शनिवार, दिसंबर 28, 2013

व्यंग्य - सत्य की अदालत में जीत

व्यंग्य
सत्य की अदालत में जीत
वीरेन्द्र जैन

किसी कवि ने कहा है कि-
सत्य अहिंसा दया धर्म से उनका बस इतना नाता है,
दीवालों पर लिख देते हैं दीवाली पर पुत जाता है
इसी तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर हमारे यहाँ सरकारी संस्थाओं में ‘सत्यमेव जयते’ लिखा हुआ देखता रहा हूं। पर अभी अभी अदालत के एक फैसले के पक्ष में आने पर हिन्दू ह्रदय सम्राट ने ‘सत्यमेव जयते’ इस तरह व्यक्त किया जैसे कि सूरज के पूरब से निकलने की बात सुन रहे हों। रामभरोसे को तो उसी दिन सूरज के पूरब से निकलने पर सन्देह होने लगा। जब वह तेज भागता हुआ मेरे पास आया तो मैंने कहा कि भाई इतना तेज क्यों दौड़ रहे थे क्या कोई रेस जीतना है।
                “ जीतना ही पड़ेगी तब ही मेरा अस्तित्व सिद्ध हो पायेगा वह बोला।
                “क्या मतलब है तुम्हारा मैं समझा नहीं? मैंने अपने मुँह को सवालिया निशान में बदलते हुए पूछा।
                “ आदमी जीत कर ही सत्य सिद्ध हो सकता है जैसे अभी अभी वे अपनी अदालती जीत के बाद सत्य सिद्ध हुये, और उन्होंने गोआ से लौटकर सत्यमेव जयते कहा
                “ इसका मतलब दिल्ली में ‘आप’ के अरविन्द केजरीवाल सत्य हो गये है और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, हाँ छत्तीसगढ में जरूर कांग्रेस सत्य होते होते बच गयी पर मिज़ोरम में हो ही गयी
                “यही सवाल तो मुझे मथ रहा था इसलिए तो मैं भागता भागता आया हूं
                “कौन सा सवाल?
                “ यह कि अपने यहाँ अदालतों के कई स्तर हैं, और लोअर कोर्ट ने आरोपों के प्रमाणित न होने के आधार पर फैसला सुनाते हुये शिकायतकर्ता को आगे अपर कोर्ट में अपील करने का सुझाव दिया
       ‘हाँ, यह तो न्याय में व्यव्स्था है     
                “ पर मेरा सवाल यह है कि अगर अपर कोर्ट ने फैसले को बदल दिया तो सत्य बदल जायेगा, और उससे ऊपर के कोर्ट ने फिर बदल दिया तो फिर बदल जायेगा। अर्थात, सत्य अदालती फैसलों के सापेक्ष हो गया। इसी तरह पश्चिम बंगाल में पहले बाममोर्चा सत्य हुआ करता था और अब तृणमूल कांग्रेस सत्य है।
                “हाँ सत्य जब विजय से जुड़ेगा तो यही होगा मुझसे यही कहते बना।
                “ उसी तरह यूपी में पहले मायावती सत्य थीं और अब मुलायम अखिलेश और आज़म खान हो गये हैं, सत्य वोटों, गवाहों, सबूतों पर निर्भर हो गया है। सुनते थे कि सत्य ही ईश्वर है या ईश्वर ही सत्य है जिसे अब गवाह तय करेंगे। पर मुश्किल यह है कि पिछले दिनों एक सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा था कि हमारी न्यायव्यवस्था में तीस प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं तो सत्य अर्थात ईश्वर भी इस बात से तय होगा कि आप न्यायधीश को कितना और कैसे संतुष्ट कर पाते हैं। जो अच्छा वकील कर लेंगे सत्य वही कहलायेंगे क्योंकि जीत उन्हें ही मिलेगी और अच्छे वकील के लिए मात्रा में अच्छे पैसे चाहिए। मतलब दरिद्र का नारायण होना सम्भव नहीं। जिसके पास लक्ष्मी है वही नारायण है।
       रामभरोसे मुझे उलझा देता है और मैं निरुत्तर हो जाता हूं, फिर नींद नहीं आती।
सुखिया सब संसार है खावै और सोवै
दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै     
कृष्ण बिहारी नूर का एक शे’र थोड़ा सुकून देता है, जो कहता है कि सत्य तो सीमित है पर झूठ ही असीम और अनंत है-
कुछ घटे या बढे तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं  
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629


बुधवार, सितंबर 18, 2013

व्यंग्य - झूठ बोलती प्रार्थनाएं

व्यंग्य
झूठ बोलती प्रार्थनाएं
                                           वीरेन्द्र जैन
         
     भक्त आरती गा रहा है-
          जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा
          अन्धन खों आंख देत, कोढिन को काया
          बांझन खों पुत्र देत निर्धन को माया।

