गुरुवार, अक्तूबर 18, 2012

व्यंग्य- क्या फेंकूं क्या जोड़ रखूं


व्यंग्य  
क्या फेंकूं क्या जोड़ रखूं ?
वीरेन्द्र जैन
      हरिवंशराय बच्चन, जिनकी कीर्ति पताका अब उनके काब्य संसार से अधिक एक स्टार कलाकार के पिता होने के कारण फड़फड़ा रही है, ने अपनी आत्म कथा का शीर्षक दिया है - क्या भूलूं क्या याद करूं। उनकी इस मन:स्थिति की कल्पना हम प्रतिवर्ष दीवाली पूर्व किये जाने वाले सफाई अभियान के दौरान करते हैं। नई आर्थिक नीति का सांप हमारे घर में ऐसा घुस गया है कि हम जीवन मरण के झूले में लगातार झूल रहे हैं। नई आर्थिक नीतियों के अनुसार हमने न केवल अपने दरवाजे खोले अपितु खिडकियों रोशनदानों सहित चौखटें भी निकाल कर फैंक दीं जिससे दुनिया का बाजार दनादन घुसा चला आया और हमें आदमी से ग्राहक बना डाला । अब हमारा केवल एक काम रह गया है कि कमाना और खरीदना । बाजार से गुजरने पर इतनी लुभावनी वस्तुएं नजर आती हैं कि मैं उन्हें खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। उपयोग हो या ना हो पर खरीदने का आनन्द भी तो अपना महत्व रखता है- सोचो तो ऊंचा सोचो।
      इन नयी नयी सामग्रियों की पैकिंग का तो क्या कहना। बहुरंगी ग्लेजी गत्ते का मजबूत डिब्बा उसके अन्दर थर्मोकाल के सांचे में सुरक्षित रूप से फिट किया गया सामान इतना सम्हाल के रखा गया होता है जैसे कोई मां गर्भ में अपने बच्चे को रखती है भले ही जन्म के बाद वह कुपुत्र निकले पर माता कुमाता नहीं होती है। कई बार तो मन करता है कि सामान फैंक दिया जाये पर डिब्बा सम्भाल कर रख लिया जाये ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर काम आवे। दीवाली का आगमन ऐसे सामान के प्रति बड़ी कड़ी प्रतीक्षा की घड़ी होती है। छोटे छोटे फ्लेट इन डिब्बों से पूरे भर जाते हैं। दीवाली पर इन्हें बाहर निकाला जाता है पोंछा जाता है और सोचा जाता है कि रखूं या फैकूं। क्या भूलूं क्या याद करूं की तरह असमंजस रहता है। वैसे आजकल यूज एण्ड थ्रो का जमाना है पर हम हिन्दुस्थानी मध्यम वर्गीय लोगों से फेंका कुछ नहीं जाता। हमारे यहाँ ऐसे डाटपैन सैकड़ों की संख्या में मिल जायेगे जिनकी रिफिल खत्म हो गयी है। और रिफिल बदलने वाली बनावट नहीं है, पर पड़े हैं तो पड़े हैं। न किसी काम के हैं और ना ही फेंके जाते है। ढेरों किताबें है जिनकों पढ़ने का कभी समय नहीं मिला पर रद्दी में बेचने की हिम्मत नहीं होती। अंग्रेजों के समय में लोग जेल जाया करते थे, जहां उन्हें लिखने और पढ़ने का समय मिल जाता था पर आजकल के जेलों में जगह ही खाली नहीं रहती कि पढ़ने लिखने वालों को अवसर दिया जा सके। इसलिए किताब बिना पढ़ी रह जाती हैं। पुराना ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी क़ो कोई पांच सौ रूपये में भी नहीं खरीदना चाहता है जबकि इतना पैसा तो उसे शोरूम से घर लाने और पड़ोसियों को मिठाई खिलाने में ही लग गया था। अगर कुछ वर्ष और रह गया तो उल्टे पांच सौ रूपया देकर ही उठवाना पड़ेगा। पुराने जूते, खराब हो गयी टार्च, कपड़े के फटने से बेकार हो गये छाते, बच्चे की साइकिल गुमी हुई चाबियों वाले ताले, सेमिनारों में मिलें फोल्डर और स्मारिकाएं, बरातों में मिले गिफ्ट आइटम, जो न केवल दाम में कम है अपितु जिनके काम में भी दम नहीं है। बिल्कुल वही हाल है कि -
