मंगलवार, नवंबर 29, 2011

व्यंग्य --- फायर ब्रांड नेता और एफ डी आई की आग


व्यंग्य
                  फायर ब्रांड नेता और एफडीआई की आग
                                                               वीरेन्द्र जैन
      राजनीति में जिन्दा बने रहकर गले में मालाएं डलवाते रहना जरूरी होता है नहीं तो फोटुओं पर माला डलने की नौबत आ जाती है। यही कारण है कि हाशिये पर धकेल दिये गये बूढे बूढे नेता तक पप्पुओं बबलुओं की तरह अपना बर्थडे मनाते रहते हैं और चमचों, दलालों से उस दिन शतायु होने के विज्ञापन छपवाते रहते हैं। मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमन्त्री उमा भारती बहुत दिनों से अखबारों के मुखपृष्ठ पर आने के प्रयास में थीं पर समय का फेर कि दसवें बारहवें पेज पर आने में भी मुश्किलें आ रही थीं। जब तक भाजपा से बाहर थीं और उसके नेताओं को गरियाती हुयी उसे समूल नष्ट करने के बयान देती रहती थीं तब  कम से कम अन्दर घुसने के प्रयासों के समाचार तो छपते रहते थे, पर भाजपा में पुनर्प्रवेश करने के बाद जो प्रदेश निकाला हुआ है, उसने तो स्तिथि बहुत ही खराब कर के रख दी। अब पिंजरे में कितनी भी उछलती कूदती रहें पर कोई नोटिस ही नहीं लेता।
      कभी अंग्रेजी के अखबार उन्हें फायर ब्रांड नेता कहते थे। साध्वियों की वर्दी तो वैसे ही फायर कलर की होती है सो फायर ब्रांड होने के लिए केवल मुँह से आग निकालना रह जाता है और जिसमें वे कोई कमी नहीं छोड़ती हैं। फायर ब्रांड होने से फ्रंट पेज पर जगह मिलने में सुविधा होती है। आखिर उनके इंतजार की घड़ियां खत्म हुयीं और एफडीआई के लिए बन्दनवार सजा कर सरकार ने उन्हें मौका दे ही दिया ताकि वे यह जता सकें कि प्रदेशों में मुख्य मंत्री के पद पर कोई स्थायी नियुक्ति नहीं होती। उन्होंने मुख पृष्ठ पर जगह बनाने के लिए कह ही दिया कि वे एफडीआई के रिटेल स्टोरों में आग लगा देंगीं। फायर ब्रांड नेता के मुख से ऐसे ही वचन शोभा देते हैं। अब फायर ब्रांड के मुख से कोई फूल तो बरसने से रहे बरना ब्रांड पर संकट आ जायेगा।
      जिस तरह दक्षिण में शिवकाशी जिला फायर वर्क्स प्रोडक्ट के लिए विख्यात है उसी तरह धर्म का चोगा ओढने वाले राजनेता अपने मुँह से पटाखे फुलझड़ी छोड़ने के लिए मशहूर हैं। आतिशबाजी की चटाक पटाक आनन्द का सृजन करती है। नेता भी अब भाषण कम और मनोरंजन अधिक करने लगे हैं। राज नारायण से लालू परसाद ही नहीं  कभी अटल बिहारी के चुटकले सुनने के लिए बहुत सारी भीड़ जुटती थी, भले ही वे चुनाव हार जाते थे। एक बार ग्वालियर में जब युवा माधवराव से हार गये तो दो जगह से चुनाव लड़ने लगे थे।       
