शनिवार, दिसंबर 20, 2014

व्यंग्य कथा - लौट के हिन्दू घर को आये



व्यंग्य कथा

लौट के हिन्दू घर को आये



वीरेन्द्र जैन
       ये हिन्दुओं की घर वापिसी का युग है, पिछले आठसौ साल के बाद कोई हिन्दू राज आया है। वे लोग भी घर लौट रहे हैं जिन्हें पता ही नहीं है कि उनका घर कहाँ है और वे किस घर से कब और कहाँ गये थे। पर लौट रहे हैं। ऐसे ही एक घर लौटे हिन्दू ने एक विहिप वाले ठाकुरसाब की कोठी का दरवाजा खटखटा दिया।
कौन है बे? कोठी वाले हिन्दू वीर की आवाज़ गरजी।
मैं हूं शेख मुहम्मद उसने उत्तर दिया
क्या बात है?, तुम्हें क्या घर वापिसी करना है? उन्होंने पूछा
नहीं, वह तो मैं आपके साथ ही हवन करके कर चुका हूं
तो क्या पैसे नहीं मिले?
नहीं नहीं वैसी कोई बात नहीं
तो क्या बात है? उन्होंने खिड़की से मुँह निकाल कर पूछा
मैं पूछ रहा था कि अपना सामान कहाँ रख दूं वह बोला
कैसा सामान?
यही घरेलू सामान
घरेलू सामान! क्या मतलब है तेरा?
अब पुराना घर छोड़ आया हूं तो सामान साथ ले कर आ गया हूं, उसे कैसे छोड़ आता?
घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?
बिना घर छोड़े घर वापिसी कैसे होती? अब उस पुराने घर में कैसे रह सकता हूं! उसने सिर का बोझ नीचे पटकते हुए कहा।
अरे नहीं नहीं यह घर वापिसी वैसी नहीं है, इसका यह मतलब नहीं कि तुम अपना झोपड़ा छोड़ कर आ जाओ। वैसे जहाँ तुम रहते थे, वहाँ क्या तकलीफ थी?
तकलीफ तो कोई नहीं थी पर अब जब आपकी इमदाद से ठाकुर बन कर घर वापिस आ गया हूं तो उन मुसलमानों के मुहल्ले में कैसे रह सकता हूं जहाँ थोड़ी सी दूर पर ही नीची जातियों के मकान भी हैं। क़्या यह एक ठाकुर की आन को ठेस पहुँचाने वाली बात नहीं होती!  
घर वापिसी करने का यह मतलब थोड़ी ही है कि तुम हमारे घर में घुस आओ!  
घर में वापिस आने के बाद और कहाँ जायें अब? उसने वहीं तीतर लड़ाने की मुद्रा में उकड़ूं बैठते हुए कहा। पैर पसार कर उसकी बीबी और बच्चे भी वहीं बैठ गये। उन्होंने डिब्बे से रोटी निकाली और खाने लगे।
हिन्दू वीर परेशान हो गये। वहाँ से गुजर रहे एक चैनल के स्ट्रिंगर दृश्य देख कर फिल्माने लगे। यह तो मुसीबत गले पड़ गयी। उन्होंने कोठी से बाहर बहुत सारी ज़मीन पर अतिक्रमण करके लान बना रखा था उस पर नये बने ठाकुर हिन्दू के बच्चे खेलने लगे थे। उन्होंने पुलिस को फोन किया कि कुछ लोग उनके घर में जबरदस्ती घुस आये  हैं। पुलिस दौड़ी दौड़ी आयी क्योंकि धर्मांतरण के मामले में उसकी काफी किरकिरी पहले ही हो चुकी थी। उसने मामले को समझा और शेख मुहम्मद से पूछा तुम यहाँ कैसे अपना डेरा डंडा लेकर आ गये?
हमारी घर वापिसी हुयी है हुजूर, और हम अपने घर वापिस लौट कर आ गये हैं। वह बोला
क्या पहले तुम्हारा यही घर था?
यही होगा, साब
होगा से क्या मतलब कोई प्रमाण है तुम्हारे पास?
नहीं हुजूर पर जब एक घर से दूसरे घर गये हैं तो कोई घर तो रहा ही होगा। शायद यही हो। मुझे तो याद नहीं पर ठाकुरसाब ने हमारे पिछले घर की याद रखी है तो इनके आसपास ही होगा। इसलिए हम यहाँ आ गये
क्या तुम्हारे पास कोई कागज हैं जो यहाँ आ गये, जबकि इनके पास हैं
ठाकुरसाब तुरंत अन्दर गये अपने कागज़ ले आये और दिखाने लगे। पुलिस के लोग शेख मुहम्मद से बोले देख लो
अब हम क्या देखें साब आप ही कागज से नाप कर इनकी जगह तय कर दें, हम उसके बाद अपना डेरा बना लेंगे।
ठाकुरसाब कहने लगे अब यह काम पुलिस के अफसर थोड़े ही करेंगे। उन्हें डर था कि अभी उनके अतिक्रमण की पोल खुल जायेगी। पर पुलिस वालों को उनकी बात अपमानजनक लगी, बोले अगर विवाद सुलझता है तो हम नाप जोख भी कर सकते हैं
शेख मुहम्मद बोला साब जब ठाकुर बन कर लौट आये हैं तो रहना तो ठाकुरवाड़ी में ही होगा। इनकी जमीन के पास से हम अपना डेरा शुरू कर देंगे। ठाकुरसाब ने अपना माथा पीट लिया।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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गुरुवार, सितंबर 18, 2014