          ऐसा लगता है जैसे गणेश जी ने आरती लिखने के लिए किसी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र लिखने वाले को अनुबंधित करा दिया हो और वह लिख रहा हो कि प्रतिवर्ष एक करोड़ लोगों  को रोजगार दिया जायेगा तथा प्रत्येक  गांव में पीने को पानी की सुचारू व्यवस्था की जावेगी, सारे गांवों को सड़कों से जोड़ने में करोडों रूपये लगाये जायेगें व उन पर प्रधानमंत्री के फोटो सहित होर्डिग लगाये जायेगे, विकलांगों को आरक्षित कोटे का बैकलाग भरा जायेगा आदि। यनि जिसके पास जो कमी है वह पूरी किये जाने का लालच जगा के वोट झटक लो।
          मैं एक अंधे को पिछले दस वर्ष से गणेश उत्सव में यही आरती गाते देख रहा हूँ पर आंख की तो छोडिये उसकी छड़ी तक कोई चुरा कर ले गया पर उसने गाना नहीं छोड़ा कि अन्धन खों आंख देत । गणेश जी यदि कोढ़ियों को काया देना शुरू कर दें तो बहुत उत्तम होगा। वैसे मुझे या मेरे आस पास के किसी व्यक्ति को ऐसी कोई शिकायत नहीं है पर मेरा एक दुश्मन ' एमड़ीटी ख़ाओं कुष्ठ  मिटाओं करता हुआ कुष्ठ निवारण मिशन में नौकरी पर लग गया है और गणेश जी कोढिन को काया दे दें तो उसकी नौकरी से छुट्टी हो जायेगी। पर असल  में ऐसा होता नहीं है कई बार तो आरती गाने वालों को कुष्ठ होते तो देखा है पर आरती गा कर काया पाता हुआ कोई कोढ़ी नही मिला।
          यदि लढुअन कौ भोग लगाने के बाद संत सेवा करते रहें तो अंधन खों आंख देने की फुरसत किसे मिलेगी और क्यों मिलनी  चाहिए। पत्नी पैर दबाती रहे तो आदमी को भी शेष नाग पर लेटे हुये नींद आ जाये, देवताओं की तो बात ही और है। हमारे देवता वैसे भी सोने के लिए मशहूर हैं और मूर्ख  जनता समझती है कि वे समाधि में हैं जिसमें केवल मुद्रा का फर्क  होता है। चिड़िया तो पेड़ पै बैठे बैठे सो लेती है और घोड़ा खड़े खड़े सो लेता है पर उसे  तो हम नहीं कहते कि वह समाधि में हैं। श्रद्वा ऐसी ही चीज होती है जो भोजन को भोग में और सोने  को समाधि का सम्मान प्रदान करती है। वर्षाऋतु में देवता सोते हैं तो फिर वर्षा बाद ही उठते हैं और उनके उठने वाले दिन देवोत्थान एकादशी का त्यौहार मनाया जाता है। जिन्हें रोज सुबह सुबह  उठ कर काम पर जाना पड़ता है उनके लिए तो रोज ही एकादशी होती है। लम्बे सोने की सुविधा देवताओं को ही प्राप्त है।
          वैसे तो  मेरे मुहल्ले में कई गोबर  गणेश मिल  जाते हैं। मैं उनकी बात नही करता पर मुझे लगता है कि देवताओं में  भी एकाधिक गणेश हुये हैं। शायद यही कारण है उनकी अलग पहचान बताने के लिए आरती गाने वालों ने  आरती में ही उनकी बल्दियत बताना जरूरी समझा है। वह कहता है कि - माता जा की पारवती, पिता महादेवा - अर्थात  आप किसी दूसरे गणेश की जय मत करने लग जाना, असली यही हैं।

          प्रार्थनाओं में अपने आराध्य की अतिरंजित स्तुति ही काफी नहीं होती अपितु दूसरे देवताओं  की छवि खराब करना भी जरूरी समझा जाता है। कांग्रेस और भाजपा में भले ही एक ही पार्टी  के सदस्य रहते हों पर गुट और नेता तो अलग अलग होते हैं। हर गुट के सदस्य को अपने नेता की प्रशंसा और दूसरे  गुट के नेता की निन्दा अनिवार्य होती है। तुलसीदास ने भी ज्ञान गुण सागर हनुमान जी की हनुमान चालीसा में स्तुति करते हुए दूसरे देवताओं की छवि भी अंकित करने की कोशिश की है। वे कहते है कि:-