      उमाजी का बयान पढने के बाद मैंने सपना देखा कि वे अपने बजरंग दल को लंका की तरह खुदरा बाजार की विदेशी दुकानों में आग लगा देने के लिए उकसा रही हैं पर वह वानर सेना महाभारत के अर्जुन की तरह हाथ बाँधे खड़ी है और आदेश पालन में एकमत से असमर्थता व्यक्त कर रही है। यह रुकावट मीडिया के कैमरामेनों के इंतजार वाली रुकावट नहीं है। उनकी शिकायत है कि जब गोबिन्दाचार्य को यही कहने पर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था और उनका स्वदेशी आन्दोलन अध्य्यन अवकाश में बदल गया था तब अब ऐसा क्या हो गया कि दीदी आग लगाने को उकसा रही हैं। जिस दिन अमेरिका से लताड़ आ जायेगी उसी दिन कई अरुण जैटली अमेरिकन राजदूत को सफाई देने पहुँच जायेंगे जिसका खुलासा किसी अगली विक्कीलीक्स से होगा। मनमोहन सिंह जब नई आर्थिक नीति लेकर आये थे तो भाजपा ने कहा ही था कि इन्होंने हमारी नीतियों को हाईजैक कर लिया है जैसे कौआ बच्चे के हाथ से रोटी छेन कर भाग जाता है। राजग के शासन में भी जब कोई नीति नहीं बदली गयी थी तब तो दीदी थोड़े से अंतराल को छोड़कर मंत्रिमण्डल को ही सुशोभित कर रही थीं।
      वैसे भी आग लगाने के बड़े खतरे होते हैं। होम करते हुए तक तो हाथ जल जाते हैं और लंका में आग लगाने के लिए हनुमानजी को अपनी ही पूंछ में आग लगानी पड़ी थी। कबीर तक ने साथ चलने वालों से सबसे पहले अपना घर जलाने का आवाहन किया था, पर दीदी को तो घर ऐसा सता रहा था कि छोड़े हुए घर में वापिसी के लिए उन्होंने अपना नया घर मटियामेट कर दिया। पुराने घर में जगह भी मिली तो नौकरों के कमरे में जहाँ पहले से ही बड़ी भीड़ है। अब आग लगाने के लिए पैट्रोल खरीदना पड़ेगा जो इतना मँहगा हो चुका है कि उसे खरीदने के लिए पहले कोई बैंक लूटना पड़ेगा। वैसे जो एफडीआई वाले रिटेल स्टोर में आग लगा सकते हैं वे बैंक भी लूट सकते हैं, पर उसके लिए बन्दूकों की जरूरत पड़ेगी जो पुरलिया की तरह कोई आसमान से नहीं टपकेंगीं। खैर किसी तरह उनका भी इंतजाम हो जायेगा पर फिर सारा मामला नक्सलवादियों जैसा हो जायेगा। और जब नक्सलवाद की तरह से परिवर्तन लाया जायेगा तो फिर इस भगवा रंग की वर्दी, अयोध्या में राम मन्दिर, और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी का क्या होगा। अभी तो केवल कुर्सी का ही खतरा रहता है फिर तो जान का खतरा बना रहेगा।
      ऐसा लगता है कि कहीं उन्होंने फायर ब्रांड का मतलब गलत तो नहीं समझ लिया इसमें केवल शब्दों के गोले ही छोड़े जाते हैं। ओजस्वी वक्ता वह होता है जो अपने देश और धर्म के लिए दूसरों को जान देने के लिए उकसाता रहे। इसलिए पहले से घोषणा और सूचना करके आग लगाने के लिए जाइएगा ताकि आपको आग लगाने से रोकने के फोटो अच्छे आयें और सभी अखबारों के मुख पृष्ठ की खबर बनें। मुख्य मंत्री की कुर्सी के लिए रास्ता मुखपृष्ठों से हो कर ही जाता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

