मंगलवार, मई 29, 2012

व्यंग्य - डरी हुयी दीदी का जमाना दुश्मन है


व्यंग्य
डरी हुयी दीदी का जमाना दुश्मन है
वीरेन्द्र जैन
      पुरानी फिल्मों का एक गाना था जिसे में गीत नहीं कहना चाहता क्योंकि मैं गीत और गाने में फर्क करता हूं। उसके बोल थे-
गोरी चलो न हंस की चाल, जमाना दुश्मन है
तेरी उमर है सोला साल, जमाना दुश्मन है
      पर जिसके बारे में सोच के मुझे ये गाना याद आया उसकी आंकड़ागत उम्र भले ही सोलह साल से साढे तीन गुना हो गयी हो पर बौद्धिक उम्र अभी भी सोलह साल से भी नीचे होगी। वैसे इस गाने के याद आने का उम्र से कोई ज्यादा वास्ता नहीं है, पर जमाने के दुश्मन हो जाने से है। और दुश्मनी भी प्यार मुहब्बत वाली नहीं अपितु खूनी दुश्मनी। जिसे फिल्मी भाषा में कहें तो जानी दुश्मन।
      जी हाँ मेरा आशय स्वयं को बंगाल की शेरनी कहलवाने वाली ममता दीदी से है जिन्होंने हिन्दी साहित्य में एक नया शब्द पैदा करवाया है दीदीगीरी। और इस दीदीगीरी के आगे प्रणव मुखर्जी की दादागीरी भी नहीं चल पाती। पर अब दीदी को भी लगने लगा है कि सारा जमाना उनका दुश्मन हो गया है। आसेतु हिमालय और अटक से कटक तक ही नहीं अपितु उत्तर कोरिया, वेनेजुएला, और हंगरी तक उनके खिलाफ हो गये हैं और उनकी जान लेने के लिए वित्तीय मदद कर रहे हैं। उनको लगता है कि उनकी जान के लिए बड़ी भारी सुपारी लगेगी और अकेले हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था में वह दम कहाँ रही इसलिए विदेशों से वित्तीय मदद ली जा रही है।ऐसा लगता है जैसे एक विश्वयुद्ध शुरू हो गया हो। दीदी के अनुसार इसमें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की मदद ली जा रही है। उनके अनुसार खतरनाक स्थिति यह है कि माकपा और माओवादी जो आपस में एक दूसरे पर हिंसा का आरोप लगाते रहे हैं उन्होंने भी उनकी जान लेने के लिए हाथ मिला लिया है, अर्थात न मार्क्सवादियों के पास कोई राजनीतिक कार्यक्रम है न माओवादियों के पास। दोनों के पास इकलौता राजनीतिक कार्यक्रम यही रह गया है कि दीदी की जान ले लो। वैसे ही जैसे कि कभी दीदी का इकलौता कार्यक्रम मार्क्सवादियों का विरोध करना हुआ करता था इसीलिए वे मानती हैं कि मार्क्सवादी अब सब कुछ छोड़ कर उनकी जान के पीछे पड़ गये हैं।
      यह सचमुच चिंता का विषय लगता है कि मार्क्सवादी पहले वहाँ बंगाल में सत्ता में थे और अब दो प्रतिशत मत कम मिलने के कारण उनसे सत्ता छूट गयी है इसलिए वे इस तरह से सत्ता हथियाना  चाहते हैं, और कैसे नासमझ हैं कि  यह सत्ता पाकिस्तान की आईएसआई, वेनेजुएला, उत्तरी कोरिया, और हंगरी की मदद से यह काम दिल्ली की बड़ी सत्ता के लिए नहीं करते? सोचो तो बड़ा सोचो। दिल्ली में तो जब प्रधानमंत्री का पद थाली में रख कर मिल रहा था वह भी ठुकरा दिया था पर ममता दीदी की जान के पीछे पड़े हैं।
      वे ऐसे छूटी हुयी सत्ता को पाने का काम केरल में भी नहीं कर रहे, जहाँ केवल एक सीट से पिछड़ गये हैं क्या पाकिस्तान की आईएसआई , वेनेजुएला, हंगरी, और उत्तरी कोरिया का धन वहाँ तक नहीं पहुँच सकता। बेचारे ओमन चाण्डी को कोई खतरा नजर नहीं आता।
      दीदी को डरावने सपने आने लगे हैं। जिन माओवादियों की सहायता से उन्होंने सत्ता पायी थी अब वे ही उन्हें दुश्मन नजर आने लगे हैं। अगर कोई छात्रा एक सवाल पूछ दे तो वो उन्हें माओवादी नजर आती है। अगर टीवी प्रोग्राम में साक्षात्कारकर्ता कोई सवाल करे तो वे भाग जाती हैं। शोले फिल्म की घुड़दौड़ जैसा हाल हो गया है। यहाँ बसंती की जान खतरे में है। कार्टून डरा रहा है, अपनी ही पार्टी के सदस्य द्वारा लिखी गयी किताब डरा रही है जिसमें वो लिख देता है कि सिंगूर के अनशन के समय वे छुप कर चाकलेट खाती रही हैं। गीत लिखने वाला उनका सांसद गीत लिख कर डरा रहा है। कभी समर्थन देने वाली महास्वेता देवी डरा रही हैं। और तो और उनका ही रेल मंत्री डरा रहा है जिसे रेल बजट प्रस्तुत करने के बाद वे स्तीफा देने को कहती हैं। मारे गये माओवादी किशनजी का भूत भी उन्हें डराता होगा।   हो सकता है कि हिलेरी क्लिंटन भी उन्हें डराने आयी हों और अपना काम करके चली गयी हों। डरे हुए आदमी को अपनी ही छाया से डर लगने लगता है। वैसे तो वे अपनी जान को खुद ही देने के कई नाटक कर चुकी हैं। 1996 में उन्होंने कलकता के अलीपुर में आयोजित एक रैली में एक काले शाल को अपने गले में कस लिया था औरहजारों लोगों के सामने फाँसी लगा लेने की धमकी दी थी, पता नहीं तब कौन से देश ने उन्हें सहायता दी थी। बहरहाल कामरेड ज्योति बसु उन्हें नौटंकी कहते रहे हैं। 

      लगता है कि उनकी जान ही कुर्सी में छुपी हुयी है और कुर्सी पर आया खतरा उन्हें जान का खतरा लगने लगता है।
वीरेन्द्र जैन
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