रविवार, जुलाई 18, 2010

लघुकथा -नाक और गरदन कटिंग बनाम आनर किलिंग


लघु कथा [व्यंग्य]
नाक और गरदन कटिंग बनाम आनर किलिंग
वीरेन्द्र जैन
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”मैं उन दोनों को मार डालूंगा” वे गुस्से में भरे हुये थे। ”
क्या बात हो गयी किस को मार डालोगे?” मैंने पूछा
”अपनी बेटी और उस हरामी की औलाद जिससे उसने शादी कर ली है” उन्होंने गुस्से में फनफनाते हुए कहा। गुस्से के मारे उनके मुँह से झाग निकल रहे थे, आँखें फटी पड़ रही थीं। वे दुर्वासा के साक्षात रूप बने हुए थे, पर उनमें श्राप देने की क्षमता नहीं थी इसलिए सीधे सजा देने पर उतर आये थे। किसी जमाने के कथा कहानी में ये बीच का रास्ता हुआ करता था जो अब खतम हो गया है।
” अरे भाई दोनों ही पढे लिखे हैं, दोनों ही नौकरी करते हैं, हमउम्र हैं, एक दूसरे को पसन्द करते हैं, और फिर तुम्हारी ही जाति के हैं इस पर तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि दहेज भी नहीं देना पड़ा और हर तरह से योग्य दामाद भी घर बैठे मिल गया। दावत देने वाली बात पर तुम उन्हें सजा दे रहे हो।“
” पर दोनों का गोत्र तो एक ही है”
”होगा यार अपने हिन्दुओं को छोड़ कर और कौन गोत्र की चिंता करता है, पर उनकी शादियाँ भी सफल होती हैं और उनका औसत स्वास्थ भी अपने औसत स्वास्थ से अच्छा ही रहता है ”
” पर ये जो अपने समाज में मेरी नाक कट रही है सो.........?” उन्होंने आखिरी शब्द पर अतिरिक्त जोर देकर कहा।
” तो अपनी नाक के लिए तुम उनकी गरदन काट दोगे, अपनी बेटी दामाद की जान ले लोगे! और फिर ये गैर कानूनी भी है, कहाँ तक भागोगे, अंततः पुलिस की गिरफ्त में आओगे, हथकड़ियाँ पहिन कर अदालत में जाओगे, अपनी बेटी दामाद के हत्यारे कहलाओगे तो क्या तुम्हारी नाक नहीं कटेगी”
” हाँ.................... नहीं कटेगी, हत्या करने पर समाज में नाक नहीं कटती पर गोत्र में शादी करने पर कटती है” वे गुस्से में बोले।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, जुलाई 12, 2010