गुरुवार, नवंबर 24, 2011

व्यंग्य - नेता सीना जेल और दर्द






व्यंग्य
                         नेता सीना जेल और दर्द
                                                               वीरेन्द्र जैन
      आजादी के बाद हमारे देश के नेताओं के पास सीने का इकलौता उपयोग है कि जेल जाते समय उसमें दर्द हो सके।
      स्वतंत्रता मिलने के पहले की बात और थी क्योंकि तब स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था और इस संग्राम को लड़ने वाले नेता सेनानी माने गये हैं। इन सेनानियों के नाम पर अब हजारों लोग बिना कैंटीन सुविधा के पेंशन जुगाड़ रहे हैं जिनमें से कई तो सच्चे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी हैं। सच्चे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जिनका सीना जेल जाते समय फूल जाता था, तो इसलिए पेंशन ले रहे हैं ताकि स्वतंत्रता के दौरान बरबाद कर दी अपनी जवानी के बाद उनके पास आय का दूसरा कोई साधन नहीं है, पर झूठे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तो इसलिए पेंशन ले रहे हैं ताकि उससे स्वतंत्रता के मूल्यों को नष्ट कर सकें। वे ही पाँचवें सवार की तरह मौका वक्त माला डलवाने में आगे आगे आगे रहते हैं। इनमें से कई तो आजादी मिलने के समय गोद में ही सू सू करने की उम्र के रहे होंगे।
      स्वतंत्रता संग्राम में सच्चे सेनानियों के सीने गोली इत्यादि खाने के काम भी आते थे इसलिए आन्दोलन में भरती करते समय ठोक बजा कर देखा जाता था कि सीना है कि नहीं। बाद में जब आजादी मिलने के कुछ दिनों बाद तक इस सीने का कोई उपयोग नहीं हुआ तो आशंका होने लगी थी कि मानव की पूंछ की तरह कहीं यह भी विलीन ही न हो जाये। पर ऐसा नहीं हुआ, देर सबेर सीना काम आने लगा। जेल जाने के परिणाम तक पहुँचाने का काम शुरू करने के साथ ही नेता अपने क्षेत्र में अपने पाँव छूने वाला थानेदार और अपनी जाति का डाक्टर पोस्ट कराने लगे। वैसे तो नेता की करतूत पकड़ी ही नहीं जाती पर जब बात हद से गुजर जाती है तो नेता की गिरफ्तारी के साथ ही सीने में दर्द उठता है और डाक्टर डिग्री लेते समय ली गयी शपथ को प्रणाम करके नेता के सीने में दर्द का सार्टिफिकेट पहले से तैयार करके पीछे पीछे पहुँच जाता है। कहता है कि मैं तो इनका फेमिली डाक्टर हूं और मुझे तो पहले से पता था कि जेल जाते समय भैय्याजी के सीने में दर्द उठेगा।
      नेता के सीने का दर्द सामान्य किस्म का दर्द नहीं होता है जो जेल के डाक्टर  समझ सकें। इसके लिए विशिष्ट सुविधाओं वाले अस्पताल और डाक्टर ही जरूरी होते हैं। खग जाने खग ही की भाषा की तरह उनका डाक्टर ही समझता है कि जेल जाने वाले सीने के दर्द की तीव्रता कितनी है और यह कैसे ठीक होगा।  दूसरे डाक्टरों से तो वे दुष्यंत कुमार के एक शेर की तरह कहने लगते हैं-
            सिर से सीने में कभी, पेट से पैरों में कभी
            इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है
उनकी बातें सुन-सुन कर तो जेल के डाक्टर के सिर में दर्द होने लगता है। नेताजी का अपना डाक्टर आकर उनके सारे रोग ठीक कर देता है। वो ही इंजेक्शन दवाइयाँ लिखता है, वो ही मँगवाता है और वो ही उन्हें इंजेक्शन लगा कर खुद ही दवाइयाँ खिलाता भी है। एक नेता के प्रताप से शरीर का तापक्रम मापक यंत्र से लेकर रक्तचाप बताने वाले यंत्र तक इच्छानुसार परिणाम देने लगते हैं। इस देश के डाक्टर लोगों का इलाज करने से ज्यादा दौलत तो मेडिकल सार्टिफिकेट बना कर पीट रहे हैं। डिग्री से रजिस्ट्रेशन होता है जिसका उपयोग एक लैटरहैड छपवाने के लिए होता है ताकि मरीज द्वारा बताये गये रोग, औषधि और समय के अनुसार उस पर मेडिकल सार्टिफिकेट बना कर रबर स्टाम्प लगायी जा सके। बीस बीस लाख डोनेशन देकर क्या इलाज करने के लिए डिग्रियां लेगा कोई!
      कानून कहता है कि चाहे निन्नावे दोषी छूट जायें पर एक निर्दोष को सजा नहीं होना चाहिए, पर डाक्टरों की कृपा से सौ के सौ प्रतिशत छूट रहे हैं। जो अन्दर हैं वे अस्थायी तौर पर हैं जरा जनता की स्मृति का लोप हो जाये सब बाहर आकर अपने समर्थकों की भीड़ के आगे उंगलियों से वी का निशान बना रहे होंगे, जैसे कि कोई मैच जीत कर आये हों। स्थायी तौर पर तो अन्दर वे ही हैं जिन्हें वहाँ कम से कम रोटी तो मिल रही है बरना बाहर आकर वे अपनी आजादी को कितने दिन चाट चाट कर काम चलाते।
      जेल में जब वीआईपी कैदी आता है तो उत्सव का सा माहौल होता है। जेलर से लेकर स्वीपर तक सब खुश नजर आते हैं। वीआईपी आया है तो जेलर के लिए सौगातें भी आयेंगीं, कैदियों के लिए बीड़ी के बन्डल भी आयेंगे। वीआईपी के लिए घर से आये खाने से दर्जन भर कैदी अपनी रसना को तर कर सकते हैं। वीआईपी के आने से बैरकों में सफाई होती है और खाने के मीनू झाड़ा पौंछा जाने लगता है। कई जगह तो उस फिनायल की महक भी आने लगती है जिसका अभी तक केवल बिल आता था।
      सीने के दर्द वाले नेता को डाक्टर, दबाओं और जाँच रिपोर्टों की जगह अपने वकीलों और जमानत के फैसले की प्रतीक्षा करते देखा जा सकता है। उनके आते ही उनके सीने में उम्मीदों का ज्वारभाटा हिलोरें मारने लगता है। अगर उसी समय डाक्टर आ जाये तो वे उसे बाहर बैठने के लिये कह सकते हैं।
      जेल जाते हुए वीआईपी नेता के सीने में दर्द का वही वैसा ही रिश्ता होता है जैसा पहली बार ससुराल जाती हुयी लड़की का आँसुओं से होता है। वैसे लड़कियों के आंसू तो कई बार असली भी होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, नवंबर 11, 2011