          और देवता चित्त न धरई
          हनुमत वीर सदा सुख करई
          अर्थात नेताओं की तरह दूसरे देवता तो ध्यान नहीं देते पर  हनुमत वीर सदा ही सुख करते हैं। रामचरित्र मानस को स्वान्त: सुखाय घोषित  करने वाले तुलसीदास अपनी पुस्तक की विशेषताएं बताते हुए कहते है कि ' जो यह पढ़े  हनुमान चालिसा होय सिद्व साकी गौरी सा  अर्थात रेपिडैक्स खरीदिये और सौ दिन में  अंग्रेजी सीखिये।
          ऐलोपेथी के प्रचार में एक प्रार्थना ने बहुत सहायता की है। मेरे एक एमबीबीएस मित्र अपने क्लीनिक में  जय जगदीश हरे की प्रार्थना का चार्ट भी अन्य चार्टो की तरह लटकाये हुऐ है जिनमें शरीर को चीर फाड़ कर भीतरी अंग दर्शाये गये है। जब मैने उनसे कारण पूछा तो वे बोले यह हमारी प्रचार नीति का मुख्य गीत है जिसमें भक्त जनन के संकट पल में दूर करने वाले हरे जगदीश की स्तुति की गयी है। इस प्रार्थना के कारण  भक्त लम्बे समय वाली आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक चिकित्सा पद्वति के चक्कर में नहीं फंसता। वह संकट को पल में दूर करने वाली ऐलोपैथी के पास ही दौड़ा चला आता है। वो जमाने लद गये जब भक्त  को भरोसा था तथा वह मानता था कि- कबहुं दीन दयाल के भनक परेगी कान।  अब तो वो आके कहता है कि डाक्टर साब आप दीन दयाल के कानों में मशीन फिट कर दो ताकि वे जल्दी सुन लिया करें।
          मैं अपने सफाई कर्मचारी देवीदयाल को कट्टर जैन मानता हूँ क्योकि जब शाम को वह नगरपालिका इंसपेक्टर को गाली देता हुआ निकलता है उसी समय मेरी पत्नी एक जैन प्रार्थना का कैसिट लगा कर भजन सुनती है जिसमें कहा गया है कि - मन में हो सो वचन उचरियें, वचन होय सो तन सों करिये। इन्सपेक्टर साहब की मॉ स्वर्गवासी हो चुकी हैं तथा बहिन कोई है नहीं अन्यथा बहुत सम्भव था कि वह वचन को कर्म में परिवर्तित करने की कोशिश करता हुआ और  सच्चा जैन  साबित होता। मै शाम को बाजार जा रहा होता हूँ तभी जैन  भजन का वह भाग बजता है जिसमें कहा गया है कि ' संसार में  विषबेल नारी तज गये योगीश्वरा'। तब मैं पत्नी  की ओर नही  देखता।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जून 27, 2013

और मोदी ने दिये दो करोड़..........

व्यंग्य
और मोदी ने दिये दो करोड़ ..............
वीरेन्द्र जैन
                पता नहीं आपको पता है कि नहीं कि उत्तराखण्ड के केदारनाथ में कितना भयानक हादसा हुआ क्योंकि आप तो क्रिकेट मैच देखने और उस पर सट्टा लगाने में व्यस्त होंगे। आपको तो यह भी पता नहीं होगा कि इस आपदा से निबटने के लिए भाजपा की चुनाव प्रचार समिति के चेयरमैन श्री नरेन्द्र मोदी ने दो करोड़ रुपये की सहायता देने की घोषणा की है।
       इस हादसे से व्यथित सेक्युलर प्रधानमंत्री मन मोहन सिंह ने सरकार की ओर से एक हजार करोड़ दिये हैं और अयोध्या में मन्दिर वहीं बनाने के लिए सोमनाथ से रथयात्रा निकलवाने के लिए अडवाणीजी को उकसाने वाले  मोदी ने दो................. करोड़ रुपये दिये हैं। मनमोहन सिंह की सरकार के पर्यटन विभाग ने सरकारी विश्राम गृहों आदि के पुनर्निर्माण के लिए सौ करोड़ दिये हैं और गुजरात के पर्यटन प्रचार के लिए अमिताभ बच्चन को ब्रांड एम्बेसडर बनाने वाले नरेन्द्र भाई मोदी ने दो करोड़ छिनक दिये हैं।
       उत्तरप्रदेश की सेक्युलर सरकार के मुख्यमंत्री ने पच्चीस करोड़ रुपये दिये हैं और गुजरात में दूसरे धर्म के मानने वाले परिवार में पैदा हुये लोगों की जड़ से सफाई करवाने वाले मोदीजी ने अपने धर्म के धर्मस्थल में हुए भीषणतम हादसे के लिए दो........ करोड़ रुपये दिये हैं।
       सेक्युलर महाराष्ट्र सरकार, हरियाणा सरकार, राजस्थान सरकार ने दस करोड़ रुपये की सहायता दी है पर गुजरात के हिन्दू ह्रदय सम्राट नरेन्द्र मोदी ने देश के एक हिन्दू तीर्थ में हुये हादसे के लिए दो करोड़ रुपये देने की उदारता प्रदर्शित की है।
       जब पिछड़े मध्यप्रदेश के भाजपा मुख्यमंत्रियों में नम्बर तीन मुख्यमंत्री तक ने पाँच करोड़ रुपये दिये हैं, तब विकास में सबसे आगे होने का ढिंढोरा पीटने वाले मोदीजी ने दो करोड़ घोषित किये हैं।
       जब टाटा समूह जो मोदी के चश्मे से देखने पर पारसियों का माना जाना चाहिए , उसने अपने सभी कर्मचारियों के एक दिन का वेतन विनम्रतापूर्वक देने का फैसला किया है जो कुल 74 करोड़ होता है तब अपने को छोटा सरदार प्रचारित करने वाले मोदीजी ने दो करोड़ दिये हैं।
       जब मौलाना मुलायम सिंह के निकट समझे जाने वाले सहारा समूह ने उत्तराखण्ड में दस हजार मकान बनवा कर देने का वादा किया है तब मोदीजी ने दो करोड़ रुपयों का दान देकर छुट्टी पा ली है। फिल्म स्टार अक्षय कुमार ने बीस करोड़ देने की घोषणा करदी व भाजपा के स्टार ने कुल दो करोड़ दिये। भोपाल की भारत हैवी एलेक्ट्रीकल्स के करमचारियों ने ही नहीं मध्य प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों ने भी मोदी द्वारा गुजरात सरकार की ओर से दी गयी रकम से ज्यादा देने की घोषणा की है।
      
