होती है। आम तौर पर इसका विचार निमंत्रण पत्र की प्राप्ति वाले दिन से जन्म लेता है और आयोजन की तिथि आने तक पलता और टलता रहता है। इस खरीद के टलने में एक सोच तो आयोजन के स्थगन या रद्द होने की सम्भावना की कल्पना के कारण पैदा होता है जो सामान्यतय: पूरा नही होता। अंतत: वह दिन आ ही जाता है जब दफ्तर से लौटने के बाद आप पाते हैं कि पत्नी अपने से ज्यादा आकर्षक वेषभूषा में तैयार बैठी है तथा बच्चे अच्छे कपड़ों के गन्दे हो जाने से बचने के लिए सीधे बैठे बैठे बेचैन हो रहे हैं। यह दृश्य देखकर ही आप पर गिफ्ट आइटम खरीदने की कठिन परीक्षा वाली घबराहट छा जाती है।

गिफ्ट आइटम खरीदने में एक बात तो तय रहती है कि इतने रूपयें से ज्यादा का नहीं खरीदना है, चाहे जो हो जाये। चंन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार पर राजा हरिशचन्द्र का टरै न सत्य विचार - की तरह आप तय की हुयी राशि में गिफ्ट आइटम खरीदने निकलते हैं। आप चाहते हैं कि आइटम दिखने में आकर्षक, चमकीला और आकार में बड़ा हो ताकि आयोजन स्थल पर बड़ा डिब्बा देखकर लगे कि आप कोई बड़ी चीज लेकर आये हैं। आपकी कोशिश रहती है कि यह बड़ी सी चीज आपके द्वारा निर्धारित की गयी छोटी सी राशि में आ जाये ताकि चार लोगों के नियोजित परिवार द्वारा व्यंजनों का अनियोजित भक्षण किया जा सके और कोई शर्म न महसूस हो।

दुकानदार आपकी व्यथा समझता है। वह जानता है कि आपकों उस वस्तु का उपयोग नहीं करना है केवल देना है। वह केवल गिफ्ट देने से पहले न टूटे या अधिक से अधिक एक दो बार काम कर जाये तो बहुत है। नकली माल पर असली का लेबिल लगाना उसे आता है। रेट की स्लिप भी चौगुने दामों की चिपका देता है। सौ रूपयें का माल पॉच सौ रूपयो के स्लिप के साथ मजबूत डिब्बे में पैक करके दिया जाता है जिस पर रंगीन चमकीला रैपर चढ़ा रहता है। डिब्बे पर रिबिन बांधकर फूलदार गांठ लगा दी जाती है। गिफ्ट आइटम तैयार है। दुकानदार गिफ्ट पैकिंग के चार्ज अलग से वसूलना चाहता है। जो आप देना नहीं चाहते क्योकि यह राशि उससे अधिक हो जाती है जो आपने तय कर रखी है। दुकानदार जानता है कि इस आधार पर आप आइटम वापिस नहीं करेंगे। वैसे भी आपको देर हो रही है इसलिए वह अड़ जाता है कि गिफ्ट पैकिंग के पैसे अलग से लगेंगे। अतंत: कुछ घट बढ़ कर सौदा पट जाता है तथा अच्छे रैपर में लोकल (जीवित और अजीवित) माल स्कूटर पर फंसा कर आप चल देते हैं। रस्ते में याद आता है कि आपने पैकिट पर अपने नाम की स्लिप तो लगवायी ही नहीं है इसके बिना सारी मेहनत बेकार जाने वाली है। यदि मंदिरों के पत्थरों पर नाम लिखवाया जाना अधार्मिक घोषित हो जाये तो मूर्तियां हाथ ठेलों पर घर घर र्दशन देने के लिए उपलब्ध हो सकती हैं। आप तुरन्त ही एक दुकान पर रूकते हैं और स्टेपलर मांग कर अपना विजटिंग कार्ड डिब्बे पर स्टेपल कर देते हैं- तीन चार जगह से ।

जब बाजार व्यवस्था में एक सौदा निरंतर चलता रहता है- कम से कम देकर ज्यादा से ज्यादा पाने की तमन्ना दोनों ओर से जारी रहती है तो फिर गिफ्ट आइटम ही क्यों अलग रहें।

वीरेन्द्र जैन
2-1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, जून 02, 2010

