शनिवार, सितंबर 11, 2010

व्यंग्य - साम्प्रदायिक सद्भाव वाया दूरदर्शन


व्यंग्य
सरकारी साम्प्रदायिक सद्भाव वाया दूरर्दशन
वीरेन्द्र जैन
ईद होली दिवाली दशहरा आदि जो कभी खुशी के अवसर होते थे अब आतंकित होने के हो गये हैं। एक दिन पहले से खाकी वर्दी के लोग ऐसी निगाहों से घूरने लगते हैं कि आइना देखने को मन होने लगता है कि आखिर इस चेहरे से कहीं आतंकी होने का संदेह तो नहीं टपक रहा। राम भरोसे से पूछता हूँ- यार क्या मैं आतंकवादी जैसा दिखता हूँ?
उत्तर में वह उल्टा सवाल करता है- और क्या मैं दिखता हूँ?
''नहीं तो, पर तुम क्यों पूछ रहे हो?'' मैं पूछता हूं
''उसी कारण से जिस कारण से तुम पूछ रहे थे, आजकल सारे पुलिस वाले हर आदमी में कहीं आतंक तलाशते फिरते हैं, वे ऐसे देखते हैं जैसे कि फिल्मों के अंतिम दृशयों में खलनायक हीरोइन को देखता है। त्योहार आ गया है न.....'' वह बताता है।
आजकल त्योहारों के आने का पता इसी से चलता है जब पुलिस वाले घूर घूर कर देखने लगें तो समझो त्योहार आने को है। यदि रीतिकाल में ऐसा होता तो उस समय के कविराज जरूर उस पर कई छन्द रच जाते- घूरन लगे पुलिस के ठुल्ले, सखि दीवाली आई। जब मोटर साइकिलों की चैकिंग हो रही हो तो समझो कि छब्बीस जनवरी या पन्द्रह अगस्त आ गया है।
ऐसे में सरकार का भी कुछ कर्तव्य बनता है कि वह साम्प्रदायिक सद्भाव इत्यादि फैलाये सो वह ठीक समय पर वैसे ही फैलाने लगती है जैसे कि बबलू की मम्मी बरसात जाने के बाद क्वांर की धूप में गरम कपड़े फैला देती हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाने के लिए सरकार के पास एक दूरर्दशन नामक चीज है जो जैसे हाथ धोना सिखा कर स्वाइन फ्लू भगाना सिखाता है वैसे ही सरकारी रिपोर्टों द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव फैलवाता है। इस बार ईद को उसने जम्मू में पूरे दिन मुसलमान कारीगरों द्वारा रावण बनाना दिखाया और उससे साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश फैलवाया। वे बेचारे अपनी रोटी के लिए जुटे थे और ये साम्प्रदायिक सद्भाव खोज रहे थे।
इससे पहले मुझे पता नहीं था कि यह इतनी सरल सी चीज है बरना मैं कब से इसमें जुट गया होता और दो चार कतरनों के संग्रह छपवा कर कई इनाम जीत चुका होता,या लाखों की दौलत बना चुका होता। कुछ नमूने देखिये-
• भोपाल। सुबह के छह बजे हैं और ये उस्मान भाई हमारे दरवाजे पर हैं। ये हमारी पूरी कालोनी में पिछले दस सालों से अखबार बांट रहे हैं। हमारी कालोनी में एक भी मुसलमान नहीं रहता। कालोनी के हिन्दू बिल्डर ने फ्लैट बेचते समय उसकी जो विशोषताएं बतायी थीं उनमें से फुसफुसा कर बतायी गयी यह भी एक थी कि- हमने किसी मियां भाई को एक भी फ्लैट नहीं दिया। इस कालोनी के कई खरीददार तो इसी पर मुग्ध होकर फ्लैट बुक करवाये थे। इसमें सब हिन्दू हैं पर उसमान भाई बिना नागा सबको अखबार पढवा कर साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल कायम किये हुये हैं। हमारा देश महान है।
• ये सलीम भाई हैं जो कम्प्रैसर से हवा भरने का काम करते हैं अपने छह बच्चों को हवा खाने से बचाने के लिए ये हिन्दू मुसलमान सभी की कारों और बाइकों में हवा भर के साम्प्रदायिक सद्भाव की बयार चला रहे हैं, ये किसी से उसकी जाति और धर्म नहीं पूछते, और पूछने की जरूरत भी क्या है वो तो हाथों में कलावा बांध कर, माथे पर रंग लगा कर जाली दार टोपी पहिन कर, पगड़ी बांध बाल बढा कर या बकरे जैसी दाढी बढा कर अपने आराघ्य की कृपा का नारा वाहन पर मोटे मोटे अक्षरों में लिखवा कर वैसे भी प्रकट करता रहता है। ये बीस साल से इसी तरह हवा भरने और पंचर जोड़ने का साम्प्रदायिक सद्भाव का काम कर रहे हैं। हमारा देश महान है। उनके खुद के पास भी एक साइकिल है जो 'थी' की क्रिया लगाने के लिए पूरी तौर पर तैयार है। वह अब है और नहीं है जैसे दार्शनिक आधार बना सकती है
• मुसलमान दर्जी हमारे सूट सिल कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते हैं
• मुसलमान मैकेनिक हमारी मशीनें सुधार कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते हैं
• भारत रत्न विसमिल्ला खां भगवान विश्वनाथ के मंदिर के पीछे बैठ शहनाई बजा कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते थे और पीछे इसलिए बैठते थे क्योंकि उनका प्रवेश वर्जित था। हमारा देश महान है। भारत रत्न भारत में सब जगह नहीं जा सकता।
• मुसलमान रिक्शावाले हमें रिक्शों पर बैठा मंदिर पहुँचा कर साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाते हैं
जब सरकार और उसके दूरर्दशन के पास साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाने के इतने टोटके हैं तो फिर पता नहीं कि ये साला फैल क्यों नहीं रहा! क्यों बार बार मिरज मेरठ मुंबई गुजरात इंदौर धार होता रहता है। वे चाहें तो किसी हिन्दू को रोजा रखवा सकते हैं और किसी मुसलमान से ब्रत रखवा कर साम्प्रदायिक सद्भाव मजबूत करा सकते हैं। रोजा अफ्तार की दावतें दे सकते हैं।
हाँ नहीं करा सकते तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू नहीं करा सकते। लागू हो गई तो वे मजदूरी की मजबूरी से निकल कर कुछ और भी कर सकेंगे पढ लिख सकेंगे।
पर तब दूरदर्शन साम्प्रदायिक सद्भाव मजबूत कैसे करेगा!
जय हो!
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शुक्रवार, सितंबर 10, 2010