मल संशय और साध्वी चिंतन



व्यंग्य
मल संशय और साध्वी चिंतन
वीरेन्द्र जैन

       उनके साथ न गुरु खड़े हैं न गोबिंद। आखिर किससे पूछें! साध्वी परेशान हैं।
       सामने कुछ कोमल कोमल पड़ा हुआ है, जो कमल तो नहीं है, जरूर किसी मनुष्य का मल ही होगा, यह तय है। कमल का अपना स्वरूप होता है गन्ध होती है, पर इसमें से तो दुर्गन्ध उठ रही है।
       जिज्ञासाओं का भी एक स्तर होता है। साध्वी की जिज्ञासा राष्ट्रीय स्तर की है। यह मल देश के लिए समस्या खड़ी कर सकता है। अगर यह समस्या किसी व्यक्ति के स्तर की होती कि इससे मुन्नी के बीमार पड़ सकने की सम्भावना होती तो अभिनेत्री विद्या बालन एडवांस में गोलियां देकर सुलझा सकती थीं पर अब यह मामला गम्भीर हो गया है। देश की एक केन्द्रीय मंत्री ने कह दिया है कि नास्तिकों के मल से बाढ आती है। आस्तिकों के मल से क्या होता है इसका उद्घाटन होना अभी शेष है। शायद उससे बीमारी भी नहीं फैलती होगी तभी तो उत्तर प्रदेश में लाखों लोगों ने घर में शौचालय बनवाने के लिए मिला अनुदान अपने परिवार की पेट की भूख मिटाने में लगा दिया और पेट भर कर खुले में शौच करने जाते रहे।
       साध्वी के सामने ज्वलंत प्रश्न है, वे जानना चाहती हैं कि यह मल किसका है? आस्तिक का या नास्तिक का? कौन बतायेगा? क्या बाढ आने न आने के परिणाम तक प्रतीक्षा करना पड़ेगी? दूसरा कोई टेस्ट नहीं है? मलेच्छों के आने के बाद हमारे देश का प्राचीन विज्ञान नष्ट हो गया, बरना कोई विधि होती। बत्रा जी की किताबें जो गुजरात के स्कूलों में लगा दी गयी हैं, और मध्य प्रदेश में लगायी जाने वाली हैं, में बताया गया है कि पहले हमारे यहाँ मोटर कारें बनती थीं क्योंकि अनाश्व रथ की चर्चा पुराणों में आयी है। हवाई जहाज और टीवी होने के बारे में तो पहले ही विश्वास रहा है क्योंकि संजय द्वारा महाभारत के युद्ध का आँखों देखा हाल और पुष्पक विमान के बारे में ग्रंथों में लिखा है। आस्तिकों और नास्तिकों के मल परीक्षण की विधि भी जरूर किसी ग्रंथ में छुपी हुयी होगी। मंत्रीजी गलत नहीं हो सकतीं। हो सकता है कि बत्रा जी की अगली किसी किताब में मिल जाये। पहले इस जगत गुरु देश में सब कुछ था, हमें देश को वहीं ले जाना है।
       साध्वी का चिंतन जारी है- रेल दुर्घटनाएं भी शायद इसीलिए बढ रही हैं क्योंकि रेल के डिब्बों में अस्तिकों और नास्तिकों के शौचालयों में भेद नहीं किया गया है और दोनों ही समान रूप से उसी में आते जाते रहते हैं। हाँ एक बात साध्वी की समझ में नहीं आती कि ये नास्तिक तीर्थस्थलों में क्यों जाते हैं? क्या ये बाढ लाने के लिए ही जाते हैं। इनका जाना बन्द करवा दिया जाये तो बाढ आना बन्द हो जाये। मध्य प्रदेश की एक विधायक ने तो गरबा में प्रवेश रोकने की माँग कर ही दी है। पहले साध्वी इस तरह की बातें सार्वजनिक रूप में करने से कतराती थी, पर जब से देश के प्रधानमंत्री ने देवालयों के पहले शौचालयों के बाद लाल किले की एतिहासिक प्राचीर से देश को सम्बोधित कर दिया तो वह चिंतन करने लगी।  
       साध्वी की चिंताएं बढती जा रही हैं और गुरु व गोबिन्द कोई भी नहीं है जो बता सके कि हल क्या है?  
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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सोमवार, मार्च 03, 2014