       एक कहानी है कि जब एक भिखारी सारा दिन एक धर्मस्थल के बाहर बैठ कर भीख माँगता रहा पर उसके कटोरे में शाम को खाना खाने लायक पैसे भी नहीं जुटे तो वह उठकर किसी मयखाने के बाहर आकर बैठ गया। मयखाने से एक शराबी बाहर निकला और उसने उदास व भूखे भिखारी को देख कर अपनी पूरी जेब उलट दी जिसमें सौ से ज्यादा रुपये थे और यह कहता हुआ चला गया कि जाओ ऐश करो। अचम्भित भिखारी ऊपर की ओर हाथ उठाकर बोला- भगवान तू भी बहुत चालाक है, रहता कहीं और है और पता कहीं और का देता है।
       मोदीजी आप चाहें तो अपनी दो करोड़ की घोषणा से फिर भी सकते हैं, आपके बाबू बजरंगियों के काम आयेंगे।       
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, फ़रवरी 25, 2013

व्यंग्य- सामूहिक चेतना संतुष्टि मीटर


व्यंग्य
सामूहिक चेतना संतुष्टि मीटर
वीरेन्द्र जैन
       शायद आपने नाम नहीं सुना होगा। सुनेंगे भी कहाँ तक रोज ही नये नये उपकरण बन रहे हैं , मालिश करने से लेकर नहलाने तक की मशीनें आ गयी हैं। बच्चे को मशीन में डाल दो तो नहला धुला कर ही वापिस निकालेंगी और कुछ दिनों बाद तो इंडिया के लिए विशेष ब्रांड आने वाला है जिसमें बच्चे को नहलाने धुलाने के बाद नज़र से बचाने के लिए डिठौना भी लगा कर निकालेंगीं।
       हमारी सम्मानीय अदालतें भी अब अपने फैसले नये नये उपकरणों से देने लगी हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने कोई सामूहिक चेतना संतुष्टि का मीटर प्राप्त कर लिया है जिससे गवाहों सबूतों और बहसों आदि की जरूरत ही खत्म हो गयी है। सामूहिक चेतना मीटर से नापा और सुना दिया फाँसी का फैसला, लटका दो तब तक के लिए जब तक कि जान न निकल जाये- हेंग टिल डैथ।
       भाजपा को ऐसे उपकरण का जल्दी ही पता लग गया था इसलिए उसने भी सामूहिक चेतना बनाने के ‘एनजियोज’ खोल लिये हैं, जो सामूहिक चेतना बनाने का काम करते रहते हैं कि सामूहिक चेतना को तो इसी से संतुष्टि मिलेगी। अब जिसको चाहें उसको फाँसी दिला सकते हैं। अब वे जिसको चाहे उसको धमका सकते हैं कि अगर हमारी बात नहीं मानी तो सामूहिक चेतना की संतुष्टि की दिशा ही बदल देंगे, और अदालत को फाँसी का फैसला देना ही देना पड़ेगा क्योंकि मीटर में आ रहा है। यह वैसा ही होगा जैसा कि दुकानदार एमआरपी दिखाता है और हम खुदा की किताब में लिखे वचन की तरह उस एमआरपी के आगे सिर झुका देते हैं। आगे से अदालतें भी कहेंगीं कि क्या करें गवाहों के बयान तो आपस में विरोधी हैं, सबूत भी नकली लगते हैं पर सामूहिक चेतना मीटर बोल रहा है सो सजा तो देना ही पड़ेगी। वैसे तुम्हारी जान जाने का हमें दुख है पर मशीन का कहा तो टाल नहीं सकते।
       संघी लोग बैठकर पुराने समय को याद कर रहे थे कि काश यह मीटर पहले आ जाता तो हम गोडसे की जान बचा लेते। सामूहिक चेतना को ऐसी भड़काते कि संतुष्टि का मीटर तक भड़भड़ाने लगता व न्यायालय गोडसे को बाइज्जत बरी कर देता और संघ पर प्रतिबन्ध लगने की नौबत ही नहीं आती। अब वे लोग माले गाँव, मडगाँव, समझौता एक्सप्रैस, अजमेरशरीफ, हैदराबाद, जामा मस्जिद आदि आदि के पकड़े गये साधु साध्वियों के भेष में रहने वालों के पक्ष में सामूहिक चेतना बना रहे हैं ताकि अदालतें कह सकें कि सबूत तो सारे हैं पर क्या करें ये सामूहिक चेतना की संतुष्टि का मीटर ही नहीं बोल रहा है।
       मशीनों का एकदम से दौर आ गया है, बैंकों ने एटीएम लगवा लिए हैं, पासबुक और चेक जमा करने वाली मशीनें आ गयी हैं। रेल टिकिट मशीनों से निकल रहे हैं, सारे के सारे दफ्तर मशीनों से चल रहे हैं तो बेचारा न्याय भी कब तक सिर खपाता। उसने भी ठुकवा ली मशीन। जय हो।      
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, फ़रवरी 08, 2013

