रविवार, फ़रवरी 13, 2011

व्यंग्य - ब्लैंक चैक


व्यंग्य
ब्लेंक चैक
वीरेन्द्र जैन
पूंजीवादी युग में राजनीति की भाषा भी मौद्रिक हो जाती है। कभी सन्यासियों से उम्मीद की जाती थी कि वे ध्यान की मुद्रा में बैठे मिलेंगे। कई लोग तो यह भरोसा करने लगे थे कि उनके जैसी मुद्रा बना लो तो ध्यान लग जाता है। लोग बुद्ध महावीर आदि की मुद्राएं बना कर बैठ कर देखते थे, पर अब मुद्रा के नाम पर मुद्राएं अर्थात करैंसी का ही ध्यान आता है। कागजी मुद्राएं आने और बैंकिंग के विकास के बाद तो कागज की मुद्राओं के भी कागज चलने लगे जिन्हें चैक कहा जाता है। किसी जमाने में चेकों का भरोसा नहीं होता था क्योंकि खाते में बैलेंस हो या न हो पर चैक काटी जा सकती थी। फिर सरकार को लगा कि बैंक, जिसका मतलब ही होता है भरोसा, वह चेक के भुगतान न होने पर टूट जाता है, इसलिए बिना बैलेंस के चेक काटने को अपराध घोषित कर दिया। पर इससे बिना बैलेंस के चेक कटना तो बन्द नहीं हुए पर अपराधों के दर्ज होने की संख्या में जरूर वृद्धि हो गयी। आज सबसे ज्यादा लम्बित प्रकरणों की संख्या बिना भुगतान के चैक जारी करने वाले प्रकरणों की है।
लम्बित प्रकरणों की इस ढेरी में एक की वृद्धि और होने जा रही है। भूतपूर्व भाजपा नेत्री उमाभारती जो कभी अपने को साध्वी बताती थीं, अब अपने आप को चेक बताने लगी हैं और उन्होंने भाजपा के पक्ष में कटने की घोषणा कर दी है। यह चेक भी बिना कोई राशि भरे हुए जारी करने जा रही हैं जो उत्तर प्रदेश में पेयेबिल अर्थात भुगतान योग्य होगा। भले ही यह कोर बैंकिंग का जमाना हो जिसमें किसी भी बैंक शाखा के खातेदार का चेक कहीं भी भुगतान हो जाता हो, पर वे चैक को स्पेशियली क्रास्ड करके जारी कर रहीं है जिसका मतलब होता है कि यह किसी खास जगह की खास बैंक शाखा में ही जमा किया जा सकता है।
ब्लेंक चैक का अपना रहस्य होता है, यह चेक पाने वाले का जुआ होता है कि वह उसमें क्या राशि भरे। उमाभारती ने उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावों में अपने उम्मीदवारों को वापिस बुला लिया था ताकि हिन्दू एकता बरकरार रहे इसलिए यह तो पता ही नहीं चला कि उनके खाते में बैलेंस था भी या नहीं। पर जब उन्होंने उपचुनाव में सोनिया गान्धी के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा था और भाजपा को अपना उम्मीदवार बैठा कर उनका समर्थन करने का आवाहन किया था तब उनकी जमानत जब्त होने की सीमा से भी कम बैलेंस निकला था। गुजरात में उन्होंने गुरु के आदेश को बहाना बना कर अपने उम्मीदवार वापिस बुला लिए थे और अपने खाते के राज को राज ही रहने दिया था। मध्य प्रदेश में वे बड़ा मल्हरा और टीकमगढ दोनों ही जगह से हारी थीं। बड़ामल्हरा में तो उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री और उनके भाजपा के पुराने साथी शिवराज सिंह पर उनकी हत्या कराने का आरोप लगाया था, पर अब उन्हें अपने स्वास्थ की चिंता को भूलकर किसानों के लिए अपने कातिल के पास बैठने से कोई गुरेज नहीं है। भाजपा के बागियों के सहारे पूरे प्रदेश में उन्हें बारह लाख वोट जरूर मिले थे जो उनके अस्थिर मनोभावों के कारण अपने अपने रस्ते से लग चुके हैं। पर जहाँ उनके खाते में सबसे ज्यादा बैलैंस है वहीं पर उनका चेक भुगतान योग्य नहीं है। जहाँ भुगतान के लायक बताया जा रहा है वहाँ उनके खाते के बैलेंस का पता नहीं है।
ये चेक आखिर ब्लैंक क्यों है। क्या पैन नहीं हैं? और न हो तो भी कोई बात नहीं आजकल तो नेट बैंकिंग आ गयी है। बिना पैन के भी राशि यहाँ की वहाँ की जा सकती है। पर अपने खाते के बैलेंस का पता तो होना चाहिए, और अगर नहीं है तो एटीएम से पता किया जा सकता है क्योंकि अब तो सातों दिन चौबीसों घंटे एटीएम खुला मिलता है। ऐसा लगता है कि यह जीरो बैलेंस खाते का ब्लैंक चैक है। चेक लेने और देने वाले दोनों को पता है कि खाते की औकात क्या है, पर टुच्ची साहित्यिक संस्थाओं द्वारा दिये गये पुरस्कारों की तरह खाली लिफाफों का आदान प्रदान हो रहा है और दोनों ही अपनी जनता को बेबकूफ बना रहे हैं।
ये दीवालिया बैंक के जीरो बैलेंस खाते का ब्लैंक चैक है, जो उसको दिया जा रहा जिसका खाता ही नहीं खुल रहा है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