व्यंग्य- असली साहित्य सेवी


व्यंग्य
असली साहित्य सेवी
वीरेन्द्र जैन

हे हिन्दी के साहित्यकारो, तुम कहाँ हो! कौन सी दुनिया में मस्त हो! तुम्हे पता भी है कि तुम्हारी दुनिया में क्या चल रहा है। अरे इतना मस्त तो इन्द्र भी नहीं रहता था जिसके पास जगत की श्रेष्ठ नृत्यांगनाएं थीं । उसने भी तकनीक का सहारा लेकर ऐसा सिस्टम बना रखा था कि जब भी कोई तपस्या आदि में जी जान से ऐसा जुट जाता था जैसे कि मध्य प्रदेश के मंत्री पैसा लूटने में जुटे हुये हैं, तो उसका आसन डोलने लगता था और वह उनकी तपस्या भंग करने के लिए दस पाँच ठौ मेनका रम्भाएं मृत्युलोक में टपका देता था जिससे कि ऋषि मुनि सारी तपस्या भूल जाते थे। पर तुम्हारा खोयापन तो ऐसा लगता है जैसा कि किसी शायर ने कहा है-
खोये हुये से बैठे तिरी बज्म में हमें
ये भी नहीं है याद कि क्या भूल गये हैं
क्या तुम किसी सेमिनार में भाड़ झौंक रहे हो या किसी पुरस्कार की जुगाड़ में लगे हुये हो या अपने किताबें कोर्स में ठुसवाने के प्रयास में हो और इधर तुम्हारी दुनिया पर दूसरे कब्जा करते जा रहे हैं। एक दिन ऐसा भी आ जायेगा जब तुम्हारे हाथ में प्रदेश के दलितों की तरह केवल पट्टा रह जायेगा और कब्जा फिसल जायेगा।
अगर अब भी नहीं समझे तो समझ जाओ कि देश की इकलौती सांस्कृतिक संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अब साहित्य पर उतर आयी है और उसने भाजपा में अध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर ऐसा साहित्य प्रेमी थोपा है जो हिन्दी की बिन्दी लगा कर भाषा और साहित्य की अनूठी सेवा कर रहा है। उसकी वाइफ तक भाषा की विदुषी है [ बड़े लोगों की पत्नी नहीं होती वाइफ होती है] और जब हिन्दी भाषी प्रदेश के विद्वान सेवकों ने इन्दौर में उसके फाइव स्टार टेंट के बाहर नितिन गडकरी की जगह नितीन लिखवा दिया था तो उसकी वाइफ़ ने बोला था कि ओह गाड! इन्हें शुद्ध भाषा भी नहीं आती।
पिछले दिनों इन्हीं अध्यक्ष महोदय ने लालू प्रसाद और मुलायम सिंह को सोनिया के तलुवे चाटने वाला कुत्ता बतलाया था। जब उनसे पूछा गया तो उनका उत्तर था कि उन्होंने तो मुहावरे में कुत्ता कहा था। यह बतलाता है कि उन्हें व्याकरण का कितना अच्छा ज्ञान है और ये हिन्दी भाषी प्रदेश के लोग मुहावरे भी नहीं जानते। इसके बाद लालू प्रसाद यादव के राम कृपाल ने गडकरी को छछूंदर कह दिया तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी क्योंकि वे विद्वान जानते थे कि छछूंदर के सिर में चमेली का तेल भी एक मुहावरा है।
जब इन्हीं भाषा विज्ञानी गडकरी ने अफजल को कांग्रेस का दामाद बताया और मूर्खों को दामाद शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुये कहा कि दामाद उसे कहते हैं जिसे अपनी बेटी दी जाती है सो कांग्रेस से सवाल किया कि क्या उन्होंने अफजल को अपनी बेटी दी हुयी है? जब इस पर नासमझ कांग्रेसियों ने अपने पिंजरे में बँधे बँधे फूँ फाँ की तो राजीव प्रताप रूडी ने कालिदास काल के पंडितों की तरह विद्योतमाओं को अर्थ बताते हुये कहा कि यह कांग्रेस की रचनात्मक आलोचना है इसलिए माफी माँगने का कोई सवाल ही नहीं। अब हिन्दी के साहित्यकारों को सीखना चाहिए कि रचना क्या होती है, आलोचना क्या होती है और रचनात्मक आलोचना किसे कहते हैं।
इधर मध्य प्रदेश में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव भाजापा के प्रदेश अध्यक्ष को समझा रहे हैं कि औकात का अर्थ हिन्दी में क्षमता और अंग्रेजी में कैपिसिटी होता है। हालांकि उन्होंने शब्दार्थ तो बता ही दिया साथ ही उदाहरण देकर उनकी औकात भी बता दी कि इसी प्रदेश में एक पत्रकार के रूप में अर्जुन सिंह से अपने निजी काम कराने के लिए किस तरह गिड़गिड़ाते थे।
राजनीति में जहाँ देखो वहाँ भाषा व्याकरण और साहित्य चल रहा है किंतु हिन्दी के साहित्य सेवी शायद आगामी चौदह सितम्बर तक के लिये सोये हुये हैं जब वे हिन्दी सेवा के लिए इस या उस सरकारी संस्था से धैर्य धन्य नत मस्तक हो शाल ओढ कर शालीन होंगे, और अगले साल तक बने रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

व्यंग्य- जार्ज जया और जे डी [यू]