व्यंग्य मानसून प्लीज कम सून


व्यंग्य
मानसून प्लीज़ कम सून
वीरेन्द्र जैन
संसद का मानसून सत्र तक आने वाला है पर मानसून नहीं आया। बलवीर सिंह रंग की पंक्तियाँ हैं-
उबासी आ गयी अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आये
कवियों की जून महीने में पावस की फुहारों पर लिखी गई कविताओं से हवा करके सम्पादक लोग पसीना सुखा रहे हैं। मैंढक और केंचुए ज़मीन में दबे दबे परेशान हो चुके हैं। वे छुपाछुप्पुअल खेलने वाले छुपे बच्चों की तरह बाहर निकलने को बैचैन हो रहे हैं। जिन दिनों मैंढकों की टर्र टर्र सुनायी देती थी, उन दिनों कूलरों की आवाज़ें आ रही हैं। कज़री गाने वाली बालाएं बीजना डुला रही हैं। जिन पेड़ों पर झूले डाले जाते थे उन पर गिद्धों का बसेरा हो चुका है। मेघों को दूत बना कर सन्देशा भेजने वाले कोरियर सर्विस के चक्कर लगा रहे हैं क्योंकि स्पीड पोस्ट के आगे स्कूलों में एडमीशन के लिए लगी लम्बी लाइनों से भी लम्बी लाइन लगी हुयी है। इस साल जामुन की फसल नहीं आ पायी और गर्मी के मारे गोरी गोरी लड़कियाँ जामुनी हुयी जा रही हैं, पाउडर लगा लेने पर ऐसी लगती हैं जैसे जामुनों पर नमक लगा हो।
मानसून, तुम कहाँ चले गये हो। तुम नगर पालिका के नलों की तरह या मध्य प्रदेश की बिजली की तरह हो गये लगते हो। तुम्हें पता है कि मध्य प्रदेश में गाँव गाँव बिजली के खम्भे लगे हैं, जो ढोरों के बाँधने के काम आते हैं, या कुत्तों के मूतने के। उनके तारों पर चिड़ियाँ बैठती हैं फिर उड़ती हैं, उड़ कर फिर बैठ जाती हैं, बैठ कर फिर उड़ जाती हैं। अपना कमीशन बनाने के लिए उचित समय पर ट्यूब लाइट या बल्ब बदल दिये जाते हैं भले ही उनने नवलेखकों की रचनाओं की तरह कभी भी प्रकाशन का सुख नहीं देखा हो। अगर नहीं बदली जायेंगीं तो नगर पालिका अध्यक्ष और पार्षदों का चुनाव में फूंका पैसा कैसे वापिस मिलेगा।
क्षमा करना मैं मीठी मीठी बातों से तुम्हें बहला रहा हूं मानसून! तुम हमारे क्षेत्र का भ्रष्टाचार देखने के बहाने ही आ जाओ, या साम्प्रदायिक हिंसा में हमारे द्वारा जलाए गए घरों की आग बुझाने ही आ जाओ। कुछ न हो तो हमारे उन मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियों की लाज रखने के लिए ही आ जाओ, जिन्होंने अच्छी वर्षा की भविष्यवाणी की थी। तुम नहीं आओगे तो हमारे मुख्य मंत्री यज्ञ और हवन के नाम पर जनता की गाड़ी कमाई का न जाने कितना रुपया फूंक देंगे जिनके पास शिक्षा का अधिकार लागू करवाने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है। इनके पाखण्ड की आग बुझाने ही आ जाओ। ज्योतिषी लोग ज़ज़मानों की गर्मी से बचे बचे फिर रहे हैं, अखबारों में उनकी नौकरी की रक्षा के लिए ही आ जाओ।
हमने भी तुम्हारे स्वागत में कुछ गीत चुरा कर रखे थे। चोरी से बचने के लिए चार पंक्तियां इसके गीत की और चार उसके गीत की उड़ा कर कई नये गीत जोड़ लिए थे, किंतु तुम तो किसी मंत्री की तरह वादा करके भी नहीं आ रहे हो और में मानपत्र वाचक की तरह बैचैनी में टहल रहा हूं। तुम्हारे न आने से छातों को छाती से लगा कर रखने की रितु ही नहीं आयी है, और् बरसाती की तहें ही नहीं खुल पा रहीं। प्रभु इच्छा से एक मन्दिर में बदल गये अपेक्षाकृत अच्छे जूतों को पहचान लिए जाने के डर से बरसात में प्रयोग के लिए सुरक्षित रख छोड़ा था, जो तुम्हारे न आने पर पावस गीत लिखने और गाने वालों के लिए काम में आने वाले हैं। छत पर टपकने वाली जगह में भरने हेतु लाया गया तारकोल पिघल कर बहने लगा है, जो पकौड़े खाने को उतावले मुँह पर मलने के काम आयेगा। इन कवियों और पकौड़ों वालों की इज़्ज़त के लिए ही आ जाओ।
तुम तो परिदृष्य से ऐसे गायब हो जैसे अखबारों के पृष्ठों से अटल, ज़ार्ज़, या अर्जुन सिंह गायब हो गये हैं। हमारे राज्यपाल बनकर ही आ जाओ। पर आओ, मानसून प्लीज़ कम सून! तुम्हारे न आने से मम्मी पापा, भैया दीदी और और भी कोई सब दुखी हैं, कोई तुमसे कुछ नहीं कहेगा, तुम आ जाओ।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मंगलवार, जून 01, 2010