चन्द तस्वीरे-बुतां, चन्द हसीनां के खतूत
बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला
रद्दीवाला तक कह देता है कि छोटे छोटे कागज अलग कर लीजिए इनका हमारे यहां कोई काम नहीं है। ये इकट्ठे होते रहते है तथा मरने के बाद ही बाहर निकलते हैं (वैसे सामान तो कुछ और भी निकला होगा पर एक शेर में आखिर कितना सामान आ सकता हैं। )
      इन सामानों का क्या करूं ? प्लास्टिक के आधार पर पीतल जैसी धातु के चमकीले स्मृति चिन्ह दर्जनों रखे हैं। कई स्मृति चिन्हों की तो स्मृतियों ही खो गयी है कि ये कब किसके द्वारा क्यों मिला था। अगर इन्हें बेचने जायेगे तो खरीददार समझेगा कि बाबूजी ने शायद जुआ या सट्टा खेल लिया है जो अब स्मृति चिन्हों को बेचने की नौबत आ गयी है। ऐसी दशा में वह इतने कम दाम लगायेगा कि अपमान के कई और घूंट बिना चखने के पीने पड़ जायेगे। वे केवल इस उपयोग के रह गये है कि गाहे बगाहे इनकी धूल पोंछते रहो। कई बार अतिथियों को दिखाने की फूहड कोशिश की तो वे बोले कि हमारे घर तो आपके यहाँ से दुगने पड़े हैं और दुगनी धूल खा रहे है।
      एक जमाना तो ऐसा था प्लास्टिक की पन्नियों को भी सम्हाल के रखा जाता था। जो दुकानदार इन पन्नियों मं सामान बेचता था उसकी बिक्री बढ़ जाती थी। अब यही पन्नियां, पत्नियों की तरह आफत की पुड़ियां बन गयी है। कई फोटो एलबम है जिनमें बचपन से लेकर पचपन तक के चित्र डार्विन के विकासवाद की पुस्तक - बन्दर से आदमी बनने की विकास यात्रा की तरह सजे हुऐ हैं। निधड़ नंग धड़ंग स्वरूप में नहलायें जाने से लेकर सिर के गंजे होने तक के चित्रों की गैलरी सजी है। कभी लगता था कि वह दिन भी आयेगा जब लोग अखबार के पन्नों पर इनकी झांकी सजायेंगे पर अब इस शेख चिल्लीपन पर खुद ही हंसी आती है। इन्हें फेंकने का जो काम भविष्य में कोई और करेगा वही काम खुद करने में हाथ कांपते है।
धूल उड़ाने के लिए खरीदा गया वैक्यूम क्लीनर खुद ही धूल खा रहा है। कई तरह के वाइपर जिन पर खुद ही पोंछा लगाने की जरूरत महसूस होती है। मकड़ी छुडाने वाले झाडू पर मकड़ी के जाले लग गये हैं। बाथरूम में फ्रैशनर की केवल डिब्बियॉ टंगी रह गयी हैं। फ्रैशनर की टिकिया खरीदते समय वह फालतू खर्च की तरह लगती है पर डिब्बी फैंकी नहीं जाती। मेलों, ठेलों से खरीदे गये कई तरह के अचार मुरब्बे चटनियों और चूरन इस प्रतीक्षा में है कि कब खराब होकर सड़ने लगें तब फैके जावें।
जिस तरह आत्मा शरीर को नहीं छोडना चाहती बिल्कुल उसी तरह बेकार हो गयी सामग्रियॉ छूटती नहीं हैं। कहना ही पड़ेगा- क्या फेकूं ? क्या जोड़ रखूं ?
 वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अक्तूबर 11, 2012