व्यंग्य - अन्ना की रतौन्धी

व्यंग्य
अन्ना की रतौन्धी
वीरेन्द्र जैन
       कहते हैं कि, कभी किसी को मुक्कमिल जहाँ नहीं मिलता, कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।      कुछ लोग जन्म से सूरदास होते हैं, पर उनके अन्दर की दृष्टि इतनी प्रखर हो जाती है कि वे आँखों वाले लोगों से ज्यादा देख लेते हैं। दृष्टिहीन बताये जाने वाले महाकवि सूरदास ने कुछ देख कर ही कहा होगा कि-
आज हरि नयन उनींदे आये ,बिनगुन माल, पयोधर मुद्रा, कंगन पीठ गड़ाये
किंतु कुछ लोग होते हैं जो आँख होते हुये भी आँखों पर महाभारत कथा की गान्धारी जैसी पट्टी बाँध लेते हैं या रामकथा के लक्षमण की तरह केवल चरणों से ऊपर ही नहीं देखते और वर्षों साथ रह कर भी अपनी माता तुल्य भाभी को भी नहीं पहचान सकते।
       अन्ना हजारे का हाल भी कुछ कुछ लक्षमण जैसा ही है, अपनी बेटी तुल्य ममता बनर्जी से भले ही कोलकता जाकर पैर छुआ आये हों पर वे ममता को पैरों से अलग देख ही नहीं पाते। और पैर तक तो लक्षमणजी सीमित थे, अन्ना तो हवाई चप्पल से ऊपर ही नहीं देख पाते। उन्होंने ममता की हवाई चप्पल देखी और उनके भौंपू बनने के लिए निकल पड़े। सुनो सुनो सुनो, हर आम और खास को इत्तिला की जाती है कि कहा सबने पर किया केवल ममता ने, और जो बंगाल में किया वह पूरे देश में करेंगी, सुनो सुनो सुनो।
       अन्ना को अपनी रतौन्धी में हरियाणा के उद्योगपति केडी सिंह नहीं दिखे जो झारखण्ड से राज्यसभा के लिए जीमएम के टिकिट पर चुने गये और बाद में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गये थे। ईमानदार अन्ना को पता ही नहीं कि आयकर छापों के बाद देशहित के लिए बाइस करोड़ रुपये सरेंडर करने वाले के डी सिंह का यह उत्थान पूरी झारखण्डी परम्परागत ईमानदारी से हुआ था। पर अन्ना को तो केवल बाटा या लखानी की हवाई चप्पलें ही दिखती हैं। अन्ना को नहीं दिखता कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के दौरान इन्हीं केडी सिंह के पास से चुनाव आयोग ने हवाई अड्डे पर सत्तावन लाख रुपये नगद बरामद किये थे और तृणमूल कांग्रेस को नोटिस दिया था। अन्ना को यह भी नहीं पता होगा कि उनकी बेटी बहुत अच्छी पेंटर भी हैं और उनकी पेंटिंग पिछले दिनों एक करोड़ रुपये में बिकी थी जिसे खरीदा था बंगाल की उस चिटफंड कम्पनी के संचालक ने जिस पर कई हजार करोड़ रुपयों का घोटाला करके लाखों लोगों कंगाल बना दिया है। चप्पलदर्शी अन्ना को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री की सादगी दिखाई ही नहीं देती।