व्यंग्य- संत का सीकरी में काम [तमाम]


व्यंग्य
सन्त का सीकरी में काम [तमाम]
वीरेन्द्र जैन


      संन्त को सीकरी आना पड़ा है। मजबूरी है। पहले के सन्त की बात और थी। तब उन्हें भक्ति काव्य रचने, सुलेख में उसकी उम्दा नकल करने के अलावा ज्यादा से ज्यादा घाट के पत्थरों पर चन्दन घिसने का काम करना पड़ता था, जिससे घाट के पत्थर दिन प्रति दिन चिकने होते जाते थे। इन पत्थरों पर भक्तगण गौधूलि बेला में ठन्डाई घोंटने के काम में प्रयोग करते थे व कुछ विशेष भक्तगण उन्हीं पत्थरों पर भंग घोंट कर ठन्डाई के साथ सेवन करते थे। बड़ी शन्ति थी। नदी के जल को प्रदूषित करने के लिए उद्योग नहीं थे तथा नदी का जल पीने, नहाने और शौचादि कर्म में प्रयुक्त होने के बाद संतो के हित सतत प्रवाहमान रहता था। संत  जब भंग सेवन कर लेते थे तो उनकी दृष्टि में नदियां रंग  बदलने लगती थीं। किसी को उनमें दूध बहता नजर आता था तो किसी को दही। उनके इसी भाव को याद कर आज के अतीत जीवी कहते है कि हमारे देश में दूध दही की नदियॉ बहती थीं। (सुन कर बच्चे पूछते हैं- बाबा तब तो आइसक्रीम के पहाड होते होंगे तथा संत हिमालय पर इसी लालच में जाते होगे )

      ऐसी दशा में सन्त को सीकरी से कोई काम नहीं पड़ता था।

      आज का सन्त विवश है। सारे प्रकाशक सीकरी में जम गये हैं। साहित्य का दरिया, दरियागंज में बहता है वह लिखता दतिया में बैठकर है पर पुस्तक छपवाने सीकरी ही जाना पड़ता है। प्रकाशक कोई पुराने समय के लैम्प पोस्ट के लैम्प जलाने वाला नौकरी शुदा आदमी तो है नहीं, बेचारा धंधा करता है (वह बुरा नहीं मानता जब यही क्रिया रन्डियों के लिए भी प्रयुक्त होती है) जब दो लगाता है, तब चार कमाने का सपना पालता है और केवल  एक वापिस पाने पर सन्त की मॉ बहिन एक करता रहता है। प्रकाशक का काम बेचना है, वह हरितिमा को घास के नाम पर ही बेच सकता है और आयुर्वेद को कविता के नाम पर ही खपा सकता है। लोगों ने साहित्य खरीदना बन्द कर दिया है इसलिए वह सन्त की कृति को सरकारी खरीद के कुएं में झोंकने के लिए वर्जिश करता रहता है। सरकारी अफसरों के इर्द गिर्द घिघयाना उसके दैनिंदिन कार्यक्रम में शमिल है। अत: उसे सीकरी में रहना पड़ता है। सन्त की पनहियां टूटती हैं तो टूटती रहें वह सेल में से दूसरी खरीदवा देगा। संत की तो मजबूरी है प्रकाशक जहॉ जहॉ भी जायेगा वह पीछे पीछे फिरेगा। मुझे विश्वास है कि इस युग के सारे सन्त नर्क में ही तलाशे जा सकते हैं क्योकि सारे प्रकाशक वहीं पर है।

      संत पैसे उधार लेकर सीकरी का टिकिट कटाता है। पाण्डुलिपि और पन्हियॉ सिरहाने लगा कर बर्थ पर टांगें पसार कर सो जाता है और सपने देखने लगता है कि वह एक बड़े प्रकाशक के यहॉ सोफे पर बिराजमान हो कर एसी क़ी ठंडक खा रहा है।