अगर पैसे पेड़ पर लगते तो ...........


व्यंग्य
अगर पैसे पेड़ पर लगते तो...................... 


वीरेन्द्र जैन
                राम भरोसे के हाथ में हमेशा अखबार रहता है और उसकी हथेलियों की गरमी से ठंडी ठंडी खबरें भी गर्म हो जाती हैं। हमेशा की तरह मुझे आज भी उम्मीद थी कि वह अखबार फैला कर कोई गरम-गरम या मसालेदार खबर पढवायेगा, पर उसने ऐसा नहीं किया। कुर्सी पर बैठ कर सीधा सवाल दाग दिया ये बताओ कि ये वाक्य वनस्पति शास्त्र का है, अर्थ शास्त्र का है, राजनीति शास्त्र का है, या पर्यावरण से सम्बन्धित है!
       ‘पहले सवाल तो बताओ? मैंने उसकी पहेली से उलझते हुए पूछा
                “ अरे तुम कौन सी दुनिया में रहते हो तुम्हें आज के ताजा घटनाक्रम की भी खबर नहीं रहती! मैं अपने मौन मोहन सिंह जी के ताजा बयान की बात कर रहा हूं जो सोनिया जी के चाहने तक देश के प्रधानमंत्री हैं। वह ऐसे बोला जैसे बहुत रहस्य की बात बता रहा हो, बरना ये बत किसे नहीं पता।
                “अच्छा, अच्छा, वही पैसों के पेड़ पर लगने वाली बात, हाँ भाई कहा तो उन्होंने सही है, पेड़ों पर पत्तियां लगती हैं, फूल लगते हैं, शाखाएं लगती हैं, कभी कभी फल लगते हैं, घोंसले लगते हैं, अमर बेलें चढी रहती हैं, दीमक लगती है, मकड़ी के जाले लगते हैं, कीलें ठोंक कर विज्ञापन लगते हैं, कट कर गिरी पतंगें अटक जाती हैं, और अटकी रहती हैं, पर पैसे नहीं लगते। मैंने अपना ज्ञान बघारा।
                “ पर पेड़ों पर वोट भी नहीं लगते, जिनके अचार से सरकार बनती है, उन्हें भी बड़े जतन से कबाड़ने पड़ते हैं। पर मैंने तुम से पूछा था कि इस विषय का शास्त्र क्या है जो सम्भवतः तुम नहीं जानते। अच्छा छोड़ो ये बताओ कि अगर पैसे पेड़ पर लगते होते तो क्या होता। रामभरोसे ने कहा तो प्रतिउत्तर में मैंने प्रस्तावित किया कि इस चिंतन को ज्वाइंट वेंचर में किया जाये। मैं और राम भरोसे दोनों ही उसी तरह चिंतन की मुद्रा में बैठ गये जैसे कभी जवाहरलाल नेहरू की फोटो छपा करती थी, जिसमें एक उंगली गाल पर और बाकी ठोड़ी के नीचे रहती थीं। इस चिंतन से जो गहरे मोती निकाले वो इस तरह थे।
·         अगर पैसे पेड़ों पर लगते तो देश में जंगल ही जंगल होते, क्योंकि जंगल के पैसों पर सरकार का अधिकार होता  
·         अगर पैसे पेड़ों पर लगते तो ज्यादातर गैराअदिवासी लोग. आदिवासी कहलाना चाहते और कहते कि गर्व से कहो हम जंगली हैं,   
·         अगर पैसे पेड़ों पर लगते तो नगरों गाँवों के घरों में एक, दो पाँच, दस, पचास, सौ, पाँच सौ और हजार रुपयों के अलग अलग पेड़ लगे होते। सबको घरों में पेड़ लगाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती और वीआईपी लोग पाँच सौ या हजार से नीचे का पेड़ ही नहीं लगाते। एक दो रुप्यों के पेड़ तो इमली, बेरों की तरह रस्तों पर लगे रहते,  
·         कुछ लोग बिना अनुमति के चोरी से हजार पाँच सौ रुपयों के पेड़ लगा लेते जिन्हें काले पेड़ कहा जाता और छापों में पकड़े जाने पर पता लगता कि किसने कितने पेड़ लगाये हुए थे।
·         बाबा रामदेव जैसे लोग कहते कि हजार पाँच सौ के पेड़ों के बीज ही खत्म कर दो तब काले पेड़ों की समस्या से मुक्ति मिलेगी। वे खुद दवाओं के नाम पर अपने आश्रम कम दवा उद्योग में ऐसे सैकड़ों पेड़ लगा कर रखते।    
·         अगर पैसे पेड़ों पर लगते तो नीति वाक्य सिखाने वाले कहते कि जैसा कर्म करेगा वैसा पेड़ देगा भगवान क्योंकि तब लोग फलों के पेड़ ज्यादा नहीं लगाते और फल देने का मुहावरा नहीं बनता
·         अगर पैसे पेड़ों पर लगते तो फिर अलग से पर्यावरण मंत्रालय बनाने की जरूरत ही नहीं रहती क्योंकि कोई कालिदास भी कालिदास की तरह व्यवहार नहीं करता
·         वन विभाग और वित्त विभाग के बीच मुकदमा चल रहा होता
·         वगैरह
·         अगर पैसे पेड़ों पर लगते होते तो सबसे बड़ी बात यह होती कि श्री मनमोहन सिंह्जी प्रधानमंत्री नहीं होते
वीरेन्द्र जैन
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