व्यंग्य
जार्ज, जया और जे डी [यू]
वीरेन्द्र जैन
पता नहीं अब लिखा रहता है या नहीं पर पहले बसों में लिखा रहता था कि अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें बस वालों की कोई ज़िम्मेवारी नहीं होगी। जो अपना सामान दूसरों के यहाँ छोड़ कर चले आते हैं उनके साथ यही होता है। जेडी[यू] की जया जैटली के साथ भी यही हो रहा है, उनका सामान जार्ज के घर में रखा है और लैला उस थैला को उठाने के लिए उन्हें घर में नहीं घुसने दे रहीं हैं।
जब तक लैला अपना सामान खुला छोड़े हुये थीं तब तक उनके सामान के साथ भी यही हो रहा था, पर भला हो चुनाव आयोग का कि उसने चुनाव लड़ने के लिये अपने सामान की सूची घोषित करना जरूरी कर दिया और जिससे लैला को पता चला कि जिसे वे मामूली सामान समझ रही थीं वह तो बहुत मूल्यवान है और उस पर कानूनी हक उनका है। जार्ज के मुड़े तुड़े बिना प्रेस के कपड़े और हवा में उड़ते बालों वाले समाजवादी के पास पन्द्रह करोड़ की दौलत का पता होता तो लैला क्यों अपना घर ऐसा खुला छोड़तीं कि कोई भी आकर अपना सामान वहाँ रख जाये। अब जब गलती समझ में आ गयी तो सुधार ली। भूल करना तो मानव का स्वभाव है और उसे ठीक करना समझदारी। सामान सम्पत्ति के मामले में असली चीज होती है कब्जा। मायावती समझदार थीं कि उन्होंने कब्जा बनाये रखा सो कानूनी हकदार भी अपना सामान नहीं ले जा सके। याद रखने वालों को याद होगा कि जब एमजी रामचन्द्रन की शव यात्रा के समय जय ललिता उनके शव वाहन पर बैठ कर जाने लगीं थीं तो राम चन्द्रन के भांजे ने उनके साथ कैसा दुर्व्यवहार किया था। उस समय उन्होंने जय ललिता को कब्जा नहीं लेने दिया था पर बाद में जयललिता ने पूरे तामिलनाडु पर कब्जा कर के दिखा दिया था। रामा राव के दामाद चन्द्रबाबू नायडू और उनकी सौतेली सास के साथ भी कुर्सी के लिए कुछ कुछ ऐसा ही हुआ था। इन्दिरा गान्धी और मनेका गान्धी को संजय गान्धी की सम्पत्ति के लिए अदालत के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ी थी। जब भाजपा सांसद के एल शर्मा का देहांत हुआ था तब भी उनकी एक महिला मित्र ने उनके घर में रखी एक अलमारी पर अपना दावा किया था जबकि भाजपा नेतृत्व का कहना था कि अलमारी किसी की हो पर पैसा पार्टी का है, और वह महिला दिवंगत के साथ अपनी मित्रता रही होने का गलत फायदा उठा रही है। लैला के इस व्यवहार के बाद देश की सभी लैलाओं को सावधान हो जाना चाहिए और अपने अपने सामानों को अपने अपने घरों में सुरक्षित रखते हुये भर को खुला न छोड़ें। भला यह भी कोई बात हुयी कि किसी के घर में किसी की अलमारी रखी हुयी हो। अरे भाई दुनिया में स्विजरलेंड भी एक जगह है जहाँ के बैंकों में हिन्दुस्तानियों के खाते खुलने की सुविधाएं हैं सो लाकर भी होंगे जिसे भी रखना हो वह अपना सामान वहाँ रखे। हमारे देश के जिन समझदार लोगों ने वहाँ 1456 अरब डालर रखे हैं उनसे सीख क्यों नहीं लेते। कम से कम इस मामले में तो हम सारी दुनिया से आगे हैं क्योंकि दूसरे किसी देश के लोगों ने अपने सामान इस तरह से सुरक्षित नहीं रखे हैं।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