      प्रकाशक केबिन में बैठता है। जिसने प्रकाशन अर्थात मुद्रित करके प्रसार करने का धंधा खोला हुआ है वह पहले  प्राइवेसी बरतता है। छप कर आने से पहले हवा नहीं लगने देना चाहता गोया कृति न हो सट्टे का नम्बर हो। उसने केबिन में ऐसा कांच लगवाया है जिसमें से बाहर दिखता है पर बाहर से अन्दर नहीं दिखता। सीकरी  आने से पहले सन्त को यह पता नही था। पाण्डुलिपि को  सीने से चिपकाये बाहर बैठे सन्त की बैचेनियों का मजा लेता रहता है अन्दर केबिन में बैठा प्रकाशक। फिर वह लंच पर चला जाता है। उसका लंच एक घंटे खिंचता है और सन्त भूखे पेट कुडकुड़ाता रहता है। भरा पेट प्रकाशक वापिस आकर ओढ़ी हुयी विनम्रता के साथ संत को केबिन तक ले जाता है। अपने हाथ से वाटर कूलर से पानी भरकर पेश करता है और सेवा पूंछता है। संत पाण्डुलिपि पेश करता है।

      '' ये क्या है संत जी ? प्रकाशक जानते हुए भी पूंछता है।
      '' पाण्डुलिपि है सेठ जी ''  संत गिडगिड़ाने वाले स्वर में बोलता है।
      '' काहें की ''
      '' कविता की है सेठ जी '' संत का स्वर और दरिद्र हो जाता है।
      प्रकाशक ऐसे देखता है जैसे हँस रहा हों । और वह हँस भी रहा होता है बस चेहरे पर हँसने के प्रचलित चिन्ह प्रकट नहीं होने देता। कविता हँसने की ही चीज होकर रह गयी है। प्रकाशक के लिये।
      '' संत जी दया कीजिये'' वह ऐसे भाव में कहता है जिसका प्रश्नवाचक रूप यह होता है कि- अबे तू  बेवकूफ है या मुझें समझता है।
      '' क्या मतलब सेठ जी '' सन्त इस तरह पूछते हैं कि कोई देखता तो उन्हें परम गधा माने बिना नहीं रहता।
      '' संत जी '' प्रकाशक गुरू गंभीर वाणी में कहता है '' अब ये कविता की ऐयाशी हमारे आपके वश की बात नहीं रही ''
      '' तो किसके वश की बात रहीं '' सीकरी आकर पछताता भोला संत पूछता है। ''

      '' अब ये काम तो केवल  आईएएस अधिकारियों, पुस्तकों की खरीद से जुड़े परिषदों के सचिवों, विश्वविद्यालय में ऊॅचे पदो से चिपकी जोंकों और नम्बर दो की कमाइयों पर छपवा कर सादर सप्रेम भैंट करने वाली नव धनाडयों की पत्न्यिों का रह गया है। हमारे तुलसी बाबा तो भविष्य दूष्टा थे, अत: उन्होने ' स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा '' कहकर खुद गढ़ा, खुद लिखा, खुद पढ़ा फिर गाया, तब जाकर लोगों तक पहुँचा पाया। पर अब तो संवेदना इतनी मर गयी है कि लोगों को संत तो क्या अपने घर परिवार पर भी दया नहीं आती ।

            संत जी। हम प्रकाशक तो अब केवल निमित्त मात्र हैं। अब तो लोग खुद ही पैसा लेकर आते हैं, हमारी सेवा करते है और छपवा कर अपने हिस्से की प्रतियॉ ले जाते है। शेष हम रद्दी में बेच देते है उसी से हमारी दाल रोटी चलती है। रद्दी वाले इसे मुफ्त बांटने वाले लोगों को घटी दरों पर बेच देते हैं जहॉ से दीमकों को भोजन बनने के लिए ये पुस्तकालयों में फिंकवा दी जाती हैं। हमारे आलोचक कालीदास के काल के पंडितों की तरह प्रकाशित कृतियों के नये नये अर्थ खोज कर लोगों को मूर्ख बनाते रहते हैं।

            आप भी सन्त जी कहॉ के चक्कर में पड़ गये। आप तो धर्म  की दुकान खोल लेते, आजकल खूब चल रही है। चढ़ावा मुफ्त में आता। उधार करने वालों पर कविता पेलते रहते, उससे दोहरा लाभ होता या तो वे पैसे दे जाते या कविता भुगतते। ''

            सन्त को इस जमाने में भी सीकरी रास नहीं  आती। वह पाण्डुलिपि सहित भागता है। कबीरदास जी ने भी शायद सीकरी जाते समय ही लुकाठी हाथ में ली होगी और उन्हीं लोगों को साथ चलने  के लिए ललकारा होगा जो अपना  घर बार छोड कर आ सकते हों।

            एक बार फिर सन्त का सीकरी में काम तमाम हो चुका है।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, जनवरी 28, 2013