       अन्ना को यह भी नहीं दिखता कि गत 21 दिसम्बर 2013 को ममता द्वारा शासित बंगाल के हावड़ा जिले में जिस टक्सी ड्राइवर की बेटी के साथ बलात्कार हुआ था उसकी रिपोर्ट करने की कोशिश में दुबारा बलात्कार हुआ और बाद में उसे ज़िन्दा जला कर मार डाला गया पर ममता की पुलिस ने तब तक उस पर ध्यान नहीं दिया जब तक कि उस पर एक आन्दोलन खड़ा नहीं हो गया। अन्ना को नहीं दिखता कि खुद ममता ने उस आन्दोलन को राजनीति से प्रेरित और उनकी सरकार को बदनाम करने की साजिश वाला बतलाया था।
       शक तो मुझे पहले भी हुआ था जब रामलीला मैदान के अनशन ड्रामे के दौरान मुम्बई महानगर पालिका के कमिश्नर रहे अपनी ईमानदारी के लिए मुख्यमंत्रियों से टकराने वाले खैरनार ने कहा था कि अन्ना अनशन के दौरान जो पानी पीते हैं वह शुद्ध पानी ही नहीं होता अपितु उसमें बहुत कुछ शक्तिवर्धक मिला होता है। पर अब समझ में आया कि उनका नहीं उनकी दृष्टि का दोष था, जिसे वे पानी समझ कर पी रहे थे। शायद इसी दृष्टि दोष के कारण उनको पता नहीं चला होगा कि अनशन के ड्रामे के दौरान जो भरपेट पूड़ी सब्जियां खिलायी जा रही थीं उनका इंतज़ाम संघ के लोग कर रहे थे। उन दिनों जब ‘मैं अन्ना हूं’ नाम की टोपियां पहनायी जा रही थीं तब एक कार्टून प्रकाशित हुआ था जिसमें ‘मैं अन्ना हूं’ कि टोपी को नकारते हुये उसके सामने खड़ा हुआ व्यक्ति प्रतिउत्तर में कह रहा है- और मैं अन्धा हूं। अब ऐसी कोई विडम्बना नहीं है, अन्ना और अन्धा एक हो गये हैं।
       अब सुना है कि वे उन सारे स्थानों पर ममता की पार्टी के लोगों को खड़ा करवाने जा रहे हैं जहाँ जहाँ से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार भाजपा को टक्कर देने जा रहे होंगे वे वहाँ वहाँ जाकर उनका प्रचार करेंगे, और अरविन्द की काट की तरह पेश किये जायेंगे।
       वो तो अच्छा हुआ कि महोदय ने समय रहते सेना की ड्राइवरी की नौकरी छोड़ दी बरना पता नहीं अपनी दृष्टि दोष में सेना के वाहनों को कहाँ गिराते! जनरल वीके सिंह को भी लगता है कि समय रहते उनकी दृष्टि क्षमता के बारे में पता चल गया इसलिए वे उनको छोड़कर भाजपा में सम्मलित हो गये जहाँ सारे गिद्ध दृष्टि, वको ध्यानम वाले लोग हैं।
       काश वे ममता की जगह जयललिता के पास पैर छुलाने गये होते तो वो उनको चेन्नई के प्रसिद्ध शंकर नेत्र चिकित्सालय भेज कर इलाज तो कर देतीं। सम्भावनाएं अभी बाकी हैं।     
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, जनवरी 05, 2014