व्यंग्य- मनमोहिनी राष्ट्रीय पर्व


व्यंग्य
मनमोहिनी राष्ट्रीय पर्व
वीरेन्द्र जैन
शेक्सपियर ने कहा था- आई डू नाट फालो इंगलिश, इंगलिश फालोस मी अर्थात मैं अंग्रेजी का अनुशरण नहीं करता अंग्रेजी मेरा अनुशरण करती है।
हिन्दी के साहित्यकार समझते हों या न समझते हों किंतु हमारे देश के नेता भाषा को ऐसी ही चेरी समझते हैं। आदरणीय अडवाणी जी डीसीएम टोयटा को रथ कहते हैं, तो संघ परिवार स्कूलों को मन्दिर का नाम देती है- सरस्वती शिशु मन्दिर- तय है कि मन्दिरों में कोई मस्जिद वाला तो जायेगा नहीं सो अपने आप ही बँटवारा हो गया। अब हमारे [कांग्रेस]जन प्रिय प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह जी भी कम थोड़े ही हैं सो वे कामन वैल्थ गेम्स को राष्ट्रीय पर्व कहते हैं तो क्या गलत कहते हैं, आखिरकार हैं तो वर्ल्ड बैंक के पूर्व कर्मचारी।
हमारे यहाँ तो छोटे से छोटा मजदूर भी पर्व त्योहार जरूर मनाता है भले ही उधार लेकर मनाये। वह और दिन पेट काट लेगा पर कहेगा- वा साब तेहार तो मनाना ही पड़ता है। छोटे आदमी का छोटा त्योहार सौ पचास रुपये में निबट जाता है पर वर्ल्ड बैंक वाले मनमोहनजी का राष्ट्रीय पर्व तो एक लाख करोड़ में ही मन पायेगा। आप ठीक से पढ रहे हैं न एक......लाख.....करोड़..। आशिक का जनाजा है जरा धूम से निकले। कंजूस चीन ने बीस हजार करोड़ में ओलम्पिक करा लिये थे पर हमारे यहाँ एक लाख करोड़ में कामन वैल्थ गेम्स हो रहे हैं जो उन देशों का समूह है जो कभी अंग्रेजों के गुलाम थे। यह ऐसा ही है जैसे कभी जेल में साथ रहे कैदी अपना सम्मेलन करें। ब्रिट्रेन ने भी बहुत उदारता दिखाते हुये अपने ओलम्पिक 72000 करोड़ में निबटा लिये थे जिनमें 11000 खिलाड़ियों ने भाग लिया था जबकि हमारे कामन वैल्थ गेम्स में तो कुल 72 देश और दो हजार खिलाड़ी ही भाग ले रहे हैं।
जब इसके मेडल बाँटे जायेंगे तो हमें खेल में भले ही मेडल न मिलें पर खेल की तैय्यारियों में किये गये भ्रष्टाचार के लिए जरूर ही सबसे ज्यादा मेडल मिलेंगें। कैसे कैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं हमारे कर्ता धर्ता कि एक एक आदमी तीन तीन नामों से लूट रहा था। पहलवान तो डोपिंग टेस्ट में फँस गये अब कौन कहाँ कहाँ फँसा है यह बाद में पता लगायेंगे। एक खेल होना चाहिए कामन वैल्थ तैयारी गेम जिसमें दिल्ली से पशु भगाओ प्रतियोगिता हो, भिखारी भगाओ प्रतियोगिता हो, झुग्गी बस्ती उजाड़ो प्रतियोगिता हो। इससे बिल्डरों को बहुत सुविधा होगी। उजड़ी झुग्गी दुबारा तो बनने नहीं देंगे। रहमान को इसका संगीत रचने के लिए छह करोड़ दिये गये हैं तो मोदी के बाइब्रेंट गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर अमिताभ बच्चन और समाजवादी पूर्व सांसद जया बच्चन की बहू ऐश्वर्या राय को प्रमोशन के लिए कई कई करोड़ दिये जायेंगे। राम नाम की लूट है लूट सके सो लूट अंत काल पछतायेगा जब पोस्ट जायेगी छूट। दनादन कंडोम ढाले जा रहे हैं, दुनिया भर से आने वाली काल गर्लों के लिए पलक पाँवड़े बिछाये जा रहे हैं, आखिर विदेशी मेहमान जो आने हैं। यह अलग बात है कि हम जनता को सड़ता हुआ गेंहूं भी मुफ्त नहीं दे सकते, पीने को साफ पानी नहीं दे सकते, निरक्षरों को साक्षर नहीं बना सकते सफाई स्वास्थ आदि की बातें तो जाने ही दीजिए। यह भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत की तरह हो रहा है जिसमें चीफ के स्वागत के लिए पूरे घर और घर वालों को सजाया संवारा जाता है पर बूढी माँ को घर की एक कोठरी में बन्द कर दिया जाता है, आखिर चीफ को कुछ भी असुन्दर नहीं दिखना चाहिए।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, सितंबर 05, 2010

