शनिवार, जून 19, 2010

व्यंग्य- मकान न खरीदने के आत्मसंतोष

व्यंग्य
मकान न खरीदने के आत्मसंतोष
वीरेन्द्र जैन
रोटी, कपड़ा और मकान, एक फिल्म का नाम होने से पूर्व भी सभ्य जानवरों के लिए प्राथमिकता की श्रेणी में आते थे और फिल्म बन जाने के बाद भी आते हैं। यद्यपि उनका क्रम निर्धारित है, पर कभी कभी इस क्रम में विचलन भी देखने को मिलते हैं, लंगोटी लगाए हुए और उसे भी उतारकर फेंक देने वाले पुरूषों को भी मैने रोटी खाते देखा है, रोटी सबसे पहली जरूरत है, किन्तु भूख से पीड़ित रहने वाली महिलाओं के लिए भी कपड़े पहली जरूरत में आते हैं। यही कारण हैं कि हमारे महान आध्यात्मिक देश के नागा साधु तो देखने में आते हैं नागा साध्वियॉ नही पाई जाती हैं।

रोटी पहली जरूरत हैं यह सिद्व करने के लिए ब्राम्हण लोग लगभग आधे वस्त्र उतारकर भोजन पर बैठते रहे हैं। कुछ विद्वानों का ऐसा भी विचार है कि अधिकांश समय दूसरों के घरों पर भोजन जीमने के कारण उसे छुपाकर अपने घर ले जाने की संभावनाओं से बचने की खातिर उन्हैं कम वस्त्रों में भोजन कराया जाता था। मेरे विचार से यह दृष्टिकोण सही नहीं है क्योकि दूसरों के घर से खाना ले जाने वालों के लिए वस्त्र कोई बाधा नहीं होते हैं, उनका पेट ही काफी होता है।वे अपना काम बना ही लेते हैं।

रोटी और कपड़े के बाद मकान का तीसरा नंबर आता है भले ही दुनिया के अधिकांश भागों में रोटियां मकानों में ही बनाई जाती हैं और कपड़े भी मकान के अंदर ही बदले जाते हैं। (जो लोग कॉच के मकानों में रहते हैं वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते हैं तथा लाइट बंद करके कपड़े बदलते हैं।)

मकान दो तरह के होते हैं, एक किराए का मकान, दूसरा खुद का मकान। वैसे बनावट की दृष्टि से दोनों तरह के मकान लगभग एक जैसे ही होते हैं फिर भी यह कहावत है कि किराये का मकान किराये का होता है। खुद के मकान में रहने वाला जगह की जुगाड़ निकाल कर किराए से देने के लिए संभावनाएं तलाशता रहता है तो वहीं किराये के मकान में रहने वाला अपने मकान के सपने देखता रहता है।

अखबारों में छपनेवाले आकर्षक विज्ञापन उसकी मकान की भूख में चटनी का काम करते हैं, वह अपनी कल्पना के ड्राइंग- कम-डाइनिंग रूप में सोफा टीवी और शो-केश की जगह निश्चित करने लगता है। किसी का भी ड्राइंग रूम उसकी ईष्या का कारण बनने लगता है। उसकी लपलपाती जीभ से लगातार लार टपकने लगती है।

जैसे जैसे मनुष्यता का पतन होता जा रहा है, वैसे वैसे भवन और ऊंचे होते जा रहे हैं। कई कई मंजिलों वाले मकानों की बाढ़ आती जा रही है। मनुष्य आज जितनी ऊँचाई पर पहुँचता है उसके नैतिक मूल्य उतने ही गिर जाते हैं, उसी भॉति किसी भी भवन के फ्लेट जितनी उँचाई पर होते हैं उनके मूल्य भी इतने ही कम होते जाते हैं। यह तो सरकार की समर्थन मूल्य योजना का हिस्सा है कि वो भवनों को मंजिलों की संख्या सीमित रखे हुए है, बरना यह मनुष्य तो स्वर्ग तक मंजिल ले जाता और कई लोग मुफ्त में स्वर्गवासी हो जाते।

मकान लोलुप प्राणी अखबार में केवल वर्गीकृत विज्ञापन देखकर ही उस ओर लपकता है। वह जानता है कि वहां जाने पर और कुछ मिले न मिले पर चिकने कागज पर छपा हुआ एक रंगीन ब्रोशर तो हाथ लग ही जावेगा जो पत्नी के सामने प्रयासरत रहने के प्रमाण के अलावा, बच्चों के लिए नावें बनाने या कमरे से झाड़ा हुआ कचरा उठाने के काम तो आएगा ही आएगा।

भवनों में आते जाते वह उसकी सारी शब्दावली सीख जाता है। एचआईज़ी, एमआईज़ी सीनियर एमआईज़ी, जूनियर एमआईज़ी, एलआईज़ी प्लाट, फ्लैट, इंडिपेंडेंट ग्राउंड फ्लोर, टाप फ्लोर, टैरेस, सेपरेट पार्किंग आदि का मतलब वह खूब समझने लगता है। ''इसका प्लिंथ एरिया कितना है ?'' वह प्रधान अध्यापक द्वारा बच्चे से पूछे गए सवाल की तरह उसके गाइड से पूछता है।
'' इसका किचिन बहुत छोटा है '' एक जगह वह कहता है।

'' किचिन के साथ विडों होना बहुत जरूरी हैं वरना धुएँ के मारे दम घुट जाएगा ''