व्यंग्य -- पड़ौसी प्रेम

व्यंग्य                         
                              पड़ौसी प्रेम
                                                                     वीरेन्द्र जैन


            जिनसे हमारे सबंध खराब होते हैं, वे मुझे पड़ोसी की तरह लगने लगते हैं क्योकि किसी पड़ोसी से हमारे सबंध कभी अच्छे नहीं रहे। इस मामले में हमारा हाल भारत सरकार जैसा है न उनके सबंध पड़ोसियों से अच्छे रहते है, और न हमारे। पाकिस्तान से तो हमारे खराब सम्बंधों का इतिहास उतना ही पुराना है कि जितना कि खुद पाकिस्तान। फिर हमें अपने शत्रुओं की संख्या में कुछ कमी नजर आयी तो हमने पाकिस्तान को दो टुकड़े होने में अपना पूरा आत्मीय समर्थन दिया जिससे हमारे एक ही जगह दो दुश्मन हो गये। पाकिस्तान हमारे सैनिकों की लाशें सिर काट कर भेजता है तो बंगलादेश भी हमारे सैनिकों केी लाशों को बांस पा टांग कर वापिस भेजता है। त्रिपुरा और असम, नागालैण्ड और मणिपुर सहित सभी उत्तरपूर्व  के आंतकवादी उसी तरह बंगलादेश में मेहमाननवाजी करते है, जैसे कि कश्मीर के आंतकवादी पाकिस्तान में। श्रीलंका के सैनिक हमारे प्रधानमंत्री को बट प्रहार से सलामी देते हैं और भूतपूर्व प्रधानमंत्री हो जाने पर उन्हें बम से उड़ा देते है। नेपाल के बहुत सारे लोग सुबह सुबह उठकर भगवान पशुपतिनाथ का नाम बाद  में लेते हैं, हमारे देश को गाली पहले देते है। मुझे गर्व है कि मैं भी सच्चा भारतवासी हूं, और मेरे पड़ोसी भी मुझे अपने देश का सच्चा प्रतिनिधि बनाये रखने में पूरा योगदान देते हैं।

            अपने देश की सरकार जैसा सुख मुझे भी अपने पड़ोसियों से प्राप्त है चाहे वे हमारे दायें वालें हो या बायें वाले उपर वाले हों या नीचे वाले। मै बड़ी शान से कह सकता हूं कि देश की नीतियों पर ठीक तरह से चलने वाले नागरिकों में मेरा वही स्थान है जो गाजर के हलुवे  में काजू का होता है। पड़ोसियों के दो ही तो कर्तव्य होते हैं- एक-सार्वजनिक सुविधाओं का अधिकतम हिस्सा अपने लिए हड़पना और दूसरा- ऐसा ही करने वाले अपने पड़ोसियों को न करने देना- और कर रहें हों तो उनसे लड़ना।

            मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है जिसका अर्थ होता है कि कोई उसके पड़ोस में रहता है तथा वह किसी के पड़ोस  में रहता है। इस आस पास अलग- अलग रहने को ही सामाजिकता और प्रकारान्तर में पड़ोस कहते हैं। इन सामाजिक प्राणियों के सामाजिक सम्बध होते है जो आमतौर पर '' करेले और नीम चढ़े '' के होते है। एक तो बेचारा नीम पूरी बेल को अपने ऊपर चढ़ाये रहता है तथा फिर भी उसके मूल दुर्गण को बढ़ने में अपने ऊपर दोष भी सहता है।

            इतिहास बताता है कि पड़ोसियों के बीच पुरान समय में ही सम्बंध अच्छे नहीं रहते थे। यही कारण है कि ईसा मसीह को अपने भक्तों से कहना पड़ा कि अपने पड़ोसियों से प्रेम करो। अगर वे पहले ही ऐसा करते होते तो ईसा मसीह को ये उपदेश देने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

            फिल्मों में भी पड़ोस के प्रेम के ज्यादा उदाहरण नहीं मिलते। देवदास, तेरे घर के सामने, पड़ोसन प्यार दिये जा आदि में भी पड़ोसी और पड़ोसिनों के प्रेम के उदाहरण जरूर मिलते हैं पर पड़ोसी पडोसी  के बीच तो दुश्मनी  ही चलती रहती  है। पड़ोसी के बीच ईर्षा चलती है, द्वेष चलता है, चुगलियां चलती है, पर प्रेम नहीं चलता।

            बहुमंजिले भवनों और नई कालोनियों में रहने वाले तो जन्मजात शत्रु ही होते है। उनके घरों के दरवाजे खुले कम और बन्द ज्यादा रहते हैं आमने सामने रहने वाले शर्मा जी को वर्मा जी की और वर्मा जी को शर्मा जी शक्ल कम और दरवाजे पर लटकी नेम प्लेट ज्यादा नजर आती है। पड़ोसियों के कारण ही दीवारों  में कान हुआ करते थे और अब तो दरवाजों में आंख पैदा हो गयी है। वर्मा जी दरवाजा खोलने से पहले देख लेते हैं कि शर्मा जी तो नहीं निकल रहे और यही काम शर्मा जी के दरवाजे की आंख से भी होता है।

            रहीम ने तो '' निन्दक नियरे राखिये '' कहकर पड़ोसी के चरित्र चिंतन में कोई कसर ही बाकी नहीं छोड़ी। घर छोड़ कर हिमालय की कन्दराओं में बसने की जरूरत  पड़ोसी के कारण ही पड़ती होगी क्योकि पडोस छोड़े बिना शन्ति कहॉ सम्भव है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, जनवरी 01, 2014