व्यंग्य - लगे रहो बाबा भाई


व्यंग्य
लगे रहो बाबा भाई

जहॉ जितने अधिक भ्रष्ट अधिकारी और टैक्सचोर, व्यापारी, ठेकेदार पाये जाते हैं वहीं बाबाओं की दुकानें भी बड़ी बड़ी लगती हैं। बडे बाबा ना तो कस्बों में जाना पसंद करते हैं और ना गॉवों में। आखिर क्लाइन्टेल का सवाल है। ग्राहकी ही नहीं होगी तो बाबा क्या झक मारेंगे। जब तक एकाध ठो राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री, ठेकेदार चेम्बर ऑफ कामर्स के अध्यक्ष आदि को चरणों में नही पटक लेते तब तक बाबा जी की आत्मा बैचैन रहती है। दबे कुचले लूले लंगड़े बीमार गरीब गुरवा तो कीड़े मकोड़ों की तरह हर बाबा के चरणों में बिलबिलाते ही रहते हैं पर असली भक्त तो वीआईपी ही होतें हैं। बाबा की निगाहें टकटकी लगाये देखती रहती हैं कि कोई वीआईपी ग़िरा कि नही गिरा। जब तक नही गिरे तब तक भजन चलने दो। बाबाजी के नल रूपी मुंह में प्रवचन का जल तभी प्रवाहित होता है जब वीआईपी सफेद मसनद से पीठ टिका ले।

गॉव कस्बे फुटकर दुकानदारों के लिए छोड़ रखे हैं, जहॉ सौ दो सौ से मूड़ मारो तब कहीं दस पॉच हजार खींच पाते हैं। राजधानी में एकाध को ही चित कर लिया तो लाख दो लाख फेंक जाता है। इस दशा को प्राप्त होने के लिए भी बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। अलग अलग भावपूर्ण मुद्राओं में रंग बिरंगे फोटो और चिकने कागजों पर पोस्टर छपवाने पड़ते हैं। हजारों रूपयें महीने के तो प्रवचन तैयार करने वाले लगाये जाते हैं और अखबारों में मय फोटो के दार्शनिक चिंतन छपवाने के लिए पीआरओ लगाने पड़ते हैं। सम्पादकों उपसम्पादकों को परसाद के नाम पर मिठाई और मेवों के डिब्बे देना होते हैं। चमत्कारों की झूठी कहानियों फैलाने वालों को लगातार सक्रिय रखना होता है। जहॉ प्रवचन का डौल जमाया जाता है वहॉ पर लाखों की पब्लिसिटी लगती है। अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन, पोस्टर, भित्तिलेखन पम्फलेट से लेकर चुनाव प्रचार में लगने वाले सारे साधन झौंक दिये जाते हैं। बच्चों की जिज्ञासा जगाने वाले हाथी घोड़ों के जलूस से भीड़ भड़क्का जुटा कर नगर के सारे बैण्ड बाजे वालों को लाईन से लगा दिया जाता है कि ठोके जाओं मरे चमड़े पर डम डमा डम , ये साले प्रेस वाले तभी आयेंगे। और फिर बाबा के दरबार से कोई खाली हाथ थोड़े ही जायेगा।