मर्यादामुक्त मर्द की मर्दानगी


व्यंग्य
मर्यादामुक्त मर्द की मर्दानगी
वीरेन्द्र जैन

       चचा गालिब को जिस इश्क ने निकम्मा कर दिया था , वही हाल गडकरी जी का भाजपा के अध्यक्ष पद पर रहते हुए हुआ। पर जैसे ही उन्हें पद से बड़े बे-आबरू कर के हटाया गया वैसे ही वे मर्द में बदल गये और आयकर अधिकारियों को चुनौती दे डाली कि सालो अभी तक तो में पद की मर्यादा में था इसलिए चुप था पर अब मुँह पर से ढक्कन उठ गया है और अब मेरे अन्दर जो कुछ भी सड़ रहा है उसका भभूका उठेगा। अब तो बोतल की सील टूट चुकी है, अब काहे का परदा। लगता है कुछ दिनों बाद आप से, मेरा मतलब आमआदमी के केजरीवाल से पूछेंगे- तेरा क्या होगा केजरीवाल? तूने ही तो ये ढक्कन उठाया है! केजरीवाल कहेंगे- हुजूर मैंने आपके लोगों की सहायता और सहयोग से दिल्ली में कई रैलियां की हैं। मर्द कहेगा कि- अब वकील कर ! क्योंकि वीके सिंह और किरन बेदी तो आप से दूर जा चुके हैं तेरी रक्षा कानून ही करे तो करे।
       कांग्रेस देश की सबसे बड़ी आस्तिक पार्टी है जो सारे काम प्रभु की मर्जी पर छोड़े हुए है इसलिए स्वयं कुछ भी नहीं करती। जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, और जो होगा वो अच्छा होगा। जब खाना पक जायेगा तो आपस में कुत्तों की तरह लड़ते हुए खाने आ जायेंगे। खुद कुछ करना भगवान की मर्जी में दखल देना है इसलिए जो हो रहा है सो होने दो। गडकरी स्वतंत्र हैं कि किसी भी अधिकारी को धमकावें या कुछ भी करें। वो तो उन्होंने सौजन्यतावश वैसे ही कह दिया कि जब 2014 में हमारी सरकार आयेगी तब सोनिया गान्धी या मनमोहन सिंह तुम्हें बचाने नहीं आयेंगे, अन्यथा अभी कौन से आ रहे हैं। मध्य प्रदेश में तो आये दिन अधिकारी, पुलिस और प्रोफेसर पिट रहे हैं या मारे जा रहे हैं पर कांग्रेस चूं भी नहीं कर रही। तुम्हारे अधिकारी तुम्हारी पुलिस चाहे जो करो। ज्यादातर अधिकारियों और पुलिस ने तो वह रवैया अपना लिया है जिसकी कल्पना कभी हिन्दी के यशस्वी कवि स्व. ओमप्रकाश आदित्य ने बहुत पहले ही कर ली थी। उन्होंने लिखा था-

एक आदमी बीच सड़क पर तोड़ रहा था ताला
पकड़ो इसको पुलिसमैन से बोले जाकर लाला
लाला की सुन कर के उनसे कहने लगा सिपाही
कुछ भी कर लो मैं तो इसको नहीं पकड़ता भाई
आगे जाकर के ये मेरी सर्विस खो सकता है
सरे आम चोरी करता है नेता हो सकता है  

       यही कारण है कि मध्यप्रदेश में पुलिस किसी पर भी हाथ नहीं डालती, गडकरी तो आयकर अधिकारियों को 2014 के बाद देखेंगे पर प्रदेश के नेता तो अभी के अभी देख लेंगे, या सव्वरवाल गति तक पहुँचा देंगे।
       भाजपा में जिन लोगों की कृपा से गडकरी इस मर्यादाहीन दशा को पहुँचे हैं उनका विरोध भी उनके पद तक ही था। इसके बाद तो वे उनके यार हैं सो पिता-पुत्र जेठमलानी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, आदि किसी ने भी उनकी मर्दानगी की समीक्षा नहीं की। पद से मुक्त होते ही उन्होंने मुखौटा उतार कर इतनी दूर फेंका कि वह किसी भी तरह की अनैतिकता के प्रति असहनशील होने का आवाहन करते अडवाणी जी के मुँह पर लगा, और अडवाणीजी तुरंत उनके प्रति सहनशील हो गये।
       वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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सोमवार, जनवरी 21, 2013

उपाध्यक्ष महोदय


व्यंग्य
उपाध्यक्ष महोदय
                                            वीरेन्द्र जैन
     जब कोई व्यक्ति किसी संस्था के लिए ''उगलत निगलत पीर घनेरी'' वाली दशा को प्राप्त हो जाता है तो उसे उस संस्था का उपाध्यक्ष बना दिया जाता है।
          उपाध्यक्ष पदाधिकारियों में ईश्वर की तरह होता है जो होते हुये भी नहीं होता है और नहीं होते हुये भी होता है। यह टीम का बारहवां खिलाड़ी होता है जो पैड-गार्ड बांधे बल्ले पर ठुड्डी टिकाये किसी के घायल होने की प्रतीक्षा में टायलट तक नहीं जाता और मैच समाप्त होने पर फोटोग्रुप के लिये बुला लिया जाता है।