गुरुवार, जुलाई 01, 2010

व्यंग्य -------जाने कब


व्यंग्य
जाने कब!
वीरेन्द्र जैन
आज से बहुत पहले मौत और ग्राहक का कोई ठिकाना नहीं होता था कि वह जाने कब आ जाये। आज जाने कब आ जाने वाली इस इस सूची में वृद्धि होती जा रही है ।
पहले बरसात समय से होती थी, जून के महीने से ही पुराने अन्डरवियर बनियानें और जूते आदि धो पौंछ कर रख लिए जाते थे ताकि बाहर से निचुड़ते हुये लौट कर बदल लिए जायें क्योंकि सुबह वाले तो दो दिन में सूखने वाले होते थे। आज कल तो बरसात कभी भी किसी भी महीने में हो सकती है और ज्यादातर तो प्रतीक्षा ही रहती है कि जाने कब होगी।
बरसात की तो छोड़ दीजिए, नल का कोई ठिकाना नहीं रहता कि कब आ जायें! सुबह, शाम, दोपहर, देर रात, कभी भी नल आ सकते हैं, जो हमारे कस्बे में वैसे भी दो या तीन दिन में एकाध बार ही आते हैं और उसी एकाध बार का ठिकाना नहीं। जब पूरे मुहल्ले में 'आ गये आ गये' का शोर उठने लगे तो समझो नल ही आ गये क्योंकि जिस उत्साहपूर्ण स्वागत के साथ नल आते हैं उस तरह से मुहल्ले में और कोई नहीं आता, नेता भी नहीं, जमाई भी नहीं। इस पर भी सावधानी के लिए पूरे नगर ने नलों में टोंटियां नहीं लगवायी हैं जिससे तेजी से हवा की सूं सूं सुनकर उनके आने का पता चल सके।
नल ही नहीं नाली साफ करने आने वाले कर्मचारी के आने की भी कोई नियमितता नहीं हैं। लबालब भर जाने और उस पानी में मच्छरों की दो तीन पीढियों के बड़े हो जाने पर जब कभी वह आ जाता है तो किसी अहसान की तरह नाली का कचरा उठा कर बाहर सड़क पर ढेर लगा देता है। फिर उसे उठाने के लिए आने वाली गाड़ी की भी उसी तरह अनिश्चितता बनी रहती है जैसी कि नल और नाली सफाई कर्मचारी की रहती है। जब वह कीचड़ दसों दिशाओं में अपना यश फैला चुका होता है तो उम्मीद की जाने लगती है कि वह जाने कब अचानक कचरा उठाने आ जाये। और वह तब आ भी जाता है जब उसके आने की सारी प्रतीक्षा मर चुकी होती है।
वैसे नलों के आने में राज्य सरकार की जिम्मेवारी होती है क्योंकि जब बिजली आयेगी तब ही तो नल सप्लाई करने वाली पानी की टंकी में पानी चढाया जा सकेगा। अब किसी को पता नहीं रहता कि बिजली कब आयेगी। जिससे भी पूछो वह यही कहता है कि पता नहीं साब ,जाने कब आयेगी। जब बिजली आ जाती है तो नल से पानी चढाने वाले का पता नहीं होता। उसके बारे में चौकीदार बताता है कि वह टेंकर सप्लाई करने वालों से हप्ता वसूलने गया है। पता नहीं वह जाने कब आयेगा ।
बिस्तर पर पड़े पड़े सोच रहे हैं कि नींद जाने कब आ जाये! और जब नींद आती है तभी चौकीदार चिल्लाता है जागते रहो! [चोर जाने कब आ जाये।]
बारह बजे की ट्रेन दो घन्टे लेट होती है तीन घन्टे हो चुकने के बाद स्टेशन पर पता नहीं रहता कि कब आ जाये! प्लेटफार्म के इस कोने से उस कोने तक सारे मुसाफिर सोचते रहते हैं कि जाने कब आ जाये। कोई इन्क्वारी तक नहीं जाना चाहता क्योंकि पता नहीं हम वहाँ पूछने गये और इधर ट्रेन आ जाये। वैसे इंक्वारी वाला पूछने पर हमेशा राइट टाइम बताता है या कहता है कि आने वाली है। उसके लिए जब आ जाती है वही तो राइट टाइम है।
दिन में डाकिये का कुछ निश्चित नहीं रहता कि कब आयेगा और उससे भी ज्यादा तो कोरियर वाले का पता नहीं कि जाने कब आ जाये। सम्पादक की रचना की स्वीकृति अस्वीकृति का पता नहीं रहता कब आ जाये और फिर रचना छप जाने के बाद उसके पारिश्रमिक का भी पता नहीं रहता कि कब आ जाये ज्यादातर तो नहीं ही आता क्योंकि सम्पादक एक टुच्ची सी राशि भेजकर आपका अपमान नहीं करना चाहता, और अगर ज्यादा मिलना होता तो उसके रिश्तेदार क्या मर गये थे जो वो आपसे लिखवाता।
टेलीफोन ऐसा ही उपकरण है कि जाने कब उसकी घन्टी बज जाये। जाने कब मोबाइल पर एसएमएस आ जाये भले ही वो ऐसी रिंगटोन का हो जिसे सुनकर आपको भी शर्म आये और आपसे वार्तालाप करने वाले को भी।
समय बदल जाने से मेहमान तो अब अतिथि नहीं रहे और वे फोन करके ही आते हैं पर अब घर के लोगों का पता नहीं रहता कि वे कब आयेंगे! अपना घर है कभी भी चले चलेंगे।
सरकारें अविश्वास प्रस्ताव के बारे में सोचती रहती हैं कि वह जाने कब आ जाये।
संत कहते हैं कि- राम नाम रटते रहो धरे रहो मन ध्यान, कबहुँ दीन दयाल के भनक परेगी कान। जाने कब उनके कान में हमारे द्वारा लिया हुआ उनका नाम पड़ जाये। जाने कब सीप के मुँह में स्वाति की बूंद पड़ जाये। दीन दयाल की अदालत में कोई र्रोज रोज सुनवाई थोड़े ही होती है। वहाँ भी कम अन्धेर नहीं है। जाने कब, जाने कब, कहीं कोई ठिकाना नहीं अब तो आठ बजने का भी ठिकाना नहीं रहता कि जाने कब बज़ जायें!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629