व्यंग्य- कानून , जिसे हमने हाथ में नहीं लिया


कानून जिसे हमने हाथ में नहीं लिया
वीरेन्द्र जैन

छोटे बच्चों की आदत होती है कि वे आपकी जेब मैं से चश्मा पैन या मोबाइल निकाल कर अपने मुँह में खाने लगते हैं। आप गोद में लिये हुये प्यारे प्यारे बच्चे का दिल भी नहीं तोड़ना चाहते पर उसे न खाने वाली चीज को मुँह में भी नहीं रखने देना पसंद करते हैं इसलिए उस चीज को छुपा देते हैं और कहते हैं कि कहाँ है वो तो छू हो गयी। अपने खाली हाथ दिखाते हुये आप उसकी अल्प विकसित समझ को भ्रमित करते हैं और वह हतप्रभ सा देखता रहता है कि इनके हाथ से वह चीज आखिर चली कहाँ गयी। कुछ लोग 'बड़े बूढे बच्चों' के साथ भी ऐसा ही खेल करते रहते हैं। उनकी दोनों जांघें सटी रहती हैं जिससे घुटने कुछ कुछ मुड़ जाते हैं पर वे दोनों हाथ खाली हिलाते हुये देश को बहलाते हुए नजर आने वाली मुख मुद्रा में कहते हैं कि हमने कानून को हाथ में नहीं लिया है! हम तो कानून हाथ में लेते ही नहीं हैं! देखो मेरे दोनों ही हाथ खाली हैं।
ज्यादातर लोग समझ नहीं पाते कि जब कानून इन्होंने हाथ में नहीं लिया तो आखिर कहाँ चला गया पर फिर भी कुछ लोग तो समझ ही जाते हैं कि इन्होंने कानून को कहाँ पर दबा रखा है। ये हाथ तो हिला कर दिखा रहे हैं पर टांगें नहीं हिला सकते, कुर्सी से उठ नहीं सकते।
हमारे देश में यह एक मंत्र वाक्य सा हो गया है कि कानून को हाथ में मत लो। नहीं लेते साब! लेते भी कैसे! जिन्दगी भर तो नून तेल सब्जी के थैले और गैस का सिलिन्डर हाथ में लिए घूमते रहे तो कानून को हाथ में कैसे लेते! हम तो कहते थे कि जिसको लेना हो सो ले हम तो सड़ने से बचाने के लिए राशन की दुकान से सस्ता गेंहू लेने जा रहे हैं, तुम्हें लेना हो तो तुम भी चलो।
पहले एकाध बार मन भी हुआ कि कानून को हाथ में लेकर देखें पर उसी समय पत्नी ने बच्चे को गोद में डालते हुये कहा कि अगर रोटी खाना हो तो पहले बैठ कर इसे खिलाओ। सो देश के भविष्य को हाथों में लिए बैठे रहे। कानून को हाथ में लेने का रोमांच कभी नहीं जिया।
समय बदला दुनिया बदली और यहाँ तक बदली कि कभी नेताजी के नाम से सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर उभरती थी पर अब गिजगिजी जुगुप्सा पैदा होती है। जो नेता पाठय पुस्तकों में अपनी जीवनी सहित छपते थे अब वे अखबारों के मुखपृष्ठ की शोभा बढाते हैं क्योंकि किसी को हत्या के लिए फाँसी की सजा हो रही होती है तो किसी को आजन्म कारावास की। कोई सवाल पूछने के पैसे लेने के लिए दण्डित हो रहा होता है तो कोई सासंद निधि स्वीकृत करने के लिए। कोई कबूतर बाजी कर रहा होता है तो कोई हवाला में बाइज्जत बरी होकर रथ पर सवार हो रहा होता है। यही कारण है कि अब नेता नहीं कहते कि कानून हाथ में मत लो। अब तो वे कहते हैं कि देखो तो बेचारा कानून कैसी जगह पड़ा हुआ है इसलिए हे वीर पुत्रो उठो और शिव के धनुष की तरह उसे हाथों में उठा कर उसकी प्रत्यंचा चढा दो।