बाबा, वैरागी हैं । फल के प्रति उदासीनता से ओत प्रोत। प्रवचन रूपी कर्म कर दिया फल की चिन्ता नहीं है कि उन प्रवचनों पर कोई कभी कहीं अमल भी कर रहा है या नहीं। बाबाजी पेले जा रहे हैं प्रवचन पर प्रवचन और अच्छे अच्छे बाद्य यंत्रों पर भजनों का गायन चल रहा है। शेम्पू से धुले बिना डैन्ट्रिफ वालें केश और चमकदार भगवा पोषाक मेवा और पौष्टिक पदार्थो से पुष्ट देह बाबा जी का वैराट्य प्रदर्शित कर रही है।
आखिर ये रिटायर्ड बूढे क़हॉ जायें! प्रवचन ही सुन लें! क्या जाता है। दिन भर मिनमिनाती सासें क्या करें? घंटे के लिए बहुओं को भी छुट्टी दें और खुद भी छुट्टी काटें, बाबा की बकवास सुन कर कौन सा बदलाव लाना है। जीवन तो जैसा हांकना है वैसा ही हांकेगे। बाबा भी कहॉ पूछने आते है कि पिछले प्रवचन से क्या निकला था जो इस बार फिर गधे की तरह मुँह लटकाए फिर आ बैठते हो। साल-दर-साल बाबा- दर बाबा पिले पड़े हैं और अपना कर्तब्य कर रहे हैं पर नगर उस दिशा में बदल रहा है, जो कोई बाबा नही बतलाता।
बाबा की कही कोई बात, कोई भी नही मानता। मानते होते तो कम से कम माईक वाले शमियाने वाले, सजावट वालों में ही कुछ परिवर्तन देखने को मिलता जो प्रत्येक बाबा के लिए सजाते हैं, बिछाते हैं और फिट करते हैं व बदइंतजामी की आशांका से लगातार सजग रह कर डियूटी देते रहते हैं। उनके लिए भी वह अर्थहीन स्वर होता है जो श्रोताओं के लिए भी होता है। बाबा मंन्दिर में लगे लाउडस्पीकर की तरह बजे जा रहे हैं। उन्हें रोका नही जा सकता इसलिए बज लेने दो।

एक बाबा दूसरे की सार्वजनिक निन्दा नहीं करता है, उनमें सहकारिता है। मोबाइल से डेटें तय करते रहते हैं। सब की अपनी अपनी तारीखें होती हैं। एक के पोस्टर फट नही पाते कि दूसरे के चिपक जाते हैं। एक के बैनरों के अन्डरवियर सिल के नहीं आ पाते है कि दूसरा बैनर बनियानों के लिए आ जाता हैं। गरीबों को बाबा का यही प्रसाद है। लगे रहा बाबा भाई- हम भी लगे हुऐ हैं। एक गांधी बाबा था जिसकी बात का असर होता था क्योंकि वह स्वंयं भी पहले वही करता था जो बोलता था। हरिजन बस्तियों में आश्रम बनाना हो या अपना शौचालय स्वंयं साफ करना, कोढ़ियों की सेवा हो या चरखा कातना, वह खुद करके दिखाता था। उसके कहने पर लाखों लोगों ने खादी पहनी और विदेशी कपड़ों की होली जलायी। वह एक चादर में इंग्लैण्ड गया और सूरज न डुबोने वाले साम्राज्य की बत्ती गुल कर दी। पर आज के बड़े बड़े बाबाओं के चेले दिन में प्रवचन सुनने के बाद शाम को बार में पाये जाते हैं और बाबा अपने वकीलों से मुलाकात कर रहे होते हैं ताकि हत्या, बलात्कार, अतिक्रमण या टैक्स चोरी के प्रकरणों की सुनवाई की तारीखें बढ़वाने की रणनीति पर सलाह मशविरा कर सकें।

गांधी बाबा को इन्ही बाबाओं के भक्तों जैसे लोगों ने गोली दगवा दी थी। गांधी बाबा होता तो शायद इन बाबाओं की दाल नहीं गल पाती। अगर किसी बाबा में कभी गांधी बाबा जैसा सच जग जाये, जिसकी सम्भावना ना के बराबर है तो सच्ची आत्म कथा लिखकर दिखाएं- गांधी बाबा जैसी। किसी ने नहीं लिखी, कोई नहीं लिख सकेगा।

वीरेन्द्र जैन
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