व्यंग्य-- जब आवे संतोषधन


व्यंग्य
जब आवै सन्तोष धन

वीरेन्द्र जैन

वैश्वीकरण, अर्थात सारी दुनिया के लोगों के लिए अपने फाटक खोल देने के बाद, औषधि बनाने वाली कंपनीयों के लिए आर एन्ड डी अर्थात रिसर्च और डेवलपमेन्ट विभाग खोलना और कंपनी के कुल बजट का दस प्रतिशत उसमें व्यय करना कानूनन जरूरी बना दिया गया है। मेरी दृष्टि में हिन्दूस्तान, जो कि इण्डिया, भारतदेश या भरतखण्डे के नामों से भी जाना जाता है के लिए यह कानूनी प्रावधान अनावश्यक था। हमारे यहॉ तो रोगियों, उनके रिशतेदारों और उनकी पूछताछ करने वाले शुभचिंतकों के बीच यह विभाग हजारों सालों से कार्यरत है।
आपके मुखारविन्द से रोग या उसके लक्षण पूरी तरह प्रकट भी नहीं हो पाते कि विभिन्न पद्वतियों, जड़ी बूटियों, घरेलू नुस्खों, देशी इलाजों, डाक्टरों, अस्पतालों, चमत्कारी बाबाओं, सिद्व स्थानों प्राकृतिक झरनों की इन्सटैंंट सूची आपके समक्ष खुलनी शुरू हो जाती है। आप थक जाते है, आपका रोग थक जाता है पर वह सूची कभी नहीं थकती। रहस्य रोमांच की सारी कथाएं फीकी पड़ने लगती है और इन कथाओं के शमशान की और कूच कर चुके नायक सड़कों पर छलांगे लगाने लगते हैं। ऐसे देश में रिसर्च एन्ड डेवलपमेंन्ट का विभाग बनाने की क्या जरूरत है ? ज्यादा से ज्यादा इतना किया जा सकता है कि मरीज की मिजाज पुर्सी के लिए आने वालों के उद्गारों को रिकार्ड करने के लिए टेप फिट कर दिये जायें। जब वैज्ञानिक इन टेपों को सुनेंगे तो आश्चर्य से दांतों में उंगली नहीं पूरा का पूरा पंजा दबा लेंगे। हो सकता है कि कुछ वैज्ञानिक तो आर्कमडीज की तरह यूरेका- यूरेका चिल्लाते हुऐ दूसरों के हाथों पांवों की उंगलियां अपने दांतों के नीचे दबाकर खुद आश्चर्य प्रकट करने लगें और दूसरों को भी इसका अवसर दें।
अभी कल ही अपनी बहुओं को संतोष की सांस लेने का अवसर देने की खातिर रोज शाम को पार्क में इकट्ठा होने वाले रिटायर्ड लोगों का दल डायबिटीज पर चर्चा कर रहा था। अपने पैंट की बेल्ट को एक और अगले छेद में फंसाते हुए एक बूढ़ा बोला- जामुन की गुठली को छांह में सुखाना चाहिये और जब खूब सूख जाये तो उसे फोड़ कर उसके अन्दर जो दल निकले उसे खल्लड़ में खूब बारीक पीस कर कपड़े से छान लेना चाहिए। इस छने हुऐ चूर्ण को एक चुटकी मुंह में रखने के बाद आप कैसी भी मिठाई खा लें या सीधे सीधे शक्कर के दाने फांक लें, मजाल है कि मीठा लग जाये। ऐसा लगेगा जैसे धूल फांक रहे हों।
साहित्य में घुसे रहने का यह दोष होता है कि इस शुद्व वयोवृद्व हर्बल आयुर्वेद चर्चा में भी मुझे रहीम याद आ गये।
जब आवे सन्तोष धन
सब धन धूरि सामान
मुझे जामुन की गुठली का चूर्ण संतोष धन की तरह लगा जिसके सेवन के बाद आपकों सारी मिठाई धूल फांकने की तरह लगने लगती है। सूचनाओं के बेतरतीब धने जंगल में विचारों और विश्वासों के घोड़े अक्सर ही रास्ता भटक जाते हैं। मूल विषय से भटक कर मेरे विचारों का टट्टू भी ''संतोष धन'' के पीछे पड़ गया। यह कैसा होता है ? कहॉ मिलता है ? कमाया जाता है कि ब्याज में आ जाता है ? ऐसा क्यों कहा गया है कि ''जब आवे संतोष धन'' अर्थात अपने आप आता है- अतिथियों की तरह। लो हम आ गये। अब तुम्हारे धन की तो ऐसी की तैसी। उसे धूरि समान करके नहींं छोड़ा तो हमारा नाम भी संतोष धन नहीं।