व्यंग्य मगर मच्छ के आंसू

व्यंग्य
                              मगरमच्छ के आंसू
                                                              वीरेन्द्र जैन
      आज मैंने जब से अडवाणीजी की भरी हुयी आँखों वाला फोटो देखा है तब से आंसू ही आंसू याद आ रहे हैं। संयोग है कि जिस दिन अडवाणीजी की आंसू भरी खबर छपी उसी दिन के दैनिक भास्कर के आज का शब्द स्तम्भ में लार पर विचार किया गया था। इसमें बताया गया था कि
      हिन्दी का लार शब्द संस्कृत के लाला शब्द से बना है। प्यार और प्रेम की भावना का आद्रता से रिश्ता होता है। आकर्षण हो या अन्य खिंचाव, परिणति आद्रता ही है।, दुलार, दुलारना जैसे शब्द इसी कड़ी से बँधे हैं। दुलारा, या दुलारी वही है जो स्नेहासिक्त है। जिसे प्यार किया गया है। जिसे प्यार किया जाता है वही है लाल। प्रिय, सुन्दर, मनोहर, मधुर, आकर्षक और क्रीड़ाप्रिय ही ललित है।  
      रामभरोसे मेरे यहाँ जब भी आता है चाय आने तक अखबार जरूर पढता है और बुन्देली की कहावत- बनी ना बिगारें तो बुन्देला काय के- की तरह उपरोक्त पढने के बाद पूछने लगा कि क्या लार आँखों से भी टपकती है।
      मैंने कहा, क्यों नहीं सड़क पर लड़कियों को देख कर तुम्हारे जैसे छिछोरों की लार ही तो टपकती रहती है।
      तो फिर ये अखबार वाले उन्हें आँसू क्यों कहते हैं? उसके इस सवाल का मेरे पास कोई जबाब नहीं था।
      अडवाणीजी फिल्मों से जुड़े रहे हैं। उनकी पत्रकारिता का अनुभव यह है कि वे पहले फिल्मी पत्रिकाओं में समीक्षाएं लिखते थे। वे पढते भी खूब हैं पर उनके द्वारा पढी जाने वाली किताबों में स्वेट मार्टिन की सफल कैसे हों जैसी किताबें रहती हैं। वे जब लिखते हैं तो आत्मकथा लिखते हैं जो उतनी ही उतनी ही सत्य है जितनी कि सत्य कथाएं होती हैं। जब पहली बार जनता पार्टी शासन में उन्हें स्थान मिला था, तब उन्होंने सूचना और प्रसारण विभाग ही पसन्द किया था जिससे कि कलाकारों से निकट रहने का अवसर मिल सके। कुल मिला कर वे अभिनय से कैरियर बनाने के क्षेत्र से जुड़े महापुरुष हैं जिन्हें प्रधानमंत्री बनने के लिए इस समय अपनी छवि सुधारना है। भाजपा में वैसे भी चरित्र से ज्यादा छवि सुधारने पर ध्यान दिया जाता है। जो जाम उठा कर पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं कहते हुए कैमरे में कैद हो जाते हैं वे छवि सुधारने के लिए ईसाई बन गये आदिवासियों के पैर धो उन्हें हिन्दू बना कर अपनी छवि सुधारने की कोशिश करते हैं तथा रुपयों में लेकर डालर में माँग करने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष स्तीफा देकर छवि सुधारते हैं और अपनी पत्नी को टिकिट दिलवा देते हैं।
      जिगर का दर्द जिगर में रहे तो अच्छा है