          वह कार्यकारिणी का 'खामखां' होता है। किसी भी कार्यक्रम के अवसर पर वह ठीक समय पर पहुंच जाता है तथा अध्यक्ष महोदय के स्वास्थ की पूछताछ इस तरह करता है जैसे वह उनका बहुत हितैषी हो। वह संस्था के लॉन में बाहर टहलता रहता है और अध्यक्ष के आने, और खास तौर पर न आने की आहट लेता रहता है। अगर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अध्यक्ष महोदय नहीं आ रहे हैं तो वह इस बात की जानकारी अपने तक ही बनाये रखता है तथा बहुत विनम्रता और गम्भीरता से बिल्कुल पीछे की ओर बैठ जाता है, जैसे उसे कुछ पता ही न हो। जब सचिव आदि अध्यक्ष महोदय के न आने की सूचना देते हैं जिसका कारण आम तौर पर अपरिहार्य होता है और सामान्यतय: बहुवचन में होता है, तो वह ऐसा प्रकट करता है जैसे उसके लिये यह सूचना सभी सर्वेक्षणों के विपरीत चुनाव परिणाम आने की सूचना हो। वह माथे पर चिंता की लकीरें उभारता है और अध्यक्ष महोदय के न आने के पीछे वाले कारणों के प्रति जिज्ञासा उछालता है। फिर कोई गम्भीर बात न होने की घोषणा पर संतोष करके गहरी सांस लेता है। अब वह अध्यक्ष है और संस्था का भार उसके कंधों पर है।

          सामान्यतय: उपाध्यक्ष अध्यक्ष से संख्या में कई गुना अधिक होते हैं। कई संस्थाओं में अध्यक्ष तो एक ही होता है पर उपाध्यक्ष एक दर्जन तक होते हें क्योंकि काम करने वालों की तुलना में काम न करने वालों की संख्या हमेशा ही अधिक रहती है। उपाध्यक्षों के दो ही भविष्य होते हैं, एक तो वे अध्यक्ष के मर जाने, पागल हो जाने या निकाल दिये जाने की स्थिति में अध्यक्ष बना दियें जाते हैं या फिर झींक कर अंतत: दूसरी संस्था में चले जाते हैं जहां पहली संस्था में व्याप्त बनेक अनियमितताओं के बारे में रामायण के अखंड पाठ की तरह लगातार बताते रहते हैं। उपाध्यक्षों का सपना संस्था का अध्यक्ष बनने का होता है और संस्था इस प्रयास में रहती है कि इस व्यक्ति को कैसे निकाल दिया जाये कि वह संस्था की ज्यादा फजीहत न कर सके।

          मंच पर उपाध्यक्षों के लिये कोई कुर्सी नहीं होती है। वहां अध्यक्ष बैठता है ,सचिव बैठता है,विशिष्ट अतिथि बैठता है, और कभी कभी तो अशिष्ट अतिथि तक बैठ जाता है, पर उपाध्यक्ष नहीं बैठता है - केवल उसकी दृष्टि वहां स्थिर होकर बैठी रहती है। कभी कभी मुख्य अतिथि से उसका परिचय कराने के लिये मंच से घोषणा की जाती है कि अब हमारी संस्था के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मुख्य अतिथि को माल्यार्पण करेंगे। बेचारा मरे कदमों से मंच पर चढता है और माला डाल कर उतर आता है। फोटोग्राफर उसका फोटो नहीं खींचता इसलिये वह मुंह पर मुस्कान चिपकाने की भी जरूरत नहीं समझता।

          उपाध्यक्ष किसी संस्था का वैसा ही हिस्सा होता है जैसे कि शरीर में फांस चुभ जाये, आंख में तिनका पड़ जाये या दांतों के बीच कोई रेशा फंस जाये। सूखने डाले गये कपड़े पर की गयी चिड़िया की बीट की भांति उसके सूख कर झड़ जाने की प्रतीक्षा में पूरी संस्था सदैव रहती है क्योंकि गीले में छुटाने पर वह दाग दे सकता है।

          उपाध्यक्ष के दस्तखत न चैक पर होते हैं न वार्षिक रिपोर्ट पर! न उसे संस्था के संस्थापक सदस्य पूछते हैं न चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। न उसे अंत में धन्यवाद ज्ञापन को कहा जाता है और ना ही प्रारम्भ में विषय प्रवर्तन को। न उसका नाम निमंत्रण पत्रों में होता है और न प्रैस रिपोंर्टों में। गलती से यदि कभी अखबार की रिपोर्टों में चला भी जाता है तो समझदार अखबार वाले समाचार बनाते समय उसे काट देते हैं। अगले दिन सुबह वह अखबार देखता है और उसे पलट कर मन ही मन सोचता है कि लोकतंत्र के तीन ही स्तंभ होते हैं।
     वैसे मैं आत्महत्या का पक्षधर नहीं हूं और इस साहस को हमेशा कायरता पूर्ण कृत्य बताकर तथाकथित बहादुर बना घूमता हूं पर फिर भी मेरा यह विश्वास है कि किसी संस्था का उपाघ्यक्ष बनने की तुलना में आत्महत्या कर लेना लाख गुना अच्छा है।
                                  वीरेन्द्र जैन
                   2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
                   अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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