'' एक ही बाथरूम है! कम- से-कम एक लैट-कम-बाथ होना चाहिए और एक टायलेट, वरना मेहमानों के आने पर बहुत मुश्किल होती है। ''

'' इस टायलेट में तो मेरे मथुरा वाले मोटे चाचा फंस ही जाएँगे ''। यह कहकर वह साथी को भी हँसते हुए देखना चाहता हैं जो उसके झूठ पर नही हँस पाता।

'' ड्राइंग-कम-डायनिंग में टीवी और फ्रिज के लिए प्वाइंट होने चाहिए ''
'' क्या केबिल लाईन भी नही हैं ?”
'' बालकनी यदि बेडरूम के साथ होती तो ज्यादा ठीक रहता'' वह कहता हैं।

'' मुझे तो ग्राउंड फ्लोर से सख्त नफरत हैं '' सारी गाड़ियॉ यही दरवाजे के सामने हुई हुर्र करके धुऑ छोड़ती हैं। रात के बारह बजे तक दोड़ पदौड़ सुनाई देती रहती है, और सुबह से ही पानी की मोटर घीं घीं करने लगती है। किसी को कहीं जाना हो ग्राउण्ड फ्लोर वाले की घंटी बजाकर पता पूछता हैं, यह भी नही देखता कि रात है कि दिन। दरवाजा बंद न हो तो ऐसा लगता हैं कि फुटपाथ पर बैठे हैं, सब घूरते हुए निकलते हैं। चोरियॉ भी ज्यादातर निचली मंजिल में ही होती हैं व सारे भिखारी यहीं पर अपनी बपौती समझते हैं। ''
''ऊपर की मंजिल में भी क्या रहना न जमीन अपनी न आसमॉ अपना। पिंजरे की तरह लटके हुए हैं अधर में। उपर वाले धमाधम करते रहें तो वह झेलो और जरा सा अपुन दूध को उबलने से रोकने के लिए दौड़ पडे तो नीचे वाले कहते हैं कि क्या रामलीला में लक्ष्मण- परशुराम संवाद चल रहा है। अजीब मुसीबत होती है। पोस्टमैन डाक नीचे ही डाल जाता है और नीचे उतरने तक सब्जी वाले के पास कानी और टेढ़ी- मेढ़ी सब्जी ही शेष रह पाती है। जरा- जरा सी चीजों के लिए नीचे ऊपर होते समय यह इच्छा होती हैं कि इससे अच्छा तो पर्वतारोही हो जाना होता, कम से कम नाम और नामा तो मिलता।''
''टॉप फ्लोर पर रहने से तो अच्छा है कि आदमी बनवास ले ले। एक आदमी ऊपर की मंजिल पर आत्म हत्या के लिए चढ़ा तथा चढते चढते हॉफ गया। पर उसने देखा कि उपर की मंजिल पर भी लोग रहते हैं तो उसने उन लोगों के जीवन को देखकर आत्महत्या का इरादा ही बदल दिया कि इनके कष्ट तो मुझसे भी ज्यादा हैं फिर भी जिंदा हैं। ''

''दरअसल फ्लैट सिस्टम ही ठीक नही हैं- न लान, न हरियाली, न गमले, न धनिया, पुदीना की सुविधा। ज्यादा से ज्यादा दारू की खाली शीशी में पानी डालकर मनीप्लांट लगा लो। अपना इंडिपेंडेट घर होने पर धूप लेने के बहाने पड़ोस के नवयौवन को तिरछी नजर से घूरते रह सकते हैं। न किसी की रें- रैं न पैं पैं पड़ोसी यही समझते रहैं कि पति पत्नी में बड़ा प्रेम हैं। फ्लेट में तो किसी को छींक भी आती हैं तो पड़ोसी अपनी विक्स की शीशी छुपाने लगता हैं कि कही मांगने न आ जाये। शाकाहारी नथुनों में मांसाहारी महक पहुँचती है।''

''अकेले घर के जमाने लद गये, बिना दो नंबर की कमाई के कोई अकेला घर बनवा ही नहीं सकता। ले-दे के एकाध कोई भला आदमी बनवा भी लेता है तो फिर बाद में सारी उमर पछताता रहता है। घर से बाहर निकले नहीं कि चोरी का खतरा सिर पर। देह कहीं रहे, मन का चोर घर के चारों ओर ही चक्कर काटता रहता है। फ्लेटों में अलग अलग रहकर भी संयुक्त परिवार का सुख। पूरब पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊँच-नीच जाति- धर्म का कोई भेद नहीं, आर्दश भारत का नमूना। अकेला घर बनाकर आदमी व्यक्तिवादी और स्वार्थी हो जाता है। घुन्ना और घमंडी। बाकी दुनिया से कोई मतलब ही नही। घर क्या बनवा लिया गोया महल खड़ा कर लिया, बादशाह हो गए।''
दरअसल ये सारे तर्क आदमी धीरे धीरे सीख जाता है, जब उसके पास इतने पैसे ही नही होते हैं कि वो बिल्डर्स की भरी हुई तिजोरियों में अपनी ओर से कोई और योगदान कर सके तो हर मंजिल के फ्लेटरूपी अंगूर उसके लिए खट्टे हो जाते हैं और वह अपने किराए के पिंजरें में आकर एक गिलास पानी पीकर अखबार में फिर वर्गीकृत विज्ञापन देखने लगता है। और क्या करे! एक अदद ब्रोशर तो चाहिए ही चाहिए।

वीरेन्द्र जैन
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