      ये घर की बात है, घर में रहे तो अच्छा है
      एक फिल्मी गीत में कहा गया है कि- आँसू मेरे दिल की जुबान हैं, तुम कह दो तो रो दें आंसू, तुम कह दो तो हँस दें आंसू..............। एक दूसरे गीत में भी कहा गया है हजारों तरह के ये होते हैं आंसू, अगर दिल में गम हो तो रोते हैं आंसू, खुशी में भी आँखें भिगोते हैं आंसू , इन्हें जान सकता नहीं ये जमाना। मैं खुश हूं मेरे आंसुओं पै न जाना.............। अभिनय की दुनिया से जुड़े लौहपुरुष भी आँसुओं का तरह तरह से उपयोग करके अपनी कट्टरतावादी छवि का मेकअप करने लगे हैं ताकि कट्टरता मोदी के हिस्से में चली जाय और ये अटल बिहारी का मुखौटा ओढ लें। 6 दिसम्बर 92 को जब रथयात्री का रूप धर कर बाबरी मस्जिद ध्वंस कराने पहुँचे थे तब दिल्ली सम्हालने के लिए नियुक्त अटल बिहारी ने संसद में कहा था कि जब बाबरी मस्जिद टूट रही थी तब अडवाणीजी का चेहरा आँसुओं से भरा हुआ था। समझने वाले समझ सकते हैं कि ये आंसू गम के थे या खुशी के थे। दूसरी बार जब रंग दे बसंती फिल्म को गुजरात में चलने नहीं दिया गया था और फिर भी उस बेहतरीन फिल्म ने रिकार्ड तोड़ सफलता पा ली थी तो अडवाणी जी को लगा था कि आमिर खान की लोकप्रियता से पार्टी को नुकसान हो सकता है। इसकी भरपाई करने के लिए वे उसकी अगली फिल्म तारे जमीं पर देखने पहुँच गये और फिल्म देख कर इस तरह रोये कि पत्रकारों तक को भ्रम हो गया कि अडवाणीजी के सीने में दिल भी है। छवि सुधारने वाली इस यात्रा में भी वे बार बार रो कर अपनी छवि से कट्टरता का धब्बा धुलवा लेना चाह्ते हैं। वे 2002 में गोधरा और उसके बाद हुए गुजरात के नरसंहार पर फैसला आने पर कुछ नहीं कहते जिससे उनके आँसुओं पर हँसी आती है। गुजरात के दंगा पीड़्तों और आस्ट्रेलियन फादर स्टेंस को दो मासूम बच्चों अहित जिन्दा जला दिये जाने पर जब यही काम अटल बिहारी ने किया था तब अडवाणीजी हत्यारों की रक्षा करने की ड्यूटी निभा रहे थे, सो मोदी को सबसे योग्य मुख्यमंत्री बताया था।
      अभिनय तो आवश्यकता अनुसार ही किया जाता है।
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रविवार, नवंबर 06, 2011

ज्ञानपीठ देने वाले कर कमल


व्यंग्य
                      ज्ञानपीठ देने वाले कर कमल
                                                            वीरेन्द्र जैन
      अगर मुझे ज्ञान पीठ पुरस्कार मिला तो..............
      मेरी बात पूरी होने से पहले ही मेरा साहित्यिक मित्र इस विश्वास से हँसने लगा जैसे कि मैंने कोई बहुत बड़ा मजाक कर दिया हो। कुछ लोग अन्ध विश्वास की हद तक आश्वस्त हैं कि मुझे ज्ञान पीठ नहीं मिल सकता, इसलिए वे मेरा वाक्य ही पूरा नहीं होने देते, भले ही उसके पहले अगर लगा रहता हो।
     