व्यंग्य---- जीवेत शरदः शतम

व्यंग्य
जीवेत शरदः शतम

वीरेन्द्र जैन
       मेरे जन्मदिन पर रामभरोसे का शुभकामना सन्देश आया है। उस सन्देश में लिखा है- जीवेत शरदः शतम। संस्कृत के टीचर से अनुवाद कराने पर पता चला कि इसका अर्थ होता है कि आप सौ शरद ऋतुओं तक जियें। रामभरोसे चालाक है, गाली भी शुभकामना की तरह देता है। वह कहना चाहता तो कह सकता था कि आप सौ बसंत देखें, पर उसने ऐसा नहीं कहा। भाषा में शब्दों के चयन का बड़ा महत्व है। जैसे माला बनाने के लिए गेन्दा गुलाब के फूल ही चुने जाते हैं तथा सब्जी बनाने के लिए गोभी का फूल चुना जाता है। लड़कियों के बारे में जब भी बात की जाती है तो कहा जाता है कि उसने सोलह सावन या बसंत देखे हैं। उनके साथ शरद ऋतु को नहीं जोड़ा जाता, जब उनकी त्वचा खुश्क हो जाती है और चिपचिपाहट कम हो जाती है। सर्दी में वैसे भी लड़की कम से कम दिखाई देती है क्योंकि उसके शरीर का बड़ा भाग मोटे मोटे ऊनी कपड़ों से ढँका रहता है। पैरों में मोजे और हाथों में दस्ताने होते हैं। आइसक्रीम और चाट के ठेलों पर केवल उनकी आत्मा घूमती है जो अदृश्य होती है। झुटपुटा होते ही उन्हें निर्भया होने का डर सताने लगता है और वे अपने अपने घरों में घुस जाती हैं।
       रामभरोसे दिल से यही चाहता भी होगा कि मैं जीवन के सौ शरद देखूं, क्योंकि उसे मालूम है कि सर्दी के मारे मेरी केवल एड़ियां ही नहीं फँटतीं, अपितु पूरा शरीर काँपने लगता है। दाँत बजने लगते हैं और हड्डियां कड़कड़ाने लगती हैं। स्वेटर, टोपा और कोट पहन कर मैं ऊदबिलाव  बना फिरता हूं, तथा समझ में आता है कि पश्चिम के ठंडे देशों में दिगम्बर साधुओं और नागा बाबाओं की जगह सांताक्लाज क्यों होते हैं। सर्दियों में ठंड के मारे बिल्लियों का रोना और बुजुर्गों का मरना एक साथ होता है और हम दोनों का सम्बन्ध जोड़ कर शकुन अपशकुन मानने लगते हैं। रामभरोसे शुभकामनाओं के बदले कठिन परीक्षा ले रहा है। सौ बसंत जीना आसान होता है लेकिन सौ सर्दियां निकालना मुश्किल होता है- विशेष रूप से साठ की उम्र पार करने के बाद। हर सर्दी के बाद लगता है कि इस साल तो बच गये।  
       गर्मियों में तन और गरीबी ढँकना अपेक्षाकृत सरल होता है। कम कपड़ों में तन ढँक जाने पर यह जाहिर नहीं होता कि इसके पास कपड़े नहीं हैं, पर सर्दियों में पोल खुल जाती है। वर्षों पुराने बाबा आदम के ज़माने के कोट में हाथ डाले डाले आप कितने दिन तक अपनी औकात छुपा सकते हैं। गर्मियों में झोला झौआ बनियान पहिन कर भी यदि आप मुस्कान ओढ सकते हैं तो लोग यही कहेंगे कि बुद्धिजीवी भाईसाहब लूजर पहिने हुये हैं। पर अगर सर्दियों में ऐसा किया तो लोग तुरंत पूछ्ने लगेंगे कि क्या यह कोट इज्तिमा से खरीदा है। गर्मियों में एक रुपये के नींबू से चार गिलास नमकीन शिकंजी बना कर अच्छे मेजबान हो सकते हैं पर सर्दियों में चार काफी साठ रुपये से कम की नहीं पड़ती। दिन में जब कुनकुनी धूप विटामिन डी लुटा रही होती है तब आप दफ्तर में ठिठुर रहे होते हैं और जब शाम को ठंडी हवायें हड्डियां कँपाती हैं तो आपको सब्जी ब्रेड बगैरह खरीदने बाहर जाना पड़ता है और सोचना पड़ता है कि रिटायरमेंट के कितने दिन और बचे हैं?
       मैं रामभरोसे को अच्छी तरह समझता हूं, उसकी हर बात में पेंच होता है। मैं भी उसके जन्मदिन पर बदला लेने का सोच रहा हूं। उसे शुभकामनाएं दूंगा कि वह दो सौ सर्दियों तक जिये और उन वर्षों में सर्दियों के दिन भी दुगने हों। उत्तरप्रदेश के अधिकारियों का वह बयान भी साथ में नत्थी कर दूंगा जिसमें उन्होंने कहा है कि सर्दियों से कोई नहीं मरता।
वीरेन्द्र जैन
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