संतोष धन परेशान करने लगा है क्योंकि जिज्ञासा निरन्तर बढ़ती जा रही है। पड़ोस के सेठजी से पूछता हूं- क्यों सेठ जी आपके यहॉ संतोष धन आया क्या ? सेठ जी तुरन्त ही झल्ला पड़े- भैया मैं गरीब आदमी हूँ हमारे यहॉ कोई भी कैसा भी धन नहीं आया। तुम क्या इनकमटैक्स वाले हो?

मैने सोचा कि चलो गरीब आदमी से ही पूछते हैं उसका तो सारा धन धूरि समान होकर ही पड़ा हुआ है, शायद उसके यहॉ संतोष धन परमानेंट रहता हो। मेरा प्रश्न सुनकर गरीब आदमी भी झल्ला पड़ा। बोला- आप तो उस मेजबान की तरह हैं, जो दावत में बुलाये, और खाना तो न खिलाये, पर कहे पान खा लीजिए। संतोष धन तो तब आयेगा जब असन्तोष धन तो आ जाये। हाथ न मुठी- खुरखुरा उठी। हम तो वैसे भी संतोष किये बैठे हैं-
नाज है उनकों, बहुत सब्र मुहब्बत में किया
पूछिये, सब्र न करते तो और क्या करते।

जब और कोई धन नहीं होता है तो संतोष धन तो खाली जगह में बैठ ही जाता है। संतोष धन में कोई ब्लैक या ब्हाईट का चक्कर नहीं रहता। वह व्हाईट ही व्हाईट रहता है क्योकि उस पर इन्कम टैेक्स बगैरह कुछ भी नहीं लगता। संतोष धन को चोर नहीं चुराते और ना डकैत संतोष धन के लिए अपहरण कर फिरौती मांगते हैं। कोई भ्रष्ट्राचारी अफसर, नेता, मंत्री संतोषधन में रिश्वत की मांग नहीं करता है कि आपके काम के लिए इतना संतोष धन लगेगा।
दुकानदार संतोष धन में सौदा नहीं देते और ना होटल का वेटर संतोषधन को टिप में स्वीकार करता है। पत्नी और बच्चे तक कहते हैं कि संतोष धन आप ही रखे रहिये बाकी जेब में जो कुछ भी हो वो मुझे दे दीजिये।

संतोष धन किसी को नहीं चाहिये। जो कुछ भी है उसको धूरि समान कराने की जरूरत किसी को नहीं है। संतोष धन आ जायेगा तो वित्त और वाणिज्य विभाग दरवाजे पर लगाने के लिए ताला खरीदने लगेंगे। बन्द दफ्तर के बाहर लिखा मिलेगा कि यहाँ कभी वाणिज्य कार्यालय हुआ करता था जब तक कि संतोष धन नहीं आया था।


वीरेन्द्र जैन
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