गुरुवार, अक्तूबर 15, 2015

व्यंग्य वो जिनका रखा हुआ है

व्यंग्य
वो जिनका रखा हुआ है
वीरेन्द्र जैन
पहले दो तरह के संस्कृतिकर्मी हुआ करते थे। एक् वे जिन्हें मिल गया था, और दूसरे वे जो उसके लिए हींड़ते रहते थे। हींड़ना नहीं समझते हैं।
अगर आप बुन्देलखण्ड में नईं रये हैं तो हींड़ना नहीं समझ सकते हैं। वैसे तो यह तरसने जैसा शब्द है किंतु उससे कुछ भिन्न भी है। तरसने वाला तो तरसने को प्रकट भी कर देता है जैसे बकौल कैफ भोपाली-
हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे
वो फलाने से, फलाने से, फलाने से मिले
किंतु हींड़ने वाला तरसता भी है और प्रकट भी नहीं करता। मन मन भावै, मुड़ी हिलावै वाली मुद्रा बुन्देलखण्ड में ही मिलती है। और यही मुद्रा क्या दूसरी अनेकानेक मुद्राएं भी बुन्देलखण्ड की मौलिक मुद्राएं हैं। ये अलग बात है कि बुन्देलखण्डियों ने उनका पेटेंट नहीं करवाया है। इन्हीं मुद्राओं के कारण ही इस क्षेत्र में हिन्दी व्यंग्य के भीष्म पितामह हरिशंकर परसाई जन्मते हैं, रागदरबारी जैसा उपन्यास इसी क्षेत्र के अनुभवों पर ही लिखा जाता है, और बरामासी जैसा उपन्यास किसी दूसरे क्षेत्र के जीवन पर सम्भव ही नहीं हो सकता।
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, पर यह तो बात न होकर गैस हो गयी कि निकलने भर की देर थी और इतनी दूर तक चली आयी। पर यह गैस नहीं है, इसलिए ज़िन्न को वापिस बोतल में ठूंसते हैं।
तो जी हाँ मेरा मतलब पुरस्कारों से ही था जो कभी कुछ लोगों को मिल जाता था और बहुत सारे लोग उनको तरसते रहते थे। तरसने वाले अपनी झेंप दो तरह से मिटाते थे। एक तरफ तो वे कहते थे कि पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं है, बेकार की चीज हैं, दूसरी तरफ वे कहते थे ये तो चापलूसी से मिलते हैं, सरकार के चमचों को मिलते हैं, साहित्य के नाम पर नहीं विचारधारा के नाम पर मिलते हैं, जब सरकार बदलेगी तो वह हमारी प्रतिभा को पहचानेगी आदि। पर सरकारें आती जाती रहीं किंतु पुरस्कारों और उन लोगों का रिश्ता कम ही बन सका। ऐसे लोग तत्कालीन सरकार का विरोध करते थे उसे जम कर गालियां देते थे व अपने आप को संत होने का दिखावा जैसा करते थे, पर निगाहें हमेशा पुरस्कारों पर लगी रहती थीं । वे गुपचुप रूप से आवेदन करते रहते थे। सिफारिशें करवाते थे, क्योंकि सरकार प्रतिभा को पहचान ही नहीं रही थी अर्थात पुरस्कार नहीं दे रही थी। किंतु जब उन्हें भूले भटके मिल जाता था तो वे सारा विरोध भूल कर ले आते थे।
फिर परीक्षा की घड़ी आयी। जो सचमुच जनता के लेखक थे, जिनका लेखन उनके पुरस्कारों से नहीं पहचाना जाता था, उन्होंने सरकार की निर्ममता, उदासीनता और तानाशाही प्रवृत्ति के विरोध में पुरस्कार वापिस लौटा दिया तो वे बड़े संकट में आ गये। जैसे तैसे तो मिला था, उसे लौटायें कैसे? हरिशंकर परसाई ने इसी संकट को आत्मालोचना के रूप में उस समय लिखा था जब ज्यां पाल सात्र ने नोबल पुरस्कार लौटा दिया था। उन्होंने लिखा, यह ज्याँ पाल सात्र बहुत बदमाश आदमी है, इसे नोबल पुरस्कार मिला तो इसने उसे आलू का बोरा कह कर लौटा दिया। ये मेरे चार सौ रुपये मरवाये दे रहा था। मुझे सागर विश्वविद्यालय से चार सौ रुपये का पुरस्कार मिला था किंतु सात्र की देखा देखी मेरे अन्दर भी उसे लौटा देने का जोर मारा और मैं भी उसे लौटाने वाला था किंतु सही समय पर अक्ल आ गयी और मैं पुरस्कार ले आया। उस पैसे से मैंने एक पंखा खरीदा जो आजकल ठंडी हवा दे रहा है जिससे आत्मा में ठंडक पहुँच रही है। मैं ठीक समय पर बच गया।
उदय प्रकाश इस दौर के सात्र हैं। उनके दुष्प्रभाव से जिनकी आत्मा बच गयी उसे ठंडक पहुँच रही है। उन्होंने ड्राइंग रूम में सजे पुरस्कारों को उठा कर अलमारी में रख दिया है। वे रात में अचानक उठ जाते हैं, और अलमारी खोल खोल कर देख लेते हैं कि रखा हुआ है या नहीं। इस साली आत्मा का कोई भरोसा नहीं कब आवाज देने लगे, कब जाग जाये और बेकार के जोश में कह दें कि- ये ले अपनी लकुटि कमरिया बहुतई नाच नचायो। बच्चों से कह रखा है कि कोई ऐसा वैसा आदमी आ जाये तो कह देना, आत्मा को ठंडक पहुँचाने हिल स्टेशन पर गये हैं और मोबाइल भी यहीं छोड़ गये हैं। कोई मिल भी जाता है तो कह देते हैं कि आजकल पितृपक्ष के कढुवे दिन चल रहे हैं, इन दिनों में कोई लेन देन का काम नहीं होता। फिर नवरात्रि का पावन पर्व आ गया, मुहर्रम आ गया बगैरह बगैरह। स्वास्थ नरम गरम चल रहा है। हत्याएं तो होती रहती हैं, पहले भी हुयी थीं, बगैरह बगैरह। इन दिनों दिमाग में कविताएं, कहानियां नहीं बहाने कौंधते रहते हैं। मुख्यधारा पुरस्कार लौटाने की चल रही है और इतनी मुश्किल से मिला हुआ कैसे वापिस कर दें? चाहे पूरी मानवता लुट पिट जाये, पुरस्कार नहीं छूटता।
एक कंजूस व्यापारी के पास डाकू आये और गरदन पर बन्दूक रख कर पूछा- बोलो जान देते हो या पैसा? व्यापारी बोला जान ले लो, पैसा तो मैंने बहुत मुश्किल से कमाया है।
वे मानवता की कीमत पर पुरस्कार को सीने से लगाये बैठे हैं। छूटता ही नहीं। 
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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