पर भाई मैं कह रहा हूं, अगर मिला तो ...
      तो क्या करोगे वापिस कर दोगे! याद है कि जब दिनकर को पुरस्कार मिला था उसी समय ज्याँ पाल सात्र ने नोबुल पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर लेने से इंकार कर दिया था, तब पत्रकारों ने दिनकर जी से पूछा था कि क्या आप इसे स्वीकार कर लेंगे! तब उन्होंने उत्तर दिया था कि पुरस्कार को ठुकराना उसे दुबारा माँगना है
      अगर तुम अपना उथला ज्ञान झाड़ चुके हो तो बताऊँ कि अगर मिला तो मैं किसके कर कमलों से लेना पसन्द करूंगा।
      मिलेगा तब न, दूसरी बात यह है कि जैसा अंग्रेजी में कहा है कि बैगर्स आर नेवर चूजर्स या हिन्दी में ही समझ लो कि दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते। लेने वाले तो कटोरा लिये बैठे रहते हैं कि कोई भी दे दे। वो एक फिल्मी गाना है कि रुपया नहीं तो डालर चलेगा, कमीज नहीं तो कमीज का कालर चलेगा पर दे दे इंटरनेशनल फकीर आये हैं। पर चलो बता ही दो कि अ..ग..र.. तुम्हें मिलेगा तो किसके कर कमलों से लेना पसन्द करोगे!
      मैं किसी राजनेता की जगह किसी साहित्यकार के हाथों लेना पसन्द करूंगा, जैसा कि अज्ञेय जी ने किया था। मैंने गरदन को जिराफ की तरह ऊंची करते हुए कहा। ऐसा करने से गरदन में लगी पिछली चोट दर्द करने लगी।
     
वैसे तो अभी बहुत लम्बी लाइन लगी हुयी है जो ज्ञानपीठ के लिए मुँह इत्यादि बाये हुए बैठे हैं, और ज्ञानपीठ मुँह में गंगाजल की तरह डालने की परम्परा है इसलिए अ..ग..र.. तुम्हारा नम्बर आया भी तो.... ऐसा कौन सा महान साहित्यकार होगा जो ऐसा दुर्दिन देखने के लिए बचा होगा? मित्र ने अपना मित्रता धर्म निभाते हुए सारा जहर उगल दिया।
      तो क्या हुआ मैं किसी दिवंगत साहित्यकार के सुपुत्र के हाथों ग्रहण कर लूंगा जैसे अभी अभी एक राष्ट्रीय स्तर के शहरयार ने ग्रहण किया है।  मैं सम्भावना को खारिज नहीं होने देना चाहता था।
     
तब ठीक है। जब एक रुपये में परमानन्दा कराने वाले, और यूनियन कार्बाइड की एवरेडी बैटरी बेच कर नरेन्द्र मोदी के ब्रांड एम्बेसडर के हाथों जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पुरस्कार ले सकते हैं तो तुम्हारी क्या औकात! पर हाँ मैं तुम्हारे लिए एक नाम सुझा सकता हूं वह बोला।
      मैं जानता था कि वह जब भी बोलेगा तब जला कटा ही बोलेगा पर फिर भी कहा कि सुझाओ!
      तुम अभिषेक के हाथों से पुरस्कार ले सकते हो वह बोला।
      मुझे लगा कि अब बारी मेरी है इसलिए छूटते ही कहा कि वह तो साहित्यकार का बेटा नहीं है अपितु मेरे अंगने में तुम्हारे काम के बारे में पूछने वाले का बेटा है
      तुम जब भी सोचोगे उल्टा ही सोचोगे अरे भइ मैं उस अभिषेक की बात नहीं कर रहा हूं जिसकी गिनती बच्चन में आती है.....
      तो किस अभिषेक की बात कर रहे हो? मैं चकराया
      मैं तो सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीकांत वर्मा के बेटे अभिषेक की बात कर रहा हूं ऐसा कह कर वह कुटिलता से मुस्कराया। मैंने भी नजरें झुका कर कहा अरे मिलने तो दो।
वीरेन्द्र जैन
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