राज्यों में जो दल सरकार में हैं वे ही प्रदेश बन्द का आवाहन करते हैं। हमारे एक मुख्यमंत्री ने एक बार कहा था कि वीरांगनाओं उठो और राशन की कालाबाजारी करने वालों का मुँह काला कर दो। महिलाएँ कहती हैं कि यह काम आप क्यों नहीं करते! तो उनका उत्तर होता है कि हमें जरा उनसे चुनावी चन्दा लेना पड़ता है इसलिए यह काम हम नहीं कर सकते। महिलाएं कहतीं हैं कि ठीक है पर जब तक तुम ये हमारी चूढियाँ सम्हाल कर रख लो और चाहो तो पहिन भी लो। वे चूढियाँ पहिन कर लालबत्ती वाली एसी गाड़ी में बैठ कर केन्द्र सरकार से और आर्थिक मदद माँगने चले जाते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री और कर भी क्या कर सकते हैं!
दिल्ली की मुख्यमंत्री ने तो दलालों को पीटने का आवाहन कर दिया था पर जब लोगों ने पूछा कि आपकी पार्टी क्या कर रही है तो वे बोलीं गरमी इतनी पड़ रही है कि वे एक कैन्टीन चलाने वाले की गाड़ियाँ ले कर शिमला मसूरी गये हुये हैं। वैसे भी वे अहिंसक हैं और खुद भी चुनावों में पिटते रहते हैं इसलिए मारपीट उनका काम नहीं है। ये काम तो जनता को करना चाहिये, रही कानून की बात सो कानून अपना काम करेगा उससे डरना नहीं चाहिये।
केन्द्र के कृषिमंत्री ने अपने कानूनमंत्री से बिना सलाह लिए किसानों को सलाह दे डाली कि वे गाँव के प्राइवेट सूदखोरों का उधार न चुंकायें।
असल में बन्दे मातृम गाने और सूर्यप्रणाम के बाद जैसे ही हम भारत माता के श्री चरणों में अपना सिर झुकाते हैं वैसे ही हमारा ध्यान बंटने के दौर में सिर पर रखा कानून कहाँ गायब हो जाता है पता ही नहीं चलता। हम केवल उनके हाथ देखते रह जाते हैं कि वे तो खाली हैं और कानून उनके हाथों में दिख तो नहीं रहा है।
कोई नहीं कह रहा कि उसने कानून हाथों में लिया हुआ है, पर आखिर वो गया कहाँ? जनता द्वापर युग की गोपियों की तरह पूछती फिर रही है कि- कौन गली गया कानून ?
या पूछती है- कानून तू कहाँ है, दुनिया मिरी जवाँ है।
शम्मी कपूर का जमाना होता तो गाया जाता- कानून मिरा आज खो गया हैं कहीं, आप के पाँव के नीचे तो नहीं!
लैला मजनू की शैली में कहा जाता- कानून कानून पुकारूं में वन में, मोरा कानून बसा मोरे मन में।
कहाँ छुप गया है तू कठोर, देख तिरे चाहने वाले दर दर भटक रहे हैं
अखबारों में विज्ञापन छपवाया जाता प्रिय कानून तुम जहाँ कहीं भी हो फौरन घर चले आओ, तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी मम्मी की तबियत बहुत खराब हो गयी है। घर पर कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। जो लोग भी कानून को देखें वे उसे हमारे घर तक पहुँचाने में मदद करें, उन्हें उचित इनाम दिया जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629